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अनुभव

उगते हुए सूरज को देखते ही एक धक सी हुई और एक गूँज कानों को चीरती हुई आई और फिर वही फ्लैशबैक, वही स्मृतियाँ और मीरा। सावधान! रात के राजा चंद्रमा पर विजय पाते हुए दिन के राजा सूरज महाराज पधार रहे हैं। दरबान मुर्गे का कुकड़ू कू करते हुए गर्दन झुकाकर पंख फैलाकर दिन के दरबार में सूरज का स्वागत और पक्षियों का शुरू हुआ कलरव, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि कोई स्वागत गीत। अब मंदिर की घंटियाँ बजेंगी निखिल, जैसे अपने राजा की किसी जीत पर लोग नगाड़े बजाते हैं।
"आह! रोज़-रोज़ यह दृश्य मेरे मन को सबसे ज्यादा मोह लेता है निखिल।"
"तुम्हें हर जगह कल्पना के बड़े-बड़े पहाड़ ही क्यों अच्छे लगते हैं मीरा? कभी प्रेक्टिकल भी हो जाया करो।"
निखिल ने जैसे भारी ऊब के साथ चिढ़कर कहा हो। लेकिन मीरा तो बस अपने कल्पना लोक में ही उस नन्ही छोटी सी चिड़िया की तरह फुदक फुदक कर उड़ रही थी जिसे पहली बार ऊँची उड़ान भरने का मौका मिला हो, कभी फुदककर इस पेड़ कभी उस पेड़ कभी खुले आसमान में उड़कर दुनिया का खूबसूरत नजारा देखकर पागल हुए जा रही हो।
"उफ़्फ़! तुम बड़ी जल्दी चिढ़ जाते हो," मीरा ने प्यार से अपने मुँह को बायीं ओर मटकाते हुए कहा और बोली, "तुम्हें पता है? मैं रोज-रोज तुम्हारी तरह केवल सैर करने नहीं बल्कि हम दोनों के आपस के प्रेम को सूरज के इस बढ़ते हुए प्रकाश के साथ दौड़ लगवाने आती हूँ, क्योंकि मैं जानती हूँ कि शाम को सूरज के ढलने के साथ ही यह प्रकाश भी दौड़ते हुए थक जाएगा और मेरा प्रेम जीत जाएगा और सुबह उठकर फिर से कहेगा, प्रकाश चलो आज फिर दौड़ लगाते हैं। तुम नहीं जानते निखिल इस कल्पना में कितनी तृप्ति है।" सूरज सर पर चढ़ आया है, "चलो! मुझे यूनिवर्सिटी के लिए देर हो रही है। आज मेरे गाइड के साथ मेरे फाइनल पी-एच.डी. सबमिशन पर इंपॉर्टेंट बात करनी है।"
निखिल ने उठते हुए ऐसे कहा जैसे कि मीरा की बातों का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। "उफ़्फ़! तुम भी ना, चलो चलें," मीरा ने उठते हुए कहा और दोनों वापस अपने-अपने गंतव्य यानी निखिल हॉस्टल की ओर तथा मीरा अपने छोटे से किराए के कमरे की ओर चल दी।
अचानक सूरज की बढ़ती हुई किरणों का मीरा के मुँह पर जोरदार तमाचा और तमाचे के डर से ज़ोर से आँखें मींचती व अपने बाएँ हाथ से अपने चेहरे का बचाव करते हुए तथा साथ ही अपनी स्मृतियों से तेज दौड़कर भागती हुई मीरा की नज़र दीवार पर टंगी घड़ी की ओर जाती है; ओह माय गॉड नौ बज गए। कॉलेज बस का टाइम हो गया। आधे घंटे में बस आती ही होगी। मीरा...! मीरा..!. मीरा...! मानसिक तौर पर बीमार हो गई हो लगता है? पिछले दो घंटे से खिड़की के पास खड़ी कब से सूरज को ही देखे जा रही हो! मीरा ज़ोर-ज़ोर से स्वयं को कोसते हुए और बाथरूम में नहाने के लिए एक हाथ में तौलिया और कपड़े लिए भागते हुए स्वयं से कहती है और कहेगा भी कौन? स्वयं के अलावा! इस घर में आखिर है ही कौन? रसोई घर में कुछ बर्तन, एक अलमारी किताबों और कपड़ों से खचाखच भरी हुई, ऐसा लगता है, मानो! शायद ही अकेलापन खलता होगा उसको, एक पलंग और अंत में मीरा। रात को यह बेसुध अंतर्मन जाए भी तो कहाँ? नींद, पलंग पर बैठी माँ- सी कोशिश करती है कि सुला दे, लेकिन यह बिगड़ैल अंतर्मन अपनी सुध-बुध खोया सा, कभी इधर तो कभी उधर करवटें ही बदलता रह जाता है। खिड़की से आई सूरज की पहली किरण और चिड़ियों के कलरव से सुधी पाया अंतर्मन जब बेमन से नजर घुमाता है, तो नींद को सोया हुआ पाता है। बेचारी! रात भर जागी जो है। खैर! यह सिलसिला है, बदलने की उम्मीद है और उम्मीद पर दुनिया कायम है।
मीरा बस पकड़ते हुए, चलो! सही टाइम पर पकड़ ली। एक राहत की साँस और उसके बाद मंद सी हँसी, जो रोज़ाना इसी बस में बैठे अन्य विद्यार्थियों के लिए मात्र एक औपचारिकता थी। पहले बस में बैठते ही पहली नजर निखिल को ढूंढती थी और झट से मीरा प्यार भरी मुस्कान बिखेरती हुई चुपचाप निखिल से सट कर बैठ जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं है। निखिल को पी-एच.डी. उपाधि मिले दो साल हो गए और यूनिवर्सिटी छोड़े हुए भी और हाँ, मीरा को छोड़े हुए भी। मीरा भी अंग्रेजी से पी-एच.डी. में आखिरी वर्ष में है। अभी दिल्ली की इस उफनती मई माह की गर्मी के बाद दिसंबर की कड़ाके की ठंड के साथ शोध पूरा होने की पूरी संभावना है और निखिल की यादों से पूरी तरह दूर जाने की भी। जो आज भी चलते-फिरते मीरा को छेड़ ही जाती है मुई, यादें ना हो गईं सड़क पर चलते-फिरते बदमाश हो गई। जो अकेली जाती हुई लड़की पर फब्तियाँ कसने से बाज नहीं आते और कहते हैं “अरे, अकेले-अकेले कहाँ जा रही हो, हमें भी साथ ले लो।” "हाय! मीरा।" मीरा ने अपनी सीट पर बैठते हुए घूमकर देखा और प्रत्युत्तर में "हाय!" बोलकर झट से मीरा ने अपना मुँह कुछ इस तरह फेरा कि जिससे साहिल कुछ और पूछते हुए भी झिझके। मीरा क्यों ये नकार सब के लिए? अगर प्रथम पुरुष कुछ होता है तो अंतिम का भी अपना अस्तित्व होता है। किसी एक के नकार के बाद दूसरे को भी पूर्वाग्रहों के चलते ठोकर मार देना, यह कहाँ का न्याय है? आखिर! आखिर मुझ में कमी ही क्या थी? आकर्षण का सोता थी मैं, सब ही तो कहते थे, आस-पड़ोसी, स्कूल, कॉलेज, कितनी तो लड़कियाँ भी जल-जल मर जाती थी। कब किस लड़के ने आह नहीं भरी बोलो! दैहिक संबंधों को क्या भावनात्मक संबंधों की सीढ़ी से होकर नहीं गुजरना चाहिए? या पहले देह का समर्पण और उसके बाद भावनाओं का आदान-प्रदान, अब ‘तू मेरी रानी और मैं तेरा राजा।’ छि! यह कैसा प्रेम था? क्या देह संबंध कैलाश पर बैठे शिव की तरह तथा भावनाएँ वह दुर्गम रास्ता नहीं हो सकती जिन्हें पार करते हुए पार्वती को शिव मिल जाएँ? बोधा ने भी तो कहा है- “प्रेम को पंथ कराल हैं जो तरवार की धार पर धावनो है।” मेरा मन भी तो सुंदर था। शायद! शायद इस रूप देह से ज्यादा। लेकिन उसे देह ही दिखी होगी शायद? उसका मन बीमार हो क्या पता? वह देख न पाया हो मेरे भीतर तक, मन की आंखें बीमारी से झुक-झुक जा रही हों क्या पता? तुम अपने ही अंतर्मन को देखो मीरा, कभी निखिल को दोषी कहती हो कभी उसके मन को। अभी छोड़ो भी। फिर से एक मंद हँसी और झट से याद आया साहिल। वह बेचारा क्या सोचता होगा भला? एक बार मन हुआ भी कि पीछे मुड़कर देखा जाए, बिलकुल एक सीट पीछे ही तो बैठा था साहिल, हिस्ट्री डिपार्टमेंट के उस झल्ले से रिसर्च स्कॉलर के साथ, जिसे स्वयं की अजीबो गरीब सूरत पर इतना तो विश्वास था ही कि पूरी यूनिवर्सिटी की लड़कियों में शायद ही कोई उसे नजरें उठाकर भी देखे। एक हीन भावना का भाव उसके चेहरे पर हमेशा टंगा रहता था। जैसे बरसात के मौसम में सीलन भरी दीवार पर टंगा पुराने बीते साल का कैलेंडर जो अब किसी काम का नहीं ठीक से याद नहीं आ रहा, शायद दीपक नाम है इसका, उसी दिन तो सुना था, जब कैंटीन में चाय पीते हुए इसी के किसी संगी साथी ने ज़ोर से इसका नाम लेकर पुकारा था और मेरा ध्यान अनायास ही उस ओर खिंच गया था। तब से जब भी इस इन्सान को या इसी के जैसे किसी और को देखती हूँ तो ये ख्याल ज़रूर आता है कि इस दुनिया में बस काया की ही माया है और वर्तमान समय की विडंबना देखी जाए तो जिसके पास सुंदर काया नहीं उसके अंतर्मन को भी लोग जानने का प्रयास भला क्यों करें? किसी को क्या पड़ी है, बशर्ते किसी ऊँचे पद पर विराजमान हों। वहीं दूसरी और सुंदर काया वालों की सीरत से भी लोगों को कहाँ कुछ लेना-देना है? स्वार्थ ही संबंधों का आधार है। ऊपर से स्त्री काया हो तो बल्ले-बल्ले! अन्दर तक चीड़फाड़ करने की जरुरत ही क्या है? मन का क्या? शरीर से तो दो-चार हो ही लें। एक धक् सी और अजीब सी कैफियत क्यों हो जाती है, साहिल तुम्हारे बारे में सोचते हुए? मीरा साहिल पर पुनः सोचते हुए। कुछ तो ऐसा है, तुम्हारे व्यक्तित्व में जो मुझे फिर से खींचता है उस ओर, जहाँ से भाग कर आने में मुझे दो वर्षों का समय लगा। मोहभंग के पश्चात लौटी हूँ। मैं जानती हूँ, कि तुम फिलहाल मेरी ओर आकर्षित हो और मैं यह भी जानती हूँ, कि ऐसा क्यों है। कभी-कभी तो अपने इस सुंदर व आकर्षक चेहरे व डील-डौल पर खीझ होती है। हर कोई खिंचा चला आता है। मेरे मन को भी तो पाने की कोशिश करो कोई, जैसे पाना चाहते हो मेरा यह सुंदर शरीर। तुम्हारी आँखों के भाव पकड़ने में सक्षम हूँ, समय के फेर ने इतना तो सिखा ही दिया है। उस दिन इंग्लिश डिपार्टमेंट के सेमिनार में मेरे ही सहपाठी राशिद के साथ तुम लेक्चर सुनने आए थे और राशिद ने तुम्हारा और मेरा परिचय मात्र औपचारिकतावश कराया था। तभी मुझे पता चला, कि तुम हैदराबाद यूनिवर्सिटी से पी-एच.डी. ट्रान्सफर की प्रक्रिया के द्वारा यहाँ दिल्ली यूनिवर्सिटी पहुंचे हो। तुम्हारे हाथ मिलाने के स्पर्श से ही मैंने बहुत कुछ महसूस कर लिया था। तुम्हारे चेहरे के भाव व स्पर्श की मलिनता महसूस की थी मैंने, लेकिन वह मलिनता मेरे पूर्वाग्रहों के चलते मेरा भय था या कुछ और? यह बात जब द्वंद्व उत्पन्न करती है तो जी करता है कि इस बार मैं हाथ मिलाऊँ तुमसे, जब कभी भी कोशिश करते हो मुझसे बात करने की और लौट जाना पड़ता है मेरे प्रत्युत्तर में छोटी सी मुस्कान लेकर तुम्हें। क्या पता मेरा भय आश्वासित हो जाए कि मेरा इतिहास स्वयं को दोबारा नहीं दोहराएगा।
मीरा अपनी आंखें बंद किए, अपनी सीट पर बैठे-बैठे अपने सर को बस की सीट पर टिकाए विचारों की उधेड़ बुन में लगी थी। कि एक जोर का ब्रेक और सभी बस यात्री अपनी-अपनी सीट पर धक्के के साथ अपने को संभाल कर उठने का प्रयत्न कर बस से नीचे उतरने लगे। यूनिवर्सिटी सामने थी, मीरा भी इसी क्रम में बस से उतरती है, लेकिन फिर पीछे मुड़कर नहीं देखती। परंतु साहिल उसे तब तक देखता है, जब तक कि वह आंखों से ओझल नहीं हो जाती।/p>

प्रिया राणा, 901/E, राणाप्रताप गली, 2, छज्जूगेट के पास, बाबरपुर, शाहदरा, दिल्ली – 32 Email : priyarana1504@gmail.com Mo. 9717535818