कमलेश्वर की कहानियों में कस्बाई जीवन
शहरों में तेजी से होते औधोगीकरण से कस्बों और गाँवों की सभ्यता और संस्कृति का नगरीकरण हो रहा है । गाँव टूट रहे हैं और कस्बों और नगरों का विकास हो रहा है । रोजी रोटी की तलास में शहर आए युवा जब लौटकर कस्बे या गाँव जाते हैं तो अपने साथ शहर की सभ्यता और संस्कृति साथ ले जाते हैं । जिसके कारण गाँव और कस्बे की संस्कृति धीरे धीरे समाप्त होकर नगरीकृत होती जा रही है । इन सब चीजों को होते हुए भी गाँव और कस्बों में रहने वाले व्यक्ति की अपनी पहचान बनी रहती है ।
कस्बों की अपनी विशिष्ट पहचान है । महानगर अब अपना व्यक्तित्व खो चुके हैं । देहात पिछड़े हुए हैं । उनकी प्रगती के लिए सभी दिशाओं से प्रयास किये जा रहे हैं । परंतु सभ्यता यहाँ जन्म नहीं ले रही है । वास्तव में इस देश की नयी सभ्यता, नयी संस्कृति इन कस्बों में ही निमार्ण हो रही है । एक ऐसी नयी संस्कृति जिसमें देहात और महानगर की अच्छाइयाँ हैं । ये कस्बे ही इस देश की सांस्कृतिक क्रांति का नेतृत्व करने वाले हैं । हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार कमलेश्वर ने इस पृष्टभूमि को आधार बनाकर अपनी कहानियों में नवीन कस्बाई जीवन को प्रस्तुत करके नये भारत का ताजा दृश्य देने का प्रयास किया है । कमलेश्वर कस्बाई जीवन के कहानीकार माने जाते है । उनकी कहानियों के केन्द्र में आम आदमी की बात है । उनकी कहानियाँ मानव जीवन के प्रति प्रतिबद्ध है । जिन्दगी के सभी पक्ष और सभी स्तर यहाँ व्यक्त हुए हैं । इस सम्बन्ध में कमलेश्वर लिखते है कि-
“जीवन के प्रति प्रतिबद्ध होना मेरी अनिवार्यता है । इस टूटते, हारते, अकुलाते मनुष्य की गरिमा में मेरा विश्वास है ।’’1
कमलेश्वर ने अपनी कहानियों में जिन्दगी के यथार्थ के पर्दे उघाड़ने में निर्ममता से काम किया है । कमलेश्वजी अपनी कहानियों में दो संदर्भ लेकर आते है । पहला संदर्भ अधिक तरल, संवेदनशील और करुण है और दूसरा संदर्भ कठोर क्रूर और संवेदनशून्य है । प्रत्येक कहानी इसी कारण दो स्तरों पर अर्थ देती है । इसलिए उनकी कहानियाँ एक ओर व्यक्ति की असहायता और दूसरी ओर सामाजिक जीवन की क्रूरता को स्पष्ट करती है । इसी संदर्भ में उनका कहानी संग्रह ‘मांस का दरिया’ में वे लिखते है कि-
“मुझे झुके हुए मस्तकों से सहानुभूति है, हारे हुए यौद्धाओं से स्नेह है- क्योंकि मेरी दृष्टि में उनका झुका हुआ मस्तक शर्म का विषय नहीं, शर्म और क्रोध का विषय है वे दुर्दांत कारण जिन्होंने उनके अस्तित्व के लिए हर तरह के संकट खड़ा कर दिया है ।”2
कमलेश्वरीजी ने अपनी कहानियों में आर्थिक स्थिति के कारण टूटते हुए व्यक्तियों को अपनी कहानियों में चित्रित किया है । आर्थिक स्थिति के आधार पर ही वे आम आदमी और खास आदमी का विभाजन करते हैं । ‘देवा की माँ’ से लेकर ‘इतने अच्छे दिन’ तक की कथायात्रा में मध्यम वर्ग के दुःख दर्द, आर्थिक विषमता में पिसते मानव का चित्रण उनकी अधिकांश कहानियों में हुआ है ।
‘देवा की मां’ कहानी में देवा की मां दरियाँ बुनकर चरखा चलाकर आर्थिक विषमताओं के आगे लड़ती है । मां बेटे का पेट नहीं भरती बल्कि देवा को आर्थिक संकट में पढ़ाती भी है । बेकारी की वजह से देवा को नौकरी कही पर नहीं मिलती । कमलेश्वर ने आर्थिक रूप से हारे हुए व्यक्तियों का यथार्थ रूप में चित्रण किया है-
“यहाँ ये सारे परिवार एक-दूसरे से बेहतर जलते थे, कुढ़ते थे, पर वक़्त की मार ने उनकी जबानों को कुन्द कर रखा था.....। यही वजह थी कि जवान होते हुए भी, देवा के बेकार रहने को, लोगों ने बड़ी निसंग स्वाभाविकता से स्वीकार कर लिया था ।”3
देवा की मां पति से अलग रहकर अपने पुत्र देवा को पाल रही है । उसके पति ने दूसरी शादी करके दूसरी जगह पर रहने के लिए चला गया है । देवा बड़े होने पर जब क्रांतिकारी बनकर किसी आन्दोलन में गिरफ़्तार हो जाता है , तभी वह आर्थिक मदद के लिए अपने पति को ख़त लिखती है –
“देवा करहल तहसील में गिरफ्तार हो गया है । कुछ कहने नहीं गया । थोड़े दिन पहले पंडितजी से यह ख़बर मिली है । वह यह भी कहता है कि दो सौ रूपये जुर्माना दे दिया जाय तो देवा की आधी सज़ा कट जायेगी ।”4
किन्तु उसकी ओर से नकारात्मक उत्तर मिलने पर उसका कायाकल्प हो जाता है । पति की घड़ी की जंजीर को समय-समय पर देखती हुई, रूहड़ नोचते हुए, चर्खा चलाते हुए वह अपनी जिन्दगी गुजार रही थी, परंतु अब उसने जंजीर को बेच कर भावना के बचे-खुचे सूत्र ख़तम कर दिये । वह चरख़ा कातकर रोज़ी कमाने लगी । चरखे का कातना एवं तुलसी की छाया तले मां की सिंदूर भरी माँग का चमकना इसी बात का संकेत है कि नारी का आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है ।
‘राजा निरबंसियां’ कमलेश्वर की आर्थिक दबावों को स्पष्ट करने वाली यथार्थवादी कहानी है । भारत जैसे देश में हर कस्बे के अस्पतालों में रोगियों के लिए आवश्यक सुविधाएँ नहीं हैं । ऐसे अस्पतालों के डॉक्टर और कम्पाउण्डर जरूरतमंदों से किसी-न-किसी प्रकार का फायदा उठाते ही हैं । एक भारतीय स्त्री अपने शारीरिक पवित्रता से भी पति की जिंदगी अधिक प्यारी और महत्वपूर्ण है । कमलेश्वर की इस कहानी के पात्र अधिकतर आर्थिक दुरावस्था के शिकार है । इसी आर्थिक दुरावस्था के कारण उन्हें जीवन मूल्यों को त्यागकर परिस्थिति से समझौता करना पड़ता है । प्रस्तुत कथा-वस्तु के मूल में यही आर्थिक असमानता के दर्शन होते हैं । चंदा का पति कहानी के अंत में आर्थिक रूप से परेशान, कर्ज से लदा हुआ कहता है -
“किसीने मुझे मारा नहीं है...... किसी आदमी ने नहीं । ..... मैंने अफ़ीम नहीं, रूपये खाये हैं, उन रूपयों में क़र्ज का जहर था, उसीने मुझे मारा है ।”5
चंदा अगर अपने पति के लिए आवश्यक सभी दवाइयाँ खरीद सकती तो यह कहानी घटित ही नहीं होती । इस भयानक आर्थिक स्थिति को आज हम नकार भी नहीं सकते ।
‘धूल उड़ जाती है’ कहानी में नसीबन का आर्थिक जीवन-संघर्ष यथार्थ रूप में चित्रित हुआ है । बच्चन हिन्दु-मुस्लिम विष के कारण गाँव छोड़कर भाग जाता है, तब यही नसीबन उसके बच्चों को पनाह देती है और साथ ही बच्चन की सहायता के लिए अपनी जमा पूंजी भी भेज देती है । कस्बे में गरीबी की धूल भी उड़ रही है, कमलेश्वर के शब्दों में -
“ग़रीब के लिए क्या कुछ होना है ..... उसे तो सिर्फ बर्बाद होना है ...... नस्ल बिगड़ती जाती है, लौड़े अवारा हो गये हैं ।”6
‘गर्मियों के दिन’ कहानी में मरीज के इन्तजार में सारी दुपहरी बिना-भोजन के गुजारा देने वाले बेकार वैधराज का आर्थिक जीवन-संघर्ष निरूपित किया गया है । कस्बे के जीवन की आर्थिक मजबूरियों और बेबसी का वैध के माध्यम से चित्रण हुआ है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कमलेश्वर ने कस्बों में आर्थिक मजबूरी में पिसते हुए आम आदमी के संघर्ष को अपनी कहानियों में यथार्थपरक शैली में चित्रण किया है ।
संदर्भ संकेतः :
1. धर्मयुग – नवम्बर 1964 कथादशक, आत्मकथ्य – कमलेश्वर, पृ. 31
2. मांस का दरिया – कहानी संग्रह- आत्मकथ्य- कमलेश्वर, पृ. 8
3. राजा निर बंसिया – कहानी संग्रह- कमलेश्वर, पृ. 01
4. वहीं. पृ. 11
5. वहीं, पृ. 110
6. वहीं. पृ. 36