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‘मुक्तिपर्व’ उपन्यास की मूल संवेदना

भारत देश एक बिनसांप्रदायिक, बहुभाषिक और वर्णव्यस्था पर आधारित राष्ट्र होने के नाते बहुत सारी विविधताएँ है | विविधता के कारण लोगों की मानसिक स्थिति भी वैसी ही थी | वर्णव्यस्था के कारण समाज में ऊँच-नींच, छूआछूत और श्रीमंत-गरीब के बिच अंदरूनी अलगाव ने अपनी जगह बना ली थी, जिसका इतिहास गवाह है | आपस में फूट, अंतर्द्वन्द्व और जातिव्यवस्था के कुरिवाज के कारण ही अंग्रेजो ने भारत पर हुकूमत चलाई थी | अंग्रेजो ने पूरे भारतवासियों को गहरी प्रताड्नाएं और गुलामी भरा जीवन दिया | बाद में अंग्रेजो से छूटकारा तो पा गए लेकिन भारतवासियों के लोगों के मन में बसी ज्ञातिप्रथा और वर्णव्यस्था से समाज के निम्न ज्ञाति के लोगों को सामाजिक तौर पर स्वतंत्रता नहीं मिली |

भारत देश के कईं उन्नायकों और समाज सेवकों ने इस जटिलता को नाबूद करने का प्रयास किया | महात्मा फूले, राजर्षि शाह, डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों ने दलित सामज की व्यथा को समझा | उनके विकास के लिए अपने अधिकार और शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई जिसका स्वर साहित्य में गूँज उठा | उच्चवर्ग कहा जानेवाला और आर्थिक तौर पर समृद्ध वर्ग के विकास से यह नहीं कहा जाता कि भारत देश विकसित हो गया | किसी एक जाति के विकास से देश का विकास नहीं होता और यही बात डॉ.बाबासाहब अम्बेडकर कहते है – ‘दलितों का उत्थान राष्ट्र का उत्थान है |’

दलित चेतना के बारे में ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते है कि – “जो दलितों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छबि के तिलस्म को तोड़ता है वही दलित चेतना है | दलित मतलब मानवीय अधिकारों से वंचित सामाजिक तौर पर जिसे नकारा गया है | उसकी चेतना यानि दलित चेतना |”१

समकालीन हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य विशेष रूप से उभरकर सामने आया है जिसमें दलित समाज की व्यथा, यातनाएँ और आक्रोश साहित्य के माध्यम से व्यक्त हुआ है | मोहनदास नैमिशराय कृत ‘मुक्तिपर्व’ उपन्यास इसी संवेदना को व्यक्त करता है | देश के आजाद होने के बाद भी दलित समाज का शोषण यथावत है | देश के सारे समाज को अंग्रेजों से मुक्ति मिल गई है लेकिन दलित समाज को सवर्णों की पीड़ा से मुक्ति मिली नहीं है यही बात लेखक बताते हुए कहते है – “हम मुक्तिपर्व किसे कहें? जब देश आजाद हुआ उसे या जब किसी जाति या कुछ जातियों को आजादी मिली उसे | मुक्ति से आखिर तात्पर्य क्या है, एक आदमी की मुक्ति की या एक विशेष जाति की | यह सवाल पाठकों के मन में बार-बार उठेगा | यह सवाल आजादी के बाद से लेकर अब तक दलितों के भीतर उठता रहा है, जो उनकी भावनाओं को समय समय पर उद्वेलित करता रहा है |”२

इस उपन्यास का देशकाल आजादी के कुछ दिन पूर्व और आजादी के बाद का है | उपन्यास का पुरुष पात्र बंसी जो एक दलित परिवार से है | वह नवाब अली खां के यहाँ नौकर का काम करता है उतना ही नहीं कई बार उसको नवाब के गुस्से और डाँट का शिकार भी होना पड़ा है | नवाब अली खां बंसी को ‘गुलाम’ कहकर उसका मजाक भी उड़ाते है | बंसी ने एक बार उसका प्रतिरोध भी किया था तब नवाब ने चिलम उठाकर मुहँ पर मारा था | जिसके कारण खून भी निकल आया था | देश की आजादी के बाद भी दलितों का यह करूँण द्रश्य उनके भविष्य के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर देता है | पूरे भारत देश में मुक्ति की खुशियाँ बट रही हैं लेकिन दलित समाज के लिए कोई मुक्तिपर्व नहीं है | रचनाकार ने यहाँ पर स्वतंत्रता के बाद भी दलितों की वास्तविक स्थिति का करुणमय चित्र दर्शाने की कोशिश की है |

उपन्यास की नारी पात्र सुंदरी है, जो बंसी की पत्नी है| उसकी कोख में एक बच्चा पल रहा है | वह माँ बननेवाली है यह बात से वह बहुत खुश है | ठीक आजादी के पहले ही दिन वह बच्चे को जन्म देती है | वह खुश के साथ साथ दुखी भी है | दुःख इस बात का है कि, उसके गर्भ का नवां महिना चलने की वजह से ज्यादा दर्द हो रहा था, उतना ही नहीं सुंदरी आजादी के पहले दिन का सूरज भी नहीं देख पायी थी और ख़ुशी इस बात की कि, उसके बेटे का जन्म आजादी के दिन ही हुआ है और जो यातनाएँ, पीड़ाएँ उन्होंने सही है वह उसके बेटे को नहीं भुगतनी पड़ेगी |

सामाजिक रीत-रिवाज और परंपरा के अनुसार सुंदरी ने जो बच्चे को जन्म दिया था उसके नामकरण के लिए एक पंडित आया था और साथ मे गाना गाने और नाचने की लिए हिजड़े आये थे, लेकिन नामकरण की विधि के लिए पंडित मुख्य बन गए और हिजड़े गौण बन गए | इसी परंपरा और रीति-रिवाज को तोड़ते हुए दलित समाज यहाँ दिखाई देता है | मानो बरसों से चली आ रही हुकूमतशाही और सामंतीप्रथा को शिकार हुए पक्षी की तरह क्षण में ऊपर से नीचे जमीन पर गिरा दिया | दलित समाज ने पंडित द्वारा दिया हुआ नाम ‘बुद्दू’ न रखकर उन्होने खुद ‘सुनीत’ नाम रख दिया | आज पंडित को न तो दान-दक्षिणा मिली न तो पुराना मान-सम्मान | आजादी का सूरज मानो सवर्ण समाज को क्षीण और जीर्ण करता जा रहा था वहीँ दूसरी ओर दलित समाज को जोश और ताकत दे रहा था | “साठ बरस से चली आ रही पंडिताई की कीमत आज दो कौड़ी की भी नहीं रही थी | बस्ती पर काबिज रहा| पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसका दबदबा टूट गया | धर्म की बिसात उलट गई थी | इसलिए कि आज एक पंडित बाजी हार गया था और दलित जीत गया था |”३

दलित वर्ग भले ही अशिक्षित है लेकिन फिर भी वो आजादी का मतलब तो जानते ही है तभी पंडित से इस प्रकार का व्यवहार करके सदियों पुराने रिवाज को एक झटके में तोड़ दिया | मानों कई सालों से दबी वेदना, कुचली यातनाएँ और दुर्व्यवहार आजादी के रंग में बाहर निकल आई | सवर्ण कहे जानेवाले लोग पढ़े लिखे होने के बावजूद भी अंधविश्वास एवं कुरिवाजों से पले बड़े थे | पंडित केशव प्रसाद ब्राह्मण होने के बाद भी अशुभ मुहूर्त, सुबह में किसी भंगन का मूँह देखना, छींक खाना, कुत्ते या बिल्ली के द्वारा रास्ता काटना, विधवा औरत का मुँह देखना आदि अनेक अंधविश्वासों में जीते हैं जिसका जिक्र उपन्यास में हुआ है | पंडित दलितों के घर से अनाज-पैसे लेकर जीवन चला सकते है लेकिन वही दलित के घर से अगर पानी पी लीया या उसे छू लिया तो वह अछूता बन जाता है | जहाँ फायदे की बात आती है वहाँ कोई अंधविश्वास, धर्म, नात-जात, रीति-रीवाज या छूआछूत नहीं आता | सुनीत की माँ सुंदरी भले ही पढ़ी लिखी न थी पर फिर भी अंधविश्वास को नकारती थी | समाज के लोग सुनीत को किसी की बुरी नजर से बचाने के लिए, उसकी लम्बी उम्र के लिए कोई तावीज या काला धागा लेकर आता तो उसे पाखंड कहकर नकार देती और उसमें विश्वास न करती |

दलित समाज की बस्ती में एक स्कूल खुलनेवाली थी | सब तैयार था लेकिन कोई अध्यापक इस बस्ती में आने को तैयार न था क्योंकि, सब अध्यापक सवर्ण थे | सवर्ण अध्यापक होने के साथ साथ वह मानसिक तर्क से पिछड़ेपन थे | वे नहीं चाहते थे कि कोई भी दलित पढ़े, दलितों की शिक्षा उनके लिए समस्या थी, वो जानते थे कि अगर दलित पढ़ लिखकर आगे आ गए तो उनका वर्चस्व कम हो जायेगा और यही बात बताते हुए लेखक कहते है “वे सभी अध्यापक सवर्ण थे | जो सरस्वती वंदना करते थे | माथे पर तिलक लगाते थे, जनेऊ पहनते थे, चोटी रखते थे, गाय को माता कहते थे, सर्प को दूध पिलाते थे, कुत्तो को अपनी गोद में बिठाते थे, पर दलितों से वे घृणा करते थे |”४

बंसी जब शहर में जाता है तो देखता है कि शहर में मस्जिद और मंदिर दोनों है लेकिन दलितों को वहाँ जाना गुनाह है | उनके हिस्से में न तो मंदिर-मस्जिद है न ही देवी-देवता | दूर से मंदिर की मूर्ती और मस्जिद की ऊंचाई को देखकर दुखभरी नजर से देखता और सोचता ही रह जाता | बंसी अपनेआप को मन ही मन में कोसता है | सुनीत के माँ-बाप नहीं चाहते थे कि जैसी जिन्दगी उन्होने जी है वैसी जिन्दगी सुनीत जिए | उसके लिए बंसी और सुंदरी सुनीत को पढ़ा लिखाना चाहते है | सुनीत एक तेजस्वी लड़का है | वह सवर्णों के अन्याय और शोषण का विरोध करता है | सदियों से चले आ रहे कुरिवाजों को वो खत्म करना चाहता है, वह दलित समाज की मुक्ति का पथदर्शक बनता है | उतना ही नहीं वह संघर्षों का सामना करके गुलामी की जंजीरों को तोड़ के सम्मान पूर्वक जीना चाहता है | जहाँ भी कूछ गलत होता है सुनीत तुरंत उसके सामने आवाज उठाता है | उनके पुरखों ने जो अत्याचार सहे उनसे अब वो छुड़वाना चाहता है |

पंडितजी बंसी को गागर के बजाय नलकी से पानी पिलाता था तो उस पर सुनीत गुस्से हो गया था | दूसरे दिन सब दलित बच्चों, मास्टरजी को लेकर पंडित के घर जाते है और पंडित जी के आँखों के सामने सुनीत नलकी खींच कर फैंक देता है जिससे पंडितजी हतप्रभ रह जाते है | अपने समाज को आगे लाने के लिए हरदम अग्रिम रहता | सुनीत अब आजादी का सही अर्थ जानने लगा है और अपने समाज को सवर्णों की गुलामी और इन कुरिवाजों से मुक्ति दिलाना चाहता है | इतना ही नहीं सुनीत के साथ साथ अब गाँववालें भी एकजूट हो रहे थे और इस जातिवाद की अक्षिण दिवार को तोड़ने के लिए सामने आये है | इस बात से सुनीत के माँ-बाप बहुत खुश थे और सुनीत पढाई में भी बहुत मन लगाता था | बस्ती के चार बच्चों ने पाचवीं की बोर्ड की परीक्षा पास कर ली थी | उसमे सुनीत सबसे अव्वल आया था | सचमें सुनीत दलित समाज के लिए मुक्ति दिलानेवाला मशीहा के रूप में आया है |

स्कूल की उच्च शिक्षा के लिए दूसरे गाँव जाना पड़ता था तो वहाँ भी उसको बहुत मुसीबतों का सामना करना पड़ा था | स्कूल के मास्टर साहब ने उसको ‘चमारों वाला स्कूल’ से आये बताया तो उसको बहुत बूरा लगा था | सवर्णों की मानसिकता ने फिरसे वही पिछड़ेपन का एहसास करवाया था लेकिन उसकी कक्षा में एक सुमित्रा नाम की लड़की थी जो उसकी संवेदना को समजती थी यह जानकर सुनीत को अच्छा लगा था | स्कूल में सुनीत के साथ घटी घटना को जानकर उसके घरवालों को बहुत दुख होता है, मानो दुखों का पहाड़ आ पड़ा हो | वह दुखी होकर सोचते है कि “लोगों को दुःख होता है हमारी आजादी से | पशु पक्षीयों की आजादी उन्हें भाती है | चिड़ियों को वे पिंजरे से मुक्ति कर देते हैं, पर हमारी मुक्ति के सवाल पर चुप्पी साध लेते है | हम स्वयं कुछ कहे तो हमें आँखे दिखाते है, हम पर आगबबूला हो बरसते हैं | जैसे हम काठ के हों | हमारे भीतर संवेदनाएँ ही न हों | हमारे जिस्म में खून ही नहीं बहता हो | हम कोई मुर्दा हैं | अब हम गुलाम तो नहीं”५

सुनीत के पिता बंसी ने अम्बेडकर और गाँधीजी की किताबें पढ़ी थी | उनके बारे में बंसी अपने पुत्र सुनीत को बताता जिसके कारण सुनीत भी उनकी तरह सोचता और समाज को आगे बढ़ाना चाहता था | अपने समाज को सवर्णों की निम्न बौद्धिकता से दूर कराना चाहता था | अम्बेडकर के सिद्धांत और मूल्यों का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा था | हर घड़ी सुनीत अपने समाज और लोगों के बारे में सोचता | रात को देर तक पढाई करता | उनके घर में लाइट कनेक्शन न होने की वजह से मिट्टी के तेल से जलनेवाली डिबरी के प्रकाश से वह पढ़ना पड़ता | बहुत गरीबी और अपमान झेला था उस बस्ती ने | अम्बेडकर के कर्म सिद्धान्तों पर चलके वह अपने समाज को आगे लाना चाहता था लेकिन सवर्ण समाज भी कहाँ उनको आसानी से जाने देता | स्कूल में सुनीत छहमाही परीक्षा में प्रथम आया था | उसको योग्यता के आधार पर स्कोलरशिप का फार्म भरना था तब भी मास्टरजी से कहा-सुनी हो गई थी | सुनीत सच्ची बात को बताने में कभी घबराता न था, बल्कि पूरे विश्वास और द्रढ़ मन से बात बताता और यही द्रढ़ता उनके विश्वास को मजबूत बनाता |

सुनीत ने अपनी योग्यता के आधार पर स्कोलरशिप का फार्म भरा था वह खटकता था इसलिए वह फार्म पर दस्तखत नहीं कर रहे थे | वह सुनीत को क्रूरता की नजर से देखते थे | उतना ही नहीं जब सुनीत सालाना परीक्षा में प्रथम श्रेणी में आया तो अध्यापक पाण्डे को अच्छा नहीं लगा था और सुनीत को कहा “अभी तो शुरुआत है बच्चू, आगे आगे देखना |”६ सुनित की मेहनत और दृढ़ निश्यय उसके काम को पार करता आगे बढ़ता है | एक के बाद एक घर परिवार अब सवर्णों की गुलामी को छोड़ रहे थे | पहले बंसी ने गुलामी छोड़ी, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने और धीरे धीरे हर दलित अपने पैरों पर खड़े हो कर सवर्णों का सामना करने लगे | पूरी बस्ती में एक रामलाल ही ऐसे थे जो उस दलितों की भावनाओं को समज सकते थे | वैसे तो वे भी सवर्ण ही थे लेकिन उन सवर्णों की तरह दलितों से ऊँच-नीच का वर्तन नहीं करते | सारे बस्तीवाले रामलाल पर पूरा विश्वास और हमदर्दी जताते | एकदिन रामलाल की मृत्यु हो जाने पर सारे दलितों पर जैसे एक आघात का बादल सा बरस गया | पूरा दलित समाज शोकमय बनकर दुखी हो गया |

सुनीत की हिम्मत और पढ़ने की लालसा से बस्ती के लोगों को सुनीत पर ज्यादा विश्वास आने लगा था | परिवार तथा ज्ञाति के स्तर पर हुए अपमान और अनुभव से वह और भी बुद्धिमान और तेजस्वी होता जा रहा था | यह देखकर बस्ती के हर घर के लोग अपने बच्चे को पढ़ने के लिए स्कूल भेजते | मजदूरी और कामकाज करने के बजाय बच्चे को अच्छी, शिक्षा की बात और ईमानदारी से जीने की सूझ देते थे | हर माँ-बाप अपने बेटे को सुनीत के उदाहरण के द्वारा पढ़ाई में तरक्की करने को बताते | सातवीं कक्षा में सुनीत ने दूसरा नंबर पाया था तो वहाँ के अध्यापक और सवर्ण बच्चों ने सुनीत का हँसी-मजाक भी उड़ाया था | यूं कहे कि, दलितों के हर एक कदम पर तिरस्कार और संताप था | दलितों को आगे आते हुए देखकर सवर्णों को अच्छा नहीं लगता था | एकबार वही स्कूल में करनारे के लड़के को बड़ी मुश्किल से दाखिला मिला था | उस समय भी दाखिला करने का कार्य भी पाण्डे साहब को ही दिया गया था | फिर बड़ी कहासुनी करने के बाद सुनीत के द्वारा हेडमास्टर की कृपा से कारनार के बेटे उछालसिंह को दाखिला मिला | दलित के बच्चे का दाखिला की बात पूरे सवर्ण जाति और स्कूल के मास्टर को खटकी थी | तभी पाण्डे साहब आक्रोश में आकर हेड मास्टर से बोले “हैड मास्टर साहब, यह स्कूल कोई भंगी-चमारों का स्कूल नहीं है, जो चाहे गिरे-पड़े किसी को भी दाखिला दे दो |”७

धीरे धीरे आजादी के साल बढ़ रहे थे लेकिन सवर्ण और दलित के बीच की दिवार भी मानो बढ़ रही थी | सुनीत अब नोंवीं कक्षा में आ गया था | जिसके कारण नयी स्कूल में जाना पड़ा था | सुनीत सोचता था कि नयी स्कूल में अब जाति-पाती का भेदभाव नहीं देखने को मिलेगा पर वह उसकी भूल थी | वहाँ भी पण्डित लोग थे जो अपने आप को सवर्ण के धरोहर मानते थे | आजादी के बाद भी उनके दिमाग में वही पुरानेवाली सोच से वर्तन करते थे | वो भले ही सवर्ण हो, शिक्षित हो, बुद्धिमान हो लेकिन फिर भी वो मानसिक तौर पर अशिक्षित के बराबर थे | स्कूल के मंदिर में जब वह जाते है तो मास्टर शिवानंद शर्मा उन्हें बहुत भला-बूरा कहकर उनको डाँटता है | सुनीत के साथ उसका मुस्लिम दोस्त हबीबुल्ला भी था | दोनों को भारी दुःख पहुचा था, वो गमगीन हो गए थे | सुनीत बार बार अपने दिमाग पर जोर डालकर अनेक प्रकार के सवाल उठा रहा था | हमारे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है? मंदिर बनानेवाले इन्सान भी तो मजदूर ही थे और वो भी दलित ही थे तो फिर ये पिछड़ापन कैसा? क्या उनको मंदिर में जाने का हक़ नहीं? वो सोचते सोचते थक जाता है, लेकिन मुश्किलें नहीं थकती| सच में सुनीत ने इतनी छोटी उम्र में बहुत मुसीबतें झेली है, मानो पूरी जिंदगी की सबक इसी काम उम्र में मिल गई हो | लेकिन फिर भी सुनीत हार नहीं मानता | वह गम खा कर भी पढाई में अपना पूरा मन लगा देता | स्कूल के अध्यापक सुनीत को प्रथम आने से रोक देते थे, उसको नंबर कम देते थे, लेकिन फिर भी सुनीत अपनी पढ़ाई कम नही करता, वह और ज्यादा मेहनत करता है |

अंत में सुनीत को अपनी मेहनत का फल मिल ही जाता है | वह स्कूल का अध्यापक बन जाता है | उसको जिस स्कूल में नौकरी मिलती है वही स्कूल में सुमित्रा को भी अध्यापिका की नौकरी मिल जाती है | वो दोनों बहुत खुश होते है | बस्ती का हर एक व्यक्ति मानो सही अर्थ में आज ‘मुक्तिपर्व’ मनाता हो | हर एक माँ-बाप अपने बच्चे को पढ़-लिख कर आगे बढ़ने की राह दिखाते है | सुनीत से प्रेरणा लेकर और उसको देखकर बस्ती के कईं बच्चे मन लगाकर स्कूल में पढने के लिए जाते है | सुनीत ने मानो अम्बेडकर के जीवन और उनके पद चिन्हों को अपने जीवन में उतारा था | शिक्षा के साथ साथ जीवन के उच्च मूल्यों को भी जीवन में उतारा था | शिक्षा के कारण उनकी बस्ती में स्वच्छता को ज्यादा महत्व देने लगे थे | अपने घर को साफ सुथरा करके कचरा, गंदा पानी आदि का निकाल करके स्वच्छ और सुंदर रखते | घर के बच्चे को भी नहला-धूला कर, अच्छे स्वच्छ कपड़े पहनाकर स्कूल भेजते थे | सच कहु तो सुनीत अपने समाज और बस्ती को पढ़ा-लिखाकर रूढ़ीवादी संघर्षमय जीवन को खत्म करके सही अर्थ में स्वंतत्र जीवन जीने का संदेशा देता है | वह अपने परिवार और समाज के लिए बहुत कूछ सहता है और उनसे मुक्ति दिलाता है | रचनाकारने सच में दलितों की मुक्ति के लिए सुनीत का पात्र सही अर्थ में चयन किया है | जिस शिक्षा के लिए सुनीत को बहुत संघर्ष करना पड़ा था उसी स्कूल में अब वह अध्यापक के रूप में अपने समाज के बच्चों को शिक्षा देता है | दलितों ने सवर्णों के चंगुलों से मुक्ति पा कर सही अर्थ में अपना मुक्तिपर्व मनाते है |

संदर्भ सूची :
१ दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.२९
२ ‘मुक्तिपर्व’ – मोहनदास नैमिशराय, अनुराग प्रकाशन, दरियागंज दिल्ली, संस्करण-२०११, पृ.२९
३ वही, पृ.३१
४ वही, पृ.३९
५ वही, पृ.६४
६ वही, पृ.७७
७ वही, पृ.१०३

जयदीप वी. चौधरी, पीएच.डी.शोधार्थी, हिन्दी विभाग, सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वि.वि.नगर, आणंद-३८८१२० ई-मेइल- jaydeepchaudhari17051990@gmail.com