तुलसीदास के कवितावली में छन्द योजना
हिन्दी साहित्य के पूर्व-मध्यकाल की सगुण रामभक्ति काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास है । हिन्दी समीक्षा क्षेत्र के धुरिकीर्तनीय विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है -
“गोस्वामीजी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य के क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए । हिन्दी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में ही पहले-पहल दिखाई पड़ा ।... तुलसीदासजी के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने सर्वतोंमुखी प्रतिभा के बल से सबके सौन्दर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए । ‘‘इन्हीं के स्वर में स्वर मिलाते हुए डॉ.विजयेन्द्र स्नातक ने भी लिखा है – ‘‘तुलसी निसर्ग सिद्ध प्रभावाले क्रान्तिदर्शी कवि थे । स्वान्तः सुखाय काव्य-रचना में लीन होने पर भी कला के समस्त बाह्य उपकरण उनकी कृतियों में इथने प्रचुर परिणाम में समाविष्ट हो गए है कि उनकी समता हिन्दी का कोई दूसरा कवि नहीं कर सकता । भाव, भाषा शैली, अलंकार, रस, पदलालित्य, कथावस्तु, विन्यास सभी कुछ शिल्पकारी के उस उच्च स्तर पर एकत्र हुआ है कि वहाँ तक पहुँचना दूसरों के लिए कठिन है । तुलसी हिन्दी-कविता कानन का सबसे बड़ा वृक्ष है – उस वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं के काव्य-कौशल की चारुता और रमणीयता चारों ओर बिखरी पड़ी है ।’’
इन दोनों प्रतिष्ठित विद्वानों के उल्लिखित मन्तव्य से इतना स्पष्ट होता ही है कि तुलसीदास हिन्दी काव्य गगन के ‘शशि’ है जिनके सामने अन्य कवि वस्तुतः ‘खद्योत सम’ ही हैं और हिन्दी काव्य कला की सम्पूर्ण शक्ति और चारुता इनकी रचनाओं में पराकाष्ठा पर पहुँची हुई है । तभी तो तुलसी के लिए कहा गया है –
‘‘कविता करके तुलसी न लसै ।
कविता लसी पा तुलसी की कला ।
गोस्वामी ने प्रबन्ध तथा मुक्तक-दोनों प्रकार की पद्धतियों में रचना की है । तुलसी विरचित बारह ग्रन्थ प्रसिद्ध है – रामचरितमानस, विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली (कवित्त रामायण), गीतावली, रामलाल नहछू, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपनी, कृष्ण गीतावली और रामाज्ञा प्रश्नावली । इनके आकार में प्रथम पाँच बड़े और शेष सात छोटे हैं ।
‘कवितावली मुक्तकों का संग्रह है । समय-समय पर तुलसी ने रामकथा के जिन विविध प्रसंगो और देशकाल एऴं भक्ति सम्बन्धी अपने विचारों को भक्ति छन्दों में ढाला, आगे चलकर उन्हें ही उत्तरकांड को छोड़कर शेष कांडों में रामकथा को उसके क्रम में ही आकार दिया गया है । अयोध्याकांड के प्रसंग है तो सुन्दरकांड में सुन्दरकांड के केवल इतनी सी क्रमबद्धता और रामकथा से ही प्रसंगों की संग्राहकता के अतिरिक्त इसमें कहीं भी किसी प्रकार की आख्यात्मक पूर्वा-परापेक्षिता नहीं है ।’
तुलसी का प्रमुख लक्ष्य है अपने आराध्य राम के शक्ति, शील और सौन्दर्य में से किसी एक रूप की प्रशंसा, महिमा और प्रतिष्ठा, ‘मानस’ में शील, ‘गीतावली’ में सौन्दर्य और कवितावली में शक्ति रूप की प्रतिष्ठा की गई है । अतः इसमें राम का केवल ऐश्वर्य रूप ही अधिक निखरा है । ‘कवितावली’ के पहले कवित्त के पहले ही शब्द ‘अवधेस’ और अंतिम कवित्त के अंतिम शब्द ‘दियो सरतषु’ तक ऐश्वर्य भावना का ही प्रसार है । अतएव मुक्त का स्वरुप ही इसके लिए आवश्यक था ।
तुलसी के पूर्व कविता के लिए अनेक पद्धतियाँ प्रचलित थी । इन्होंने एक-एक करके सबको अपनाया, इनमें परिष्कार किया और इसे रामचरित कहा । चरणों एवं भाटों की कवित एवम् छप्पयवाली शैली, सूरदास जैसे भक्त कवियों की पदावली शैली, निर्गुण संतों की दोहा शैली, रहीम जैसी बरवैवाली शैली तथा जायसी जैसे प्रेमकथा वाले कवियों की दोहा शैली, प्रमकथा वाले कवियों की दोहा ‘चौपाई वाली’ शैली – ये पाँच मुख्य शैलियाँ उस वक्त प्रचलित थीं । इनके साथ व्रज और अवधी दो भाषाओं का व्यवहार होता था । तुलसी ने इन्हीं पाँच शैलियों और दो भाषाओं को लेकर काव्य-रचना की है । चारणों और भाटोंवाली कवित्त एवं छप्पयवाली शैली में इन्होंने ‘कवितावली’ की रचना की है । ‘कवितावली’ न तो पूर्णतः प्रबन्ध काव्य है और न ही पूर्णतः मुक्तक । यद्यपि मुक्त काव्य के अधिकांश लक्षण ‘कवितावली’ में लक्षित होते हैं, अतः विद्वानों ने इसे मुक्त काव्य माना है ।
इस शैली में वीरगाथाकाल में प्रबन्ध काव्यों की रचना हुई थी, किन्तु बाद में इस शैली में ‘गीतकाव्य’ का प्रचलन हो गया, जिसमें श्रृंखलाबद्ध कथाएँ नहीं मिलती थी । केवल मोटी-मोटी घटनाओं को यत्र-तत्र रख दिया जाता था । आगे चलकर यही शैली मुक्त कहलाने लगी । कवियों का ध्यान घटना-विशेष के वर्णन की ओर अधिक रहने लगा । यही शैली ‘कवितावली’ में पाई जाती है । अतः सभी विद्वानों ने एकमत हो ‘कवितावली’ को मुक्त काव्य माना है ।
‘कवितावली’ के मुक्तक काव्य होने के कुछ प्रमाण मिलते हैं, इनके अनुसार ‘इसमें नियमानुसार मंगलाचारण नहीं है । तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ के प्रत्येक काण्ड में मंगलाचारण दिया है, किन्तु ‘कवितावली’ के आरम्भ में मंगलाचरण का एक भी छन्द नहीं है । इस आधार पर सिद्ध होता है कि यह रचना प्रबन्ध रूप, में नही अपितु मुक्तक रूप में ही लिखी गई है ।
कथा-श्रृंखला की दृष्टि से भी एकसूत्रता नहीं है – इसमें केवल मोटी-मोटी बातें ही छन्दों में मिलती हैं । दो-एक स्थानों को छोड़कर कोई भी छन्द दूसरे से कथा के लिए सम्बद्ध नहीं है । भरत-मिलन प्रसंग, अहल्योद्वार, कैकेयी-दशरथ संवाद आदि की कमी भी इस बात को स्पष्ट करती है कि इसमें प्रबन्धात्मकता का अभाव है । दूसरी ओर एक ही बात को अनेक प्रकार से दुहराया गया है । प्रबन्ध में ऐसा नहीं होता ।
वस्तुतः तुलसी ने कवित, सवैया और छप्पय में जो रामायश गया था अथवा जो रामचरित समय-समय पर कहा था केवल वही नहीं अपितु इन छन्दों में जितनी भी कवित्त लिखी गई थी, उसे एक स्थान पर एक कर दिया गया है । इसका नाम ‘कवितावली’ रखा गया है ।
मुक्त काव्य के रूप में ‘कवितावली’ के स्वरूप की चर्चा करने के लिए मुक्तक के लक्षणों के आधार पर ‘कवितावली’ का मूल्यांकन करना होगा ।
मुक्तक काव्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है- ‘‘मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नही होती, जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है र हृदय में एक स्थायी प्रभास ग्रहीत करता है ।... इसमे तो रस के छींटे पड़ते हैं जिससे हृदय कालिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है । यदि प्रबन्धकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता ।’’
मुक्तक स्वतंत्र होते हुए भी अपने आप में स्वतः पूर्ण होता है । ‘कवितावली’ का प्रत्येक छन्द स्वतंत्र होते हुए भी अपने आप में पूर्ण एवं भावाभिव्यंजना में पूर्णतः सफल है । मुक्तक के लिए आवश्यक सभी तत्व इसमें उपलब्ध है । इन्हीं तत्वों के आधार पर ‘कवितावली’ का मूल्यांकन करने पर हम निम्नांकित परिणाम पाते हैं – कथा-श्रृंखला का अभाव-मुक्तक में कोई भी पूर्वापर सन्दर्भ से युक्त कथा का क्रमबद्ध विन्यास नहीं होता । प्रत्येक मुक्तक अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होता है । ‘कवितावली’ में भी क्रमबद्ध कथाक्रम नहीं मिलता । ‘मानस’ की भाँति इसमें अखंड कथा-प्रवाह नहीं मिलता, किन्तु रामकथा से जुड़े हुए कथा सूत्र बिखरे हैं, जिसमें रामकथा की कुछ घटनाएँ एवं प्रसंगों का चित्रण है ।
संदर्भ ग्रंथ:
- 1. ‘कवितावली’ बालकाण्ड पद-17, पृ.11
- 2. वहीं, बालकाण्ड, पद-4, पृ.3
- 3. तुलसी संपादक – उदयभानुसिंह, पृ.240
- 4. रामचरित मानस - तुलसी, पृ.34/2
- 5. रामचरितमानस : युग संदर्भ में, डॉ. रामप्यारी दुबे, पृष्ठ-5
- 6. अध्यात्म रामायण – व्यास गीताप्रेस, गोरखपुर ।
- 7. तुलसी की साहित्य साधना, डॉ. लल्लन राय ।