भक्ति की एक भिन्न अंतर्धारा
भक्ति का प्रादुर्भाव मनुष्य की अपनी आत्म पहचान के साथ ही हुआ होगा। स्वयं के अस्तित्व की तलाश मनुष्य को उस परमसत्ता का बोध करवाती रही होगी जिसने इस सृष्टि को इतना रम्य और मनोहर बनाया है। ऋग् वेद में हम उसी परमसत्ता की उपासना पाते हैं। आ. रामचन्द्र शुक्ल ने इसे धर्म का अंतिम रसात्मक रूप माना है । वे मानते थे कि मानव सभ्यता के आरंभ काल में उपासना के दो स्वरूप रहे होंगे। एक, असभ्य मानी जानेवाली जातियों में प्रचलित रूप, जहाँ देवता या साशक पूजा से संतुष्ट होकर कल्याण करते थे। ये देवता ग्राम या कुल देवता रहे होंगे। यहाँ उपास्य और उपासक का संबंध भय और लोभ वश था। दूसरा – सभ्य जातियों का प्राकृतिक शक्तियों को – सूर्य चन्द्र आदि - की उपासना को महत्वपूर्ण मानना। यहाँ उपास्य के प्रति कृतघ्नता है। इसे भय और लोभ की भावना से उन्नत माना गया है। इसी उपासना के भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न स्वरूप देखने को मिलते हैं। आर्य जातियों नें प्राकृतिक शक्तियों को अपना उपास्य मानकर इनकी आराधना की है और इन्हें अपना उपकारक माना है। वैदिक काल में इन को रिझाने के लिए ये द्रव्य यज्ञ किया करते थे। एक और उपासना की पद्धति “अन्नोपासना ब्रह्म को अपनी अंतस्सत्ता के बाहर बाह्य जगत में देखने का विधान है” (शुक्ल. 11, 12) अन्नोपासना की ब्रह्म की भावना विष्णु रूप में प्रतिष्ठित हुई । इसी विष्णु की नकार भवना नारायण के रूप में हुई। शतपथ ब्राह्मण में इन्हीं नारायण की उपासना की गई है । यानि ब्राह्मण काल में नारायण और विष्णु का स्वरूप एक था। महाभारत काल में इसमें वासुदेव कृष्ण को भी जोड़ दिया गया। कृष्ण कथा को लेकर विद्वानों में अनेक मत-मतांतर देखने को मिलते हैं।
भक्ति के क्रमिक विकास को बताते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ में भक्ति के विकास को ब्राह्मण और क्षत्रियों के जाति वर्चस्व के संघर्ष के साथ जोड़ते हुए इसे कुछ अलग रूप में देखा है और “भक्ति–धर्म या वैष्णव धर्म को विशेष रूप में क्षत्रिय- प्रवर्तित” (बन्दोपाध्याय.602) बताया है। उन्होंने भक्तिमय पूजा को व्याख्यायित करते हुए बताया कि “देवता जब हमारे हृदय की सम्पदा हो जाते हैं, तभी आंतरिक पूजा आरम्भ होती है।” (बन्दोपाध्याय.601) उनका मानना है कि “वैष्णव धर्म में कृष्ण के नाम का आश्रय लेकर जो समस्त कथाएं प्रविष्ट हुई वे पाण्डव सखा, भागवतधर्म –प्रवर्तक, वीर- श्रेष्ठ, द्वारकावासी श्री कृष्ण की कथाएँ नहीं हैं। वैष्णव धर्म में एक ओर भगवद् गीता का विशुद्ध उच्च धर्म तत्त्व है; दूसरी ओर, अनार्य ग्वालों में प्रचलित देवलीला की विचित्र कहानियाँ भी उसमें सम्मिलित हैं।”(बन्दोपाध्याय.614) उनका मानना था कि इन अलग अलग कथाओं के समन्वय का कारण दोनों का परस्पर एक ‘सत्य-पथ’ था। यह समन्वय भावना मध्यकाल में भी आविर्भूत हुई। भक्ति धर्म की इसी उपासना का क्रांतिकारी उन्मेष इस समय में देखा जा सकता है।
भक्ति धर्म की इस नयी लहर ने समग्र देश में सामाजिक परिवर्तन की नयी चेतना पैदा कर दी थी। भक्ति का यह नया रूप था। मध्यकाल के इस समय को भक्तिकाल नाम से अभिहीत किया गया। दक्षिण से लेकर उत्तर तक अनेक संतों और भक्तों ने ईश्वर की भक्ति में अपना उद्धार माना। सुदूर उत्तर में लल्लन, उत्तर भारत में जायसी, कबीर, सूर, तुलसी, पूर्व में चैतन्य, पश्चिम में मीरा, नरसिंह, अखा, दक्षिण में बस्वेश्वर, अक्क महादेवी आदि इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। आ.शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में मध्यकाल में भक्ति के आविर्भाव को अपने पौरुष से हताश जाति का भगवान की शक्ति और करुणा में ध्यान लगाना बताया है। आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी इस से सहमत न होते हुए इस युग की राजनीतिक समस्या और शास्त्रीय समस्या को अलग- अलग रख देखना चाहते हैं। वे लिखते हैं “हम यह स्वीकार करते हैं कि मुसलमानों नें कभी-कभी अनुचित शारीरिक बल का प्रदर्शन किया था; पर उसके लिए हिन्दुओं नें शारीरिक बल से ही – भले ही वह अल्प या असंहत हो – चेष्टा की थी। वस्तुत: शास्त्रीय समस्या का कारण कुछ और ही था......... सूफिओं ने भारत के हृदय पर प्रभाव जमाया। कारण यह था कि इनका मत भारतीय साधना पद्धति का अविरोधी था। पर अविरोधी होने से क्या होगा उसका सामंजस्य टीका युग के धर्म से न हो सका। भारत वर्ष की वह धारा, जो आचारप्रधान वर्णाश्रम धर्म के विधानों के नीचे गुप्त रूप से बह रही थी, एकाएक इस सधर्मी को पाकर विशाल वेग से जाग पड़ी।” (द्विवेदी. 46 ) दरअसल, पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी भारत की राजनीतिक हार का युग भले ही रहा हो, लेकिन इस पराजय के बावजूद भारत में भक्ति के कारण जिस ऐक्य का प्रादुर्भाव हुआ वह इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसे ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने आत्म- संकुचन और अचैतन्य के बीच उसके आत्मप्रसारण की उद्बोधन चेष्टा बताया है। इसे ही डॉ. रामविलास शर्मा ने लोकजागरण की संज्ञा दी है।
यह समय प्रादेशिक भाषाओं के स्वरूप निर्माण का था। गुजराती भाषा उत्तर अपभ्रंश से अलग अपना रूप ग्रहण कर कच्छ, काठियावाड तथा गुजरात के विविध भागों में अपना आकार ग्रहण कर रही थी। इसी भाषा के प्रथम कवि होने का सम्मान नरसिंह मेहता को मिला है। वे गुजराती के प्रथम भक्त कवि हैं। भक्ति के उदय के संदर्भ में उमाशंकर जोषी ने लिखा है “मध्यकाल के अनेक कारणों के रहते, अनेक उपासना- साधना के संघर्ष-संमिलन के कारण भीतर के संचित रस का उपचित होते- होते भक्ति का स्रोत र भारत के हृदय से बह निकला। भारतीय प्रजा के जीवन का यह महान चैतन्य आवेग है। इस युग के स्त्री और पुरुष रचनाकारों की सृजनात्मकता और सौंदर्य एक एक से बढ़कर हैं।” भक्ति साहित्य के उद्भव के संदर्भ में उनका मंतव्य है कि बौद्ध धर्म पर विजय पाकर ब्राह्मण धर्म ने अपना अस्तित्व तो कायम किया लेकिन इस की संकीर्णता ने इसे उस सम्मान से वंचित ही रखा जो पहले था। ऐसे में एक ऐसे धर्म ने हिन्दूस्तान की चौखट पर कदम रखा जिसमें सरलता थी, जो जाति भेद से रहित था और एक ईश्वर की उपासना करता था। वे इस्लाम के आगमन को भक्ति के प्रेरक बल के रूप में देखते हैं। हरिवल्लभ भायाणी इस्लाम के आगमन को इस रूप में नहीं देखते वे लिखते हैं “मुस्लिम युग में जैन हों या जैनेतर सभी तरह के साहित्यकारों नें प्रजा को आश्वासन दे कर धर्म में जकड़े रखने के प्रयास स्वरूप धर्म चरितों के माध्य से महाभारत, रामायण तथा अन्य पुराण ग्रंथों के कथानकों से मध्य और उत्तर काल को भर दिया था।” श्री.के.का. शास्त्री गुजराती के निर्गुण कवि अखा के संदर्भ में कुछ इसी रूप में बात करते हैं । वे मानते हैं कि भक्ति का उद्भव नैराश्य के कारण हुआ, लेकिन उमाशंकर जोषी ने बताया कि वे यह बात निर्गुण कविओं के संदर्भ में भले ही कहें लेकिन सगुण कविओं में तो एक नयी चेतना है, एक नया उन्मेष है । श्री.गोवर्धनराम त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक Classical Poets of Gujarat में भारत में भक्ति के उद्भव का कारण बौद्ध धर्म का चिर प्रभाव माना है।वे इससे भी आगे बढ़ते हुए यह सिद्घ करते हैं कि मध्यकालीन भक्ति परोक्ष रूप से बौद्ध धर्म का बदला हुआ स्वरूप है। इतना ही नहीं सन् 1905 मे गुजराती साहित्य परिषद के अध्यक्ष पद से व्याख्यान देते हुए उन्होंने गुजरात में भक्ति के उद्भव की जड़ें गुजरात में ही तलाशी हैं। उनका मानना था कि यहाँ भक्ति का उद्भव बाहर के किन्हीं धर्म प्रवर्तकों के कारण नहीं हुआ बल्कि बोपदेव के भागवत् ग्रंथ एवम् संस्कृत ग्रंथों के प्रभाव से हुआ है।
बहरहाल, भक्ति काल के साहित्य में और अन्य धार्मिक साहित्य में जो सबसे बड़ा अंतर नज़र आता है वह यह कि जहाँ अन्य धार्मिक साहित्य रूढ़िग्रस्तता को प्रश्रय देते हैं वहीं भक्तिकालीन साहित्य इससे निजात पाने की बात करता है। इस में कोई शक नहीं कि इस्लाम के प्रभाव से भक्ति को एक वेग मिला हो और ब्राह्मण धर्म से अलग जाति और रूढियों के बंधन तोड़ने के लिये प्रेरित किया हो, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके मूल कहीं भारतीय समाज के उदारतावादी बौद्ध धर्म की भावना में रहे होंगे। शायद यही कारण है कि दक्षिण में इस के प्रादुर्भाव के समय किसी बाहरी आक्रमण की स्थिति नहीं थी।
गुजरात के आद्य कवि नरसिंह मेहता में भक्ति के एक निजी वैशिष्ट्य के दर्शन होते हैं। वे एक ही साथ ईश्वर के निर्गुण और सगुण रूप की उपासना करते हैं। उनका यह वैशिष्ट्य एक ओर उन्हें जहाँ एक भक्त की कोटि में रखता है वहीं दूसरी ओर एक दार्शनिक की भी प्रतिष्ठा दिलाता है। नरसिंह की दार्शनिकता के संदर्भ में रन्नादे शाह ने लिखा है “नरसिंह की परम तत्त्व की साधना जहाँ जनक के कुतूहल जैसी है, वहीँ वह याज्ञवल्क की भाँति वाणी एवम् आत्मा के तेज को पहचाननेवाली, उसका अनुभव करनेवाली है। नरसिंह प्रेमलक्षणा भक्ति से परब्रह्म का - निर्विकार, अनिर्वचनीय, अनादि, अनंत, अभेद्य स्वरूप का साक्षात्कार कर पाए हैं। सर्वेश्वरवाद और भक्ति की भूमि पर वे वेदांत, सांख्य और योग का समन्वय करना चाहते हों ऐसा प्रतिभासित होता है। फिर भी नरसिंह को ज्ञानमार्ग से भक्ति मार्ग अधिक प्रिय है।”( शाह. 10, 11) निर्गुण और सगुण का जो द्वन्द्व हिन्दी भक्त कवियों में है वह न नरसिंह में है, न गुजरात के अन्य भक्त कवियों में है। नरसिंह निर्गुण रूप की उपासना करते हुए गाते हैं
“अखिल ब्रह्मांडमां एक तु श्री हरी जूजवे रूपे अनन्त भासे
देहमां देव तुं, तेज मां तत्त्व तुं, शून्यमां शब्द थई वेद वासे।”
समग्र ब्रह्मांड में वे केवल श्री हरी के दर्शन करते हैं समग्र पद में वे उस परम तत्त्व को देह में देव, तेज में तत्त्व, शून्य में शब्द, तो कभी उसे ही भूमि, जल, पवन आदि रूपों में देखते हैं। छांदोग्य उपनिषद के सिद्धांत महावाक्य ‘तत्त्वमसि’ का इस में आभास है। नरसिंह को ब्रह्म का वह स्वरूप अधिक प्रिय है जहाँ वे उसे ‘जूजवे रूपे अनंत’ ( अनेक रूपों में अनंत) पाते हैं। आ.शुक्ल ने निर्गुण भक्तों की रहस्यवादी बातों को ग्राह्य नहीं समझते। वे लिखते हैं “शास्त्र ज्ञान सम्पन्न होकर भी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जिन्होंने विशुद्ध हृदय पद्धति या भक्ति मार्ग का अवलंबन किया वे हृदय के निष्कपट सीधे-सादे प्रेमभाव को ही अपने लिये भगवान का प्रसाद या अनुग्रह समझते आये। रहसज्ञता या परोक्ष-दृष्टा समझे जाने के लिये अपने मन, वचन और कर्म को कुछ वक्र और विलक्षण रूप देने की उनमें चाल नहीं चली। ऐसी बातें उनके प्रेम मार्ग की दीनता और सरलता के सिद्धांत के विरुद्ध थी। सीधा मन सीधी वाणी और सीधे कर्म इन भक्तों के लक्षण रहे।” लेकिन रहस्यवाद का इतना विरोध करनेवाले आ.शुक्ल रहस्यभावना का मूल्य बताते हुए कहते हैं “ रहस्यभावना का यदि कहीं मूल्य हो सकता हैतो भाव के क्षेत्र में- पर यदि वह उसी क्षेत्र के प्रकृत विधान में रहे और उसमें भी उपयुक्त अवसर पर योग दे।” उन्हें ऐसा रहस्यवाद सूर और तुलसी में नज़र आता है क्योंकि ये ‘ईश्वर के महत्व और असीमता की अस्फुट भावना जगाकर भक्त को आश्चर्य मुग्ध करने के लिए अज्ञात की ओर संकेत तथा भगवान को रागात्मक हृदय के बिल्कुल पास लाने के लिये कल्पना में उनके किसी मधुर और रमणीय विग्रह की प्रतिष्ठा’ कर पाए हैं। नरसिंह की रहस्य भावना भी इसी प्रकार की सांकेतिक है।
उनके पद ‘जागीने जोऊं’ की दार्शनिकता में ईषोपनीषद के ‘ईषा वास्य इदम् सर्वम्’ का मर्म प्रतिबिम्बित होता है। इस में भी नरसिंह मे दार्शनिकता से अधिक एक सधा हुआ रचनाकार दीख पड़ता है। उनकी वाणी में भाषा का उन्मेष है। यह उन्मेष उस भाषा का भी है जो अभी- अभी आकार ग्रहण कर रही थी। उन्होंनें धर्म का आश्रय भले ही अपने पुरोगामियों से लिया हो लेकिन उनकी भक्ति में नयापन था।
“ जागीने जोऊं तो जगत दीसे नहीं, ऊंघमां अटपटा भेद भासे;
चित्त चैतन्य विलास तद्रूप छे, ब्रह्म लटकां करे ब्रह्म पासे ।
नरसिंह नींद से जाग कर देखते हैं तो जगत उन्हें नहीं चीन्हता। विस्मयमय जगत विस्मयकारी ढंग से गायब हो गया है। उन्हें नींद में अटपटे आभास होते हैं। यहाँ दो विरोधी बातें परस्पर के कारण रची गईं हैं। एक ओर उनका जागरण जो उन्हें मिथ्या जगत से दूर ले जाता है और दूसरी ओर उन्हें नींद में अटपटे आभास होते हैं ।यह जागरण के बाद की निद्रा है जहाँ वे किस के आभास देख रहे हैं? यह समझा जा सकता है क्योंकि इस विस्मय का भेद बताते हुए वे कहते हैं मेरा चित्त उस चैतन्य के विलास में रमा हुआ है या कहें कि चैतन्य के साथ उसने तादात्म्य स्थापित किया है। यह महसूस होता है जैसे ब्रह्म ब्रह्म के सामने लीला कर रहा है। यहाँ ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।’ (- ऋग्वेद 1-164-20) ऐसा लगता है कि नरसिंह कहीं ऋगवेद के इन दो पक्षियों को निहारते हैं। वे उसका वही अर्थ ग्रहण करते हैं जो मुण्डकोपनिषद में मौजूद है । ऋग्वेद के इस मंत्र में यह समझाया गया है की प्रकृति रूपी वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी तो जीवात्मा है जो कर्म करता है और वृक्ष रूपी प्रकृति का फल चखता है जबकि दूसरा पक्षी परमात्मा है जो फल चखता नहीं है, कर्ता नहीं है तो भोक्ता भी नहीं है। इस मंत्र से यह तथ्य उजागर होता है कि ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों अनादि-अनंत हैं। शंकर इसे जीव और परमात्मा के स्थान पर बुद्धि और आत्मा के बीच के भेद के रूप में ग्रहण करते हैं किंतु यह चर्चा यहाँ अन्यथा होगी। जिस बात को वे पद की अंतिम पंक्तियों में कहते हैं उसीको संकेत रूप में उन्हों ने यहाँ रखा है। शिव और जीव हकीकत में ब्रह्म ही के अलग अलग स्वरूप हैं। ‘सर्व खल्विदम् ब्रह्म’ का प्रतिरूपण इस पद में देखने को मिलता है।
श्री के. का. शास्त्री ने नरसिंह के ब्रह्म में श्री वल्लभाचार्य द्वारा प्रशस्त अखंड ब्रह्म दर्शन की परंपरा को महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय से पाये होने की संभावना व्यक्त की है। यह कश्मीर के शिव तंत्र एवम् वारकरी संप्रदाय के ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी गीता में मौजूद दर्शन है। जबकि वल्ल्भाचार्य की वेदांत की यह परंपरा उनसे पाँच शताब्दी पूर्व कर्णाटक, आन्ध्रप्रदेश में नृसिंहोपासक विष्णुस्वामी के कारण प्रचलित हुई थी। जिसके कारण नरसिंह ब्रह्म से ही जड़ और चेतन के विकास को मानते हैं। शास्त्री जी की बात का समर्थन नरसिंह का यह पद करता है।
“निरख ने गगन मां कोण घूमी रह्यो, तेज हुं, ते ज हुं, शब्द बोले।”
नरसिंह की यात्रा ‘ततत्त्वमसी’ से ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ तक पहुंचती है लेकिन फिर वे महसूस करते हैं कि ईश्वर का निर्गुण रूप भक्त को मर्यादित करता है। वे कृष्ण के सगुण रूप की उपासना करते हैं और कहते हैं “ए नथी एकलो विश्व थकी वेगड़ो सर्वव्यापिक छे शक्ति जेनी, अखिल अनादि आनंदमय कृष्णजी, सुंदरी राधिका भक्ति तेनी”।(वह अकेला नहीं है, ना ही वह विश्व से भिन्न है, जिसकी शक्ति सर्व व्यापक है; मैं उस अखिल अनादि आनन्दमय कृष्ण और राधा की भक्ति करता हूँ। ) कृष्ण भक्त सूर की भक्ति और नरसिंह की भक्ति में यही मूल भेद है सूर को निर्गुण भक्ति कभी ग्राह्य नहीं है और नरसिंह भेदाभेद की अवस्था से ऊपर उठकर निर्गुण के साथ सगुणोपासक भी बनते हैं। वे श्रीकृष्ण के संयोग शृंगार के अनेक पद लिखते हैं ।
यह माना जाता है कि नरसिंह को भगवान शिव के वरदान से श्री कृष्ण की भक्ति का सुयोग प्राप्त हुआ था। इनके जीवन के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। जैसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्हें समय-समय पर अनेक मुश्किलों से बचाया था। जैसे पुत्री कुंवर बाई का मायरा स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने भरा था, उनके द्वारा किसी को लिखकर दी गई हुंडी पर भगवान ने उस व्यक्ति को शामळ शेठ बनकर धन दिया था । नर्मद ने नरसिंह पर लिखे अपने एक लेख में यह स्पष्ट किया है कि इन कथाओं को कपोलकल्पित ही माना जाना चाहिए। नरसिंह के लिए किसी शामळ शेठ नाम के व्यक्ति ने यह कार्य किया होगा। नरसिंह का व्यक्तित्व अपने अन्य समकालिनों की अपेक्षा कुछ अधिक सशक्त नज़र आता है। वे जाति से नागर ब्राह्मण होते हुए भी उस समय व्याप्त जातिगत सभी रूढ़ियों को तोड़ कर हरीजनों के मुहल्ले में जाकर भजन-कीर्तन करते हैं। उनकी इन बातों से नाराज़ नागर जाति के लोगों से वे कहते हैं
“एवा रे अमो एवा रे एवा, तमे कहो छो वळि तेवा रे
भक्ति करता जो भ्रष्ट कहेशो तो,करशुं दामोदर नी सेवा रे”
( हम तो ऐसे ही हैं और फिर आप जैसा बताते हैं वैसे भी हैं, भक्ति करने पर हमे भ्रष्ट बताएंगे तो दामोदर कृष्ण की सेवा करेंगे।)
“ हळवां कर्म नो हूं नरसैयो, मुजने तो वैष्णव वाहाला रे।
हरिजन थी जे अंतर गणशे तेना फोगट फेरा ठाला रे।” (शास्त्री . 5)
(हलके कर्म करनेवाला मैं नरसिंह हूँ, मुझे वैष्णव लोग प्यारे हैं, हरिजन से जो भेद बर्तेगा उसका जन्म व्यर्थ ही जाएगा।)
उमाशंकर जोशी को इस बात का अफसोस है कि चाहे मध्य्काल में भक्ति के माध्यम से या 19वीं शताब्दि में यूरोप के संपर्क में आने के कारण जातिभेद का जो विरोध था वह अंतत: दब गया या वह और भी अधिक हावी हुआ। लेकिन सूर की ही भाँति नरसिंह भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनकी भक्ति उन्हें जाति और रूढ़िगत संकीर्णताओं से लड़ने का साहस प्रदान करती है। नरसिंह में कबीर या अखा जैसा विद्रोही तेवर नहीं है, उनमें तुलसी जैसी सहजता है लोक मंगल की भावना है । इसीके चलते वे आज भी लोक हृदय में अपना स्थान कायम कर पाए हैं। श्री.के.का. शास्त्री ने नरसिंह पर मराठी संत नामदेव का शैलिगत प्रभाव देखा है। वे मानते हैं कि नरसिंह जयदेव के ‘गीतगोविंद’ से भी पूर्ण रूप से वाकिफ थे। मराठी साहित्य के प्रभाव को देखते हुए उन्होंने यह भी माना कि उनका दक्षिण के वारकरी संप्रदाय से भी संपर्क रहा होगा यही कारण है कि उन्होंने ‘नरसिंया चा स्वामी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है। उनके द्वारा प्रयुक्त ‘विठ्ठल’ शब्द के कारण उन्हें नामदेव से भी प्रभावित माना है लेकिन उमाशंकर जोषी ने इस बात पर अपनी असहमति प्रकट करते हुए इसे नरसिंह की अपनी विशेषता बताया है और माना है कि इस शब्द का प्रयोग इस से पूर्व भी होता था।
सवाल यह है कि ‘ततत्त्वमसी’ से ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ और फिर याचक भक्त से लेकर एक सामाजिक परिवर्तक की भूमिका का नरसिंह का रहस्य क्या है? उनकी भक्ति की यह व्यापकता भारतीय संस्कृति की वह व्यापकता है जिसके चलते भारत एक अखंड राष्ट्र बना हुआ है। यहाँ सगुण निर्गुण के बीच का भेद व्यक्ति को मानवता से परे नहीं ले जा पाता। पुन: रवीन्द्रनाथ ठाकुर की बात रखें तो “‘बहुत्व’ के बीच अपने आप को बिखराना भारतवर्ष का स्वभाव नहीं है। वह एक को प्राप्त करना चाहता है; इसलिए बाहुल्य को एकत्र करना ही उसकी साधना है।” (बन्दोपाध्याय 617) नरसिंह इसी सधना का परिणाम हैं।
संदर्भ सूची :
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