हिन्दी साहित्य में एक मुश्किल यह है कि महिला कथाकारों एवं महिला लेखन की संख्या अच्छी खासी है, लेकिन नारवादी लेखन कम है। यही नहीं पिछले दो दशक हिन्दी में नारी-विमर्श से अधिक उसकी चर्चा के वर्ष अधिक रहे हैं। सिमोन द बुआ, केट मिलेट, जर्मेन ग्रेयर आदि लेखिकाओं जैसे गंभीर और व्यवस्थि काम हिन्दी में बहुत कम हुए हैं कारण शायद लांछित होने का भय, सामाजिक दबाव या संस्कार लेखिकाओं को रोकता है। इससे मुक्त होकर या डटकर सामना करके जिन लेखिकाओं ने नारीवादी लेखन लिखा है उसमें प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, लता शर्मा, मृणाल पांडे, नासिरा शर्मा, अनामिका, कात्यायनी, मनीषा गीताश्री का नाम प्रमुख है। इन सबमें प्रभा खेतान का काम सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और स्त्री विमर्शकार की दृष्टि से प्रभा खेतान का नाम हिन्दी में शीर्ष पर है। प्रभा खेतान उन विरल लेखिकाओं में रही है, जिन्होंने नारीवाद की वैचारिकी को समझने का प्रयास किया और लगातार उस पर लिखा। उन्होंने सिमोन की ‘दि सेकंड सेक्स’ काका ‘स्त्री उपेक्षिता’ शीर्षकशीर्षक से अनुवाद तो किया है। और सार्त्र पर अध्ययन और शोध-प्रक्रिया में उन्होंने अस्तित्ववादी दर्शन और नारीवादी आंदोलनों का भी गंभीर अध्ययन किया। इस संबंध में उनकी दो पुस्तकें - ‘उपनिवेश में स्त्री’ और और ‘बाज़ार के बीच :बका काबाज़ार के के खिलाफ’ खासी महत्त्वपूर्ण है। उनकी आत्मकथा ‘अन्या से अनन्या’ तथातथा उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ भी नारीवाद की वैचारिकी समझने में सहायक होते हैं।
उनकी बेहद सशक्त, विचारोत्तेजक पुस्तक उपनिवे में स्त्री स्त्रियों की विविस्तृत दुनिया में प्रवेश करके उनके लिए उत्पन्न सामाजिक चुनौतियों से रूप-ब-रू करवाती है। यह पुस्तक दस अध्यायों में विभाजित है – (1) आधीआधी दुनिया का श्रम और भूमंडलीकरण (2) स्त्री-लेखन कीकी जगह और आलोचना के भीष्म पितामह (3) बौद्धिक सरोकार (4) संस्कृतिवाद के छल-कपट और स्त्री का मानस (5) राष्ट्रवाद औऔर नारीवाद की ज़मीन (6) नारीनादी ज्ञानमीमांसा के उउद्देश्य (7) स्त्रीत्व का सार तत्त्व एएवं यौनिकता की राजनीति (8) सामाजिक सरोकार उर्फ आक्रामकता की खोज (9) क्रांति चेतमना के नारी रूप (10) भाषा और विमर्श का संजाल। यह दस अध्याय मात्र अध्याय नहीं, बल्कि नारीमुक्ति कामना की दस वार्ताएँ हैं। स पुस्तक में स्त्री विमर्श को अनेक कोणों से परखने की सफल कोशिश की गई है। उपनिवेश का अर्थ ही होता है, वह स्थान जहाँ अअवैघ तरीके से कब्जा करके उसउसका दोहन, शोशोषण किकिया जाए, याषइवलूटा-खसोटा जायजाएँ, उस स्थान-प्रांत के के लोगों के सारे अधिकार छीनकर उन्हें पंगु बना दिया जाये। ठीक स्त्री भी उस उपनिवेश की तरह है, जिसकोंजिसको सदियों से लूटा-खसोटा जा रहा है, उसकेउसके सारे मानवीय अधिकार छीन गये हैं।समाज का ऐसा कोई तंत्र नहीं है, जो स्त्री को प्रताड़ित न करता हो, पराधीन न बनाता हो। परंपरागत मानदंडों एवं आदर्शों से ही उसे देखा और परखा जाता रहा है। पुल्लिंगी समाजसमाज द्वारा तयतय की गई भूभूमिका कोको ही निभाने के लिए स्त्री को मज़बूर किया जाता रहा है। सारी सत्ता एवं अधिकार हमेशाहमेशा पुरुष केके हाथों मेंमें रहा है। पुरुष मानसिकता में व्याप्त संकीर्णताओं से खिन्न होकर ही प्रभा खेतान जैसी सजग लेखिका यह कहकहने मजबूर होहो जाती है किकि -- “यह तो अंतरराष्ट्रीय पूँजी, पितृसत्ता, इतरलिंगी यौन चुनाव और पुरुष वर्चस्व की ज्ञान-मीमांसा की उपनिवेश है।पू” (उपनिउपनिवेश, पृ.9) सस्त्री-पुरुष और व्यवस्था सेसे जुड़े प्रप्रश्न जजटिल से से जटिलतर होते गए हैं। प्रभा खेतान इसीलिए स्थापित सामाजिक-सांस्कृतक संस्थाओं कीकी स्त्री-विरोधी प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए लिखती है -- “मगर पितृसत्तात्मक ससमाज की स्त्री-विरोधी पपरंपराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट है। ये परंपराएँ स्त्री को घर सौंपती है, बच्चों का भरण-पोषण सौंपसौंपती है। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे नि:शुल्क सेवासेवाएँ लेलेती है औरऔऔर बदले में उउसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमामंडन कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। स्त्री भूखी है या मर रही है, इसकी चिंता किसी को नहीं है।सरऔतीएँवृतरंस” (वही, पृ.14)
एशियाई संस्कृति के संदर्भ में प्रभा खेतान ‘परिवार’सासाइजटिश् शनामक संस्था पर पुनर्विचार करती है। देह व्यापार का व्यापक संजाल इस ओर संकेत करता है कि अधिकांश एशियाई पुरुष पत्नी के प्रति सेक्स संबंध में निष्ठावन नहीं होते। इस स्थिति पर टिप्पणी करते हुए लिखती है -- “सेक्स एक ऐसा मनोरंजन है जिसका लुत्फ पुरुष और सिर्फ. पुरुष ही दांपत्य जीवन की सीमाओं से बाहर जाकर उठा सकता है। अनेक एशियाई समाजों में पत्नियों द्वारा इसे नज़र अंदाज किया जाता है और अधिकांश एशियाई औरतों के विचार में सेक्स संबंध ही विवाह नहीं है। वे इसे एक संस्कार मानती है और धूर्त पुरुष इसका फायदा उठाते हैं”व (वही, पृ.134-135) कभी नैतिकता एवं चरित्र की दुहाई देकर तो कभी पत्नी, बहन, भाभी, मामी, चाची की आदर्श मूर्ति घड़कर कभी तरह-तरह की जिम्मेदारियाँ सौंपकर उसके दायित्व को प्रामाणिकता से निभाने की अपेक्षा की जाती है। इस स्थिति में निहित सबसे बड़ी विड़ंबना यह है कि आर्थिक नेराजनीतिक और सामाजिक – हर क्षेक्षेत्र में निर्णय के अधिकार से उसे वंचित कर इसका दोहन ही किया है।
‘संस्कृतिवाद के छलकपट और स्त्री का मानस’ में प्रभा खेतान इस निर्णय पर पहुँचती है कि संस्कृतिवादी नारी के लिए एक छलावा है। यह संस्कृति स्त्री को गुलाम की स्थिति में बनाए रखने के लिए पितृसत्तात्मक संस्कृति एक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करती है। उन्होंने हीगेल, शंकराचार्य, नीत्शे, मनु एवं तुलसीदास की नारी विषयक मान्यताओं के संदर्भ देकर यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि पुरुष सत्ता ने किस तरह स्त्री वर्ग का सांस्कृतिक संहार करने के लिए अपनी मेघा का उपयोग किया। पुरुषों की इन चालों को धर्म ने और भी ज्यादा मजबूती दी। इसलिए वे कहती है -- “संस्कृतिवादियों की पूरी सहानुभूति उस अर्थव्यवस्था से हैं, जहाँ वर्ण एवं जाति के आधार पर स्त्री सबसे निचली सीढ़ी पर है। क्योंकि पिता या पति द्वारा तो उसकी जाति और वर्ग भी पहचाना जाता है। कहने को तो वह अमीर की है पर वह एक पैसा भी अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती।”में (वही, .87) अज्ञान वश जातिय श्रेष्ठता का भाव हृदय में लेकर जीनेवाली एवं स्वयं को संस्कृति की रक्षक समझनेवाली स्त्रियों की मनोदशा पर भी प्रभा खेतान हमला करती है और स्पष्ट करती है कि ऐसी स्त्रियाँ भ्रम में जीत है। अन्यथा सांस्कृतिक की बागडोर ऊंची जाति के पुरुष के हाथ में होती है। वही पुरुष तयतय करता है कि कबककब किन सांस्कृतिक मूल्यों को बचाना है। किकिस प्रकार वितरण करना है। प्रभा खेतान स्वीकार करती है कि स्त्री जीवन में संस्कृति का महत्त्व है, लेकिन यह संस्कृति दमनकर्ता का हथियार बन चुकी है।
आर्थिक स्वावलंबन स्त्री की दुनिया को बदलने में अहम् भूमिका निभा सकता है। आर्थिक सशक्ति करण नारी को बहुत सारी समस्याओं से उबार सकता है। प्रभा खेतान के सशक्तीकरण का जरिया भी स्वतंत्र व्यवसाय एवं धनोपार्जन है। शायद सीमोन के इन शब्दों को उन्होंने अपनी जिंदगी में उतारा था – मैंने भी जीवन जीते हुए यही सिखा की पैसे कमाते हुए स्त्री निर्णय लेना सीखती है और निर्णय की क्षमता उसके संघर्ष को मजबूत करती है। प्रभा खेतान की आत्मकथा एवं उपन्यास ‘छिन्नस्ता’ कीकी नायिका प्रिया की जिंदगी सीमोन के उक्त मान्यता को सार्थक करती है। हिन्दी में अन्य नारी लेखिकाएँ भी व्यवसाय की दुनिया से जुड़ी हुई है, लेकिन उनमें से किसी ने भी प्रभा खेतान जैसा जीवन नहीं जिया, न निर्णय के लिए, न संघर्ष किया। तीन सौ रुपए की अदना नौकरी करना, बाईस साल की उम्र में चालीस साल के विवाहित पुरुष से प्रेम करना, विवाह संस्था को ठुकराकर अन्या बनने का चुनाव करना, अपने आपको उघाड़कर पूरी तरह अरक्षित होने का साहस दिखादिखाना मामामूली बात नहीं है। आत्मकथा में नारीजीवन की दुर्बलताओं के प्रामाणिक ब्योरे पेश करके समाज को मजबूर किया की वह स्त्री-पुरुष के संबंसंबंधों पर एक बार फिर सोचे।
प्रभा खेतान मानती है कि भूमंडलीकरण एवं उपभोक्तावाद ने स्त्री को जितना लाभ पहुँचाया है। उससे अधिक हानि पहुचाई है। वह स्त्री को सब कहीं एक आकर्षक उत्पाद एवं जींस में बदल रहा है। भ्रभ्रुण हत्या और बालिका-शिशु की उपेक्षा काका अनुपात तेतेजी से बढ़ रहा है। मात्र आर्थिक स्वतंत्रता स्त्री को मनुष्य बनाने के लिए काफी नहींननहीं है। उसे मनुष्य बनाने के लिए आर्थिक परिवर्तन के साथ-साथ राजनीतिक एवं सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। प्रभाजी स्पष्ट लिखती है -- “अमानवीय विकास के प्रतिमानों को खारीज करना और जनोन्मुख नजरिये को विकको विकसित करना नारीवाद का पहला उद्देश्य होहोना चाहिए।नास” (वहीवही, पृ.35) ययहीं नहीं स्त्री विरोधी परिप्रेक्ष्य मेंमें ये लेखिकाओं की निष्क्रियता पर भी हैरत जताती है जो नारी के अनछूए अवर्णनीय, अकल्पनीय मुद्दों को नजरअंदाज कर देती है या हाशिए पर धकेल देती है।
पितृसत्तात्मक हर जगह विद्यमान है, हर क्षेत्र पर हावनहावी है। चाहेचाहे वह साहित्य हो, राजनीति हो या अन्य कोई सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र हो, स्त्री को इन सबसे मुक्त होना है। मुक्त होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह पुरुष से बदला ले, मममर्दाना अंदाज धारण करे या पुरुष बनने की होड़ में अपना सब कुछ गँवा दे। उसे तो अपनी स्त्रीत्व बचाएँ रखकर अपने वजूद का एहसास कराना है, उउत्पाद और वितरण की प्रणाली पर बबराबरी का अका अधिकार प्राप्त करना है, शोषण से मुक्त होने के लिए संघर्ष करना है, जातीय एवं लिंग भेदभाव से रहित से एक नये ससमाज को गढ़ना है। स्त्री मुक्ति याया नारीवादी आंदोलन का मूल उद्देश्य भी वही है। स्त्री अगर भटक गई या उपभोक्तावादी संस्कृति की चमक-दमक सेसे आकर्षित होहो उसमें खो गई तो मूल उद्देश्य कीप्राप्ति के लिए और हजार साल का इंतजार करना पड़ेगा। अत: उसे सचेसचेत ररहना है और संघर्ष के रके के रास्ते सेसे पीठ नहीं हटना है। अंतत: उसेउसे ही तय करतय करना है कि वह वस्तु या उत्पाद बने रहना चाहती है या सृजनशील मनुष्य। दोनों दोनों में से किसी एक का चुनाव नारीवादी आंदोलन का भविष्य तय करेगा। प्रभा खेतान ने ने अपने स्त्री-जीवन से प्राप्त अनुभवों को उपनिवेश में स्त्री में उतार दिया है। वह स्त्री-विमर्शों की उपरी तह में न भटककर उसउउसउसकी आंतरिक जटिलताओं से टकराती है। यह पुस्तक पुल्लिंगी समाज रूपरूपी समुसमुद्र में भटकी हुई नारी के लिए सचमुच एक आकाशदीप है तो नारीवाद के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक कुशल सारथी!
डॉ. समीर प्रजापति
आर्ट्स एवं सायन्स कॉलेज, पीलवाई,
ता. विजापुर, जि. मेहसाना