कबीर की प्रेम-साधना

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कबीर उच्चकोटि के साधक संत थे । आध्यात्मिक काव्य-सृष्टि में वही कवि समर्थ हो सकता है, जो मूलतः साधक हो और जिसका मन भगवती प्रेम से ओत-प्रोत हो । कबीर प्रेम में पूर्ण समर्पण है, दुनिया वालों को केवल और केवल प्रेम पर भरोसा करने को कहते हैं– “पोथि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोई । ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय ।।” प्रेम के अतिरिक्त सभी शास्त्र बेकार हैं, प्रेम से शून्य सारे शास्त्र शून्य हैं । सारा ज्ञान बोझ है, मझधार में डुबोने वाला है, पार-लगाने वाला नहीं है । यह प्रेम दुनिया के बाहर की चीज नहीं है इसे कबीर मानते हैं । वह प्रेम मध्ययुग में भी आवश्यक था और आज भी है । कबीर ने अपने आराध्य के प्रेम का रूप प्रकट किया है, वह कहीं दास्यभाव है, कहीं पति-पत्नी, कहीं पिता-पुत्र तो कहीं गुरु-शिष्य की व्यंजना होती है । आराध्य के प्रति स्वामी भाव के साथ विनय भाव की अभिव्यक्ति हुई है । परंतु कबीर का मानना है कि प्रिय समझकर उसकी उपासना करो । उनके अनुसार प्रेम साधना के तीन सोपान हैं – (1) प्रेम (2) मिलन (3) विरह ।
(1) प्रेम :
कबीर की साधना में ज्ञान, योग और प्रेम तीनों का पूरा समन्वय है किन्तु प्रधानता प्रेम की है । उनका ज्ञान प्रेमयुक्त ज्ञान है और योग भी प्रेमयुक्त योग है । उपनिषद् में कहा गया है कि – ‘आत्मानमेव प्रियम उपासीत् ।’1  इसको प्रिय समझकर उपासना करो । प्रभु की तीव्र उत्कंठा प्रेम है । कबीर की प्रेम-साधना हमारी प्रेम सीमा से पर है । उनका प्रिय विनाशी है पर उसे प्राप्त करने के लिए भीतर का मोह मिटाना होगा, सहज बनना होगा –
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाटि बिकाय ।
राजा-परजा जिस रुचै, सिर देइ ले जाय ।।
कबीर का मानना था कि वासत्विक प्रेम में निरंतरता होती है । वह न घटता है, न बढ़ता है –
छिनहि चढ़े, छिन उतरे, सो तौ प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजर बसै, प्रेम कहावै सोय ।।
प्रेम में समर्पण का भाव न हो, वह प्रेम नहीं, दिखावा मात्र है । साधक के लिए अपना कुछ भी नहीं है । सब कुछ उस ईश्वर का है जिसने इसकी रचना की है । इसलिए –
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझमें सौंपते, क्या लागै है मेरा ।।
वह निस्वार्थ हो, सच्चा हो । अतः जिसे परमात्मा से वास्तविक प्रेम हो जाता है उसे फिर किसी ज्ञान की आवश्यकता नही रह जाती । कबीर कहते हैं –
गुरु प्रेम का अंक पढ़ाय दिया,
अब पढ़ने को कछु नहिं बाकी ।
संपूर्ण विषयों-विकारों का त्याग कर भगवतप्रेम में लीन हो जाना पूर्ण समर्पण की स्थिति है । इस स्थिति में आत्मा परमात्मा के प्रति अपने को सर्वभाव से समर्पित कर देती है और प्रभु के अनुग्रह का आग्रह करती है । तब प्रभु प्रेमी बन जातें हैं और भक्त प्रिय ।
(2) प्रेम :
प्रेम में मिलन की चाहत और उत्कंठा निरंतर लगी रहती है । दैनिक कार्य करते समय भी चित्त प्रिय से मिलने के लिए उतावला बना रहता है । मिलन की चाहत और तड़पन की अभिव्यक्ति कबीर के पदों में प्रायः मिलती है – “उठत-बैठत बिसरत ना कबहूं ऐसी तारी लागि ।” कबीर ने प्रिय अर्थात् परमात्मा से मिलन के लिए आध्यात्मिक विविध विवाह का रूपक प्रस्तुत किया है । आत्मा से परमात्मा का जो मिलन होता है उसका मूल कारण प्रेम है । प्रेम की पूर्णता पति-पत्नी के संबंध में विशेष है । उन्होंने अपने अनेक पदों में परमात्मा से पति-पत्नी के संबंध स्थापित किया है ।
कियो सिंगार मिलन के ताई, हरि न मिलै जग जीब गुसांई ।
हरि मेरा प्रिय मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं तनक लहुरिया ।
पानि सुहागन जो प्रिय भावै, कहत कबीर फिर जनमि नसावै ।
कबीर साहित्य में प्रेम-साधना के अंतर्गत कहीं बहू, कहीं पिता, कहीं माता, कहीं मित्र और कहीं राजा के रूप में मिलन की कल्पना आकर्षक है और भावमयी भी है ।
(3) विरह :
प्रेम के आरंभ होने पर प्रेमी के हृदय में उत्कट विरह के दुखद वियोग की अनुभूति होने लगती है । कबीर साहित्य में प्रेम के साथ प्रेम विरह की बेजोड़ अभिव्यक्ति हुई है । उनके विरह में वियोग-व्यथा का एक बिंब गौरतलब है –
बहुत दिनन की जोबती, बाह तुम्हारी राम ।
जिव तरसै तुझ मिलन को, मन नाहीं विश्राम ।।
मिलन की उत्कंठा देखिए –
इस तन का दिवला करौं बाती मेल्यूँ जीव ।
लोहं सीचंचौ तेल ज्यूं, कब मुख देखौं पीव ।।
विरहिणी प्रतीक्षा में थककर अंत में उपालंभ देती है और कहती है कि अब तुम्हारा वियोग असह्य हो रहा है । अश्रुपात करती है –
अंषड़या प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँनैं दुखड़ियां ।
साई अपणैं कारणै, रोई-रोई रंतड़िया ।।
संक्षेप में भावना प्रेम की प्रधान प्रवृत्ति है । यह अनुभूति प्रेम पर अवलम्बित होने के कारण जीवन और ब्रह्म में एक चरम परिणति-दाम्पत्य प्रेम में देखी जाती है । कुल मिलाकर, कबीर भावना की अनुभूति से युक्त जीवन का संवेदनशील संस्पर्श करने वाले और मर्यादा-रक्षक कवि थे ।

 

संदर्भ ग्रंथ सूचि

  1. बृहद् उपनिषद् – 1/4/8
  2. प्रेम के दोहे कबीर वाणी में से
  3. विरण के दोहे कबीर ग्रंथावली में से

डॉ.  पटेल प्रफुल्ला एम.