भारतीय संदर्भ में नारीवाद

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           चूंकि  संगोष्ठी ‘Women Portrayal’ पर केन्द्रित है फिर वह चाहे साहित्य के संदर्भ में हो या साहित्येतर ।  Portrayal   भारत में तब भी था, जब ‘नारीवाद’ या ‘नारी-विमर्श’ का कोई प्रभाव परम्परागत लेखन पर नहीं पड़ा था । हालाँकि सोच,स्तर और स्थिति भिन्न और विसंगतपूर्ण थीं । इसलिए वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में  ‘Women Portrayal’ को हम ‘विमर्श’ के रूप में और ‘Feminisms’ के प्रभाव में देखने-समझने का प्रयास करेंगे ।  नारीवाद के मूल में नारी के अस्तित्व, उसके अधिकार और क्षमताओं को स्वीकार करने की बात है, और यह बात पूरे स्वाभिमान तथा समानता के स्तर से कही गई है । दलितवाद में जिस तरह गैरदलितों के लिए कोई गुंजाइश नहीं उसीप्रकार नारीवाद में भी माना गया कि स्त्री के बारे में पुरुष की मानसिकता शत्रुपक्ष जैसी है । हालाँकि नारीवाद की यह स्थिति प्रारंभिक थी और पश्चिमी थी, इसलिए मान लेना चाहिए कि नारीवाद पर किसी पुरुष-लेखन का वह हश्र नहीं होगा जो कभी दलितवाद के संदर्भ में मुंशी प्रेमचंद का हुआ था ।  नाक-भौं चढ़ाते हुए ही सही, किन्तु अब एक बड़ा वर्ग नारीवाद और दलितवाद में जातीय-चेतना और वर्ग-चेतना विशेष को स्वीकारने लगा है । इसीलिए जब कोई स्त्री रचनाकार लिखती है तो वह अपनी सोच, दृष्टि और अनुभवों को जिस तरतीब से रखती है, वैसा पुरुष रचनाकार के लिए असंभव-सा होता है । ‘द सेकेण्ड सैक्स’ से लेकर ‘रसीदी टिकट’, ‘मीरा याज्ञिक की डायरी’, ‘काग़जी है पैरहन’ आदि में जो दृष्टि, सोच, अनुभव  प्रस्तुत हुआ है, वैसा पुरुष रचनाकार शायद न भी कर पाता । किन्तु इसके साथ यह भी ग़ौरतलब है कि बतौर नारी-लेखन, स्त्री-रचनाकारों की सभी कृतियाँ प्रायः ऐसी नहीं होती -  यानी बहुत कुछ ऐसा होता है जहाँ स्त्री-पुरुष रचनाकारों की सोच, दृष्टि और अनुभव रचना के धरातल पर समान होता है-सामान्यीकृत । एक उदाहरण से बात स्पष्ट की जा सकती है, रूप-लावण्य पर आसक्त मानसिंह को मृगनयनी कहती हैः “नियम संयम के साथ रहिए और मुझको भी रहने दीजिए । मैं चाहती हूँ कि उन गुणों के साथ मेरी देह में वही बल बना रहे जिसको राई से ले कर आई हूँ, जिसके भरोसे मरे हुए सुअर को पीठ पर लाद कर गाँव तक लाई थी...”[1] क्या स्त्री के संदर्भ में ऐसा कुछ भी लिखने के लिए पुरुष को छद्म स्त्री-नाम का आश्रय लेना होगा  ?             भारतीय संदर्भ में नारीवाद विषयक सोचें तो नारी विमर्श का वह रूप और पैमाना जो पश्चिमी देशों द्वारा अख़्त्यार किया गया, या रूसो, ग्रेगरी ने नारी विषयक सोचा, वैसा यहाँ नहीं उभरा है । यहाँ की सामान्य स्त्रियाँ वर्षों बाद भी क्रिस्टाबल पैंकहर्स्ट (ब्रिटेन) की तरह यह नहीं सोच पाई हैं कि ‘विवाह स्त्रियों के लिए भयानक खतरा है।’ मर्सी वॉरेन, एबिगेल एडम्स, कोन्दोर्स, ओलिम्पी द गूजे, जॉन स्टुअर्ट मिल, चेर्नीशेव्स्की, मार्क्स, एगेल्स,बेबेल, लेनिन, अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई आदि ने स्त्री-विषयक अपने विचार और चिन्ता प्रकट करते हुए क्रांतिकारी सुझाव दिये । अमेरिका और फ्रांस के बुर्जुआ वर्ग ने सत्ता हासिल होते ही ‘स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व’ को दरकिनार करते हुए चर्च से गठबंधन कर लिया । अमेरिकी क्रांति (1776-83) के दौरान स्त्रियों के मताधिकार और सम्पति के अधिकार की मांग को भी इसी बुर्जुआ वर्ग ने दबा दिया था । किन्तु अब स्त्रियाँ अपने अस्तित्व और अधिकारों के बारे में अधिक सजग और प्रतिक्रियावादी होने लगी थीं । वालस्टनक्राफ्ट, विलियम थाम्पसन, जेम्स मिल आदि ने शिक्षा पर पुरुष के वर्चस्व को खत्म करने की बात के साथ यह भी स्थापित किया कि बौद्धिक स्तर पर स्त्रियाँ भी उतनी ही समर्थ हैं जितना कि पुरुष । बीसवीं शताब्दी में पुरुष की वर्चस्वादिता, उसकी रूढ़, परम्परावादी मानसिकता, यौनिक शोषण और सामाजिक -आर्थिक दासता के विरुद्ध व्यापक फलक पर नारीवाद आंदोलन के रूप में उभरने लगा ।
स्त्री-विमर्श को ले कर भारतीय साहित्यकारों और नारीवादी संगठनों में अंतर रहा है। प्रारंभ में नारीवादी संगठन जहाँ राजनीतिक हथकण्डों का शिकार हुआ वहीं नारी-लेखन (सहित्यकार) विदेशी  ‘वादों’ और ‘पैटर्न’ का अनुकरण करने में गौरवान्वित महसूस करता रहा । लड़की को जन्म से ही (अब तो जन्म से पहले भी) सतत यह अहसास कराया जाता है कि वह पुरुष नहीं, औरत है । उसका स्थान माता-पिता, पति और पुत्र के आश्रय में है । स्त्री होने का सुख वह मानसिक और शारीरिक रूप से उठाती तो बेहतर होता, लेकिन यह बात तभी संभव होती जब पुरुष की सोच स्त्री की सोच से मिलती । ऐसा न होने के पीछे युगों-युगों की पुरुष की वर्चस्ववादी मानसिकता, स्त्रियों का सौन्दर्य एवं नाजुकता, उसकी कमनीय काया, सद्गुण एवं शालीनता आदि कारक जिम्मेदार माने जाते रहे  हैं।  सीमोन बोउवार कहती हैं कि  ‘स्त्री पैदा नहीं होती, गढ़ी जाती हैं ।’ अर्थात नवजात शिशु पर अत्याचार एवं शोषण का सिलसिला समाज और परिवेश को प्रभावित करनेवाले कारकों के द्वारा शुरू हो जाता है । पश्चिमी यौन-मुक्त सभ्यता का प्रभाव भारतीय साहित्य पर भी पड़ा । हिन्दी में प्रयोवाद, नयी कविता और अकविता में इसकी झलक देखी जा सकती है ।   सुशान बैसनेट ने  (फैमिनिस्ट एक्सपीरियन्सेज, द वुमेन्स मूवमेंट इन फॉर कल्चर्स) के अनुसार 1970 तक आते-आते “यौन-सुख का प्रश्न असाधारण रूप से महत्वपूर्ण हो गए थे। तथा महिलाओं की यौन स्वतंत्रता को ही उनकी मुक्ति मान लिया गया था । पुरुषों की तरह रोज अपने साथी को बदलना, जब भी जहाँ कहीं, जिस किसी के साथ पूर्ण सुख की कामना करना ही नारी मुक्ति की तस्वीर बन कर रह गई थी.......।”[2] 1980 के दशक तक आते-आते सैक्स को पुरुषों की हिंसा, स्वायत्ता का हनन,पशुत्व के चिन्ह कहा गया । कहा तो यहाँ तक गया कि पुरुष शत्रु है। पुरुषों के साथ यौन-संपर्क करनेवाली महिलाएं उस शत्रु की सहयोगी हैं ।(एम.इवान्स संपादित,द वुमेन क्वेश्चन रीडिंग ऑफ द सब ऑरडीनेशन ऑफ वुमेन)[3] इसतरह लैसबियन  सम्बन्ध को बढ़ावा मिला और पोर्नोग्राफी के पक्ष में दलीलें दी जाने लगीं । भारत में पहले ऐसा कुछ भी नहीं था ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता किन्तु इससे समस्या को भयावह बनने में मदद मिली । इस विषयक समाज, धर्म और संस्कृति की परम्परागत सोच, उपदेश, मान्यता आदि को ढहाने के कार्य में पश्चिमी वादों ने अहम भूमिका निभाई । बावजूद इसके, उसे अभी तक तो सामाजिक मान्यता नहीं मिली । वास्तव में, यह वह दौर था जब लैंगिक भेद, स्वच्छन्दता की बात अधिक कही गई और सामाजिक प्रश्नों को दरकिनार किया गया ।
भारत में नैतिक मूल्य इस कदर तो धराशायी नहीं हुए कि उन्हें सामाजिक मान्यता मिल जाय, हालाँकि परदे पीछे का सत्य कुछ और रहा है । यहाँ सभ्यता और संस्कृति के साथ वैज्ञानिक अभिगम से बार-बार कहा जाता रहा है- ‘माँ का दूध बच्चे के लिए सर्वोत्तम आहार है ।’ पढ़ी-लिखी, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर उच्चवर्ग एवं उच्च-मध्यवर्ग की स्त्रियों ने अपने स्वास्थ्य का ख़याल रखते हुए अपने ढंग से बच्चे के पालन-पोषण का मातृ-दायित्व निभाया । भारत में षोडश संस्कार को ‘संस्कार’ मासिक धर्म को ‘धर्म’, संतानोत्पत्ति को ‘ऋणमुक्ति’  कहा गया है । इसीलिए सीमोन बोउर जब कहती हैं नारी को अपने नारीपन से मुक्त करना होगा या वे मासिक धर्म, प्रजनन, गर्भावस्था और दुग्धपान एवं ऐसी तमाम प्रक्रियाओओं को हैरत, जुगुप्सा या जंजाल के तौर पर देखती हैं तो वह पढ़ीलिखी नौकरी-पेशा से जुड़ी भारतीय स्त्रियों के एक बड़े तबके के मन में भी फिट नहीं बैठता, सामान्य स्त्रियों की तो बात ही अलग है। ये स्त्रियाँ अपने अधिकार एवं कर्तव्य के बारे में जागरूक होने के साथ-साथ करुआ चौथ का व्रत भी रखती हैं और छठ पूजा भी करती हैं । अब तक बहुत पानी बह चुका है, पश्चिम में भी ‘Synthesis’  की अवस्था आ चुकी है और भारत में वैसी स्थिति तो कभी खड़ी ही नहीं हुई थी या मर्यादा में थी, अब भारत का अधिकांश नारी लेखन प्रतिक्रियावाद की अपेक्षा सुलझी हुई सोच और दिशा के साथ हो रहा है।
बेट्टी फ्रिडेन द्वारा 1966 में स्थापित National  Organization of Women (NOW)  ने स्त्रियों के उत्थान और विकास के लिए परम्परागत बंधनों, रूढ़ियों को उखाड़ फेकते हुए अमरीकी स्त्रियों की मानसिकता और आंकाक्षाओं को बल दिया । निःसंदेह उनका प्रयास सराहनीय रहा किन्तु नारीवाद की होड़ और नोचखसूट में वेलरी सोलोनस ने 1968 में Society for cutting up Men (SCUM) यानी पुरुषों का कद छोटा करने का संगठन (!)  की स्थापना की । भारतीय सभ्यता और संस्कृति में अपनी रेखा बड़ी करने के लिए किसी दूसरे की रेखा छोटी करना उचित नहीं माना गया इसलिए SCUM का प्रभाव भी यहाँ नहीं पड़ा दीखता ।  वास्तव में, नारीवाद के दो मुख्य रूप- प्रतिक्रियावादी या विद्रोही नारीवाद और समाजवादी या उदारतावादी नारीवाद का अपना इतिहास है, अपने रास्ते हैं किन्तु लक्ष्य एक है । बेहतर होता यदि उभयनिष्ठ संवादात्मक स्थिति का निर्माण किया जाता ।
मेरी वोल्सटनक्राफ्ट ने स्त्रियों के मस्तिक,शिक्षा, शरीर की शक्ति और पुरुष जैसे परिवेश पर बल दिया तो एंगेल्स ने महिला मजदूरिनों की खराब स्थिति को देखते हुए पहले यह कहा कि रोजगार औरतों से उनका वास्तविक औरतपन छीन लेता है । (‘इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा’) किन्तु बाद में स्त्री को सर्वहारा करार देते हुए उसे सार्वजनिक उद्यम में ले आने की बात कही । (‘परिवार निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’)[4] यह भी विचारणीय है कि कामगर मजदूरिनों और किसान औरतों की आवश्यकताओं और समस्याओं पर सीमोन ने कितना ध्यान दिया ? भारतीय परिवेश में देखें तो स्थिति में भिन्नता है, जहां स्त्री आर्थिक जिम्मेदारी वहन करती दिखती है वहां उसका वर्चस्व है उदाहरण के तौर पर गुजरात का वाघरी एवं छारा समाज, दूसरी ओर उत्तर भारत की वे दलित औरतें जो खेतों में या अन्यत्र मजदूरी करती हैं, किन्तु वे आर्थिक बाबतों में इतनी स्वतंत्र नहीं हैं, आदि..।
भारत की बात करें तो हमें देखना चाहिए कि राजनीति में, सैन्य-निर्णयों में बड़े आर्थिक मसौदों में, परमाणु करार आदि मामलों में क्या पुरुष वर्चस्ववादिता काम नहीं कर रहा ?  एफ.डी.आई. के मसले को सिर्फ राजनीतिक-आर्थिक दृष्टि से क्यों देखा जा रहा है  ?  क्या वहाँ अब भी स्त्रियों की समझदारी के संदर्भ में रूसो के पक्षधर हैं ? या विदेशी नीति को लेकर उपभोक्ता वर्ग, जहाँ बहुत बड़ा हिस्सा स्त्री का है, के परामर्श या ऐसे किसी सर्वे को लेकर बवंडल खड़ा करना उचित नहीं ? अमरीका जैसे देश या देशों में जब पचास प्रतिशत विवाह तलाक में तब्दील हो रहें हैं और वहाँ का बुद्धिजीवी वर्ग ही नही, सरकार भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को समझने का प्रयास कर रही है तो अपने ही घर में हमें अवकाश क्यों नहीं मिलता ? केन्द्र सरकार के महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने गृहिणियों (home maker) के लिए  वेतन का प्रस्ताव रखा है । महिलाओँ की स्थिति सुधारने के लिए सरकार द्वारा उठाया जानेवाला कदम प्रशंसनीय है, लेकिन उनका यह तर्क और उद्देश्य कि इससे देश की जी.डी.पी. बढ़ेगी कितना सही और व्यावहारिक है  ?  जी.ड़ी.पी. अर्थात सकल घरेलू उत्पादन । क्या ऐसा कतई नहीं हो सकता कि तब स्त्री को भी वस्तु के रूप में देखा जाय !  और वस्तु की कीमत गुणवत्ता तथा मांग के आधार पर तय होती है तो गुणवत्ता कम होने या खत्म होने पर —  ‘जागो ग्राहक, जागो’  !   जी.डी.पी. बढ़ाना आवश्यक है और स्त्रियों की आर्थिक स्थिति भी सुधरनी चाहिए किन्तु स्त्रियों का उपयोग साधन के तौर पर करना कितना उचित है ?
वैश्विक राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखें तो बड़ी विषमता और चिंताजनक स्थिति से रूबरू होना पड़ता है । लोकतंत्र और आधुनिकता के संदर्भ में अमेरिका को प्रायः अग्रिमता दी जाती है, स्त्री-स्वातंत्र्य के व्यावहारिक पक्ष और सैद्धांतिक पक्ष के बीच जो अंतर देखने को मिलता है, वह क्या विचारणीय नहीं है ? स्त्री मताधिकार से लेकर स्त्री राष्ट्रपति तक की तमाम बातों कों भी इस संदर्भ में देखना-सोचना चाहिए । भारत में स्त्री ने मुख्यमंत्री के रूप में ही नहीं, पार्टी अध्यक्ष, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के पद पर रह कर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है । यहाँ ग़ौरतलब है कि भारतीय संसद में मात्र स्त्रियों का संख्या मात्र 10.7%  हैं, निश्चय ही यह संख्या बहुत कम है, जबकि बांगलादेश में 19.7% और पाकिस्तान में 21 % स्त्रियाँ संसद में हैं, भारत से अधिक स्त्रियाँ बांगलादेश और पाकिस्तान की संसद में हैं तो क्या वे स्त्रियों के पक्ष में भारत की अपेक्षा बेहतर दृष्टि विकसित कर सकी हैं ?  या उन्हें भारत की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता मिल पाई है ? प्रश्न तुलना का नहीं है, सोच और दृष्टि का है – विरासत और सियासत का है । स्त्री सरपंच से लेकर स्त्री सासंद तक को यह सोचना चाहिए कि राजनीति में उनके आने से परिवर्तन कहाँ और कितना हुआ है ? क्या परम्परागत पुरुष मानसिकता और कार्य-पद्धति पर वे मुलम्मा लगाकर अनुकरण तो नहीं कर रहीं ? स्त्री-शिक्षा, स्त्री-भ्रूण हत्या, भ्रष्टाचार आदि संदर्भों में उसकी अपनी सोच और क्रियान्वयन में वह कितना खरी उतरी है ?             डॉ.कैथरिन एंजिल की पुस्तक अनमास्टर्डः ए बुक ऑफ डिज़ायर में लेखिका ने स्त्री-पुरुष की जातीय स्वतंत्रता की मुक्ति और स्वीकृति पर बल दिया है । उनका मानना है कि सुखी वैवाहिक जीवन के लिए तथाकथित जातीय वफादारी की कोई आवश्यकता नहीं है, सैक्स का सम्बन्ध चरित्र से नहीं जोड़ना चाहिए । उलटे, वे कहती हैं कि विवाह की सफलता का आधार है— एडल्टरी यानी इतर या नाजायद सम्बन्ध !  डॉ.कैथरिन एंजिल तो यहाँ तक कहती हैं कि स्त्रियों के पास पुरुषों को आकर्षित करने के लिए एक मात्र पूंजी है – इरोटाक कैपीटल ।  उनका मानना है कि ब्रिटैन और अमेरिका में विवाह-विच्छेद जिस कारण हो रहे हैं उसके मूल में ही उसका समाधान छिपा हुआ है – विवाहेतर सम्बन्ध को सरलता से स्वीकार करना सीखना । बात भी सही है कि जब स्त्री-पुरुष दोनों सैक्स सम्बन्ध में इस तरह स्वतंत्रता रखते हैं तो आपसी स्वीकृति और समझदारी क्यों नहीं रखते ? भारतीय संदर्भ में देखें तो यहाँ धार्मिक-सांस्कृतिक जड़े काफी मजबूत हैं । श्रद्धा और विश्वास, कर्म का सिद्धांत, दाम्पत्य-जीवन का बंधन आदि ऐसे परिबल हैं । इसका मतलब यह कतई नहीं कि स्त्री-पुरुष में  यहाँ अवैध सम्बन्ध नहीं है, बल्कि धर्म और मर्यादा की आड़ में बहुत कुछ कल्पनातीत भी होता है । कानूनी तौर पर लड़कियों के लिए विवाह की उम्र अट्ठारह वर्ष है किन्तु वह सोलह वर्ष की उम्र में जातीय सम्बन्ध स्थापित कर सकती है, दूसरी ओर खाप पंचायतें हैं जो लड़कियों को जीन्स पहनने और मोबाइल प्रयोग पर प्रतिबंध लगाती हैं, मुस्लिम समाज की पढ़ीलिखी लड़कियों के सामने भी ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनका वे विरोध करना चाहती हैं, किन्तु समाज में रहना जो है ! समानता की बात करनेवाला यह समाज स्त्रियों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की अनुमति नहीं देता । तलाक के सम्बन्ध में भी उनकी स्थिति चिन्ताजनक है । खानपान, रहन सहन, वेशभूषा, थ्री पेज कल्चर, फिल्म-धारावाहिक आदि कारकों से जातीय-सम्बन्ध की परम्परागत अवस्था और अवधारणा प्रभावित हुई है ।       शुरुआती दौर में प्रतिक्रियावादी नारी संगठनों ने यह कहा कि स्त्रियाँ बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हैं  बात तो यूँ ग़लत भी नहीं कही जा सकती स्त्रियों को अपनी कोका उपयोग उचित ढंग से करें किन्तु कोख किराये पर दी जाने की बात जहां कुछ हद तक समस्या का समाधान है, वहीं  एक नई एवं भयंकर समस्या को भी खड़ी करती है । कोख किराये पर देनेवाली स्त्री शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक रूप से समृद्ध होती है और वह अपने होशो-हवास में करारनामें पर हस्ताक्षर करती है, ये स्त्रियाँ न तो हाई प्रोफाइल या उच्च वर्ग की होती हैं न ही निम्न वर्ग की ! क्या शोषण के इस प्रकार की ओर हमारा ध्यान नहीं जाना चाहिए ?  क्या गुजरात जैसे समृद्ध राज्य को इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए ? ऐसी स्त्रियों की एक अलग दुनिया भी देखने को मिलती है जो फिल्मों, विज्ञापनों, कॉरपोरेट आदि में संलग्न हैं। धर्म और संप्रदाय के प्रचार-प्रसार में नारियों के योगदान से सभी भिज्ञ हैं, उनके साम्राज्य में ठीक वैसा ही बहुत कुछ होता है जैसा पुरुष साधु-संतों या स्वामी-महात्मा के दरबार में होता है । क्या वज़ह है कि भारत की सामान्य की महिलाएँ योग्यता होने पर भी अमुक व्यवसाय या क्षेत्र में जाना पसंद नहीं करतीं ? स्त्री अपने स्त्रीत्व को वरदान समझें या नहीं किन्तु प्राकृतिक रचना और पुरुषों की सीमाओं को उन्हें समझना होगा । काग़जी लेखा-जोखा और ‘वाद’ से हटकर स्त्री मात्र के अस्तित्व और विकास की चिंता कितने नारीवादी संगठन या स्वयं को नारीवादी माननेवाली कितनी नारियाँ करती हैं, अपने ही गिरेबान में झांकना क्या उचित नहीं है ? किन्तु इससे निराश हुए बिना सावधान होकर कार्य करने की आवश्यकता है । स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, सिक्के का कोई एक बाजू या पहलू खराब होने पर सिक्का खोटा ही कहलायेगा । भारत में सरकारी प्रयासों, स्त्री संगठनों और स्त्रियों के सामूहिक प्रयासों तथा शिक्षा के प्रसार से स्त्री के संदर्भ में पुरुषों के परम्परागत नजरिए में लगातार विधायक बदलाव देखने को मिल रहा हैं, तो स्त्रियों को भी इस बदलती मानसिकता में संवादात्मक स्थिति अधिक बलवती हो ऐसे प्रयास करने चाहिए । 

 

[1] मृगनयनी,वृंदावनलाल वर्मा

[2] सरला माहेश्वरी,नारी प्रशन, पृ.42

[3] उद्धृतः वही,पृ.52

[4] उद्धृतःनारी प्रश्न,सरला माहेश्वरी, पृ.20


डॉ.ओमप्रकाश एच.शुक्ल
गुजरात कॉलेज(सायं),
एलिसब्रिज, अहमदाबाद.