नारी समाज और साहित्य में

More on Portrayal of Women in Literary World

भारतीय समाज को निर्देशित करने वाले धर्मशास्त्रों, स्मृतियों, पुराणों, रामायण, महाभारत, संतों-भक्तों के कथनों में जो कुछ नारी के संबंध में कहा गया है, उसे पढ़ने पर माथा चकराने लगता है । कहीं नारी की महिमा का गान करते हुए कहा गया है, ‘जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते  हैं ।’ अन्यत्र कहा गया है, ‘नारी को स्वतंत्र नहीं छोड़ना चाहिए । स्त्री को कुमारी अवस्था में पिता, युवाकाल में पति और वार्धक्य में संतान के संरक्षण में रहना चाहिए ।’ तुलसीदास ने भी नारी-स्वातंत्र्य निषेध किया है, ‘जिमि स्वतंत्र होइ बिगरहिं नारी ।’ स्मृति तंत्र में नारी को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है, किंतु ‘स्कंदपुराण’ में निर्देश है, ‘पति से मारे जाने पर भी उसे (पत्नि को) मुस्काना ही चाहिए ।’ धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे उल्लेख मिलते हैं, जिनसे नारी के उपनयन और ब्रह्मचर्य में प्रवेश प्रमाणित होता है । उदाहरण रूप में लोपामुद्रा, विश्ववारा, घोषा आदि का उल्लेख है । परंतु मनु ने स्त्रियों की निंदा करते हुए उन्हें असत्यभाषिणी कहा है । ‘बृहद्संहिता’ में नारी-निंदकों को फटकारा गया है, ‘उनकी (स्त्रियों की) निंदा करने वाले हे कृतघ्नों, तुम्हें कहाँ सुख मिलेगा ? अनवद्य स्त्रियों की निंदा असाधुओं की धृष्टता है, वह ऐसा ही है, जैसे चोरी करते हुए चोर कहे, रुको चोर ।’ ऐसे परस्पर विरोधी कथन अनेक ग्रंन्थों में है । रामायण और महाभारत में भी ऐसे कथन हैं ।
मध्यकाल में नारी का अपहरण करना वीरता का सूचक था । महाराज पृथ्वीराज ने भी नारी-अपहरण किया था । पुराकाल में कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया । फिर उन्होंने अपनी बहन सुभद्रा का अपहरण अर्जुन से कराया था । मध्यकालीन संतों और भक्तों का नारी के संबंध में दृष्टिकोण घोर कलुषित और निंदापूर्ण था । कबीर से पलटूदास तक सभी ने नारी को ‘नरक का द्वार’ और विश्वासघातिनी कहा । लोक के धर्मग्रंथ से अधिक सम्मान्य ‘रामचरित मानस’ में भी नारी-निंदा में कोताही नहीं की गई है । भगवान् राम भक्तप्रवर नारद जी से कहते हैं-
काम, क्रोध, लोभादि मद, प्रबल मोह के धारि ।
           तिन्ह महं अति दारुन दुखद, माया रुपी नारि ।।
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता । मोह बिपिन कहुं नारी बसंता ।।
जप, तप, नेम जलासय झारी । होइ ग्रीषम सोखै सब नारी ।।
वर्तमान समय में नारी के प्रति समाज का दृष्टिकोण कितना घटिया है, उसे सभी जानते-मानते हैं । कहीं नारी-अपहरण, कहीं उसके साथ दुराचार और कहीं दहेज के लिए जलाया जाना सामान्य घटनाएँ हो गई हैं । सर्वाधिक कष्टकर है, कन्या को दान की वस्तु मानना । आश्चर्य है कि कन्याएँ भी इसे स्वीकार रही हैं ।
स्पष्ट है कि आज तक नारी को कभी, उदार, कभी अनुदार, कभी उत्तम, कभी अधम और कभी शक्तिरूपा, तो कभी नारकीय कहा गया है । नारी के संबंध में इन्हीं मान्यताओं को देखकर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा-
अबला जीवन हाय, तुम्हारी यही कहानी ।
     आंचल में है दूध और आँखों में पानी ।।
भारतीय समाज में नारी की स्थिति पर उसकी प्रमुख भूमिकाओं के आधार पर विचार किया जाना उचित होगा । नारी की चार प्रमुख भूमिकाएँ हैं- (1) कन्या, (2) पत्नि (3) माता (4) पर्दा-प्रथा
कन्या- भारतीय समाज में कन्या को विशेष महत्त्व प्राप्त है । किन्तु इसकी सुरक्षा, पवित्रता और विवाह की चिंता उसके जन्मदाता को त्रस्त करती  है । दाय भाग के अनुसार पुत्र के अभाव में पुत्री पिता की उत्तराधिकारी थी । किन्तु ‘हर्षचरित’ में बाणभट्ट ने कन्या को पिता को अग्नि की तरह जलाने वाली कहा है । लोकाचार में भी कन्या को दुःख का कारक माना जाता है । एक लोकगीत में शत्रु को भी पुत्री न होने कामना की गई है और माता पुत्री को जन्म के समय मारकर गला छुड़ाने की बात कहती है । बहुत समय तक देश के कई क्षेत्रों में जन्म के समय ही कन्या को मार डालने का कुकर्म होता रहा  है । आज भी अनेक सभ्य मान्य महानुभाव गर्भवती पत्नी का परीक्षण कराते हैं और गर्भ में कन्या होने पर गर्भपात कराते हैं । सरकार ने इस भ्रूण-हत्या पर प्रतिबंध लगाया है । संप्रति विधिक व्यवस्था के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्री का भी अधिकार है, किन्तु सामाजिक परंपरा के कारण पुत्रियाँ इस अधिकार का उपयोग नहीं कर रही हैं । जब कभी कोई पुत्री इस अधिकार की माँग करती है, तो उसके पिता के परिवार के लोग उसे अपने वंश का मानने से इनकार कर देते हैं और मुकदमेबाजी में उलझा देते हैं ।
पत्नी पत्नी शब्द का अर्थ है स्वामिनी । परंपरा से गृहस्थी में पति-पत्नी दोनों संयुक्त रूप से अधिकारी मान्य हैं । दंपती की अवधारणा में यही तथ्य निहित है । पत्नी को गृहस्वामिनी और गृहलक्ष्मी कहा गया है । पुराकाल में नवपरिणीता को आशीर्वाद देते हुए कहा जाता था, ‘ससुर के ऊपर सम्राज्ञी हो, देवरों के ऊपर सम्राज्ञी हो ।’ बुद्धकाल तक यह स्थिति बनी रही । किन्तु परवर्तीकाल में बहू पर सास के अत्याचार की कथाएँ मिलती हैं । लोक में ‘दारुण सास’ तो प्रसिद्ध ही है । धर्मशास्त्रों ने नारी पर अनेक अमानवीय बंधन लगाए हैं । प्रायः सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों ने कहा है कि पत्नी का प्रथम कर्तव्य पति की आज्ञा का पालन करना और उसका देवतुल्य आदर करना है । यह भी निर्देश है कि, ‘पत्नी को पति से द्वेष नहीं करना चाहिए । चाहे वह नपुंषक, पतित, अंगहीन अथवा रोगी ही क्यों न हो । स्त्रियों का पति ही देवता है ।’ पत्नी को अकेले बाहर जाने की मनाही है और उसे परपुरुष से बोलने का अधिकार नहीं है । ये सारे बंधन पत्नी के जीवन को नरक बनाते हैं ।
यदि किसी पत्नी ने पुत्र को जन्म नहीं दिया अथवा केवल पुत्री का ही प्रसव किया अथवा निःसंतान हुई, तो उसे घोर उपेक्षा और उत्पीड़न भोगना पड़ता है । मान्यता है कि पुत्र ही अपने पिता को नरकगामी होने से  बचाता  है । पुत्र का अर्थ है- पुंत नामक नरक से त्राण दिलाने वाला । विधवा होने पर पत्नी अमंगल की राशि हो जाती है । उसके लिए दो ही मार्ग प्रशस्त मान्य हैं- एक यह कि विधवा अपने पति के शव के साथ सती होकर स्वर्ग सिधारे अथवा जीवित रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करे । यद्यपि सती होने और जौहर करने की प्रथा आज नहीं है, फिर भी विधवा का जीवन पूर्ववत् विपत्तियों से ग्रसित है । अनपढ़ से लेकर विदुषी पत्नियाँ पति के कल्याण के लिए ‘तीज’ और ‘करवा चौथ’ का व्रत करती हैं तथा भगवान् से प्रार्थना करती हैं कि यही पति उन्हें अगले जन्मों से मिले । भले पति  द्वारा सतायी  जाती हों । यदि कोई पत्नी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित करना चाहती है, तो परिवार में कलह शुरू हो जाता है । सारा परिवार पति के पक्ष में हो जाता है, पत्नी अकेली पड़ जाती है, उस पर अत्याचार बढ़ जाता है और वह या तो पराजय स्वीकार कर लेती है या अपने निश्चय पर अटल रहकर अपना जीवन दूभर बना लेती है । कामकाजी होने पर भी पत्नी को बच्चों के पालन-पोषण और गृहस्थी के अन्य कार्यों को करना पड़ता है । उसे पति और उसका परिवार किसी भी दशा में सेविका ही बनाए रखता है । आधुनिकता का मुलम्मा लगाने पर भी पत्नियाँ भीतर से टूटी हुई हैं ।
माता नारी जीवन की पूर्णता उसके मातृत्व से होती है । उसने पुत्र को जन्म दिया, तो थाली पीटी जाती है, सोहर गाई जाती है और समारोहपूर्वक ‘बरही’ मनाई जाती है । जच्चा का मान बढ़ जाता है, क्योंकि उसने पति को पितृऋण से मुक्त किया है और वंश-परंपरा को आगे बढ़ाया है । धर्म और लोकाचार में यही  मान्यता  है । किन्तु यदि पुत्री को जन्म दिया, तो जननी की उपेक्षा की जाती है और पूरा परिवार शोक-मग्न हो जाता है । पितृ सत्तात्मक परिवार होने के कारण पुत्र ही पिता का स्वाभाविक उत्तराधिकारी होता है । पुत्र-प्राप्ति के लिए प्रायः पतियों ने कई-कई पुत्रियों को जन्म दिया है और दूसरा विवाह तक किया है । शायद ही किसी महिला ने पुत्र के लिए दूसरा विवाह किया होगा ।
स्मृतियों में माता का भरण-पोषण करना पुत्र का कर्तव्य कहा गया है, यहाँ तक कि पतिता होने पर भी । किंतु वर्तमान में यदि माता विधवा हुई, तो प्रायः पुत्र-वधुएँ उसकी दुर्गति करती हैं । राजकीय सहायता भी विधवा को तभी प्राप्त होती है, जब वह बेसहारा हो । पुत्र से संरक्षण का भ्रम उसे सहायता से वंचित करता है । बंगाल से तो विधवाओं को काशीवास और भिक्षाटन के लिए वाराणसी और अन्य तीर्थस्थानों में पहुँचा दिया जाता है । माता प्रत्येक दशा में पुत्र के कल्याण में निरत रहती है । वह पुत्र के कल्याण के लिए ‘जिउतिया’ का व्रत करती है, परंतु उसे प्रायः पुत्र से कष्ट ही मिलता है । यह उक्ति सर्वथा उचित है, ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।’
पर्दा-प्रथा नारी के मुँह और कहीं-कहीं पूरे शरीर को ढकना, उसे घर के किसी भाग में नियंत्रित रखना और घर से बाहर न जाने देना ही पर्दा-प्रथा है । यह प्रथा उत्तर भारत के हिन्दू और मुसलिम परिवारों में प्रचलित रही है । वैदिककाल में यह प्रथा नहीं थी । ऋग्वेद के उद्धरणों से बताया गया है कि उस काल में स्त्रियाँ ‘विदथ’ (सभा, समिति) तथा ‘समन’ (मेला, उत्सव) में स्वतंत्रतापूर्वक जाती थीं । बाद में राजवंश की स्त्रियों को ‘असूर्यम्पश्या’ अर्थात् जिसे सूर्य भी न देख सके बना दिया गया । ‘कथा सरित्सागर’ में रत्नप्रभा ने पर्दा का कड़ा विरोध करते हुए कहा है, ‘स्त्रियों का कड़ा पर्दा और नियंत्रण ईर्ष्या से उत्पन्न मूर्खता है ।’ भारत में पर्दा का व्यापक प्रचार मुसलिम आक्रमण के बाद हुआ । मुसलमानों में इस्लाम की मान्यताओं के कारण कटोर पर्दा प्रथा प्रचलित थी । मुसलिम आक्रमणकारी संपत्ति के साथ स्त्रियों का भी अपहरण करते थे । उनसे स्त्रियों की सुरक्षा के लिए ‘पर्दा-प्रथा’  को  अपनाया गया । इस प्रथा ने नारी को छुई-मुई बनाया और उसे घर की चहरदीवारी में  बंद  कर  दिया । वर्तमान समय में शिक्षा और पाश्चत्य सभ्यता के प्रभाव से इस प्रथा का शिकंजा ढीला हुआ है । परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरावादी परिवारों में यह प्रथा प्रभावी है । नारी की प्रगति में पर्दा-प्रथा आज भी बड़ी बाधा है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पुराकाल से आज तक निरंतर नारी का अंतहीन उत्पीड़न और शोषण पुरुषों द्वारा होता रहा है । भारतीय समाज पुरुष प्रधान है । अतः अपने सारे नियम-विधान अपनी सर्वोच्च को सुदृढ़ करने के लिए निर्मित किए । आवश्यकतानुसार धर्मसूत्रों और स्मृतियों की रचना कर नारी से अपने को देवता की तरह पूज्य मनवाया । आजन्म नारी को स्वतंत्र नहीं होने दिया गया । पांच पतियों की भोग्या होने पर द्रौपदी, कौमार्य में पुत्र-प्रसविनी कुंती, देवराज इंद्र द्वारा घर्षिता अहिल्या को ‘कन्यारत्न’ कहा गया । नारी को चोटिल कर उसके घावों पर मलहम लगाने का भ्रम  उत्पन्न किया गया । कन्या को मानवी से वस्तु बनाकर दान किया जाता है । पत्नी के पद पर प्रतिष्ठित कर नारी को अर्धांगिनी कहा गया, किंतु ऐसा विधान रचा गया कि पत्नी चरणदासी बन गई । गृहिणी कहकर नारी को घर की सीमा में बंद कर दिया गया । अपुत्रा होने पर उसे अपमानित किया जाता है । विधवा होने पर नारकीय जीवन व्यतीत करने को बाध्य किया जाता है । नारी के अंगों का प्रदर्शन विज्ञापन का साधन बन गया है । नगरों में कुछ जागरूक महिलाएँ नारी को शोषण से मुक्त कर पुरुष के समान बनाने के लिए आंदोलन कर रही हैं । लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है । संविधान में नर-नारी को समान अधिकार दिया गया है, किन्तु व्यवहार से पुरुष प्रबल है । संसद और विधानमंडलों में महिलाओं को तैंतीस प्रतिशत स्थान सुरक्षित करने का विधेयक लटका हुआ है ।
महिलाओं को समाज में बराबरी का स्थान तभी प्राप्त हो सकेगा, जब उन्हें शिक्षित और स्वावलंबी बनाया जाएगा । सभी प्रबुद्धजनों का कर्तव्य है कि वे नारी को मानवी के रुप में प्रतिष्ठित करने में तत्परता से योगदान करें ।

 

संदर्भ-ग्रंथ –

  1. श्रीरामचरितमानस – तुलसीदास
  2. मृगनयनी – वृंदावनलाल वर्मा
  3. हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यास और उपन्यासकार – डॉ. द्वारिकाप्रसाद सक्सेना
  4. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई – वृंदावनलाल वर्मा
  5. कामायनी – जयशंकर प्रसाद
  6. अहिल्याबाई – वृंदावनलाल वर्मा

 

प्रेमसिंह के. क्षत्रिय
5, फौजदार न्यू सोसायटी,
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