भारतीय नारी एक पहेली  : विवाविवाह के संदर्भ में

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ईश्वरीय जगत् में नारी एक स्वयं पहेली बन गई है। नारी की शक्ति और उसके अनेकविध स्वरूप को पहचानना पड़ेगा। वह दिल की दिल्लगी, हिमखंड को पीघलानेवाली, प्रेम की पीर, रेत में सुमन खिलानेवाली, मौजी, श्रद्धावान, नदी-सा जीवन जीनेवाली, पवित्रता की परिभाषा के रूप रूप में, वह एक कविता है, मधुरता है, सुजन की उत्कृष्टता, भभाभावना का नि:शब्द आकाश है, सागर की लहराई है, सुख सरिता की अजस्र धारा है। इस तरह अपने समग्र अस्तित्व को दाँव लगा देती है और नये विश्वरूप में प्रस्थापित होती है।लमेना
पुरुष वर्ग हमेशा नारी को भोग्या मानता है, जिससे समाज में माधुर्य व सामंजस्य के स्थान पर कटुता है। इसीलिए एक शायर ने कहा है –
जिस्म की प्यास तो शहर में बुझ सकती है,
हैज़हने आवारा मन आवारा मंज़िल का पता दे कोई।
उपरोक्त शे’र को पढ़कर क बात कहना चाहूँगा कि इस जगत् ने नारी के हृदय की कोमलता को नहीं समझा। नारी पुरुष की धड़कन बनकर जीती हैष जो उसका अधिकार है। पुरुष नारी को प्रेम से जीत सकता है। उसका प्रेम पुरुष के लिए है, पर उस पुरुष के लिए, जो उससे प्रेम करता है।
नारी एवं पुरुष के बीच जो द्वन्द्व है, वह बहुत संवेदनशील है। यदि नारी पुरुष की दासता एवं अंध प्रधानता से जो मुक्ति चाहती है, तो उससे यह समर दृढ़ संकल्प के बल पर ही लड़ना होगा। क्योंकि यह युद्ध न शस्त्रों से लड़ा जा सकता है, न कटारों से, न कटाक्षों से, यह युद्ध तो अपने आपसे ही आत्म स्व. अस्तित्व से लड़ा जाता है, जीवन को अधिक सुखद बनाकर। एक बात कहें तो आज भी नारी को कुंठित रूप में देखा जाता है, जिसका अस्तित्व तो है, किन्तु उसकी भावना की कली को मसल दिया जाता है। और वह जीवन-पर्यंत एक कालिकादी बनकर रह जाती है। पर विश्वप्रसिद्ध, देश-प्रशिद्ध की सौंदर्य साम्राज्ञी हो या उच्चवर्गीय नारी हो उसको हमेशा प्रशंसा मिली। लेकिन विवश, दलित, शोषित, दलति नारी को नहीं मिली।
नारी को सबसे पहले देह सौंदर्य ही पुरुष का आकर्षण केन्द्र में है. मूल रूप से नारी की मानसिकता को दबा दी गई है। नारी अकेले चल नहीं सकती उसे हर दिशा में पुरुष संबंध चाहिए। हमारा यह भेड़िया समाज की व्यवस्था ही इसका मूल कारम है। क्योंकि नारी की विवशता ही उनको पतिता बना देती है। इस त्रासद व्यवस्था की विड़ंबना ही नारी की करुणता को जीवंत कर दे यही हम साहित्य से अपेक्षा रखते हैं।
नैतिकता सामानव-जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है। नैतिकता व्यक्ति का अपना निजी मामला है। निजी सोच है। आज नैतिकता के प्रति नारी-जगत् में विश्वास का संकट आ गया है। क्योंकि आज नैतिकता चाय के प्याले में उष्मा होती है, पर उष्माहीन हो जाएँगी तो हम फैंक देते हैं। उसी तरह यह नैतिकता के सरलीकरण का एक उदाहरण है। लेकिन आज उसका वैश्विकरण होता जा रहा है। इसे अब हम संस्कृति (कल्चर) के के नाम से पुकारते हैं। इसी कल्चर ने हमारे मानवीय मूल्यों को खत्म कर दिया। आज के युग में नारी और पुरुष वर्ग ने नैतिकता को अपना दिल समझ लिया है। चित्रा मृद्गल कृत ‘आवाँ’ उउपन्यास एक जीता-जागता दस्तावेज़ है। नमीता जब मशहूर फोटोग्राफर सिद्धार्थ मेहता के संपर्क में आती है। वह मोडलिंग दुनिया में बुलंदियों को छूना चाहती है, पर अंत में वह उनके कामयाबी का साधन मात्र देह ही बनता है। जैसे –
“देखो पोर्टफोलियों मैं तुम्हारा तैयार करवा दूँगा। फीस की शक्ल-भर बदल जाएगी। अन्यथा न लेना। मैं बेहद स्पष्टवादी, ईमानदार, पेशेवर रवैया का व्यक्ति हूँ। तुम्हें लक्ष्य तक पहुँचाने में कोई कोर-कसर नहीं रखूँगा। लेकिन प्रत्येक अनुबंध में साठ प्रतिशत मेरा – चालीस तुतुम्हारा। पोर्टफोलियो बनाने की एवज में तुम्हें मेरे साथ दैहिक संबंध रखने होंगे। हिसाब बराबर। और कोई चिंता है।म्तु”प (‘आवाँ’, चित्रा मृदुगल, पृ. 293)
दूसरी बात यह है कि भारतीय नारी हमेशा एकपक्षीय निष्ठा एवं स्वामिभक्त रही है। विधि-विधानों मे पुपुरुष को समर्थ मानकर सबकुछ घोषित किया। पर आज नारी को अबला मानकर उससे कुछ भी अपेक्षा करना,  कुपात्र होते हुए भी सुपात्र के समान बननेवाले पुरुष वर्ग समाज में माधुर्यता के स्थान पर कटुता के पात्र बना। लेकिन वर्तमानयुगीन स्त्री-चेतना ने नारी को जगा दिया और आज नारी चेतावनी दे रही है कि यह सब कुछ नहीं चलेगा, पुरुष को अपनी चाल बदलनी होगी। नैतिकता  के मापदंडों पर नारी दृष्टिकोण एवं हित को ध्यान में रखकर पुनर्विचार करना होगा।
भारत में नारी की अस्मिता सम्मानीया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति की नारी से यही अपेक्षा रखती है कि वह मनु, प्राण और आत्मा है, नारी देह नहीं है, संसंस्कृति का मधुरतम् अमृत है, शिशिवत्व है, लय है, सृजन का शृंगार है, पपर नारी की अस्मिता को पपुपुनर्जीवित करना, उसे सही पथ पर लालाना पुरुष का धर्म है। लेकिन हमारी देश की अस्मिता का दुर्भाग्य का कारण इस पाश्चात्य संस्कृति, जो अनेक प्रदूषणों से युक्त है। उसके विषाक्त वातावण में हमारी वर्तमान पीढ़ी साँस ले रही है? विदेशी कुत्सिता उनके कोमलपन पर अपना कुप्रभाव जमा चुकी है यह एक जटील प्रश्न है।
लेकिन याद रखे कि हमारी सभ्यता व संस्कृति ही हमारी पहचान है। अत: प्रत्येक भारतवासी को संकल्प करना चाहिए कि पाश्चात्य संसंस्कृति को त्यागकर अपनी लोक-संस्कृति को अपनाएँ, हमारी संस्कृति हमारी प्रायवायु है, शुद्ध वायु ही शुद्ध संजीवनी है, हमारी प्रतिष्ठा है, हमारी गरिमा है। नारी की सहज प्रवृत्ति नवीनवीनता एवं शृंगार-प्रप्रियता केके साथ हर पुरुष वांछिता विधा का अनुकरण है। संस्कृति की विनाशता का मूल कारण ‘वासना’सं है। वासना की आग ही इस संसार में होनेवाले प्राय: सभी अनर्थों का मूल कारण है काम-वासना ही समूचे अपराधों की जननी है।
उपर्युक्त चिंतन के मूल में पति-पत्नी संबंध की विवशता है। यह विवशता कौन-सी है – इसका जवाब – विवाह है। वाविवाह का धर्मशास्त्रों से ही घनिष्ठ संबंध है। और इस प्रकार विवाह अनुष्ठान है, धार्मिक बंधन जिसको मृत्यु ही तोड़ सकती है। चाहे बंधन बोझ ही क्यों न हो? विवाह क्या है -- “स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्वक अधिकार, रक्षा और सहयोग हो तो विवाह कहा जाता है।”विब यही परिभाषा जयशंकर प्रसादजी के नायक ‘ध्रुवस्वामिनी’ के पुरुष पात्र पुरोहित ने, जो वर्ग-विशेष धर्म की अंतरात्मा का संरक्षक माना जाता है और विवाह अनुष्ठान करने के लिए सर्वाधिकार सुरक्षित प्रतिनिधि है, किन्तु इस व्यवस्था के संदर्भ में  उत्पन्न प्रश्न का नारी पात्र मंदाकिनी के शब्दों में मिल जाता है –
“भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न कर क ही अधिकारों से वंचित नहीं किया है, किन्तु तुम लोगों की दश्युवृत्ति ने उन्हें लूटा है।” (प्रसाद और उनकी धृवस्वामिनी, निरुपमा पोटा, रामनारायण लाल देवीप्रसाद, इलाहाबाद-2, पृ.58)
विवाह तो केवल अधिकार देता है, साथ जीवन जीने का, न कि नारीत्व को एकाधिकार के प्रति विश्वासघात करने का, प्रताड़ित करने का, मिटा देने का और न ही निर्लज्ज, निर्वसन करने का, उपहार की वस्तु समझकर दासी समझकर शैया पर भेजकर काम-क्रिया व क्रीड़ा करने का, द्यूत क्रीड़ा में दाँव पर लगाने का, छल-बल से जीतकर उपभोग करने का, प्रेमजाल में फँसाकर बाज़ार में बेचने का। हिन्दी साहित्य में मृदुला गर्ग के ‘कठगुलाब’ उपन्यास में नारी पात्रों – स्मिता, मारियान, नर्मदा और नीरजा उसके ज्वलंत उदाहरण मिलते हैं। नर्मदा के जवान होने पर उसके मरजी विरुद्ध उसका विवाह असीमा के जीजा के साथ कर दिया जाता है, न तो वह उसका विरोध कर पाती –
“हम मना करनेवाली कौन? बिरादरी की रीत है। दो बहनों की शादी में पाप न हो है, कित्ते मरद कर चुके।त्तबि” (कठगुलाब, पृ.152)
इस प्रकार मृदुलाजी अनमेल विवाह को एक धार्मिक या सामाजिक कर्म न मानकर स्त्री-पुरुष की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति का एक सर्वमान्य साधन है। नारी ने आज अपने व्यक्तित्व का स्वतंत्र विकास किया है। सार्थक दृष्टि से भी अधिक स्वतंत्र है। नारी का यह स्वतंत्र व्यक्तित्व ही पति-पत्नी के बीच संघर्ष का उत्तरदायी है।
जैसे मैंने आगे बताया कि वैवाहिक बंधन न तो नारी को प्रताड़ित करने का है, न मिटा देने का, न तो निर्लज्ज करने का। इसी भयावह सत्य का उदाहरण हमें मधु भादुड़ी के उपन्यास ‘अनादि अनंत’ में मिलता है। पुरुष वर्चस्व का विकृत रूप चौधरी में देखने को मिलता है। जब चौधरी का कुंठित मन आहत हो उठता है तो उसकी प्रतिक्रिया अपनी पत्नी कमली पर उतारता है। एल.एल.बी. की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना, आत्मसम्मान पर पहुँची चोट को सहन करने की क्षमता न होने से सोई पड़ी अपनी पत्नी कमली पर आतंक करने का साहस उसमें भरपूर था। चौधरी जैसे खानदानी पुरुष के लिए य घोर अपमान की बात थी कि उसके आने के पहले अपनी पत्नी सो जाएँ। अपनी इस बेइज्जती का बदला वह तुरंत लेता है –
“छने बालों को एक मुट्ठी में मरोड़ते हुए, दूसरी से दो-चार घूँसे लगा दिया। इससे पहले की कमली रोती या चिल्लाती, उसके शरीर पर कुछ टंगे हुए, कुछ चिपके हुए कपड़ों को पाशविक बल से चीरफाड़ कर ककर अलग कर दिया। इसी आवेग से अपनी भूख मिटाते हुए उनको तोड़-मरोड़ कर रख दिया।र”(अनादि अनंत, पृ. 11)
जैसे-जैसे समाज का विकास होता जा रहा है, वैसे-वैसे स्त्रियों की वैवाहिक स्थिति अधिक विकृत होती जा रही है। लेकिन कमली राजी सेठ के उपन्यास ‘तत्सम्’ कीकी वसुधा की की तरह जीवन की समस्याओं से जुझकर एक नयी दिशा की ओर ले जाती है। इस उपन्यास में घरेलू स्त्री के व्यक्तित्व में आनेवाले जबरदस्त परिवर्तन को लेखिका ने प्रस्तुत किया है।
सन् 2002 में प्रकाशित मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘कस्तूरी कुंडल बसै’ का प्रारंभिक वाक्य -- “मैं ब्याह नहीं करूँगी” औऔर दूसरा वाक्य “डर ! डडर ही तो लगता है चाची. सच्ची, ब्याह से बड़ा डर लगता है।” ये दोनों वाक्य हमारी आँखों को रोशन करने लायक हैं। विवाह रूपी संस्था की संरचना में जो खोखलापन और खोट है। इसकी ओर ये इशारा करते हैं। पर जब दूसरों के दबाव में यानी भाभी के गालीगलौच के दबाव में आकर कस्तूरी ब्याह करने को विवश होती है। मूलत: इस उपन्यास में दो पीढ़ियों के विचार-विकार, मूल्य संकल्पनाएँ, धर्म –जाति, कुल-संप्रदाय आदि धारणाएं बिखर पड़ी है। असल में स्त्री अस्मिता के तहत होनेवाली आकांक्षाओं और संवेदनाओं का आख्यान है ऐसा मैत्रीयीजी का मानना है।
विवाह केवल ‘पति’ शब्द अलंकरण रूप नहीं देता, वह सबलता, सशक्तता का भाव देता है, जिसमें सुरक्षासुरक्षा का केवल नेता की तरह वादा नहीं छिपा है, लेकिन पौरुष की साक्षात् दृदृढ़ता, कठोरता, प्राण न्यौछावर करके रक्षा करनेवाली भावना एवं संकल्प निहित है। पति-पत्नी में संपूर्ण हृदय की गहराइयों से उपजी चा चचाह, वह वह विश्वास हीही पति-पत्नी के संबंधों को सुमधुर, सरस, समर्थ अर्थ देता है, आनंद देता है। वर्तमान समाज में व्यक्ति की सामाजिक और नैतिक आवश्यकता मात्र नहीं है। प्रभा खेतान के उपन्यास ‘पीली आँधी’ में सुजीत विविवाह संबंध में कहता है –
“विवाह एक संस्था है, रजिस्ट्री कागजों पर सही किया हुआ नाम है। तलाक की व्यवस्था कानून ने बनाई है। कानून मनुष्य के स्वाभाव को समझकर ही बनाया जाता है। यदि दो व्यक्ति एक साथ नहीं रह सकते, यदि कोई गहरी कमी हो, तब इस बंधन को तोड़ा भी जा सकता है। बल्कि तोड़ ही देना चाहिए।”वमेंननआ(पीली आँधी,पृ पृ. 241)
धर्मपूर्वक जो प्राप्त कर ली जाये, वह धर्मपत्नी। धर्म की सौगंध खाकर जो प्राप्त कर ली जाये, वह सहधर्मिनी। धर्म की विधि, जिससे स्वेच्छापूर्क प्रण एक-दूसरे में विहित होकर जीने का लिया जाये, वह विवाह है, किन्तु अनुष्ठान औपचारिकता भी हो सकती है, विवशता भी हो सकती है।
अंत में वर्तमान समाज की व्यवस्था में पुरुष की जो मानसिकता है, नारी का मानमर्दन किया है, जो जो अब कर्तव्यभार ससे विकविकल्पित करनी होगी। ऐसा अब  चैतन्य संदेश नारी की गरिमा दे दे रही है। जो नैतिकता नारी को बंधन में बाँधती है, जो उस बंधन रूप श्रृंखला का एक छोर पुरुष को बाँधने के लिए भी होता है। नैतिकता उभयपक्षी व्यवस्था की समर्थक है, एकपक्षीय पालनीय व्यवस्था नहीं। नारी धारण करती है, इस कारण पवित्र देह का महत्त्व सर्वोपरि है, किन्तु पुरुष भी पवित्र मन से वैवाहिक प्रतिज्ञा का धर्म निर्वहन करे, तभी सहवास की सार्थकता होती है। इसके मूल में ‘विवाह-संस्था’ ही मूल बीज है।

डॉ. अमृत प्रजापति
सरकारी आर्ट्स एवं कॉमर्स कॉलेज, कडोली
ता. हिंमतनगर, जि. साबरकांठा
मो. 9426881267