हिन्दी उपन्यास-साहित्य में नारीवाद सिद्धांत, स्वरूप और सत्य

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 “बहुत शोर सुना था पहलू में दिल का
काटा तो कतरा-ए खून भी न निकला ।”
आज नारीवाद शब्द का उच्चारण करते ही कितने ही लोगों की भौंहें सिकुड जाती है । इसका कारण यह है कि ‘नारीवाद’ या ‘नारीवादी’ विचारधारा के बारे में आज-कल अच्छी-खासी भ्रान्तियाँ और ग़लतफहमियाँ फैली हुई हैं । ‘स्त्री-मुक्ति’ (Women’s Liberation) और ‘नारीवाद’ (Feminisim) – इन दो शब्दों को इतना तोड़ा-मरोड़ा गया है कि आज खुद कई स्त्रियाँ ‘नारीवादी’ होने से साफ इन्कार करती हैं ।
सबसे पहले तो एक भी कदम आगे बढ़ने से हमें इन तीन शब्दों को समझ लेना चाहिए ।
(1) नारीत्व (Femaleness)
(2) नारीयता (Feminity)
(3) नारीवाद (Feminism)
‘नारीत्व’ पुरुष और स्त्री के बीच का शारीरिक व जैविक अंतर स्पष्ट करनेवाला शब्द है ।
‘नारीयता’ का अर्थ है समाज एवं संस्कृति द्वारा नारी का वह विशिष्ट निर्माण जिसके माध्यम से उसकी भूमिका, पहचान, सोच, मूल्य और अपेक्षाओं को गढ़ा जाता है । दूसरे शब्दों में कहें तो ‘नारीयता’ का निर्माण, समाज, सांस्कृतिक, मूल्यों, परंपरा एवं रीति-रिवाज, साहित्य एवं ज्ञान परंपराओं तथा धर्म के व्यवहारों के माध्यम से होता है । हमारे यहाँ बालिका (नारी) को बचपन से ही क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, आज्ञाकारिता जैसे गुणों को अपनाने की शिक्षा दी जाती है ।
अब बात करते हैं ‘नारीवाद’ की । ‘नारीवाद’ एक ऐसा विचार है जो पुरूष और स्त्री के बीच की असमानता को स्वीकार करते हुए नारी के सशक्तिकरण की प्रक्रिया को बौद्धिक एवं क्रियात्मक रूप से प्रस्तुत करता है । नारीवाद एक विचारधारा भी है और एक आंदोलन भी ।
वैसे तो नारीवाद की कोई ऐसी शाश्वत परिभाषा संभव नहीं है जो हर समय, हर स्थान पर लागू की जा सके । नारीवाद को स्वरूप प्रत्येक समाज की संस्कृति, वहाँ की आर्थिक-सामाजिक वास्तविकताओं तथा जनमानस की चेतना, जागरूकता एवं सूझबूझ पर निर्भर करता है ।
17वीं शताब्दी में जब सब से पहली बार ‘नारीवाद’ (Feminism) शब्द का प्रयोग किया गया, तब उसका एक विशेष अर्थ था, आज 2012 में उसका प्रयोग बिलकुल भिन्न अर्थ में होता है । ‘नारीवाद’ की एक सर्वसामान्य परिभाषा के अनुसार नारीवाद का अर्थ वह वाद या मत है जिसमें नारी की निजी एवं विशिष्ट अनुभूतियों का बयान होता है । वह नीति या मुहिम जिसमें जातिगत समानता के धरातल पर नारी के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की स्थापना का प्रयास होता है । दक्षिण एशिया में नारीवाद संबंधी कार्याशाला में नारीवाद क्या है, यह समझाते हुए कहा गया –
“पितृसत्तात्मक नियंत्रण व परिवार, काम की जगह व समाज में, भौतिक व वैचारिक स्तर पर औरतों के काम, प्रजनन और यौनिकता के दमन व शोषण के प्रति जागरूकता तथा स्त्रियों व पुरूषों द्वारा इन मौजूदा परिस्थितियों को बदलने की दिशा में जागरूक सक्रियता ही नारीवाद है ।”1
नारीवादी आंदोलन फ्रेन्च रिवोल्यूशन, इंग्लिश रिवोल्यूशन, अमेरिकन रिवोल्यूशन और द्वितीय विश्वयुद्ध से काफी प्रभावित रहा । इसके अलावा कुछ पुस्तकों का भी ज़बरदस्त प्रभाव नारीवादी आंदोलन पर रहा । कुछ ग्रंथ विशेष रूप से नारीवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे –
  • मेरी वोलंस्टोन क्राफ्ट कृत
‘ए विंडीकेशन ऑफ दि राइट ऑफ मॅन’
‘ए विंडीकेशन ऑफ दि राइट ऑफ वीमेन’
  • फ्रेन्च लेखिका सीमोन द बोउवार रचित
‘द सेकंड सेक्स’
  • बेट्टी फ्राइडन रचित ‘द फेमिनिन मिस्टिक’
पुरुषों की भी नारीवादी आंदोलन में सक्रिय भूमिका रही है । इस संदर्भ में कुछ रचनाएँ जैसे कि –
  • जॉन स्टुअर्ट मिल कृत ‘द सब्जेक्शन ऑफ वीमेन’
  • हेनरिक इब्सन कृत ‘द डोल्स हाउस’
  • वर्जीनिया वूल्फ कृत ‘द रूम ऑफ वन्स ओन’ विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं ।
नारीवाद के विभिन्न रूप :
जिस प्रकार नारी के अलग-अलग रूप हैं – एक बच्ची, एक छात्रा, एक काम-कामी महिला, एक वात्सल्यमयी माँ, एक गृहिणी, एक तलाकशुदा या विधवा स्त्री । इसी प्रकार से नारीवाद के भी कई चेहरे हैं –
  • उदारतावादी नारीवाद (Liberal Feminism)
  • अतिवादी नारीवाद (Radical Feminism)
  • मार्क्सवादी नारीवाद (Marxist Feminism)
  • समाजवादी नारीवाद (Socialist Feminism)
  • पर्यावरण संबंधी नारीवाद (Eco Feminism)
  • सांस्कृतिक नारीवाद (Cultural Feminism)
  • इस्लामी नारीवाद (Islamic Feminism)
ये सभी प्रकार के नारीवाद अन्ततोगत्वा औरतों की बेहतरी की ही बात कहते हैं और कारणों को समझकर औरतों की स्थिति को सुधारने के लिए वचनबद्ध हैं । नारीवाद के विषय में प्रचलित कुछ गलत धारणाएँ :
नारीवाद के संबंध में कई भ्रान्तियाँ एवं ग़लत धारणाएँ प्रचलित हैं, जिनके संबंध में सोच-विचार करने की आवश्यकता है ।
1.‘नारीवाद’ पश्चिमी धारणा है, हमारे यहाँ उसकी क्या ज़रूरत ?
हाँ, यह सच है कि नारीवाद का मूल कॉन्सेप्ट पश्चिम की देन है । लेकिन केवल इसी कारण उसकी निंदा या विरोध करना कहाँ तक उच़ित है ? यदि हम अंग्रेजी पहनावा पहन सकते हैं, अंग्रेज़ी भाषा बोल सकते हैं; यदि आधुनिक विज्ञान या औद्योगीकरण पर कोई उंगली नहीं उठाता जो कि पश्चिमीकरण की देन है तो फिर ‘नारीवाद’ पर ही क्यों उंगली उठाई जाती है ?
आइन्स्टाइन गुजरात में पैदा नहीं हुए थे, लेनिन या मार्क्स कलकत्ता के नहीं थे । तो क्या इस वजह से उनका महत्त्व या योगदान हमारी दृष्टि में कुछ कम हो जाता है ? नहीं ना ! तो फिर ‘नारीवाद’ को भौगोलिक सीमाओं में बाँधने की कोशिश क्यों की जाती है ?
वैसे इस संदर्भ में हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि हमारे यहाँ चाहे उसे ‘नारीवाद’ नाम न दिया गया हो, पर उसके बीज छठी शताब्दी पूर्व मिलते हैं । इस संदर्भ में गौतमी और भगवान बुद्ध का प्रसंग उल्लेखनीय है । गौतमी अन्य स्त्रियों के साथ भगवान बुद्ध के पास दीक्षा लेने जाती है, तब गौतम बुद्ध औरतों को दीक्षा देने से इन्कार कर देते हैं । तब गौतमी वाद-विवाद करती है कि यदि पुरूषों को दीक्षा के योग्य माना जाता है तो स्त्रियों को क्यों नहीं ? गौतमी एक तरह से स्त्री के प्रति होनेवाले अन्याय के ख़िलाफ आवाज़ उठाती है और अंततः गौतम बुद्ध उन तमाम स्त्रियों को दीक्षा देना स्वीकार करते हैं । हालाँकि उनका दर्जा पुरूष भिक्षुओं की तुलना में निम्न ही रहता है । आज 2500 वर्ष बाद भी कुछ धर्मों में स्त्रियों को समानाधिकार नहीं मिले हैं ।
नारीवाद के विषय में एक प्रचलित ग़लत धारणा यह भी कि सारे पुरूष नारीवाद के विरोधी होते हैं ।
यह एक नितांत ग़लत मान्यता है । विश्व-इति़हास के पन्ने पलटकर देखें तो ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जहाँ पुरूषों ने नारीवाद और स्त्री-मुक्ति आंदोलन की बागडोर संभाली है ।
उदाहरण के लिए चीन में कांग-यू-वेइ ने स्त्री-शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई और चीन में बचपन से ही बच्चियों के पैर बांधने की क्रूर प्रथा पर उसने आघात किये ।
सन् 1855 में फरेस शिंद्थक की नारी-स्वातंत्र्य के समर्थन में लिखी गई, पुस्तक ‘वन लेग क्रोस्ड ओवर द अदर’ और इसी दौरान कासिम अमीन की ‘द न्यू वूमन’ किताब भी विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपने समाज में भारी हल-चल मचा दी थी ।
भारत में सतीप्रथा और दासत्व का विरोध करनेवाले राजा राममोहनराय तथा स्त्री-कल्याण के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान देनेवाले ईश्वरचंद्र विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी, सरदार पटेल और नेहरूजी को भी हम कैसे भूल सकते हैं ? नारीवाद के विषय में तीसरी प्रचलित ग़लत धारणा यह है कि ‘नारीवाद’ का दायरा अत्यंत संकीर्ण और सीमित है । दूसरे शब्दों में कहें तो नारीवादी स्त्रियाँ बस अपना रोना ही रोती रहती हैं ।
हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि नारीवाद का संबंध स्त्रियों से जुड़े सवालों और समस्याओं से है । लेकिन नारीवाद केवल इन्हीं सवालों तक सीमित नहीं है । नारीवादियों की चिंता व चिंतन का घेरा केवल बलात्कार, पत्नी प्रताडना, फेमिली प्लानिंग व समान वेतन के मुद्दों में ही सिमटा हुआ नहीं है । स्त्री स्त्री होने के साथ-साथ मनुष्य है और विश्वभर की आधी जनता है । अतः देश – समाज – विश्व का हर विषय नारीवाद के दायरे में आता है ।
डॉ. कमल भसीन का नारीवाद के विषय में यह मत दृष्टव्य है –
“1995 में हुई बीजिंग कान्फ्रेन्स के मुख्य नारे के अनुसार नारीवाद का अर्थ है – ‘दुनिया को औरतों को नज़र से देखना’ ।2
अतः चाहे अणु-युद्ध हो या आण्विक करार का मुद्दा हो, साम्प्रदायिक दंगे हों, आर्थिक विकास संबंधी नीतियाँ हों या पर्यावरण संबंधी मुद्दे – हर विषय पर नारी का अपना एक दृष्टिकोण होगा, जो कि पुरूषवर्ग से भिन्न होगा । नारीवाद नारीसमाज के इस दृष्टिकोण के स्वीकार एवं नारियों की समाज के हर क्षेत्र में बराबर की साझेदारी, हिस्सेदारी पर बल देता है । इसीलिए आज नारीवादी स्त्रियों का नारा है –
“सीना-पिरोना है धंधा पुराना
हमें दो ये दुनिया गर रफू है कराना ।”
(पृ.34, वही)
नारीवाद के विषय में एक और व्यापक ग़लत धारणा यह है कि नारीवादी औरतें पुरूष-विरोधी होती हैं । यही नहीं, वे विवाह, परिवार एवं मातृत्त्व विरोधी भी होती हैं ।
नारीवादियों पर यह आरोप बार-बार लगता है कि वे घर तोडनेवाली हैं, घरों की शांति भंग करनेवाली हैं । लेकिन यह भी एकपक्षीय आरोप है, नितांत असत्य है ।
हाँ, यह सत्य है कि कोई भी सच्चा नारीवादी (स्त्री अथवा पुरूष) जहाँ कहीं भी स्त्री-शोषण, अन्याय या असमानता देखेगा, वहाँ उसके खिलाफ आवाज़ जरूर उठायेगा यह विरोध कुछेक घरों की शांति भंग करे, यह भी संभव है । लेकिन यह कुछ ऐसी ही बात है जैसे हरिजन मैला उठाने से इन्कार करके सभ्य समाज की शांति भग करे या कोई काश्तकार या मज़दूर ज़मींदार से अपने अधिकार मांगकर गांव या कारखाने में अंसंतोष फैलाये । पर जरा सोचकर देखें तो नहीं लगता कि कभी-कभी किसी एक व्यक्ति के सुख-शांति दूसरे के लिए जिंदा नर्क से कम नहीं होते ।
वैसे भी नारीवादी स्त्रियों पर जो घर की शांति भंग करने का आरोप लगाया जाता है तो पहले हमें यह जानना चाहिए कि इस ‘शांति’ की सही व्याख्या क्या है ? जब तक स्त्रियाँ पतियों से घरेलू काम में मदद करने को नहीं कहतीं, रोते हुए बच्चे की संभालने के लिए नहीं कहतीं, तब तक ही यह ‘शांति’ बनी रहती है । चुप्पी का अर्थ समस्या का न होना नहीं होता और न ही शांति का अर्थ सुख होता है । कई घरों की शांति सुख और संतोष के वातावरण से जन्मी नहीं, बल्कि मरघ़ट की दमघोंटू और ज़ानलेवा शांति होती है । जब स्त्रियाँ अपनी पीड़ा, अप़मान और कुंठाओं के प्रति रिएक्ट करती हैं तो यह शांति क्षणार्ध में नष्ट हो जाती है और फिर सारा दोष नारीवाद के सिर पर मढ़ दिया जाता है ।
अमृता प्रीतम का कथन है कि ‘औरतों की ज़िन्दगी कोख के अंधेरे से कब्र के अंधेरे तक का सफर है ।’
आज भी उच्च एवं संपन्न वर्ग सहित लाखों घरों में स्त्रियाँ शोषण एवं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं । उनके साथ मार-पीट, शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना, उपेक्षा एवं अपमान के किस्से आये दिन प्रकाश में आते हैं । आज भी कई स्त्रियाँ भयंकर तनाव और कुण्ठा की स्थिति में जी रही हैं । आज के कई सर्वेक्षण, अध्ययन और आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि आज भी बेटों की तुलना में बेटियों को भोजन, शिक्षा, चिकित्सा आदि सुविधाएँ व देखभाल कम प्राप्त होती हैं । जबकि काम का बोझा लड़कियों पर ज्यादा रहता है । वर्ष 2000 तक के आँकडों के अनुसार दक्षिण एशिया में पुरुषों के अनुपात में औरतों की संख्या साढ़े सात करोड़ जितनी कम है ।
इस प्रकार की असमानतापूर्ण स्थिति परिवार और समाज के लिए घातक ही सिद्ध होगी । आज अधिकतर औरतें कामकाजी हैं, उन्हें घर और दफ्तर का दोहरा बोझ ढोना पडता है । औरतों ने तो आर्थिक उपार्जन करके पुरुषों की ज़िम्मेदारियाँ बाँटी हैं, लेकिन आज भी अधिकतर पुरुष खाना बनाना, घर की साफ-सफाई, बच्चों को संभालना जैसे घरेलू कामों में औरतों का हाथ नहीं बँटाते । कमला भसीन जैसी नारीवादी विदूषी इस प्रकार की अन्यायपूर्ण व्यवस्था की भर्त्सना करते हुए कहती हैं –
“अगर औरत खाना पका सकती है तो
पुरुष भी पका सकता है,
क्योंकि खाना पकाने के लिए
बच्चेदानी की ज़रूरत नहीं होती ।”4
इस तरह नारीवाद के विषय में जो तरह-तरह की ग़लतफहमियाँ और बेसिर-पैर की मान्यताएँ हमारे समाज में प्रचलित हैं, उन्हें ताक पर रखकर अपने दिमागों पर जमी पूर्वग्रहों और संकुचितता की धूल झाड़कर फिर जब हम नारीवादी दुनिया के द्वार पर दस्तक देते हैं, तो खुल जा सिम-सिम की तरह एक बिलकुल नई अद्दभुत एवं आशापूर्ण दुनिया के द्वार हमारे सामने खुल जाते हैं ।
नारीवादी अध्ययन :
जैसा कि श्री नरेन्द्रकुमार सिंधी कहते हैं –
“पिछले कुछ दशकों में नारी संबंधी अध्ययन व महिला उत्थान विषयक विचारधाराओं ने बौद्धिक जगत में एक केन्द्रीय व महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है ।”5
आज नारीवादी अध्ययन (Feminist Studies) के अंतर्गत नारी अध्ययन का विषय और उद्देश्य दोनों हैं । आज तक इतिहास हो या विज्ञान, साहित्य हो या समाजशास्त्र-पुरुष के नज़रिये से ही उनका अध्ययन और विश्लेषण हुआ है । पर अब स्त्रियों ने पुरुषों के इस एकाधिकार को चुनौती दी है । अब तक इतिहास (History = his-story) पुरूषों की कथा रहा है । नारीवादी अध्ययन का मुख्य हेतु है औरतों की कथा (Her-story) कहना ।
डॉ. कमला भसीन एवं निघत सईद खान नारीवादी अध्ययन के विषय में कहते हैं कि ‘अब स्त्रियों ने अर्थ खोजने, व्याख्या करने, पारिभाषित करने जैसे अधिकार, जो अब तक पुरूषों की बपौती थे, हांसिल किए हैं ।’
नारीवादी अध्ययन के अंतर्गत परिवार, यौनिकता, अंतर्सम्बन्ध आदि विषयों को एक बिलकुल ही नये परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है जो अब तक उपेक्षित थे । नारीवादी अध्ययन दरअसल समाज और सामाजिक सिद्धांतों का पुनःनिरीक्षण करता है और इनमें छिपे पुरुष झुकावों (Male bias) को उजागर करके पुरुष विषयनिष्ठता (Male Objectivity) के मिथक को तोड़ता है । नारीवादी अध्ययन के अनुसार समाज, राजनीति, विज्ञान, इतिहास, साहित्य आदि आधे-अधूरे हैं, क्योंकि उनमें स्त्रियों का नज़रिया नदारद है । हम इस अर्धसत्य को सत्य नहीं मान सकते और वैसे भी अर्धसत्य तो झूठ से भी ज्यादा खतरनाक होता है ।
नारीवादी अध्ययन के संदर्भ में ही हमारी भाषा या भाषिक संरचना पर भी कई सवालिया निशान खड़े हुए हैं । हमारा भाषा-प्रयोग मूलतः लिंगवादी है । वह पुरूषों की उत्तमता और स्त्रियों की हीनता या लघुता को प्रचारित करता है – ऐसा एक प्रकार के नारीवादी अध्ययन का निष्कर्ष है ।
उदाहरण के लिए ‘किसान’ और ‘मजदूर’ शब्द हमारी भाषा में पुल्लिंग हैं, जबकि भारत में बहुत बड़ी तादाद में औरतें किसान मज़जूर हैं ।
हिन्दी-उर्दू भाषा में बड़ी चीज़ पुल्लिंग होती है और छोटी चीज़ स्त्रीलिंग उदाहरण के लिए ‘कटोरा-कटोरी’, ‘पहाड़-पहाड़ी’ आदि । ऐसी भाषा एक खास प्रकार की मानसिकता को बढ़ावा देती है ।
दरअसल, नारीवादी अध्ययन के अंतर्गत हमारी भाषिक संरचना पर भी पुनर्विचार करने की भी बेहद ज़रूरत है, ऐसा कई जागरूक लोगों ने महसूस किया है । इसके पीछे का वाहिद तर्क यह है कि स्त्रियों को नकारनेवाली भाषा उनके योगदान को भी नकारती है और उनके काम, मेहनत पर पर्दा डालती है ।
इस प्रकार नारीवादी अध्ययन का ही ख़ास पहलू है – भाषा और साहित्य ।
नारीवादी लेखन :
“तुम मौज-मौज मिस्ले-सबा घूमते रहो,
कट जाये मेरी सोच के पर तुम को इससे क्या ।”
  • परवीन शाकिर
प्राचीन काल से ही नारी साहित्य के केन्द्र-स्थान में रही है । पर दुर्भाग्य से हमारे यहाँ नारी या तो देवी की तरह अतिसम्मानीय रही है या फिर उसे दायी या पैरों की जूती माना गया है । लेकिन वह भी एक व्यक्ति है, इन्सान है, उसमें भी ख़ूबियों-ख़ामियों का एक मिला-जुला संवेदन विश्व सांस लेता है, ऐसा शायद ही कोई मानता है । जैसा कि राजेन्द्र यादव कहते है –
“ट्रेजेडी यह है कि नारी से ज़्यादा नारी का आइडिया ही हमें सदा सम्मोहित करता रहा है ।... हमारी सारी परंपरागत सोच में नारी को दो हिस्सों में बाँट दिया गया है । कमर से ऊपर की नारी और कमर से नीचे की औरत । हम पुरूष को उसकी संपूर्णता में देखते हैं, उसकी कमियों और कमज़ोरियों के साथ उसका मूल्यांकन करते हैं, पर नारी को हम संपूर्णता में नहीं देख पाते । कमर से उपर की नारी महिमामयी है, करूणा भरी है, सुंदरता और शील की देवी है – वह कविता है, संगीत है, अध्यात्म है और अमूर्त है । कमर से नीचे वह काम – कंदरा है, कुत्सित और अश्लील है, ध्वंसकारिणी है, राक्षसी है और सब मिलाकर नरक है ।”6
जैसे कि सीमोन द बोउवा कहती है – ‘औरत पैदा नहीं होती, बनायी जाती है ।’ समाज ने चाहे स्त्री को उपेक्षित रखा हो, धर्म ने इसे मारा और जलाया हो, पर साहित्य के रचयिताओं – विशेषतः उपन्यासकारों/कथाकारों ने स्त्री को मानवीय करूणा और सहानुभूति से देखा है । तोल्सतोय, दोस्तोवयस्की, शरतचंद्र, मोपांसा, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद सभी के साहित्य का केन्द्रबिंदु नारी ही रही है । इस संदर्भ में मिर्ज़ा हादी “रुसवा” के ‘उमरावजान अदा’ का उल्लेख आवश्यक है । इसमें अपराध जगत के बीच साँस लेनेवाली उमरावजान में पहलीबार मानवीय गरिमा की झलक देखने को मिलती है । लेखक ने इस बदनाम स्त्री की अंतरात्मा में झाँकने का प्रयास किया है ।
मीरा और महादेवी वर्मा का व्यक्तित्व और कृतित्व नारी के अस्तित्व और गरिमा को स्थापित करने की दिशा में सुदृढ-ठोस कदम हैं ।
आज नारीवादी लेखन के माध्यम से कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाये जा रहे हैं – स्त्री की दुनिया कहाँ है ? घर में या बाहर ? हज़ारों साल वस्तु और मादा बने रहने की मूल यातना और नारी होने की सज़ा भुगत रही औरत के दिल के कई छिपे कोनों को नारीवादी लेखन छू रहा है; उसके नासूर बन चुके घावों को नारीवादी लेख न सिर्फ बेनक़ाब कर रहा है, बल्कि उन घावों को भरने की भी किसी हद तक कोशिश कर रहा है ।
रघुवीर सहाय की एक कविता आज की नारी, उसके अस्तित्त्व और उसकी यंत्रणा को बड़ी मार्मिकता से उभारती है –
“पढ़िए गीता / बनिए गीता
फिर इन सब में लगा पलीता /
निज घर-बार बसाइए / होंय कटीला /
लकडी सीली /आँखें नीली /
घर की सब से बड़ी पतीली /
भर-भर भात पकाइए ।”
वर्तमान समय में बंगाली हो या मराठी, गुजराती हो या हिन्दी – हर भाषा-साहित्य में नारीवादी लेखन की प्रवृत्ति उभरकर सामने आ रही है और आज नारीवादी लेखन साहित्य के मुख्य प्रवाह (main stream) का हिस्सा बन चुका है ।
नारीवाद का motto है - ‘समानता, सम्मान, स्वतंत्रता ।’ नारी से जुड़े यही मुद्दे नारीवादी लेखन के केन्द्र में है । इसके अलावा दहेज, स्त्रीहिंसा, बलात्कार, घरेलू हिंसा, स्त्री भ्रूण हत्या, कामकाजी महिला के प्रश्न, तलाकशुदा एवं विधवा स्त्रियों की समस्याएँ, नौकरी में असमानता, वैयक्तिक कानून, धर्म तथा रीतिरिवाजों के माध्यम से स्त्रियों का दमन, मातृत्त्व (गर्भधारण) तथा गर्भपात का अधिकार आदि स्त्रियों से जुड़े कई छोटे-बड़े मुद्दों का नारीवादी लेखन के अंतर्गत समाविष्ट कर लिया गया है ।
हिन्दी साहित्य में महादेवी वर्मा कृत ‘शृंखला की कड़ियाँ’ नारीवादी लेखन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है । वर्तमान समय में कई समर्थ लेखक-लेखिकाओं ने नारीवादी लेखन को अत्यंत सशक्त और सार्थक बनाया है ।
विशेष रूप से हिन्दी का उपन्यास और कथा-साहित्य नारीवादी लेखन की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध और सार्थक है । इस्मत चुगताई के ‘कागज़ी है पैरहन’ से हम भारतीय नारीवादी लेखन का प्रारंभ मान सकते हैं । साठोत्तरी हिन्दी नारीवादी लेखन (उपन्यास एवं कथा-साहित्य) में जो नाम बुलंदियों को छूते हैं, उन में कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, प्रभा खैतान, मैत्रेयी पुष्पा, ममता कालिया, चित्रा मुद्दगल, राजी सेठ, नासिरा शर्मा, कृष्णा अग्निहोत्री, शशिप्रभा शास्त्री, सूर्यबाला, कुसुम अंसल, कमल कुमार, अलका सरावगी, मेहरुन्निसा परवेज़, लवलीन, लता शर्मा, गीतांजलिश्री, कृष्ण बलदेव वैद, सुरेन्द्र वर्मा, चन्द्रकान्ता, सत्येनकुमार, तहमीना दुर्रानी आदि महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ।
हिन्दी नारीवादी उपन्यास लेखन में पुरूष लेखकों का योगदान भी कुछ काम नहीं है । यशपाल के ‘दिव्या’ उपन्यास में नारी स्वातंत्र्य का अक्स काफी चटख है । तो भगवतीचरण वर्मा का ‘चित्रलेखा’ उपन्यास पाप-पुण्य के सवालों को उठाते हुए उसमें स्त्री की भूमिका पर विचार करता है । इसके अलावा कृष्ण बलदेव वैद का ‘नर-नारी’, सुरेन्द्र वर्मा का ‘मुझे चांद चाहिए’, सत्येनकुमार का ‘नदी को याद नहीं’, धर्मेन्द्र गुप्त के उपन्यास ‘रंगी हुई चिडि़या’ में स्त्री-चेतना के विविध रंग लक्षित होते हैं । लेकिन इसके बावजूद महिला उपन्यासकारों की तो बात ही कुछ और है ।
हिन्दी महिला उपन्यास लेख का दायरा घर-परिवार तक ही सीमित नहीं रहा । उनका सरोकार समाज और राष्ट्र से भी बराबर रहा है । मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’, महाश्वेता देवी का ‘जंगल के देवदार’, कृष्णा सोबती का ‘ज़िन्दगीनामा’, कुरेतुल एन हैदर का ‘आग का दरिया’, प्रभा खैतान का ‘छिन्न मस्ता’, नासिरा शर्मा का ‘ज़िन्दा मुहावरे’, चित्रा मुद्दगल का ‘आवाँ’, मैत्रेयी पुष्पा का ‘अल्मा कबूतरी’ आदि उपन्यास इस संदर्भ में विशेष रूप से दृष्टव्य हैं ।
मृदुला गर्ग का ‘चित्तकोबरा’ तथा कृष्णा सोबती का ‘मित्रो मरजानी’ उपन्यास अपने साहसी यौन-वर्णन के कारण चर्चित रहे हैं । तो राजी सेठ के ‘तत-सम’ और ‘निष्कवच’ उपन्यासों में नारीवादी मुखर तीव्र आत्यंतिक स्वर न होकर, किसी भी प्रकार की नारेबाज़ी से परहेज़ करते हुए एक विशिष्ट प्रकार की संकुलता और अंतःप्रवाह (Uunder Current) है, जो उन्हें लीक से हटकर एक अलग संवेदना-विश्व से जोड़ते हैं ।
राजी सेठ के उपन्यासों में नारीवादी दृष्टिकोण :
राजी सेठ ने उम्र के पिछले पड़ाव में यानी कि उत्तरार्ध में लिखना प्रारंभ किया, लेकिन राजी सेठ की कलम चिर युवा है । राजी सेठ के लेखन में परिपक्वता और ताज़गी का चिर मिलन लक्षित होता है । राजी सेठ के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है किसी भी प्रकार के पक्षपात एवं पूर्वग्रह से रहित संतुलित दृष्टिकोण, अपने रचनाकर्म के प्रति ईमानदारी और नपी-तुली, सधी हुई प्राणवान भाषा ।
राजी सेठ के उपन्यासों ‘तत-सम’ (1983) और ‘निष्कवच’ (1995) को केन्द्र में रखते हुए उनके नारीवादी दृष्टिकोण की समीक्षा करें तो स्वतः स्पष्ट है कि राजी सेठ के नारीवाद में न तो पुरुष के प्रति स्पर्धा का या कटुता का भाव लक्षित होता है, न ही स्त्री के प्रति लिजलिजी आत्मदया का भाव । पुरूष-स्पर्धी अन्य आधुनिक स्त्रियों की तरह राजी अपने लेखन में न तो स्त्री होने से इन्कार करती हैं, न उसे नष्ट करती है, बल्कि उसे नैसर्गिक रूप में आने देती हैं । नारीवाद के विभिन्न प्रकारों को लक्ष्य में रखें तो ‘तत-सम’ में वसुधा, विवेक, आनंद के द्वारा राजी का उदारतावादी नारीवाद (Liberal Feminism) लक्षित होता है; जबकि ‘निष्कवच’ की मार्था पुरूषजाति के लिए सीने में भयंकर नफरत पालनेवाली अतिवादी नारीवाद (Radical Feminism) की ज़िंदा मिसाल है । दोनों के माध्यम से राजी बात एक ही करती हैं – संतुलन और साहचर्य की और गहरे दबा हुआ पर स्वयंस्फुट आत्मबोध यही कहता है कि स्त्री और पुरूष एक-दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक होकर ही अपना-अपना अस्तित्त्व टिकाये रख सकते हैं ।
राजी सेठ ने अपने नारीबोध में ऐसे गुप्त और अमूर्त केन्द्रों को पहचाना है, जिसे स्त्री होकर अधिक सच्चाई से महसूस किया जा सकता है ।
जब नारी-बोध और नारीवादी दृष्टिकोण की बात निकलती है तो राजी सेठ की ‘ग़लत होता पंचतंत्र’, ‘अनावृत कौन’, ‘अमू्र्त कुछ’, ‘ढलान पर’, ‘सदियों से’, ‘खाली लिफ़ाफा’, ‘ग़मे हयात ने मारा’ जैसी कहानियाँ अपनी पूरी प्रासंगिकता के साथ चर्चा के दायरे में आ खड़ी होती हैं ।
जैसा कि श्री प्रभाकर श्रोतिय कहते हैं –
“स्त्री होने का स्वीकार करते हुए, राजी के लेखक ने इस स्वीकार के भीतर जितने इन्कार रचे हैं, यथास्थिति में जितने हस्तक्षेप किए हैं, उसे उनकी आधुनिक पहचान के लिए देखना ज़रूरी है ।... वे ऐसी महिलावादी नहीं हैं, जिन्हें पुरूष एक नकारात्मक उपस्थिति लगता है, वे स्त्री की खोट भी पहचानने की कोशिश करती हैं और भरसक निरपेक्ष बनी रहकर अधिक विश्वसनीय होती हैं ।”7
अंततः हिन्दी साहित्य में ‘नारीवाद’ को एक वाद, सिद्धांत, बोध एवं चेतना के रूप में जांचते-पडतालते हुए एक ही सत्य हाथ लगता है और वह यह कि स्त्री को केवल दैहिकता, लैंगिकता या जैविक पदार्थता के स्तर पर प्रोजेक्ट न करते हुए, उसे संवेदन, मनन, विचार और व्यवहार के स्तर पर भी अपनी समग्रता में उपस्थित करने का यत्न समकालीन हिन्दी कथाकारों/उपन्यासकारों का हमेशा से रहा है, जो आनेवाले समय में और भी संजीदा और पुख्त़ा होता नज़र आता है ।

 

 

 

संदर्भ-सूचि

  1. पृ.5, ‘नारीवाद – यह आखिर है क्या ?’
  2. पृ.30, वही
  3. पृ.34, वही
  4. पृ.38, वही
  5. पृ.41, ‘भारतीय स्त्री : सांस्कृतिक संदर्भ’
  6. पृ.15, ‘आदमी की निगाह में औरत’
  7. भूमिका, ‘सदियों से’

संदर्भ-ग्रंथ सूचि

    1. ‘नारीवाद – यह आखिर है क्या ?’ कमला भसीन, निधत सईद खान जागोरी, नई दिल्ली प्रथम संस्करण-1986
    2. ‘भारतीय स्त्री : सांस्कृतिक संदर्भ’ संपादक – प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा रावत पब्लिकेशन, नई दिल्ली, संस्करण-1998
    3. ‘आदमी की निगाह में औरत’ ले. राजेन्द्र यादव राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली प्रथम संस्करण-2010
  • 4. ‘उत्तरशती के उपन्यासों में स्त्री’
  • ले. डॉ. शशिकला त्रिपाठी विश्वविद्यालय प्रकाशन, वारणसी प्रथम संस्करण-2006 ई.
  • 5. ‘नागपाश में स्त्री’
  • संपादक – गीताश्री राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2010
  • 6. ‘नारी : एक सफर’
  • संपादक – दिनेशनंदिनी डालमिया, संतोष गोयल ज्ञानभारती प्रकाशन, नई दिल्ली प्रथम संस्करण-2008
  • 7. ‘स्त्री लेखन : सृजन और संदर्भ’
  • संपादक – अनूपा चौहान पार्श्व पब्लिकेशन, अहमदाबाद प्रथम संस्करण-2011
  • 8. ‘सदियों से’ (संचयन)
  • ले. राजी सेठ वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
    9. ‘राजी सेठ : कथा सृष्टि एवं दृष्टि’ ले. डॉ. कश्मीरी लाल नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली

 

प्रा. गार्गी शाह
व्याख्याता, गुजरात आर्ट्स-सायन्स कॉलेज (दोपहर), अहमदाबाद