स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है । आधुनिक युग में इसे एक जीवन-मूल्य के रूप में भी देखा जाता है । सदियों से पराधीन रही नारी की इसी स्वतंत्रता की चाह को नारीवादी आंदोलन की संज्ञा मिली है । अपने आरंभिक काल में इस आंदोलन को पुरूष विरोधी आंदोलन के रूप में देखा गया । परन्तु बाद में यह स्पष्ट हुआ कि यह आंदोलन पुरूष विरोधी आंदोलन न होकर व्यवस्था विरोधी आंदोलन है जिसके तहत स्त्री का शोषण किया जाता है । यह आंदोलन परिवर्तन की मांग करता है । “परिवर्तन उस व्यवस्था में होना चाहिए अथवा उस मानसिकता में होना चाहिए जो नारी को गुलाम बनाती है ।”1 वस्तुत: नारीवाद स्त्री को वस्तु से व्यक्ति बनाने की जद्दोजहद का परिणाम है । इस संदर्भ में ‘औरत के हक में’ की लेखिका तस्लीमा नसरीन का कथन दृष्टव्य है – “जिस दिन समाज स्त्री शरीर का नहीं, उसकी मेधा और श्रम का मूल्य देना सीख जाएगा सिर्फ उस दिन स्त्री मनुष्य के रूप में स्वीकृत होगी ।”2
वैश्विक धरातल पर दृष्टिपात करें तो सहज ही ज्ञात होता है कि नारी युगों से पुरुष द्वारा संचालित रही है । बीसवीं शताब्दी में शिक्षा के बढ़ते प्रचार-प्रसार, आर्थिक आत्मनिर्भरता, सामाजिक जागृति आदि के परिणाम स्वरूप पहली बार वह अपने अस्तित्व की ओर जागृत होती है । सन् 1975 में अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष का आयोजन हुआ और इसके बाद पूरे विश्व में नारी अपने अधिकारों के प्रति अधिक सजग हुई । यहीं से साहित्य में भी नारीवादी विचार का आगाज़ होता है । भारतीय साहित्य में भी नारीवादी दृष्टिकोण की शुरूआत लगभग उसी दौर में हुई । हिन्दी में नारीवादी दृष्टिकोण के आरंभ से पहले अनेक लेखिकाएँ अपने उत्कृष्ट साहित्य लेखन के द्वारा प्रतिष्ठित हो चुकी थी । ऐसी लेखिकाओं में उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । नारीवादी विचार से सीधा सम्बन्ध न होते हुए भी इन लेखिकाओं ने पहली बार साहित्य में स्त्री को स्त्री की निगाह से देखने का प्रयास किया है । इसलिए उनके साहित्य का अपना महत्व है । इन लेखिकाओं में से मन्नू भंडारी की कहानियों में चित्रित नारी को यहाँ नारीवादी विचार के संदर्भ में जाँचने-परखने का प्रयास किया जा रहा है ।
मन्नू भंडारी हिन्दी की वरिष्ठ कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं । स्वतंत्रता के बाद वे लिखना शुरू करती हैं । उनका पहला कहानी संग्रह ‘मैं हार गई’ 1957 में प्रकाशित हुआ । अब तक उनके लगभग दस कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । आज भी उनका लेखन निरंतर जारी है । हाल ही में ‘हंस’ जुलाई-2012 के अंक में उनकी एक कहानी ‘मुक्ति’ नाम से प्रकाशित हुई है । मन्नू भंडारी की कहानियों में नारी के कई रूप चित्रित हुए हैं । इनकी नारियों में कुछ परंपरागत हैं तो कुछ पढ़ी-लिखी, कामकाजी और एक विशिष्ट वर्ग की नारियाँ हैं । ऐसे विशिष्ट वर्ग की नारियाँ अपने अस्तित्व, व्यक्तित्व की रक्षा और प्रतिष्ठा को लेकर सजग हैं । वे न केवल पुरुष की अद्वितीयता का अस्वीकार करती हैं बल्कि सही मायनों में से उसे चुनौति भी देती हैं । डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने लिखा है- ‘ये स्त्रियां इस बात में विश्वास रखती है कि मन का संतोष प्राप्त करने के लिए विवाह भी यदि बाधक बने तो उसे नि:संकोच तोड़ देना चाहिए क्योंकि देखा गया है कि विवाह प्राय: स्त्रियों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक बनता है ।‘3 मन्नू भंडारी ने अपनी कहानियों में ऐसी कई स्त्रियाँ गढ़ी हैं जो घोर व्यक्तिवादी, स्वतंत्र और अपने वैयक्तिक विकास में विवाह को बंधन स्वीकार करने वाली हैं ।
उनमें ‘जीती बाजी की हार’ की मुरला, ‘आते जाते यायावर’ की मिताली, ‘घुटन’ की प्रतिमा, ‘नई नौकरी’ की रमा आदि उल्लेखनीय हैं । मुरला को विवाह में बंधना अपने व्यक्तित्व को बेचने समान लगता है । लेखिका ने मुरला और उसकी मित्रों के विचारों का परिचय इस तरह दिया है - ‘एक पढ़ी-लिखी लड़की किस प्रकार अपने विचारों और व्यक्तित्व का खून करके पति के रंग में रंग सकती है, यह बात इन बुद्धिजीवी और अपने ही व्यक्तित्व के भार से दबी लड़कियों के लिए कल्पनातीत थी ।’4 मुरला को आत्मनिर्भरता के कारण किसी के साथ की जरूरत महसूस नहीं होती । ‘घुटन’ एक विशिष्ट कहानी है । इसमें मन्नूजी ने दो ऐसी नारियों की व्यथा-कथा को वाणी दी है, जो परस्पर विरोधी कारणों से व्यथित हैं । प्रतिमा विवाहित है । उसका पति नेवी में इंजीनियर है । वह जब घर आता है तब खूब शराब पीकर प्रतिमा को अपनी बाहों में जकड़ लेता है । प्रतिमा उस जकड़ से मुक्त होने के लिए छटपटाती है । प्रतिमा की यह छटपटाहट घुटन में बदल सकती है परन्तु मुक्ति में नहीं । दूसरी तरफ मोना की शादी नहीं हुई । वह अपने प्रेमी अरूप से शादी करना चाहती है परन्तु मोना की माँ नौकरी-शुदा मोना की शादी नहीं होने देती । वह मोना की शादी करके अपनी आर्थिक हालत बिगाड़ना नहीं चाहती । ऐसे में मोना किसी की बाहों में जकड़ जाने के लिए छटपटाती है । उसकी छटपटाहट भी घुटन में बदल सकती है परन्तु बंधन में नहीं ।
‘नई नौकरी’ की रमा अध्यापिका थी । पढ़ना-पढ़ाना उसका शौक था । पति की प्राइवेट फर्म की नई नौकरी के कारण उसे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है । पति की यह नई नौकरी उसके अस्तित्व और व्यक्तित्व को, उसकी इच्छा-आकांक्षा को, बौद्धिक विकास को निगल जाती है । ऐसे में ऐशो आराम भरी जिन्दगी के बावजूद वह संतुष्ट नहीं है । वह मात्र पति की परछाई बनना कतई पसंद नहीं करती । पति कुन्दन जब घर से नौकरी के लिए निकलता है तब वह सोचती है कि कुन्दन उसे पीछे छोड़कर बहुत आगे निकल चुका है । यह स्थिति उसके लिए असह्य है । डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी का कहना है कि- ‘जो स्त्रियाँ स्वतंत्र विकास करना चाहती हैं, उनके लिए विवाह उसी प्रकार बाधक होता है, जैसे कि काग़ज़ों को स्वतंत्र उड़ने से रोकने के लिए पेपरवेट ।‘5 ‘आते जाते यायावर’ की मिताली कॉलेज में पढ़ाती है । होस्टेल में रहती है । बहुत पहले उसका सहपाठी प्रेम के नाम पर संस्कार तोड़ने के बहाने उसे छल चुका है । ऐसे में वैचारिक रूप से पुरूष के प्रति प्रतिशोध की भावना होते हुए भी यायावर किस्म के नरेन से फिर छली जाती है । पुरुष परंपरागत संस्कारों के नाम पर भी नारी से छलना करता है तो आधुनिकता के नाम पर भी । ‘आते जाते यायावर’ कहानी में मन्नूजी ने इसी कथ्य को उजागर किया है ।
नारीवादी दृष्टिकोण मन्नूजी की ‘उँचाई’ और ‘यही सच है’ कहानियों में तीव्र रूप से व्यक्त हुआ है । ‘उँचाई’ कहानी की शिवानी एक ऐसी नारी है जो एक ही समय पत्नी और प्रेमिका दोनों भूमिका अदा करती है । विवाहेत्तर सम्बन्ध रखकर यदि पुरुष अपवित्र नहीं होता तो स्त्री कैसे हो सकती है और पवित्रता का सम्बन्ध शरीर से नहीं मन से होता है ऐसा कहने वाली शिवानी अपने पूर्व प्रेमी अतुल के साथ के उसके शारीरिक सम्बन्ध को न तो अनुचित मानती है, न अनैतिक । यह आधुनिक नारी एक से अधिक पुरूषों से सम्बन्ध रखते हुए भी स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व की ‘ऊँचाई’ पर रह सकती है । ‘यही सच है’ की दीपा भी परंपरागत मूल्य को आघात पहुँचाकर नारी को नये रूप में प्रस्तुत करती है । दीपा एक समय निशीथ से प्रेम करती थी । निशीथ से धोखा मिलने पर अब वह संजय से प्रेम करती है । परन्तु नौकरी के लिए इन्टरव्यू देने गई दीपा की निशीथ से पुन: मुलाकात होती है और वह उससे भी प्रेम का अनुभव करती है । पारंपरिक मान्यताओं के दायरे से बाहर निकलने का प्रयास करने वाली दीपा सचमुच एक विद्रोही युवती है । अनीता राजूरकर ने दीपा के बारे में लिखा है – ‘दीपा न निशीथ को चाहती है , न संजय को, वह सिर्फ अपने आपको चाहती है । वर्तमान क्षणों में जो उसे सुख देता है, वह क्षण ही दीपा की दृष्टि में सत्य है ।‘6
‘बन्द दराजों का साथ’ कहानी पति की बेवफाई आधुनिक स्त्री को किस प्रकार तोड़ देती है इस तथ्य को सामने लाती है । मंजरी विपिन से धोखा खाने पर दिलीप से जुड़ती है परन्तु एक से धोखा खाने वाली स्त्री चाहकर भी दूसरे के साथ सहज जीवन नहीं जी पाती । ‘मनुष्य न तो छुटी हुई ज़िन्दगी को छोड़ पाता है और न चुनी हुई ज़िन्दगी को अपना सकता है । दोनों ओर खींचा जाकर क्षत-विक्षत हो जाता है ।’7 मंजरी की कहानी इसी सच्चाई से रू-ब-रू कराती है । ‘एक बार और’ भी इसी भाव की कहानी है । इसकी नायिका बिन्नी का चौदह वर्षों तक कुंज के साथ प्रेम सम्बन्ध रहता है । कुंज द्वारा अन्य स्त्री से विवाह कर लेने के बाद कुछ लोग बिन्नी को कुन्दन से जोड़ने का प्रयास करते हैं । परन्तु नारी का मन कोई ऐसी स्थूल वस्तु नहीं है कि जहाँ चाहे उसे जोड़ा जा सके । मनुष्य का अपनी भावनाओं पर कहाँ अधिकार होता है ? इसलिए बिन्नी चाहते हुए भी नन्दन से रिश्ता नहीं बना पाती । वस्तु से व्यक्ति बनने की नारी की इसी जद्दोजहद को मन्नूजी ने इस कहनी में उभारा है ।
‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’ कहानी की दर्शना परित्यक्ता होकर भी किसी की दया नहीं लेती और नौकरी के सहारे जी लेने का निर्णय करती है । ‘दीवार, बच्चे और बरसात’ कहानी की नायिका अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व पर पति द्वारा आंच आते देखकर शादी के रिश्ते को तोड़ देती है तो ‘हार’ कहानी की दीपा राजनीति के क्षेत्र में पुरुष के एकाधिकार को तोड़कर नारी की श्रेष्ठता सिद्ध करती है । ‘कमरे, कमरा और कमरे’ की नीलिमा कॉलेज की होनहार प्राध्यापिका है परन्तु शादी के बाद वह अपनी नौकरी छोड़ देती है और बाद में उसका व्यक्तित्व कुंठित हो जाता है । अपने ‘स्व’ को तिलांजलि देने वाली नारी की टूटन नीलिमा में व्यक्त हुई है ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मन्नू भंडारी नारीवादी आंदोलन से जुड़ी हुई लेखिका नहीं है । बावजूद इसके नई शिक्षा और सामाजिक विकास के कारण उनकी कहानियों में वैयक्तिक चेतना से भरी हुई नारियों की भरमार है । अपने ‘स्व’ की रक्षा के लिए ये नारियाँ सम्बन्धों को तोड़ने का जोखिम भी उठाती है । नारी का दोयम दर्जा उन्हें स्वीकृत नहीं है । पुरुष केन्द्रित सोच को वे भले ही मिटा नहीं सकतीं परन्तु उसके सामने प्रश्नचिह्न तो अवश्य खड़ा करती हैं । अथवा यह कहा जा सकता है कि उस सोच को उखाड़ फेंकने के लिए वे निरंतर प्रयत्नशील दिखाई देती हैं । अपने इसी प्रयत्न के चलते कई बार परिवार और समाज से संघर्ष करती हुई टूटती-बिखरती भी हैं तो कई बार अपने आपको स्थापित भी करती हैं । सचमुच मन्नूजी नारी जीवन के नये भावभोध का आलेखन करने वाली सशक्त कहानीकार हैं ।
- साठोत्तरी हिन्दी लेखिकाओं की कहनियों में नारी - डॉ. मंगल कप्पीकेरे
- औरत के हक में - तस्लीमा नसरीन
- हिन्दी कहानी और स्त्री के बदलते रूप ( लेख ) – डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी
- जीती बाजी की हार - मन्नू भंडारी
- हिन्दी कहानी और स्त्री के बदलते रूप ( लेख ) – डॉ. सच्चिदानंद चतुर्वेदी
- कथाकार मन्नू भंडारी - अनीता राजूरकर
- नई कहानी संदर्भ और प्रकृति - देवीशंकर अवस्थी
प्रो. नियाज़ पठान
आसि. प्रोफेसर, हिन्दी विभाग,
एम. एन. कॉलेज, विसनगर ।