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समकालीन हिन्दी नाटकों के कथ्य में नवीन शिल्प-प्रयोग

नाटक एक ऐसी दृश्यकाव्य विधा है, जिसमें अनुकृति, अभिनय नृत्य, संगीत, संवाद और रस का नेत्रेन्द्रिय और श्रवणेन्द्रिय के माध्यम से लोकोत्तर आनंद उपलब्ध किया जाता है । नाटक दृश्य काव्य होने के नाते उसमें शिल्प एवं भाषा-संवादों पर विशेष बल दिया जाता है । शिल्प विधान के द्वारा नाटककार अपने नाटक को रंगमंच और समय के अनुरूप बनाकर पाठकों तथा प्रेक्षकों पर अपेक्षित प्रभाव डालने के योग्य बना पाते हैं । शिल्प शब्द का सामान्य अर्थ कारीगरी, रचना- कौशल होता है । परंतु साहित्य जगत में शिल्प का महत्व कला से जोड़ा जा सकता है । डॉ. नरनारायण राय द्वारा उद्धृत कथन में सिद्धनाथ कुमार ने शिल्प के बारे में लिखा हैं कि- “शिल्प वह कुशलता है जिसके द्वारा किसी वस्तु या कृति में सौंदर्य की सृष्टि होती है ।”[1] शिल्प विधान को गहराई से समझाने का प्रयास डॉ. नरनारायण राय ने किया है, उनका कहना है कि- “कच्चे माल को नाटक की भाषा में वस्तु कहते हैं जिसका सर्व विदित रूप कथानक है और संवाद, भाषा-शैली, अभिनय की निर्दिष्ट गतियाँ, ध्वनि एवं प्रकाश विषयक विशिष्ट निर्देश वेशभूषा निरूपण आदि वे साधन हैं जिन साधनों से वह वस्तु को नये रूप में इस प्रकार गढ़ता है कि उसमें नये सौंदर्य की सृष्टि हो सके ।”[2]

समकालीन हिन्दी नाटकों का शिल्प जहाँ एक ओर अपने पूर्ववर्ति नाटकों की तुलना में एक दम भिन्न, बहुआयामी, प्रयोगशील और दृश्यत्व गुण प्रधान है, वही दूसरी ओर इस पर पाश्चात्य नाट्य-शिल्प और भारतीय स्तर पर फैले रंग आन्दोलन का भी प्रभाव देखा जा सकता है ।

समकालीन हिन्दी नाटकों के शिल्प विधान की सबसे बड़ी विशेषता है, प्रयोगात्मक होना । नाटकों में प्रयोगों के अधिकाधिक होने के कारण तत्कालीन नाटक सामान्य मनुष्य के जीवन की व्याख्या करने लगा है । नाटक के अन्दर समय-समय पर परिवर्तन आता रहा है । प्रयोग विकास का स्वभाव है । प्रयोग, नव सृजन का धर्म होता है, इसलिए इसे प्रयोग-धर्मिता भी कहते हैं । हिन्दी नाटक-लेखन और रंगमंच सापेक्ष रुढ़ियों की नव प्रयोगशील प्रवृत्तियों के दौर से गुजर रहा है । प्रयोग के अनेक स्तरों से गुजर कर हिन्दी नाटक के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । कथ्य और शिल्प दोनों में बदलाव आया है । इस बात से सहमत होकर डॉ.नीलिमा शर्मा द्वारा उद्धृत कथन में डॉ.चंद्र कहते है- “अब नाटक के लिए न स्थूल कथ्य चाहिए न काव्यात्मक भावुकता । अब तो नाटक यथार्थ की भूमि पर विचरने वाला आम आदमी है जिसे अपनी भाषा में अपनी बात पूरी ईमानदारी से कहनी है ।”[3]

समकालीन नाटकों के शिल्प की सब से बड़ी विशेषता है प्रयोग धर्मिता, जिसमें ऐतिहासिक-पौराणिक कथा को नये प्रयोग में समकालीन नाटककारों ने रखा है । नयी अनुभूति प्राचीन प्रतीकों की खोल ओढ़कर नाटकों के प्रदर्शन में अत्यन्त सुहावने दृश्य प्रस्तुत करती है । डॉ.लाल द्वारा रचित ‘एक सत्य हरिश्चन्द्र’ सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पौराणिक मिथक पर आधारित होते हुए भी समसामायिक स्थिति पर तीखा व्यंग्य करते हुए वर्तमान की अभिव्यक्त करता है । रोती एवं जीतन भी इसी बात का अनुभव करते हैं जीतन कहता है- जीतन-“ हम सब हरिश्चन्द्र हैं तुम्हारी सत्ताधारी राजनीति में । वहाँ राजा इन्द्र एक था, यहाँ राजा इन्द्र असंख्य हैं, पुलिस, अफसर, नेता, पूँजीपति, दलाल, गुण्डा, .... यही है तुम्हारी राजनीति में ।”[4]

‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ नाटक मूलतः यथार्थवादी शैली तथा मनोवैज्ञानिक नाटक है, जिसमें सुरेन्द्र वर्मा ने ऐतिहासिक वातावरण में स्त्री-पुरूष के सम्बन्धों का विश्लेषण किया है । शिलवती कहती है-
शीलवती- “सब मिथ्या ! सब आडम्बर.... सब पुस्तकीय ! ( उद्धत-सी) लेकिन मुझे पुस्तक नहीं जीना अब ! .....मुझे जीवन जीना है ।”[5]

‘एक और द्रोणाचार्य’ नाटक में शंकर शेष ने महाभारत कालीन स्थितियों एवं पात्रों के माध्यम से आधुनिक परिवेश एवं चरित्रों को उद्घाटित करने का प्रयास किया है । एकलव्य और अर्जुन के संवादों में ये बात स्पष्ट हो जाती है –
एकलव्य- “आज आशीर्वाद दे रहे है या शाप ? ....... क्या आप इस अर्जुन से कभी उसका दाहिना हाथ मांग सकते हैं ? क्या आप भीम से उसकी भुजा मांग सकेंगे ?
अर्जुन- ........ इतिहास आपको कभी क्षमा नहीं करेगा ।”[6]

‘कबीरा खड़ा बजार में’ नाटक में भी भीष्म साहनी ने कबीर के माध्यम से आधुनिक व्यवस्था को उजागर किया है । स्वयं भीष्म साहनी भूमिका में लिकते है कि – “नाटक में उनके काल की धर्मान्धता, अनाचार, तानाशाही आदि के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके निर्भिक, सत्यान्वेषी, प्रखर व्यक्तित्व को दिखाने की कोशिश है।”7 इस प्रकार इतिहास या पौराणिक कथा के माध्यम से नये युग की बात कहने की कोशिश आलोच्य युग के नाटककारों ने की है ।

समकालीन नाटकों में लोककथा का भी भरपुर प्रयोग किया गया है । सुशीलकुमार सिंह के नाटक ‘सिंहासन खाली है’ मेँ एक कथा-रुढ़ी है- एक राजा ने न रहने पर दूसरे राजा की तलाश । नाटक के प्रारंभ में सूत्रधार घोशणा करता है कि सिंहासन खाली है । क्योंकि इस पर बैठने वाला राजा सत्य, अहिंसा और न्याय की हत्या करके भाग गया है । लोककथा शैली में मुद्राराक्षस कृत ‘आला अफसर’ मणिमधुकर कृत ‘दुलारीबाई’ भी महत्वपूर्ण लोक नाट्य शैली में लिखे गये नाटक हैं । कुल मिलाकर देखाजाय तो समकालीन हिन्दी नाटकों का कथा-शिल्प आधुनिक संवेदनाओं की स्थिति के अनुरूप सहज और स्वाभाविक है ।

संदर्भ संकेतः

1. नया नाटक उद्भव और विकास – डॉ. नरनारायण राय, पृ. 236
2. वही. पृ. 236
3. साठोत्तरी हिन्दी नाटक – डॉ. नीलिमा शर्मा, पृ. 25
4. एक सत्य हरिश्चन्द्र – डॉ. लाल, पृ. 57
5. सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक – डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, पृ. 74
6. एक और द्रोणाचार्य – डॉ. शंकर शेष, पृ. 54
7. कबिरा खड़ा बजार में – भीष्म साहनी, पृ. 12