॥ रसगङ्गाधर में व्यभिचारी भाव का आस्वादन ॥
॥ व्यभिचारी भाव का लक्षण ॥
विशेषादाभिमुख्येन चरन्ती व्योभचारेणः।
स्थायिन्युन्मग्नर्मग्नाः कल्लोला इव वारिधो ॥ [1]
हर्ष, स्मृति, व्रीडा, मोह, धृति, शङ्का, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता, मद, श्रम, गर्व, निद्रा, मति, व्या-धि, त्रास, सुप्त, विबोधा, अमर्षा, अवहित्थोग्रतोन्माअद, मरण, वितर्क, विषादौत्सुक्यावेग, जडता, आलस्य, असुया, अपस्मार, चपलताः।प्रतिपक्षकृतधिकारादिजन्मानिवेदश्चेति त्रयस्त्रिंशद् व्यभिचारीणः । गुरूदेव,नृप,पुत्रादिविषया रतिश्चेति चतुस्त्रिशत्।
भावो की कुल संख्या ३४ है । उनमें से हर्ष, स्मृति, व्रिडा, मोह, धृति, शंका, ग्लानि, दैन्य, चिन्ता, मद, श्रम, गर्व, निद्रा, मति, व्याधि, त्रास, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्था, उग्रता, उन्माद, मरण, वितर्क, विषाद, औत्सुक्य, आवेग, जडता, आलस्य, असूया, आपस्मार, चपलता और प्रतिपक्षी के द्वारा किये गये तिरस्कार आदि से उत्पन्न हुआ निवेद ये (३३) व्यभिचारि है और चौंतीसवा है गुरू, देवता, राजा और पुत्र आदि के विषय में होने वाला प्रेम।
मयवियोगादिप्रयोज्या वस्तुतत्वानवधारिणी चित्तवृत्तिमोहः।[2]
उस,चित्त-वृत्ति को (मोह) काहते है जिसकी उत्पत्ति भय वियोग आदि से उत्पन्न व्याकुलता के कारण होती है और जिसके कारण किसी भी वस्तु की यथार्थता को समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है-अर्थात् मोह के उत्पन्न हो जाने पर मनुष्य का अन्तःकरण शून्य सा हो जाता है,जिससे वह किसी भी चीज को यथार्थरीय से समझने की शक्ति को खो देता है ।
विहरेणविकलहॄदयाविलयन्ती दोयत दियतेति।
आगतमपि तं सविधे परिचयहीनेन वीक्षते बाला॥[3]
एक सखि दूसरी सखी सी कहती है कि प्यारे-प्यारे की रट लगाती हुई उस मुग्धा नायिका का हॄदय विरह से इतना कातर हो गया हाइ कि यास में आअये हुए भी प्रिय को इस तरह देखती रह जाती है जैसे उसके साथ उसका कभी का कोई परिचय ही न हि।
आधिव्याधिनन्य बलहानिप्रभवो वैवर्ण्य
शिथिलाङ्गत्व दाभ्रमणादिहेतुर्दुः ख्विशेषोग्लानिः॥[4]
उस दुःख विशेष को “ग्लानि” कहते है जो मानसिक व्यथा और शारीरिक रोग आदि के कारण उत्पन्न दुर्बलता से पैदा होती है तथा विवणेता,अङ्गो की शिथिलता और आंखो में चौंध आना आदि अनुभावो को जन्म देति है ।
शयिता शैवलशयने सुषमाशेषा नवेन्दलेखेवे।
प्रियमागतमपि सविधे सत्कुरूते मधुरवीक्षणैरेव ॥ [5]
एक सखी दुसरी सखी से वियोगिनी के वृतान्त का वर्णन करती है कि नवीन चन्द्र कला के समान जिसमे परम शोभा ही शेष बच गई है वह सेवाल की सेन पर सोई हुई सुन्दरी समाप में आये हुये भी प्रिय पति का सत्कार केवल मधुर चितवनो से ही करती है ,अर्थात् विरह वेदना से उसके अङ्ग इतने दुर्बल आत एवं शिथिल हो गये है कि प्रियतम के आने परा भी उठ नही सकती,बोल नही सकती।
इष्टाप्राप्त्यनिष्ट्प्राप्त्यादिननितो ध्यानापरापर्यायो।
वैवर्ण्य मूलेख नाधोमुखत्वादिहेतुश्चितवृतिविशेषश्चिन्ता ॥ [6]
अभिलषित वस्तु का प्राप्त न होना और अनमिलषित वस्तु का प्राप्त हो जाना आदि कारणो से उत्पन्न होने वाली तथा विवर्णता ,भूमि का लिखना और मुख का नीचा हो जाना आदि अनुभावों को उत्पन्न करने वाली एक तरह की चित्तवृत्ति को “चिन्ता भाव” कहते है । इसी चिन्तात्मक चित्तवृत्ति को “ध्यान” भी कहते है ।
अधरधुतिरस्तपल्लवा मुखशोभा शशिकान्तिलङ्घिनीं।
अकृतप्रतिमा तनु कृता विधिना कस्य कृते मृगीदॄशः ॥[7]
किसी सुन्दरी को देखकर कोई नायक अपने मन में सोचता है कि...विधाता ने किस के लिये इस मृगनयनी नायिका के,अधरकन्ति को, पल्लवो को जितनेवाली, मुख शोभा को चन्द्र कला को मात देने वालि और शरीर को अमृत प्रतिम सदॄश द्वितीय रहित अर्थात् अनुपम बनाया।
इस प्रकार रसगङ्गाधर में व्यभिचारी भाव का आस्वाअदन होता है ।
References:
1. (दशरूपक,४/७)
2. (रसगङ्गाधर,३६७/२६८)
3. (रसगङ्गाधर,३०६)
4. रसागङ्गाधर,३०७
5. रसगङ्गाधर,३५०
6. रसगङ्गाधर,,३१०
7. रसगङ्गाधर,३१५