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॥ अभिज्ञान शाकुन्तलम् में रस योजनाका आस्वादन ॥

॥ प्रस्तावना ॥

कालिदस विरचित सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है । भारतीय परम्परा इस नाटक को संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक मानती आई है –“काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला”। भरतमुनि की दृष्टि में रस नाटक का धर्म है । नाटक में रस की प्रमुखता बताते हुए उन्होनें कहा है कि रस के बिना कोइ नाट्यांग-रूप अर्थ प्रवॄत नहीं होता “न ही रसाहते कश्चिदर्थः प्रवर्तते”। तात्पर्य यह है कि रस ही नाट्य है तथा नाट्य की समग्ररूप से उपलब्धि रस में ही होती है । भारतीय दॄष्टि से नाट्य में रस का स्थान सर्वोपरि है । इसी उद्देश्य से तो नाट्य को रसाश्रप कहा गया है –“रसाश्रपम् नाट्यम् ” इस प्रकार रस का नाटक में महत्व स्पष्ट है।

शाकुन्तल में प्रधान रस श्रॄंगार है तथा अन्य रसों का भी यथावसर सुन्दर परिपाक हुआ है ।श्रॄंगार के सम्भोग और विप्रलम्भ इन दोनो पक्षो मे से भी प्राधान्य सम्भोग श्रॄंगार का ही है। शाकुन्तल के प्रथम तीन अंको में सम्भोग ही प्रमुख है ।विप्रलम्भ, वीर, भयानक, हास्य, अद्भुत एवं शान्त आदि का भी अंग रूप में अभिव्यक्तिकरण किया गया है । इन रसों की अभिव्यंजना के साथ ही कालिदास ने प्रस्तुत नाटक में अनेक संचारी भावो का आस्वाद कराया है ।

शाकुन्तल के प्रथम तीन अंको में सम्भोग श्रॄंगार प्रधान रूप से निष्पन्न हुआ है । इसकी व्यञ्जना इन अंको में अनेक स्थानो पर हुई है । नाटक के प्रथमङ्क में वृक्ष सेचन में संलग्न एवं अपनी सखियों से वार्तालाप करती हुई शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के हॄदय में उसके प्रति अनुराग उत्पन्न होता है तथा वह कहता है “अहो मधुरमासां दर्शनम्”, “शुद्धान्त दुर्लभमिदं वपुः”[1] इत्यादि। इसि प्रकार शकुन्तला की अङ्गपष्टि एवं सौन्दर्य के सम्बन्ध में दुष्यन्त का विचार करना। नाटक में जहा शकुन्तला के नैसर्गिक सौन्दर्य का पवित्र वर्णन है, वहीं उसके हाव भाव रति भाव को जागृत करने वाले हैं।

तृतीय अंक में राजा दुष्यन्त शकुन्तला से गान्धर्व विवाह का प्रस्ताव करता है तथा प्रस्ताव स्वीकृत होने से पूर्व ही उसे अपने कुल की प्रतिष्ठा मानने की घोषणा करता है । शकुन्तला की स्वीकृत के अनन्तर वह उसके अधरपान का प्रयत्न करता है । इस प्रकर नाटक के तृतीय अंक तक श्रॄंगार का प्राधान्य है । चतुर्थ अंक में शकुन्तला की विदाई से तपोवन मे उदासी का करूण वातावरण है । इस अंक मे मुख्यरस करूण है । पांचवे अङ्क में दुष्यन्त और शकुन्तला कावक्कलह वर्णित है और राजा के त्याग में शकुन्तला की असहाय करूण स्थिति तथा अप्सरा तीर्थ में अदॄश्य हो जाने में अद्भुत एअस का चमत्कार है। छठे अङ्क मे विप्रलम्भ और करूण के साथ ही विदूषक का हास्य है तथा सप्तम अङ्क में शान्तरस प्रधान है।

शाकुन्तल में श्रॄंगार के दोनों पक्ष विद्यमान है। इसमें संभोग की अपेक्षा विप्रलम्भ का अधिक विस्तार से चित्रण किया गया है कि “न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमर्हति” द्वितीयाङ्क में विरही दुष्यन्त शकुन्तला की प्राप्ति को सुलग न मानकर खेद व्यक्त करता है –“कामं प्रिया न सुलभा”[2] । फिर भी वह उसकी चेष्टाओं का स्मरण कर कामी व्यक्ति के तुल्य उन्हें अपने लिए मानकर सन्तोष कर लेता है।

तृतीयाङ्क में प्रथम राजा की कामपीडित अवस्था का चित्रण है जहा वह शकुन्तला की प्राप्ति के लिए अनेक उपाय सोचता है पर कुछ कर सकने में अपने को असमर्थ पाकर दुःखी होता है । “जाने तपसो वीर्य सा बाला परवतीति मे विदितम्”[3] प्रेम पत्र के विषय में सुनकर उस अपमान के भय से भयभीत शकुन्तला को उद्देश्य कर कहता है –“अयं सते तिष्ठति संगमोत्सुको विश्ङ्क से भीरू पतोऽवधीरणाम्”

इसके बाद “तपति तनुगात्रि मदनः” कहता हुआ उसके समीप पहुच जाता है। इस प्रकार शकुन्तला एवं राजा दोनों ही विरह में अत्यधिक पीडित है । इस विरह पीडा की समाप्ति अन्त में गान्धर्व विवाह के रूप में होति है।

॥ भयानक रस ॥

ग्रीवाभङ्गाभिरमं मुहुरनुपतति स्पन्दने बद्धदृष्टिः
पश्चार्द्धेन प्रविष्टः शरपतनभयाद् भूयसा पूर्वकायम् ।।
दर्भैरर्धावलीठैः श्रमविवृतमुखभृंशिभिः कीर्णवर्त्मा
पश्योदग्रप्लुतत्वाद् विपति बहुतरं स्तोकमुर्व्या॥१॥[4]

भयभीत हरिण का कितना स्वाभाविक चित्रण है । यहा भय स्थायिभाव की मृग के आश्रय से बहुत मार्मिक अभिव्यक्त हुई है। मृग अपने शरीर के पीछॆ के भाग को समेट रहा है, कही बाण न लग जाए। जान बचाने के लिए तेजी से जो भागा तो दम फूल गया बेचारे का। फिर तो सांस मुह से लेना ही होगा । मुह खुल गया तो अधबची घास मुह से गिरने लगी ।यह है कि कालिदास की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति है ।

॥ करूण रस ॥

कालिदास ने करूण रस की मार्मिक व्यञ्जना शाकुन्तल के चतुर्थ अंक में शकुन्तला की विदाई के प्रसंग में की है। प्रियम्वदा शकुन्तला से कहती है कि तुम्हीं तपोवन के विरह से दुःखी नही हो, वरना तुम्हारी विदाई की वेला समीप अने से सम्पूर्ण तपोवन भी उदास दिखाई पडता जा रहा है –
उद्गलित-दर्भकवका मृग्यः परित्यक्तनर्तनामपूराः॥
अपसृत पाण्डुपत्रा मुम्चन्त्यश्रूणीव लताः॥१॥[5]

सम्पतम अंक में मारीच आश्रम में दुष्यन्त एवं शकुन्तक्ला का मिलन प्रसंग भी अत्यन्त कारूणिक बन पडा है ।

॥ उपसंहार ॥

रसो के उपर्युक्त विश्लेषणात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि कालिदास ने यद्यपि प्रायः सभी रसों की अभिव्यक्ति की है, किन्तु मुख्य रूप से संपत श्रॄंगार से सभी पक्षो की अभिव्यञ्जना करना ही उनका अभीष्ट है । वस्तुतः श्रॄंगार प्रधान है जिसका पर्यवसान शान्तरस में दिखाकर कवि ने सामाजिकों की मंगल कामना की है, बीच में करूण रस श्रॄंगार के विप्रलम्भ पक्ष की पुष्टि करने के हेतु प्रयुक्त हुआ है । अन्य रसों की भी यथास्थान मार्मिक व्यञ्जना हुई है।

संदर्भसूचि

1. अभिज्ञानशाकुन्तलम् १
2. अभिज्ञानशाकुन्तलम् २
3. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ३
4. अभिज्ञानशाकुन्तलम् १\७
5. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ४\१२