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॥ उत्तररामचरित्तम में रसास्वाद ॥

महाकवि भवभूतिप्रणीतं उत्तररामचरित में अङ्गी रस “करुण” है अथवा करुण-विप्रलम्भ ? इस विषय में विद्धवानों का मत है कि “उत्तररामचरित” में करुणविप्रलम्भ अङ्गी रस है। उनके कथन का आशय है “एको रस: करुण एव”[1] इत्यादि श्लोक में “करुण” शब्द को करुणविप्रलम्भ परक मानना चाहिए,क्योंकि करुण रस का स्थायीभाव शोक है । उसमें पुर्नमिलन कि आशा नहीं रहती,किन्तु करुणविप्रलम्भ में पुर्नमिलन की आशा बनी रहती है।

दूसरी तरफ अन्य विद्धानों का मत है कि उत्तररामचरित में “करुण” अङ्गी रस है। व्याख्याकार वीरराघव इसी विचार से सहमत है-एवं च रसान्तरापेक्षया प्रकृतित्वमेव करुणस्य इति ।घनश्याम भी नाटक में श्रृङ्गार और वीर रस के अङ्गी रस के अङ्गीत्व को प्रायिक मानते हुए करुण भी नाटक में अङ्गी रस हो सकता है,अत:उत्तररामचरित करुणरस प्रधान होते हुए भी नाटक है –ऐसा कहते है।यह करुण करुणविप्रलम्भ से भिन्न है।करुणविप्रलम्भ श्रृङ्गार का एक भेद है, जिसमें रति स्थायीभाव होता है,किन्तु करुण एक स्वतन्त्र रस है,जिसमें शोक स्थायीभाव रहता है।उत्तररामचरित में विभाव,अनुभाव,सात्त्विक और व्यभिचारी भावों से अभिव्यत्त्क होकर शोक ही स्थायिभाव है,जो आस्वाद दशा में करुण रस में परिणत हो जाता है।

“उत्तररामचरित”करुणरस-प्रधान है-कवि ने अपने निम्नलिखित श्लोक से इसी बात की ओर संकेत किया है-
एको रस: करुण एव निमित्तभेदाभ्दिन्न:पृथक्पृथगिवाश्रयते विवर्तान्।
आवर्तबुद्बुदतरङ्गमयान्विकारानम्भो यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्॥

जैसा कि करुण के विषय में आचार्यो कअ मत है कि राम को सीता-समागम की बिल्कुल आशा नहीं रह गयी है। वे समझते है कि सीता नहीं रह गयी है,उसे मरे बारह वर्ष हो गये,अब उसका नाम भी रहा।[2] रामायण में सीता के निधन में कथा का अवसान होता है। चूंकि नाट्यशास्त्र के अनुसार नाटक की कथा का अवसान सुखद होना चाहिए ,अत: इस नियम के निर्वाह के लिए तथा राम जैसे कर्त्तव्यनिष्ठ और धर्मप्रिय व्यक्त्ति के लिए दु:खद अवसान उचित नहीं । इसलिए भी कवि ने कथावस्तु में परिवर्तन कर राम-सीता के मिलन में कथा का अवसान किया है,जिसका सारा श्रेय गङ्गा और पृथिवी जैसी देवता,वाल्मीकि जैसे महर्षि,वसिष्ठ-पत्नी अरुन्धती जैसी सती-शिरोमणि को है।

इस विषय में माननीय डों.विद्यानिवास मिश्र का कथन भी ध्यान दिये जाने योग्य है-करुणरस का स्थायिभाव शोक ,इष्टनाश से उत्त्पन्न हुआ होता है।यह इष्ट,व्यक्त्ति,धारणा,धर्म आदि कुछ् भी हो सकता है।पश्र्विमी दृष्टि से ट्रेजेडी का मूल होता है-आशाभंग ।उस दृष्टि से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि राम के मन में यह आशा थी कि सीता का परित्याग करके हम लोक को प्रसन्न करने के लिए त्याग किया गया ,उसने राजा के दु:ख को दु:ख ही नहीं समझा,यही ट्रेजेडी का मूल है।यह ट्रेजेडी सीता के मिलने से भी दूर नहीं होती।

उत्तररामचरितम में करुणरस के प्रधान आचार्य भवभूति -

रसों में पहला स्थान किसे दिया जाय ,इस विषय में आलंकारिको में एकमत नहीं है। नाट्याचार्य भरत मुनि ने आठ रसों में सर्वप्रथम “श्रृङ्गार” को ही स्थान दिया है। इसकि प्राथमिकता के बारे में अभिनव-गुप्ताचार्य ने अपनी-अभिनव-भारती में बताया है कि रति या काम न केवल मानव जाति में,बल्कि सभी जातियों में मुख्यता से पाया जाता है तथा सबको उसके प्रति लगाव होता है,इसलिए सबसे पहिले श्रृङ्गार को स्थान दिया है[3] भोजदेव [१२वीं] ने भी श्रृङ्गार को ही सब रसों का सिरताज माना है। यहा स्मरण रखें कि अभिनव-गुप्ताचार्य ने अपनी अभिनव-भारती में “शान्त” को ही मुख्य माना है |

महाकवि कालिदास ने भी करुणोत्पादक कौतूहल खूब ही दिखलाया है अजविलाप तथा रतिविलाप के द्वारा ।परन्तु भवभूति का वर्णन अलौलिक है,चमत्कारी है।मर्यादापुरुषोत्तम राम का रोदन यहा बेमिशाल है,बेनजीर है।इसी करुण वर्णन को लक्ष्यकरके गोवर्धनाचार्य ने अपनी राय इस रुप में दि है-
भवभूते: सम्बन्धात् भूधरभूरेव भारती भाति ।
एतत्क्रृतकारुण्ये किमन्यथा रोदिति ग्राथा ॥

जनकनन्दनी सीता के लिए राम का विलाप देखिये –
हा हा देवि! स्फुटति ह्रदयं ध्वंसते देहबन्ध:
शून्यं मन्ये जगदविरलज्वालमन्तर्ज्वलामि ।
सीदन्नन्धे तमसि विधुरो मज्जतीवान्तरात्मा
विष्वङ्मोह: स्थगयति कथं मन्दभाग्य:करोमि॥[4]

इस प्रकार भवभूति जी करुण रस के प्रतिपादन मे माहिर है तथा उनका करुणरस तलस्पर्शी एवं अगाध गम्भीर है । उन्ही के मन्तव्य में वह (करुणरस) उस पुटपाट की भांति है जो उपर से तो पांह लगे होने से एकदम शान्त है, परन्तु भीतर-भीतर घनी गहरी वेदना से तडपता रहता है । जैसे :-
अनिभिन्नो गभीरत्वात् अन्तर्गुढघनव्यथ: ।
पुटपाकप्रतीकशो रामस्य करुणो रस: ॥

करुणरस निरपेक्ष होने पर भी मर्यादा में रहता है,लेकिन अपनी तेजी के कारण वह अपने पात्र को बारबार मुर्च्छित करता रहता है । इस दशा में आचार्य भवभुति काफ़ी सजग रहते है कि ,शोक की हालत में खूब अछोघार होके रो लेने से मन हलका होता है जैसे बढे हुये पानी के निकाल देने पर तालाब में ठहराव हो जाता है :-
पुरोत्पीडे तडाकस्य परीवाह: प्रतिक्रिया

इस प्रकार यह नाटक उपर से देखने में तो सुखान्त है,किन्तु भीतर से आदि से अन्त तक करुण बोध से आर्द्र है ।उपर से देखने पर तो कथा का अवसान राम और सीता के मिलन में हे ,किन्तु वस्तुत: मिलन होता नही, क्योंकि सीता और राम दोनो टूट चुके है । लोगो को प्रताडित करने के लिये ही मिलन होता है । दैवी शक्तियों के सहयोग से लोगो की कुबुद्धि का मार्जन तो हो जाता है,किन्तु राम और सीता को अपने दु:ख की समाप्ति पर विश्वास नही है ।राम के मन में होता है कि सब कुछ घटित हो रहा है पर मुझे विश्वास नही हो रहा है और सीता के मन में यह शल्य है कि क्या आर्यपुत्र को मेरा दु:ख दूर करने की कला अभी भी याद है । दोनो के द्वारा केवल लोकमङ्गल और लोकरञ्जन के लिये किया गया यह करुण बलिदान दोनो के हृदय में स्थायी वेदना के रूप में कीलित हो गया है ।
यथेच्छाभोग्यं वो वनमिदमयं मे सुदिवस:
सतां सद्भि: सङ्ग: कथमपि हि पुण्येन भवति ।
तरुच्छाया तोयं यदपि तपसां योग्यमशनं
फ़लं वा मूलं वा तदपि न परघीनमिह व: ॥

अर्थात् यह वन आपकी इच्छानुसार उपभोग योग्य है। यह मेरा शुभ दिन है,क्योकि सज्जनों का सज्जनों के साथ सम्पर्क किसी प्रकार पुण्य से होता है । वॄक्षो की छाया जल तथा जो कुछ तपस्या के योग्य भोजन-फ़ल अथवा मूल वह सब यहा तुम्हारे लिये पराधीन नही है ऐसा बताया गया है ।

इस प्रकार महाकवि भवभूति विरचित उत्तररामचरितम में रसास्वाद किया है तथा इसका प्रधान रस करुण रस बताया गया है यू तो करुण रस का आरम्भ इस नाटक में प्रारम्भ से ही दिखलाई देता है किन्तु तृतीय अंक में वह अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचा हुआ प्रतीत है । वहा राम का करुण क्रन्दन ,दीर्घोच्छ्वास,परिवेदन और मोहागम सीता के हॄदय में ही नही ,अपितु सामाजिकों के भी अन्त:करण में राम के प्रति स्वाभाविक सहानुभूति उत्पन्न कर देते है ।उक्त भाव करुण रस के अभिनय में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए है ![5]

सन्दर्भ

1. उत्तररामचरितम्[३/४७]
2. द्रष्टव्य-उत्तर०,३/३३।
3. का.प्र.उल्लास ४,पृ.११५ आचार्य विश्वेश्वर टिका ज्ञानमण्डल काशी –संस्करण
4. उ०रा० ३/३८
5. सस्वनरुदितैर्मोहागमैश्च परिदेवितैर्विलपितैश्च । अभिनेय: करुणरसो देहायासाभिघातेश्च ॥ (नाट्यशास्त्र ६।६२ )

सन्दर्भग्रन्थ

१. उत्तररामचरितम्
२. नाट्यदर्पण
३. रस - विमर्श