SahityasetuISSN: 2249-2372Year-4, Issue-3, Continuous issue-21, May-June 2014 |
गांधीवाद या गांधी विचारधारा से तात्पर्य
गांधीविचार महात्मा गांधीजी की विचार पद्धति का व्यापक नाम है । रामनाथ ‘सुमनजी’ के अनुसार ‘‘गांधीविचार का साधारण अर्थ व्यक्ति तथा समाज के हित का वह दर्शन एवं विज्ञान है जिसके प्रधान पुरस्कर्ता और प्रयोगकर्ता ‘गांधीजी’ है ।’’
स्वयं गांधीजी अपने विचारों को किसी विचार के अंतर्गत बाँधकर रखना पसंद नहीं करते थे । उन्हें गांधीवाद नाम खटकता था । वे बार-बार कहते थे कि मुझे न कोई वाद चलाना है न संप्रदाय । मैं तो एक सत्य को जानता हूँ और सत्य की बातें कहता हूँ और करता हूँ । वास्तव में गांधीवाद ‘‘जीवन का संपूर्ण सर्वागीण विज्ञान है ।’’ गांधी-अर्विन समझैते के बाद स्वयं गांधीजी ने कहा कि – ‘‘गांधी मर सकता है पर गांधीवाद जीवित रहेगा ।’’ इस प्रकार स्वयं गांधीजी अपने विचारों को गांधीविचार अनजाने में ही सही मान बैठे ।
विभिन्न दर्शन ग्रन्थों, धार्मिक ग्रन्थों, आध्यात्मिक साधकों और अन्य क्षेत्रों के चिन्तकों के विचारों के गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के उपरान्त गाँधीजी ने जिस विचारधारा का प्रतिपादन किया, वह मूलतः आध्यात्मिक जीवन दर्शन है । उन्हें असत्य पर सत्य, हिंसा पर अहिंसा, अधर्म पर धर्म, असद् पर सद् पशुबल पर आत्मबल, भौतिक-मूल्यों पर आध्यात्मिक मूल्यों, पशुता पर मानवता तथा दुराचार पर और अनैतिकता पर सदाचार और नैतिकता की घोषणा की है, तथा भारत के आचारपरक और दार्शनिक ग्रंथों की शिक्षाओं को अपने जीवन में चरितार्थ करके संसार को चकित कर दिया है । उन्होंने एक बार फिर प्रेम और सेवा के, आत्मपीड़न और बलिदान के पुनीत सिद्धांतों द्वारा विश्वास की ज्वाला प्रज्वलित की और अन्तरात्मा की आवाज को बुलन्द किया ।
‘किशोरीलाल मशरुवालाजी’ के विचारों-गांधीवाद वर्ण-व्यवस्था, ट्रस्टीशिप और विकेन्द्रीकरण पर स्थित है । इस लक्ष्य तक पहुँचने के साधन हैं – सत्य, अहिंसा और सेवा । गांधीजी हंमेशा साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता की ओर ध्यान देते थे ।
गांधीविचार के मूल स्तंभ है सत्य और अहिंसा । सर्वोदय सत्याग्रह एवं रामराज्य गांधीजी के तीन आदर्श थे । गांधीवाद की व्याख्या करते हुए रामनाथ सुमनजी लिखते है – ‘‘गांधीवाद उस सूर्य की भाँति है जिसे सब अपना सकते है और एक चरिपूर्ण तत्व ज्ञान है यह नैतिक है और यह राजनीतिक भी है, धार्मिक भी है, आध्यात्मिक भी है और आर्थिक भी । क्योंकि यह जीवन न्यायी है, जीवन के प्रत्येक स्तर और सम्पूर्ण मानव जाति को स्पर्श करता है । श्री ग्रेग के शब्दों में (It provides a common between all groups) वह सभी वर्गो के बीच एक सामान्य स्नेहसूत्र पैदा करता है ।’’
संक्षेप में गांधीजी की सोच गांधीजी की जीवन-शैली और गांधीजी की कार्यप्रणाली का ही समवेत नाम ‘‘गांधीवाद है निरंतर आत्मपरिक्षण और प्रयोग गांधीजी की विशिष्टता रही है इसलिए गांधीवाद में कुछ तत्व प्राणरूप और स्थायी है तो कुछ देह रूप है और परिवर्तनशील एवं विकासशील है ।’’
महात्मा गांधी आधुनिक युग के ही नहीं समूचे मानव इतिहास के असाधारण रूप से महान पुरूष थे । मुख्य रूप से उन्हें एक राजनीतिक नेता समझा जाता है जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न किया । एक राजनीतिक नेता के रूप में गांधीजी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है इसमें कोई संदेह नहीं है । लेकिन गांधीजी केवल राजनीतिक नेता नहीं थे । वे इससे कहीं रूपक थे । वे प्रथम कोटी के समाज-सुधारक सत्यशोधक-आध्यात्मिक साधक अर्थशास्त्री शिक्षा-शास्त्री और लेखक-विचारक थे । ये उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू थे । लेकिन सबसे बढ़कर बात यह है कि गांधीजी समग्र जीवन के व्यवहर्ता थे उनके लिए समूचा जीवन एक इकाई था राज्य, समाज, अर्थ, परिवार, शिक्षा ये सब उस इकाई के विभिन्न अंग थे । उसका लक्ष्य सर्वोदय है – व्यक्ति का भी सर्वोदय और समाज का भी सर्वोदय । व्यक्ति के सर्वोदय का अर्थ है व्यक्ति जीवन के सभी पहलूओं का उत्थान, समाज के सर्वोदय का अर्थ है समाज के सभी अंगों का उत्थान –
गांधीजी ने अपने जीवन में ऐसी कोई बात नहीं कही जिस पर उन्होंने स्वयं आचरण न किया हों उनके विचार उनके विभिन्न प्रयोगों और अनुभवों की उपज थे । गांधीजी ने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग नाम दिया था । गांधीजी अपने राजनीतिक प्रयोगों की अपेक्षा अपने आध्यात्मिक प्रयोगों को अधिक महत्व देते थे । उनके राजनीतिक प्रयोगों की तो सबको जानकारी थी लेकिन उनके आध्यात्मिक प्रयोग उन्हीं तक सीमित थे । गांधीजी ने अपनी आत्मकथा द्वारा लोगों को अपने आध्यात्मिक प्रयोगों की जानकारी देनी चाही थी । गांधीजी की राजनीतिक शक्ति उनके आध्यात्मिक प्रयोगों से पैदा हुई थी । वे अपनी अल्पता को शुद्ध रूप में देख सकते थे । उनका ध्येय था – आत्मदर्शन ईश्वर का साक्षात्कार मोक्ष । उनकी सारी हलचल इसी दृष्टि से थी उनका सारा लेखन इसी दृष्टि को लेकर होता था और उनका राजनीतिक क्षेत्र में पडवा भी इसी वस्तु के अधन था ।
गांधीजी विश्व इतिहास में अहिंसा के सबसे बड़े शिक्षक और प्रचारक हुए है । प्राचीन संत-महात्माओं-गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी और ईसा मसीह तक ने अहिंसा के सिद्धान्त को केवल व्यक्तिगत जीवन में ही लागू किया था सामाजिक या राजनीतिक प्रश्नों से वे लोग प्रायः अलग रहे थे । इनकी साधना अधिकांश में व्यक्तिगत साधना थी । अहिंसा द्वारा सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन की कठिन से कठिन समस्या का हल खोजा जा सकता है । इसकी ओर पूर्वकालीन संत महात्माओं ने ध्यान नहीं दिया था । गांधीजी ने इतिहास में पहली बार अहिंसा को समग्र जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया और उसके आधार पर समाज और राजनीति की सभी समस्याओं से जूझने की कोशिश की ।
गांधीवाद के मूल स्वर अर्थात् भौतिकवाद की बजाय आध्यात्मवाद पर बल देने और सत्य तथा ईमानदारी के आचरण को प्रमुखता देने की है । उनकी इसी मान्यता में से सादा जीवन और उच्च विचार का आदर्श विकसित हुआ । गांधीदर्शन में साध्य के अनुरूप साधन की उच्चता एवं पवित्रता पर भी बल दिया गया है । यही कारण है कि गाँधीजी राजनीति में रहते हुए भी पानी के कमल की भाँति उससे कहीं ऊपर थे और गांधीवाद राजनीतिक चिंतन का सीमाओं को लाँघकर मानवीय विचारधारा का रूप ले सका, किन्तु स्वतंत्र भारत में गांधीवाद के इस नैतिक पहलू की निरंतर उपेक्षा होती रही है ।
गांधीजी सत्ता को समाजसेवा का साधन मानते थे लेकिन इस देश का इतिहास गवाह है कि सत्ता में रहने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए संविधान तक से छेड़छाड़ करने में संकोच नहीं किया गया । आज राजनीति को समाज सेवा का साधन नहीं बल्कि आत्मसेवा का व्यवसाय माना जाने लगा है । राजनीति में तो विकार आने की गुंजाइश भी रहती है, क्योंकि वह सत्ता का खेल है, परंतु अब तो जीवन के हर क्षेत्र में ईमानदारी एवं सत्यता का लोप हो रहा है और भ्रष्टाचार की जड़े गहरी होती जा रही हैं । जो नैतिकता गांधीजी के लिए आचरण का गुण थी, वह अब दिखावे की वस्तु और मुखौटा मात्र बन चुकी है । झूठ बोलना, छल करना, रिश्वतखोरी, मिलावट, भ्रष्टाचार, अनाचार जैसी प्रवृत्तियाँ सामान्य जीवन का अंग बन गई हैं । सादगी अब निर्धनता तथा भौंडे प्रदर्शन सम्पन्नता का प्रतीक बन गयी है ।
प्रश्न यह है कि गांधीवाद की ऐसी अवहेलना उस देश में क्यों हुई है, जो गांधीदर्शन को आज भी अच्छा और आदर्श मानता है ? क्या गाँधीवाद अव्यावहारिक है ? क्या यह केवल परतंत्र देश की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त था और स्वतंत्र तथा लोकतांत्रिक देश में उसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है या सारा संसार क्या आज इतना आगे निकल गया है कि गांधीवाद के सभी तत्व बेमानी हो गये हैं ?
सच तो यह है कि गांधीदर्शन के अधिकार बिन्दु युग विशेष के सम-सामयिक संदर्भों में नहीं बल्कि सभी कालों एवं परिस्थितियों में प्रासंगिक हैं । अहिंसा, सत्य, सादगी, त्याग, स्वदेशी धर्म निरपेक्षता, सर्वोदय आदि तत्व सार्वभौमिक विकेन्द्रीकरण भारतीय भाषा विकास जैसे रचनात्मक कार्यक्रम भी भारतीय समाज की वर्तमान आवश्यकताओं व उपेक्षाओं के अनुकूल हैं ।
फिर क्यों यह सुनहरी विचारधारा बालू की भाँति हमारी मुट्ठी में से निकलती जा रही है ? असलियत यह है कि स्वतंत्र भारत की बागडोर संभालने वाले नेताओं की गांधीवाद में सच्ची आस्था ही नहीं थी और उन्होंने जो ढाँचा लागू करने का प्रयास किया वह गांधीवाद की मूल चेतना के विपरीत था । हमारे शासकों ने स्वतंत्र भारत की जनता को भौतिकवाद और केवल आर्थिक समृद्धि का रास्ता दिखाया । इससे हम मूल्य को तिलांजलि देकर धन बटोरने की, भोगवादी प्रवृति को बल मिला, जिसका गाँधी चिंतन की त्याग तथा व्यक्तिगत हित छोडने की मूल भावना से कोई मेल नहीं है । इस प्रवृत्ति ने समाज को भ्रष्ट बना दिया और लोगों में वचन और कर्म का अन्तर निरन्तर बढता गया । यहाँ तक कि धार्मिक तथा स्वयंसेवी संगठन भी इस दोगलेपन के शिकार हो गए हैं और नयी पीढी के सामने कोई आदर्श नहीं रह गया है । केवल मौखिक श्रद्धा यानी ‘लिपी सर्विस’ से गांधीदर्शन जन जन तक नहीं पहुँच सकता था । गाँधीजी के जिन कार्यक्रमों को आधे-अधुरे मन से अपनाया भी गया, उनके क्रियान्वयन का दायित्व उस नौकरशाही को साँपा गया जो गांधीवादी को हिकारत की नजर से देखती थी । इसका परिणाम यह हुआ है कि गांधीवाद को हिकारत की नजर से देखती थी । इसका परिणाम यह हुआ है कि गांधीवाद कार्यक्रमों की सार्थकता संदेहास्पद बनती गई । सबसे महत्वपूर्ण कारण था – शिक्षा पद्धति की विकृति । हमारी शिक्षा पद्धति में उन मूल्यों की नितांत उपेक्षा हुई जो गांधीवादी चिंतन से समानता रखते है ।
गांधीवाद के मूल तत्वों के अन्तर्गत सत्य, अहिंसा और सेवाभाव प्रमुख हैं । इनमें से सत्य और अहिंसा तो गांधीवाद के प्राण हैं । गांधीजी का समस्त जीवन दर्शन इन्हीं दोनों तत्वों से अनुप्राणित है । सत्य और ईश्वर को गांधीजी एक दूसरे से भिन्न नहीं मानते हैं । उनके अनुसार सत्य, ईश्वर का ही दूसरा रूप है । इसी कारण ईश्वर को सच्चिदानन्द अर्थात् सत् चित व आनन्द कहा जाता है । अहिंसा को गांधीजी सत्य का और सत्य को अहिंसा का पूरक मानते हैं । उनके अनुसार एक के अभाव में दूसरे की कल्पना भी नहीं हो सकती है । एक के माध्यम से ही दूसरे को पाया जा सकता है । अहिंसा को गांधीजी ने व्यापक अर्थो में परिभाषित किया है । उनका कहना था कि अहिंसा केवल कर्म द्वारा ही सम्पादित नहीं होती, अपितु इसका सम्बन्ध वाणी और विचारों से भी है । किसी को अपनी वाणी से दुखाना या हृदय में बुरा विचार लाना भी एक प्रकार की हिंसा ही है । अहिंसा को गांधीजी ने निषेधात्मक, अहिंसा, विधायक अहिंसा, निरपेक्ष अहिंसा आदि वर्गो में विभाजित किया है । सेवा को गांधीजी मानवता की महत् आवश्यकता मानते हैं । अहिंसा, प्रेम, करूणा, दया और परोपकार आदि सदवृत्तियों को गांधीजी ने इसी तत्व में समाहित किया है । गांधीजी के अट्ठारह सूत्री कार्यक्रम के अंग आदिवासियों और कोढियों की सेवा – उनकी इसी सेवावृति के परिचायक हैं ।
संदर्भ सूचि:-
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डॉ आर. डी परमार
सरकारी विनयन कोलेज अमीरगढ
अध्यापक
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