SahityasetuISSN: 2249-2372Year-4, Issue-2, Continuous issue-20, March-April 2014 |
संस्कृतस्तोत्र मे कृष्ण की विभावना[1]
भारतीय संस्कृति के इतिहास पर दृष्टिपात करने से हमें ज्ञात होता है कि, आर्योने समस्त ब्रह्मा़ण्ड मे व्याप्त देवी-देवताओ का कल्पन किया है । ऋग्वेदादि चार वेद, रामायण-महाभारत जेसे ऐतिहासिक काव्य तथा १८ पुराणों की प्रत्येक पृष्ठ पर किसी न किसी देवता की बात है । इनमें सबसे अधिक विष्णु देवता की स्तुति की गई है । उनके भिन्न स्वरूपों-अवतारो को भिन्न भिन्न काव्य और स्तोत्रो में विकसित किया गया है ।
डो वसन्त भट्टने वेद के मन्त्रों को दर्शाते हुए कहा है कि, वेदकालिक सूर्य देवता को हि भारतीय परम्परा में विष्णु तत्त्व कृष्ण के रूप में विकसित किया है ।[2] ऋग्वेद में ब्रह्माण्ड के द्युलोक, अन्तरिक्षलोक और पृथिवीलोक तीन लोक है, जिसके क्रमशः सूर्य, इन्द्र, अग्नि प्रधान देवता है, जबकि पौराणिक काल में (१) स्वर्गलोक, (२) पृथिवीलोक, (३) पाताललोक । ब्रह्माण्ड को इस तरह तीन स्थानों में विभाजित किया है, और इन तीन लोक के तीन अवस्था-परिस्थिति के नियन्ता देवता की कल्पना की गई है । ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालनहार और महेश संहारकदेवता । इस तरह वेद के तीन प्रधानदेवता इन्द्र की क्रमशः अवनति होने के कारण उसे इन तीन देवों के आधिपत्य में अपना इन्द्रासन बनाए रखना पडा है ।
आगे वे बताते है कि, नैरुक्तमार्ग अनुसार वैदिकदेवताओं का प्राकृतिक अर्थघटन किया जाता है । प्रकृति के पदार्थो को देव मान के उनकी स्तुति की जाती है, जैसे ळ अग्नि को ज्वालारूपी दाढीवाला कहा गया है । यहां रूपकात्मक रूप से अग्नि के उपर सजीवारोपण किया है । अर्थात् जिस देवता का नाम प्राकृतिक आधार के अनुरूप हो तो उस देवता का मूर्तीकरण प्राथमिक अवस्था में दिखता है । द्यौः, सूर्य, उषा, अग्नि, सोम, आदि इस प्रकार के देवता है । किन्तु प्रकृति के कोइ एक हि पदार्थ के जितने गुणवाचक नाम हो, उन सभी नाम के एक-एक स्वतन्त्र देव के रूप में विकसित हुए दिखते है । जैसे कि – आकाश स्थित सूर्य को आदित्य = पृथिवी के रसों का ग्रहण करनेवाला, पूषन् = पोषण करनेवाला, विष्णु= किरणोंको समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त करनेवाला, सवितृ= सभी जीवो का प्रसव करानेवाला । ये सभी स्वतन्त्र देव के सूक्त है । जिसमें विष्णु, जो सूर्य का ही व्यापनशील गुणवाले होने के कारण एक स्वतन्त्र देव के रूपमें स्तुत्य बने है ।
विष्णु शब्द विश् (प्रवेश-धात्) से व्युत्पन्न है । सूर्य ही अपने किरणों से तीनों लोक में एक साथ प्रवेश कर देता है । यास्कने निरुक्त में कहा है ‘‘यद् विषितो भवति तद् विष्णुर्भवति । विष्णुर्विशते र्वा व्यश्नोतेर्वा, तस्य एषा भवति ।‘‘ इसकी टीका में दुर्ग लिखते है – ‘‘यदा रश्मिभिरतिशयेनायं व्याप्तो भवति, व्याप्नोति वा रश्मिभिरयं सर्वम्, तदा विष्णुरादित्यो भवति ।[3] ‘‘अर्थात् जब सूर्य (अपने) किरणों से अतिशय रूपसे सभी जगह फैल जाता है अथवा जो (अपने) किरणों से सभी व्याप लेता है, इस कारण आदित्य को विष्णु कहा जाता है ।
ऋग्वेद में विष्णु की स्तुति में उनके लिए उरुक्रमः, अकुमारः, शिपविष्टः, निषक्तपा जैसे विशेषणों का गर्भित अर्थ जानकर पुराणकारोने विष्णु को वामन या वासुदेव कृष्ण के अवतारो की पुराकथाओं का (Mythological Stories) विस्तार किया है । जैसे कि मूलतः सूर्य के तीनलोक में विचरण करने के स्वभाव के कारण विष्णु को त्रिविक्रमः कहा है ।[4] उसी सन्दर्भ में विष्णु को ‘उरूक्रमः‘ (ऋग्वेद-१/१५४/५) ओर ‘उरूगाय‘ (ऋग्वेद- १/१५४/३) भी कहा है । तथा ऋग्वेद-१/१५४/६ में बृहच्छरीरः, युवा ओर अकुमारः भी कहा है । जिसमे से वामन अवतार की कथा रची गई है । विष्णु वामन रूप में बलि राजा के पास जाकर तीन पद जमीन मांगते है, बाद में वामन युवा-अकुमार बन जाते है ओर विराट रूप में त्रिविक्रम भी बनते है । भारतीय परम्परा में कहा गया है कि ‘इतिहासपुराणाभ्याम् वेदम् समुपबृहयेत् ।‘ अर्थात् रामायण-महाभारतरूप इतिहास ग्रन्थ भागवतादि पुराणों से वेद मन्त्रों में कहे गये अर्थो का उपबृंहण-विकास करना चाहिए । यह उसका निर्देश है ।
ऋग्वेद में शिपविष्ट (ऋग्वेद-७/१००/५,६) और निषिक्तपा (ऋग्वेद-७/३६/४) विशेषण प्रयुक्त हुए है । भागवत में इसका उपबृंहण इस तरह हुआ है – शिपिविष्ट का अर्थ ‘‘अपने किरणों से सर्वत्र प्रवेशा हुआ‘‘ होता है । जिसे औपमन्यव ‘‘गुप्त (ढका हुआ) प्रजनन दण्ड जैसा‘‘ कहते है । इस तरह विष्णु को प्रजोत्पत्ति के साथ रखा गया है । अतः विष्णु सूर्य का ही है । निषिक्तपा का अर्थ है सिञ्चित गर्भ का रक्षण करनेवाला वासुदेव-कृष्ण, देवकी के गर्भ में आंठवे पुत्र के रूप में अवतरित होने की कथा भागवत में प्रसिद्ध है । श्रीकृष्णको विष्णु के अवतार के रूप में प्रसिद्ध करने में वेद के इस निषिक्तपा विशेषण से सहायता मिलती है ।
भागवत पुराण की रचना के पीछे वैदिक देवताओं में से इन्द्र का प्रधान देवत्व छिन के उसे विष्णु के आधिपत्य में लाना और वेदकालिक सूर्य स्वरूप विष्णु के अवतार के रूप में वासुदेव कृष्ण की प्रसिद्धि करने का लक्ष्य लगता है । अतः पुराण कालमें जिस वतुर्भुज विष्णु की कल्पना की गइ है । वही वेद में वर्णित सभी के प्रसविता व्यापनशील विष्णु-सूर्य का हि नया रूपान्तर है । जिस का कार्य जगत का पालन पोषण करना है । उनका वेदो सूर्य के साथ अभेद करने के लिए पुराणकार मे चतूर्भुज विष्णु के वक्षः स्थल पर कोस्तुभमणि रखा है । जो सूर्य का गोतक है । हाथ में सूदर्शन चक्र भी संवत्सर चक्र को प्रवर्तित करते हुए सूर्य की याद दिलाने के लिए है । इस तरह पुराणो में वर्णित त्रिदेवो में से चतुर्भुज विष्णु पहेले वेदकालिन विष्णु(सूर्य) के साथ समन्वित होके बाद मे ऐतिहासिक व्यक्तित्व वासुदेव कृष्ण के साथ जुड जाता है । महाभारत के युद्ध मेदान में गीता का गान करनेवाले कृष्ण ‘विनाषाय च दुष्कृताम‘ कह कर दुर्जनो को मारने के लिए गदा उठाते है । और ‘संभवामि युगे यगे‘ कहकर अवतारवाद का शड्ख बजाते है । ईस तरह चतुर्भुज विष्णु के चारो हाथ में सुदर्शन चक्र, गदा, शंख रखे गये है । पुराणो में चतुर्भुज विष्णु के साथ जुडी हुई वैकुण्ठ लोक की कल्पना भी ऋग्वेद-१/१५४/३ में दिखाई पडती है । ‘ च ईदम दिर्घ प्रयत्नम सगस्थ मे को विममे तिभिरित पदेभि‘ जिस में तृतीय पद को (धाम) माना है । और आगे ऋग्वेद- १/१५४/५ ‘उरूक्रमस्य स ही बन्धुरित्था विष्णो पदे परमे मध्व उत्सः‘ । मे विष्णु के स्थान मे सुधा अमृत के जरने की बात है ।[5]
वासुदेव कृष्ण के मस्तक पर रहा मयूर पीछ और कमर का पिताम्बर सप्तरंगी सूर्य किरण और पित्तवर्णी सूर्य मंण्डल का गोतक है । कृष्ण का गाय के साथ सम्बन्ध भी अनेकार्थक ‘गो पद का एक अर्थ सूर्य किरण भी है, इसलिए दर्शाया है इस तरह वासुदेव कृष्ण ही वेदकालिक विष्णु सूर्य के अवतार है । एसा प्रतिपादित कराने मे पुराणकारोने वैदिक मंन्त्रो से अनुसंधान बनाया है ।
वेदकालिक विष्णु-सूर्य के ही विकसित अवतार विष्णु की पुराणो मे ओर विभिन्न सहिनताओ में स्तुति कि गइ है जिस के लिए भिन्न भिन्न कर्ताओने अनेक स्तोत्र की रचना करके नाना विध रूपो की स्तुति की है । संस्कृत साहित्य में ‘बृहस्तोत्र रत्नाकर नामक ग्रन्थ मे हिन्दु देवी देवताओ के अनेक स्तोत्र संग्रहित है । जहा कृष्ण के ३२ जितने स्तोत्र लिए गए है । इन स्तोत्रो में कृष्ण की स्तुति की कीस तरह की गइ है यह दिखाने का प्रयास किया गया है । प्राय सभी स्तोत्र का उनकी अनन्य भक्ति भाव से स्तुति करते है । कोई याचना करता है तो कोइ कृष्ण को सर्वोपरि देव मानता है । कोइ अपने इष्ट देव के रूप मे उनकी स्तुति करता है ।
शंकराचार्यजीने ‘कृष्णाष्ठकम‘ नाम दो स्तोत्र की रचना की है । जिस मे वे प्रथम स्तोत्र मे कृष्ण को व्रज के स्वामी, पापनाशक भक्त वत्सल्य कहते है ।[6] आगे वे देवराज इन्द्र को भी पराजित करनेवाले बताते है । इसके द्वारा इन्द्र को कृष्ण के आधिपत्य मे लाया गया है ।[7] समस्त जगत के पोषण कर्ता बताते हुए शंकराचार्य कहते है । ‘समस्त लोक पोषणं‘ पृथिवी के भार को उतारनेवालें, ओर भवसागर के कर्णधार कहे है । कृपानिधान कृष्ण को उन्होंने देवों के असुरों का नाशक कहकर सर्वोपरि देव माना है । ‘प्रसन्नभानु शोभनम्‘ कह के कृष्ण को सूर्य के समान तेजोमय वर्णित किया है । गोप के मित्र, गोपीओं के सखा, मुरली, मयूरपिच्छ, कामदेव समान रूप, नेत्र कटाक्ष, श्यामासुन्दर, आदि गुणों का उन्होंने वर्णन किया है । यहां पर शंकराचार्याजी ने कहीं पर भी भौतिक याचना नही की है, सिर्फ उनको प्रेमपूर्ण नमस्कार ही किया है ।
दूसरे कृष्णाष्टक में कृष्ण के स्वरूप को प्रगट किया है । जैसे कि गदी, शंखी. चक्री, विगलवनमाली स्थिररूचिः ।[8] इस पद्य में चतुर्भुज के रूप में स्तुति की है । दूसरे श्लोक में सर्वोत्पत्ति कारक (प्रसविता) माना है, यतः ,सर्व जातं वियदनिल मुख्यं जगदिदम् । सर्व के रक्षणहार भी कहा है । तथापि आगे लयकाल मे काला से समस्त लोक को अपने में ही समाते हुए दर्शाया है । मुनि, सुर और मानवो का मोक्षदाता है । महेन्द्रादि देवो का स्वातन्त्र्य कृष्ण से अतिरिक्त नही है । आगे शंकाराचार्यजी कृष्ण को अर्जुनसखा कहते है । ब्रह्मा के बदले कृष्ण को ही स्वयंभू और समस्त प्राणीओं के जनक कहते है । भगवद्गीता को याद करते हुए यदा धर्माग्नि र्भवति कहके उनके अवतार को सतां हित रक्षायै माना है ।
शंकाराचार्यजी ने पाण्डुरङ्गाष्टकम् नामक स्तोत्र में कृष्ण को आनन्दरूप परब्रह्म के चिह्नरूप माना है । जहां पर उनके खडे हुए स्वरूप को प्रगट किया है । जैसे ‘संसार इतना ही है‘ ऐसा बताने के लिए कमर पे हाथ रखा है ।[9] कौस्तुभधारित, तृप्त हास्यवाले, चनकीला मुकुटधारी, त्रिभङ्गाकृति, मुरलीवादक, अजं, एकरूप, अद्वितीय, दुःखीओं के दुःख हरनेवाले कृष्ण है । जो भक्त को संसाररूपी समृद्ध से पार ले जाते है ।
पण्डित ब्रह्मानन्दजी ने कृष्णाष्कम में ब्रह्मादि देवताओं से संस्कृत राधा के स्वामी, बकादि दैत्य के संहारक, इन्द्र के गर्व का मोचन करनेवाला, कुटिलकेशवाला, मयूरपिच्छधारक, कंस के नाशक, सुदामा के मित्र, अर्जुनके सहायक योदवों के अपहारक, शिकारी के मोक्षदाता कहे है । यहां पर कोई योचना नही की है सिर्फ उनके गुणों का वर्णन किया गया है ।
श्रीब्रह्मवैवर्तक में कृष्ण की कई जगह पर स्तुति की गई है जैसे कि वसुदेव कृत, बाल कृत, इन्द्र कृत, विप्रपत्नी कृत, अनेक जगह पर वृतान्त और पात्र के अनुसार कृष्ण की स्तुति की है । वसुदेव कृत कृष्णस्तोत्र में उन्हें अतीन्द्रिय, अव्यक्त, अक्षर, निर्गुण, विभु कहा है । बाद मे कहा है कि स्तवन में खुद सरस्वती भी अशक्ता है । चतुर्मुख, ब्रह्मा, षडानन, गणेशादि देव भी कृष्ण की स्तुति करने में अक्षम है ।
बालकृत कृष्णस्तोत्र में अग्नि, वरुण, चन्द्र, सूर्य, यम, कुबेर, पवन, इशानादि देवता, ब्रह्मा, मुनीन्द्र, मानवो, दैत्य,यक्ष, राक्षस, किन्नर, समस्त चराचर को कृष्ण की ही विभूति कहा है । शरणागतवत्सल भाव से यहां स्तुति की है ।
इन्द्रकृत स्तोत्र में शुक्ल, रक्त, पीत, श्याम, चारो वर्णोवाले बताये है । सत्ययुग में शुक्ल स्वरूप, वेतायुग में नृसिंह अवतारी रक्त, द्वापरयुग में पीताम्बरधारी पीतवर्णी और कलियुग में पूर्णपुरुषोत्तम स्वरूप कृष्ण वर्णी । जन्ममृत्युजराव्याधि से मुक्त करानवाले है । और आगे राधा के साथ क्रिडा करते हुए, वृन्दावन में खेलते हुए, राधा के उर पर सोए, राधा के संग जलक्रीडा करते, राधा के पेरों पे महेंदी लगाते, राधा का खाया हुआ पान लेते हुए, राधा को वक्रदृष्टि से देखते, गोपीओं के वस्त्र हरते, कालीय नाग के शिर पर खडे, मुरली बजाते, गाते हुए श्रीकृष्ण की लीला दिखाई गई है ।
विप्रपत्नीकृत कृष्णस्तोत्र में कृष्ण को सृष्टि को उत्पत्ति, स्थिति, लय का आधार और ब्रह्माविष्णुमहेशादि को कृष्ण का अंश माना है । तथा मदादि सृष्टि के तत्त्व, पंचतंत्रमात्रा का बीज कहा है ।
श्रीमदभागवत में श्रीबालरक्षा स्तोत्र आता है । जिसमें कृष्ण को हलधर पुरुष, ऋषिकेश, नारायण, योगेश्वर, वैकुन्ठवाशी, लक्ष्मीपती बताया है । भागवत में दुसरा ज्वरकृत कृष्ण स्तोत्र है, जिसमे लीली पूर्वक देव और सज्जनो का सेतु माना है । मोहिनीकृत कृष्ण स्तोत्र में विदग्ध विरहिओ के प्राणान्तक माना गया है । पंचेन्द्रीयकृत स्तोत्र मे पंचबाण(कामदेव) कहा है । इस स्तोत्र में अरोगी, श्रीयुक्त बनाना की याचना की गइ है ।
नारद पंचरात्र में कृष्ण स्तोत्र, गोपालस्तोत्र, गोपालकवच, कृष्णास्तोतरसतनामस्तोत्र, कृष्णसतवराजः इतने स्तोत्र आये है । जिसमें कृष्ण स्तोत्र में राधा के साथी, उसके साथ लीला करते हुए कृष्ण का वर्णन कीया गया है । योगीयो के योग सिद्ध करनेवाले, निर्गुण, ब्रह्मस्वरूप, अनेक अवतारो के बीच कृष्ण को नमन कीया है । गोपालस्तोत्र मे कृष्ण के गोपालस्वरूप को पूजा है । यमुना तट पर लीला करते हुए, नारदादी मुनी श्रेष्ठो से स्तुयमान कहा है । गोपालकवच में जगत गुरू कहा है । जहा बालकृष्ण की स्तुति की है । कृष्णास्तोत्रसतनामस्तोत्र में कृष्ण के सम्पूर्ण वृतान्त को दर्शाते हुए विशेषण दीए गए है । जेसे की देवकीनन्दन[10] पूतनाजी वितहर, नवनीहारी, षोडशस्त्रीसहस्रेश, गोवर्धनचलोद्धता, मथुरानाथ, आदी सत्यव्रतकृत दामोदर स्तोत्र में कृष्ण के गोपाल नाम से विभिन्न कर्ता के पांच स्तोत्र संगृहित है । जिस मे गोपाल स्तोत्र, गोपालविशतिस्तोत्र, गोपालह्रदयस्तोत्र(दो), गोपालस्तुति, गोपालक्षयकवच, गोपालसतनामस्तोत्र और गोपालाष्टक यहां पर वृन्दावन के बालगोपाल के स्वरूप क्रिया, गुण लीला के भलीभाती उभारा है ।
बिन्दुमाधवाष्टक में शेषशायिन विष्णु के रूप मे स्तुति की है । जेसे की भुजङ्गपुङ्गवाङ्गकल्पपुष्पतल्पशायिनः ।[11]
श्रीपरमहंस शंकराचार्य और श्रीमत् ब्रह्मानन्दजी ने एक एक गोविन्दाष्टक की रचना की है । जहां पर शिशुपाल के हन्ता के रूप में, रमै की ग्रीवा के हार के रूप मे लोकत्रयपुर के मूल आधाररूपी, संसाररोग के हन्ता, कैवल्यकारी, कलिदोष हन्ता गोविन्द की स्तुति की है ।
जगन्नाथाष्टक में कृष्ण को रमाशम्भुब्रह्मामरपतिगणेश[12] से अर्चितपाद बताये है ।
पुष्टि सम्प्रदाय के श्रीवल्लभाचार्यजी ने ‘मधुराष्टक‘ की रचना की है । जिसमें कृष्ण की सभी क्रीडा, अंग, लीला को मधुर कहा हा । जैसे उनके सभी अंग अधर, वदन, नयन को मधुरम् कहा गया है । उनके वचन, चरित, चलित, भ्रमण को मधुर कहा गया है । उनके गीत, पीत, वेणु, रूप सबको मधुर माना है । श्रीनन्दकुमाराष्टकम मे वे कृष्ण को नटवरवेशी, गूढतर जगद् उद्धारक, मुक्तिकर कहते है ।[13]
अन्त मे कोई जगन्नाथ कविकृत ‘श्रीडाकुरेश स्तोत्र‘ प्राच्यविद्यामन्दिर, बडौदा से प्राप्त हस्तप्रत के आधार पर प्रकाशित हुआ है ।[14] जिसमें आठ पद्यों में गुजरात के खेडा जिला के डाकोर गाँव के प्रसिद्ध रणछोडरायजी के स्वरूप की स्तुति की गई है । जिसमें द्वारिका को छोडकर कृष्ण डंकनाथ महादेव के पास आकर बसे हुए है । उनकी पूजा तुलसीदल से की जाती है । यहां प्रत्येक पूर्णिमा के उत्सव में कृष्ण की विशेष रूपसे पूजा-अर्चना की जाती है ।
इस तरह हमनें देखा कि वेदकालिन सूर्य को विष्णु के रूप में आर्य प्रजा ने विकसित किया है और आगे जाके पूर्णपुरुषोत्तम के रूप में – कृष्ण के रूप मे वह अवतार यात्रा पूर्ण की है । इसका कारण यह हो सकता है कि बोद्ध और जैन सम्प्रदाय में संसार को छोडकर उत्तम-परम पद पाने को उपदेश देनेवाले बुद्ध-महावीर को अवतार के रूप में स्वीकारा गया था । इसलिए उनसे भी अधिकतर श्रेष्ठपुरुष के (= वैदिक संस्कृति के सर्वोपरि देवता के अवतार को खडा करने का प्रयास करना था और वह प्रयास सफल होता भी हम देख सकते है ।) –कृष्ण के अवतार को सिद्ध करने यह यात्रा स्तोत्रों में गाई गई है । जहां कृष्ण को दीन भाव से याचना करनेंवालें भक्तो को सुख देते, कर्मबन्धन से मुक्त करानेवाले, विष्णु के अवतार, सर्वोपरि देव सिद्ध किया है ।
संदर्भ सूचि :-
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प्रा विजयानन्द जी पटेल
Head of the Sanskrit Department, Bhavan‘s College,
Dakor, Gujarat-388225 (patelvijayanand00@gmail.com)
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