‘मरी जवानी मज़ा’ (मर जाने का लुत्फ़) एकांकी-संग्रह की रंगमंचीयता
गुजरात के साहित्यिक जगत् में प्रसिद्ध ‘रे मठ’, ‘आकंठ साबरमती’ जैसे साहित्यिक वृत्त के सक्रीय सदस्य, ‘पुनर्वसु’ और ‘लघरो’ जैसे तख़ल्लुस रखनेवाले लाभशंकर ठाकर गुजराती साहित्य का चिरपरिचित नाम है । प्रतिष्ठित वैद्द्य ला. ठा. बहुश्रुत विद्वान थे । बहुमुखी प्रतिभा के धनी लाभशंकर जी कवि, विवेचक, निबंधकार, कहानीकार, उपन्यासकार, बालसाहित्य और रेखाचित्रों के भी रचयिता होने के अलावा सफल नाटककार भी रहे । सन् 1993 में प्रकाशित ‘काहे, कोयल शोर मचाये’ तथा ‘मनसुखलाल मजीठिया’ जैसे नाटक आज भी रंगकर्मियों और दर्शकों में अपना आकर्षण बनाये हुए हैं । सैमुअल बकेट से प्रभावित रचनाकार गुजराती साहित्य में एब्सर्ड शैली के नाटक-एकांकी लेकर उपस्थित होते हैं । सन् 1973 में प्रकाशित ‘मरी जवानी मज़ा’ के अलावा ‘बाथटबमां माछली’ (1982) भी उनका प्रसिद्ध एकांकी-संग्रह है ।
संग्रह के सात एकांकियों में से प्रथम एकांकी ‘मरी जवानी मज़ा’ चर्चित रहा है । ‘ब’, ‘छ’, पुरुष नं. 1, पुरुष नं. 2, राजकुमारी जैसे चरित्रों के द्वारा प्रयोगधर्मिता का परिचय देते एकांकीकार रंगकर्मियों को अपना कौशल दिखाने का पूर्ण अवकाश प्रदान करते हैं । मंच के मध्य में तीन काले खम्भे और उनके बीच साइकिल लेकर प्रवेश करता अख़बारवाला (छ) अपने प्रवेश से दर्शकों में उत्सुकता पैदा करने में सक्षम है । पत्थर पर बैठकर अख़बार पढ़ने में रत है कि लम्बे व् अस्त-व्यस्त बाल, काला कुर्ता और मैला पैंट पहने, कंधे पर थैला लटकाये अन्य चरित्र (ब) प्रवेश करता है । ‘छ’ और ‘ब’ के एब्सर्ड शैली के परिचायक संक्षिप्त संवाद अभिनेता और निर्देशक की कसौटी करते हैं । जीवन के गंभीर सत्य को सहजता से प्रस्तुत करते कुछ व्यंजनामय संवाद दर्शकों के मन में अमिट छाप अंकित कर जाते हैं । मनुष्य जन्म से मृत्यु तक प्रवासी जीवन जीता है । किसी को मंज़िल हासिल होती है तो कोई मौत आने तक दिन गुजारते हुए चले जाता है । दोनों के संवाद का यह दृश्य उल्लेखनीय है –
“छ : मने पण नवाई लागे छे.
ब : शेनी ?
छ : तमे भूला पड्या छो एनी.
ब : एमां नवाई जेवुं शुं छे ?
छ : तमारे क्यां जवुं छे ?
ब : हुं तो प्रवासी छुं. फ़रवा निकळ्यो छुं.
छ : शा माटे ? तमारे क्यां जवुं छे ?
ब : बस एम ज. फ़रवा निकळ्यो छुं. मारे क्यांय जवुं नथी.”[1]
कभी-कभी राह भटक कर निरर्थक, निरुद्देश्य घूमते रहना मनुष्य जीवन की त्रासदी बन जाती है ।
‘ब’ और ‘छ’ के संवाद के पश्चात् अँधेरे में मशाल की योजना द्वारा सुन्दर दृश्य-निरूपण किया है । प्रकाश-व्यवस्था का चमत्कार यहाँ प्रकट किया जा सकता है । राजकुमारी का चरित्र अभिनेत्री को अपने अभिनय में उत्कृष्टता लाने का मौका प्रदान करता है । ‘ब’, ‘छ’ और राजकुमारी के एब्सर्ड क्रिया-कलाप और संवाद निरूपण में निर्देशक की कसौटी होती है । कुशल निर्देशक नहीं होगा तो एकांकी यहाँ नीरस हो जाएगा । कितना नग्न सत्य है कि समाज में एक वर्ग भूख से बेहाल हैं, वहीं दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी हैं जो अधिक खाने से, नितनये व्यंजनों से चर्बी चढ़ाकर परेशान हैं । ऐसे वर्ग के लोग कभी भूख से व्यथित हुए ही नहीं या कभी उनको पेट में चूहे दौड़ने जैसी अनुभूति ही नहीं हुई । एकांकीकार इस कटु यथार्थ को मार्मिक रूप से अभिव्यक्त करते हैं ।
‘ब’ और सैनिकों के संवाद हास्य की योजना करते हैं । पूर्व के दृश्य में आती असंगतता यहाँ दूर हो जाती है । न्याय-प्रणाली पर सोचने प्रेरित करता सैनिकों का संवाद, राजकुमारी की हरकतें आदि नाटकीयता का निर्माण करते हैं । चरमसीमा के क्षणों में मर जाने में मज़ा आता है, कहती राजकुमारी का अभिनय करनेवाली अभिनेत्री के पास अपनी क्षमता सिद्ध करने का पूर्ण मौका रहता है ।
‘कुदरती’ शीर्षक दूसरा एकांकी विद्द्यालयों, महाविद्यालयों, संस्थाओं में अनेकशः बार अभिनीत होता रहा हैं । एकांकी के प्रारम्भ में मृत बाबू का अभिनय करनेवाले अभिनेता की परीक्षा हो जाती हैं । मृत शरीर में धीरे-धीरे प्राणों का संचय होने का अभिनय करना, पहले केवल पलकों को हिलाना, फिर होठ और लगातार चेहरा भावविहीन बनाये रखना आदि अभिनेता की कुशलता की अपेक्षा रखते हैं । नाटकीय क्षणों में एकांकी का प्रारम्भ होता है । आदि से अन्त तक यह एकांकी हर वर्ग के दर्शकों को बाँधे रखता है । रंगकर्मियों के लिए इस एकांकी में उत्कृष्ट दृश्य-योजना निर्माण करने की संभावना है । प्रकाश, ध्वनि, संगीत, नृत्य इत्यादि पहलुओं के लिए भी पर्याप्त अवकाश है । भाषा का सुन्दर प्रयोग एकांकी की मंचनक्षमता में अभिवृद्धि करता है । पर्याप्त रंग-संकेत देकर एकांकीकार ने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है । आवश्यकता से अधिक संकेत नहीं, अतः कुशल निर्देशक अपनी कल्पना का प्रचुर प्रयोग कर सकता है । यमदूत, बादल, स्वर्ग, बगीचे आदि की दृश्य-योजना में प्रकाश व् ध्वनि की अद्भुत सृष्टि खड़ी की जा सकती है । स्वर्ग के दृश्य में निर्देशक चाहे तो अप्सरा के नृत्य में गीत-संगीत-नृत्य का सुभग समन्वय कर एकांकी को और अधिक प्रभावशाली बना सकता हैं । पुण्य होना चाहिए, पर प्राकृतिक-कुदरती रूप से कहते-सोचते हुए जनेऊ कान पर चढ़ाते हुए लघुशंका करने जाने तैयार बाबू गुजराती एकांकी-जगत् का अविस्मरणीय चरित्र बन जाता है ।
‘इरादा’ पारु और अन्य चार पुरुष चरित्रों द्वारा अभिनीत एब्सर्ड एकांकी हैं । इस एकांकी में रचनाकार प्रेक्षागार का भी प्रयोग करते हैं । ‘मेरा कोई इरादा नहीं था’ तकिया कलाम का प्रयोग करता सदाशिव दर्शकों का पर्याप्त मनोरंजन करने में सक्षम है । इन्स्पेक्टर के मनोरंजक संवाद वर्तमान कानून-न्याय प्रणाली व् पुलिस तन्त्र पर तीखा प्रहार करते हैं । इन्स्पेक्टर और सदाशिव का यह संवाद दृष्टव्य है –
“इन्स्पेक्टर : आ तो पांच रुपियावाळी टिकिट छे. मिस्टर ! तमे काळाबज़ारनी टिकिट लइने गुनो कर्यो छे.
सदाशिव : गुनो कोने कहेवाय तेनी मने खबर नथी.
इन्स्पेक्टर : (करडाकीथी) मिस्टर.....वखत आव्ये बधी खबर पड़शे तमने.
सदाशिव : बधुं जाणवानो मारो कोई इरादो नथी.
इन्स्पेक्टर : तमे जुठ्ठुं बोलो छो.
सदाशिव : जुठ्ठुं एटले शुं एनी मने खबर नथी.
इन्स्पेक्टर : तो चालो, सत्य शुं छे ? साचेसाची वात कही दो.
सदाशिव : सत्य एटले शुं तेनी मने खबर नथी.
इन्स्पेक्टर : तो शुं तमे आ माणसनुं खून नथी कर्युं ?
सदाशिव : में लाकडानी घोडी एना माथामां मारेली.
इन्स्पेक्टर : शा माटे ?
सदाशिव : पारुए ‘बचावो बचावो’ एम बूमो पाडेली.
इन्स्पेक्टर : आ माणस क्यां हतो ?
सदाशिव : अहीं ज.
इन्स्पेक्टर : ए शुं करतो हतो ?
सदाशिव : पारुनी साड़ीनो छेड़ो एना हाथमां हतो.”[2]
इस लम्बे एकांकी में दर्शकों को जकड़े रखने के लिए निर्देशक को बहुत सावध रहना होगा । एकांकी की असंगतता हर वर्ग के दर्शकों का मनोरंजन करने में कहीं-कहीं आड़े आती है ।
‘नोन्सेन्स’ एक स्त्री चरित्र और चार पुरुष पात्रों का एकांकी है । पुरुष चरित्रों में एक बालक भी है । एकांकी का प्रारम्भ घने अन्धकार में स्त्री की चीख से होता है । पर्दा उठने पर नायिका अनसूया देखे हुए ख़्वाब के कारण भयभीत नज़र आती है । फ़िल्मी पर्दों की तरह यहाँ नाटक में नाटक चलता है । अनसूया-माधव के प्रारम्भिक संवाद दर्शकों को प्रभावित कर जाते हैं –
“माधव : अरे गांडी ! एमां गभराई शुं गई छे ! अमस्तुं सपनुं --
अनसूया : पण केवुं भयंकर हतुं ! काळा बुरखा पाछळ एनी तगतगती आंखो अने हाथमां मोटुं खंजर ! तमे जशो नहीं. अहीं बेसो, मारी पासे.
(माधव बाजुमां बेसे छे. अनसूयानी पीठ पर हाथ फेरवे छे. अनसूया माधवना खभा पर माथुं मूके छे. माधव अनसूयाना वाळ सरखा करे छे. पछी वहालपूर्वक एनां मों पर झूके छे. अनसूया रोषपूर्वक खसी जाय छे.)
अनसूया : मारुं हृदय फफडे छे अने तमने प्रेमनुं नाटक सूझे छे. आघा खसो. एक नम्बरना स्वार्थी.
माधव : हूं तने चाहुं छुं अनु !
अनसूया : मने नहीं. जरूर पड़े त्यारे मारा शरीरने.
माधव : अनु......!
अनसूया : राते एक वाग्या सुधी बहार भटको छो. हुं नानी कीकली नथी. बधुं समजुं छुं. चाल्या जाव, घरमां रे’वानी जरूर नथी. मारा जेवी तो तमने अढार मळी रे’शे.
माधव : तारो स्वभाव ज नफरत ऊपजे तेवो छे. वंतरी ! तुं एक पळ मने सुख आपी शके तेम नथी.”[3]
इस एकांकी के चरित्र अपने नाटककार की स्क्रिप्ट में से बाहर निकल कर अपनी मर्जी की स्वतन्त्र जिन्दगी जीना चाहते हैं, पर यह हो नहीं पाता । मनुष्य भी किसी अदृश्य-अज्ञात लेखक की कठपुतली ही हैं, जो अदृश्य डोर से नचाये जा रहा है । जीवनरूपी रंगमंच पर हमें जो पार्ट मिला है, हम उस पार्ट को अलिखित स्क्रिप्ट के मुताबिक निभाये जा रहे हैं । स्क्रिप्ट में से, रंगमंच से बाहर निकलने के सारे प्रयत्न व्यर्थ रहते हैं । इस एकांकी के चरित्र भी स्वीकारते हैं –
“डिरेक्टर : आ तो आपणे फसाया छिए, माधव.
अनसूया : बराबरना फसाया छिए.
डिरेक्टर : लेखकने साफ साफ संभळावी देवुं जोइये.
अनसूया : पहेलां तो आ नाटकनो ज बहिष्कार करवो जोइये.
डिरेक्टर : आ ते कंई नाटक छे !
माधव : प्रयोजन वगरनुं -
अनसूया : ढ़ंगधडा वगरनुं -
डिरेक्टर : बकवास.
माधव : आपणी वच्चे नथी कोई स्पष्ट संबंध.
अनसूया : अने छतां आपणे डायलोग करवानो ?
डिरेक्टर :आ नाटक नथी. मजाक छे.
माधव : आपणे अटकी जइये.
अनसूया : अटकी जइये ?
माधव : आ क्षणे ज.
अनसूया : पण......”[4]
प्रस्तुत एकांकी के निर्देशन में एब्सर्ड शैली के ज्ञाता रंगकर्मी की आवश्यकता है, अन्यथा यह लम्बा एकांकी नीरस हो जाएगा ।
‘कादव-कीचड़’ में दो स्त्री और चार पुरुष मिलकर छह चरित्र है । मंच एकदम खाली और खाली मंच पर कूदते हुए, जैसे कीचड़ से बचना चाहता हो, पद्मनाभ का प्रवेश होता है । पद्मनाभ पानी और कीचड़ से व्यथित है और सूखे की अपेक्षा में भटक रहा है । दूसरा पात्र अविनाश सूखे से त्रस्त है और पानी की तलाश में घूम रहा है । दोनों चरित्रों के क्रियात्मक संवाद दर्शकों का पर्याप्त मनोरंजन करते हैं । नियति से निर्मित संसार में हर कोई एक-सी स्थिति से परेशान हो जाता है । सभी को परिवर्तन, बदलाव की उम्मीद होती है । मनुष्य के सारे प्रयत्न जिन्दगी में बदलाव लाते रहने के ही होते हैं ।
एकांकी में पद्मनाभ की पत्नी लक्ष्मी का नाटकीय प्रवेश सुन्दर दृश्य खड़ा करता है । इन्द्र व् मेनका का प्रवेश रोमांच का निर्माण करता है । इस एकांकी में गीत-संगीत-नृत्य की योजना की काफी संभावनाएँ हैं ।
हाजी, नाजी, युधिष्ठिर और इन्द्र, इन चार पात्रों को एब्सर्ड शैली में प्रस्तुत करता एकांकी ‘टाउनहोलमां स्वर्ग नथी’ दृश्य-योजना की दृष्टि से पर्याप्त सावधानी और सजे निर्देशक की अपेक्षा रखता है । हाजी, नाजी लोगों का अच्छा मनोरंजन करते हैं ।
‘आ अवाज मारा मनने भरी दे छे’ शीर्षक से संग्रहित अन्तिम एकांकी बहुत संक्षिप्त और तीन चरित्रों को लेकर उपस्थित होता हैं । एकांकी के प्रारम्भ में अन्य एकांकियों की तुलना में इसमें अधिक रंगसंकेत देखने मिलते हैं । कांच के प्याले में भरे शरबत में बर्फ़ के टुकड़े डालना और चम्मच से हिलाते हुए प्याले और टुकड़ों की आवाज़....यह ध्वनि-प्रभाव मंच पर जादुई असर करता है । पूरे एकांकी में इस ध्वनि की अहम् भूमिका रही है । यही आवाज़ रमीला के मन को तृप्त करता है तो यही ध्वनि राई के दिल में प्यास प्रज्वलित करती है । एकांकी में राई के सारे उद्गार केवल पानी की माँग करते हैं । पर हर संवाद में कुशल अभिनेता नयी-नयी अंग-भंगिमा और स्वर के उतार-चढ़ाव, उत्कृष्ट वाचिक व् कायिक अभिनय द्वारा दर्शकों को अपना दीवाना बना सकता है । अन्तिम दृश्य तो पूर्णतया राई पर अवलम्बित है । पीड़ा से आह-कराह भरा संवाद दर्शकों के कानों में गूंजता रहता है ।
कुल मिलाकर लाभशंकर ठाकर पश्चिमी रंग-परम्परा की एब्सर्ड शैली से प्रभावित आधुनिक युग के रचनाकार है । संग्रह की रचनाओं में उनकी रंगधर्मिता का परिचय प्राप्त होता है । अधिकांश एकांकियों में आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य अभिनय की पूरी संभावना है । कल्पनाशील कुशल निर्देशक दर्शकों के सामने पात्रों के ज़रिए अद्भुत सृष्टि खड़ी कर सकता है । इन एकांकियों में स्त्री चरित्र अधिक नहीं, नायिका-प्रधान कोई एकांकी नहीं । अधिकांश एकांकियों में बीडी, सिगरेट का प्रयोग देखने मिलता है । एकांकीकार आवश्यकता से अधिक रंग-संकेत नहीं देते और निर्देशक को अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का पूरा मौका प्रदान करते हैं । कुछ एकांकी आज भी विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं में प्रस्तुत होते नज़र आ रहे हैं । फिर भी ‘काहे, कोयल शोर मचाये’ में रचनाकार की रंग-प्रतिभा जैसे खुलकर सामने आई हैं, उसकी यहाँ जरा कमी अवश्य नज़र आती है ।
सन्दर्भ संकेत :
- 1. मरी जवानी मज़ा, साहित्य संकुल, सुरत, तृतीय आवृत्ति- 2001, पृ. 16
- 2. वही, पृ. 52
- 3. वही, पृ. 59
- 4. वही, पृ. 61