कौसल्या बैसंत्री की आत्मकथा में शिल्प-विधान
आत्मकथा में आत्म का सम्बन्ध लिखने वाले से है और कथा का सम्बन्ध उसके समय और परिवेश से है । कोई लेखक जब अपने विगत जीवन को समूचे परिवेश के साथ शब्दों में बाँधता है तो उसे हम आत्मकथा कहते हैं । हिन्दी में अन्य विधाओं की तुलना में आत्मकथा कम ही लिखी गई है परन्तु पिछले तीन दशकों से इस कमी को पूरा करने का प्रयास सदियों से पुरुषवादी मानसिकता की पीडा सहने वाली कुछ स्त्री-लेखिकाओं एवं सवर्ण-वर्चस्ववाद की यातना झेलने वाले कुछ दलित-लेखकों द्वारा हुआ है । इसका कारण स्पष्ट है कि आत्मकथा अधिकतर शोषण की पीड़ा से उपजी है । इस दौर में विविध लेखकों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएँ उनके दर्द या जीवन-संघर्ष के दस्तावेज समान है । इस सम्बन्ध में डॉ. मेनेजर पाण्डेय का कथन दृष्टव्य है- “दुनिया भर में और हिन्दी में भी आत्मकथा पीडितों का एक ऐसा पाठ साबित हो रही है जिसके माध्यम से पीडित वर्ग और समुदाय के व्यक्ति अपने जीवन की कथा कहते हुए अपने वर्ग और समुदाय की जिन्दगी की वास्तविकताओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करते हैं ।“ [1] सन 1999 में प्रकाशित कौसल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ भी इसी प्रक्रिया का परिणाम है । परन्तु यह आत्मकथा इस मायने में विशिष्ट है कि यह मात्र एक स्त्री की आत्मकथा नहीं है बल्कि एक दलित स्त्री की आत्मकथा है । यानी यह दोहरी क्रान्ति की कामना से जन्म लेने वाली आत्मकथा है । कौसल्याजी ने अपने शीर्षक में ही इस तथ्य को अभिव्यंजित करने का सार्थक प्रयास किया है । लेखिका ने अपने पूरे जीवन में स्त्री और दलित होने का अभिशाप भुगता है । घर के भीतर स्त्री होने का और घर से बाहर निकलते ही दलित होने का । इन्हीं दो रूपों में झेले हुए जीवन की संघर्षपूर्ण कथा इस आत्मकथा मे निरूपित हुई है ।
किसी भी साहित्यिक कृति के प्रमुख दो पहलू होते हैं । एक उसका विषय और दूसरा उसका शिल्प । साहित्य एक कला होने के कारण जितना महत्व उसके विषय पक्ष का है उतना ही महत्व उसके शिल्प पक्ष का भी है । सामान्य रूप से शिल्प उस रचना-विधान को कहते हैं जिसके माध्यम से रचनाकार अपनी अनुभूति को सहज और प्रभावशाली ढंग से संप्रेषित करता है । इस रचना-विधान के अंतर्गत हम कथा-प्रविधि, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार और भाषा की गणना कर सकते हैं । कौसल्या बैसंत्री ने अपनी आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ मॆं अपने आत्म को कथात्मक रूप देने के लिए भले ही बिम्बों, प्रतीकों एवं अलंकारों का अधिक मात्रा में सहारा न लिया हो परन्तु कथा-प्रविधि और सहज भाषा के जरिये वे अपनी अनुभूति को संप्रेषित करने में पूर्णतया सफल रही हैं । लेखिका ने स्वयं भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि वे लेखिका भी नहीं है और न ही साहित्यिक । साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र का उन्हें विशेष परिचय न होते हुए भी उनकी आत्मकथा एक कला-कृति बन पाई है । यही इस आत्मकथा के शिल्प-विधान की विशिष्टता है । इसी संदर्भ में इस पुस्तक के फ्लैप पर मस्तराम कपूर का कथन दृष्टव्य है कि- “यह एक सीधी-सादी जीवन-कथा है जो हर प्रकार के साहित्यिक छलों से मुक्त है ।“[2] एक सीधे-सादे शिल्प-विधान के माध्यम से उन्होंने बखूबी अपने जीवन-सत्य को कला-सत्य में ढाला है ।
‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा कौसल्या बैसंत्री के विगत जीवन की अभिव्यंजना है । उनमें इस आत्माभिव्यक्ति की आकांक्षा जीवन में सार्थकता के बोध से जन्मी है । एक सामान्य दलित कन्या के रूप में जन्म लेने वाली लेखिका अपनी शिक्षा और संघर्ष के चलते समग्र दलित जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर उभरी हैं । आत्म-सन्मान से लबालब लेखिका अपने ही व्यक्तित्व का पुनरावलोकन करती हैं । ऐसे में कहीं पर वह तीव्र भावाभिव्यक्ति से पाठक को आकृष्ट करती हैं तो कहीं विविध शिल्पगत उपकरणों का उपयोग करके पाठक को लुभाती हैं । आत्मकथा का आरंभ तो लेखिका की दस-बारह वर्ष की आयु से होता है परन्तु विशिष्ट कथा-प्रविधि अपनाते हुए उन्होंने अपनी नानी (आजी) के जीवन की घटनाओं को भी विस्तृत ऱूप से गूँथ लिया है –“आजी का रंग एकदम गोरा था और नैन-नक्श तीखे थे । आँखे भूरी थीं और काले घने बाल । आजी छह भाइयों की इकलौती बहन थीं और सबसे छोटी ।” [3] लेखिका ने स्वयं कभी आजी को देखा नहीं है फिर भी आजी के बाह्य व्यक्तित्व को वे इस तरह उभारती हैं मानो यह उनकी अनुभूति का अभिन्न हिस्सा हो । लेखिका ने अभिव्यक्ति की इस नूतन पद्धति को अपनाकर पाठक को यह बोध कराया है कि उनके जीवन की प्रेरणा स्रोत आजी और माँ थीं । उस आजी के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का यह चित्र देखिए-“आजी हरदम कहा करती थी कि वह अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगी, किसी पर बोझ नहीं बनेंगी । अपने कफन का सामान भी वह स्वयं जुटाएँगी और उन्होंने अपनी बात पूरी करके दिखाई । कफन का सारा सामान उनकी गठरी में मौजूद था । वह मानिनी स्वाभिमान से रहीं, किसी के आगे नहीं झुकीं ।” [4] यह कथा-प्रविधि इस लिए भी विशिष्ट है कि लेखिका ने अतीत के भी अतीत को माँ की स्मृति माध्यम से जीवंत किया है ।
‘दोहरा अभिशाप’ मे कौसल्याजी ने सुन्दर बिम्बों की योजना भी की है । विशेष रूप से दलित जीवन के अभिशाप को उभारने के लिए उन्होंने जो बिम्ब खड़े किये हैं वे दलित जीवन की दयनीय़ता को बखूबी उभारते हैं । “सामने ही पाखाने के पास से गुजरना पड़ता था । पाखाने के सामने बच्चे पाखाना करते नजर आते । सारी जगह पाखाने से भरी रहती । और उसीके सामने लोगों के घर थे । उठते-बैठते उन्हें पाखाना नजर आता था । इतनी बड़ी बस्ती के लिए सिर्फ तीन पाखाने थे । और हर पाखाने में आठ फ्लश थे जो पूरे भरे रहते थे पाखाने से । पाँव तक रखने के लिए जगह नहीं होती थी । ...तरह-तरह के रंग का पाखाना दिखता था – काला, लाल,ब्राउन क्योंकि कुछ गर्भवती महिलाएँ मिट्टी कोयला खाती थीं। सवेरे-सवेरे यह देखकर जी मचलने लगता था ।” [5] इस गन्दगी से भरी बस्तियों में पलकर ही लेखिका बड़ी हुई हैं । यह मात्र लेखिका के बचपन का यथार्थ ही नहीं है बल्कि हमारे इतिहास वह काला पन्ना भी है जहाँ मनुष्य ऐसी घुटन भरी जिन्दगी जीने के लिए विवश था । इस वर्णन से पाठक उनके दलित होने की अभिशप्तता को मात्र समझ नहीं सकता बल्कि महसूस भी सकता है । आत्मकथा लिखने का कार्य अनावृत होने जैसा कार्य है । कौसल्याजी ने इस कार्य को बखूबी निभाते हुए न केवल अपनी बल्कि अपने पूरे समाज की मर्यादाओं का उदघाटन भी किया है । अपनी बिरादरी का अक्स दिखाते हुए वे लिखती हैं- “उस समय खाना खाने, पानी पीने की तरह ही बच्चे होना भी सामान्य काम समझा जाता था । कहते, ये भगवान देता है, भगवान की मर्जी है, क्या करें !”[6] लेखिका ने अपनी बिरादरी के सच को इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है कि पाठक आसानी से उसे स्वीकृत कर लेता है ।
कौसल्याजी के लिए तो यह अभिशप्तता दोहरी है । उच्च शिक्षित और सरकार में उच्च पद पर सेवारत स्वतंत्रता सेनानी रहे पति की दासी होने की अभिशप्ता भी । इसका एक चित्र देखिए – “पत्नी को वह स्वतंत्रता सेनानी भी एक दासी के रूप में ही देखना चाहता था । मैं कपड़े नहीं धोती थी इसलिए वह साबुन भी अपनी अलमारी में बंद रखता, चीनी भी बंद, थोड़ी-थोड़ी रोज़ लड़के के लिए, चाय के लिए रख देता ।”[7] अपने ही घेरे में रहने वाले गर्म मिज़ाज़, जिद्दी, औरत को पैर की जूती मानने वाले और क्रूरता से पीटने वाले उनके पति देवेन्द्रकुमार के इन व्यक्ति-चित्रों ने स्त्री जीवन की शाश्वत पीड़ा को अधिक गहरा बनाया है । “वह अपने मुँह से कहता कि मैं बहुत शैतान आदमी हूँ । उसने मेरी इच्छा, भावना, खुशी की कभी कद्र नहीं की । बात-बात पर गाली, वह भी गंदी-गंदी और हाथ उठाना । मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से । उसकी बहनों ने मुझे बताया था कि वह माँ-बाप, पहली पत्नी को भी पीटता था” [8] । ऐसे पति से लेखिका कैसे प्रेम-भाव या श्रद्धा-भाव रखती होगी इसका सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है । एक दलित होने की और एक स्त्री होने की पीड़ा के ऐसे कई चित्र ‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा में मिल जाते हैं, जो इसे पठनीय भी बनाते हैं और कलात्मक भी ।
‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा में अपनी अनुभूति को पाठक के अनुकूल बनाने के लिए लेखिका ने अलंकारों, कहावतों एवं लोकोक्तियों से युक्त भाषा का प्रयोग भी किया है । उनके शहर नागपुर की नगरपालिका के मेयर की दो पत्नियां थीं । उसके द्वारा किए जाने वाले स्त्री-शोषण की बात करते हुए वे एक जगह लिखती हैं- “दूसरी औरत को वह पूरा खर्च देता था । परन्तु वह न कभी उसके साथ उठता-बैठता था, न बातें करता और न उसे किसी कार्यक्रम में बाहर ले जाता । मतलब उसे कोई प्रतिष्ठा नहीं देता था । हाँ, खर्चा अच्छा देता था । वह औरत खिड़की में खड़ी रास्ते की रौनक ही देख पाती थीं । सोने के पिंजड़े में बंद मैना की तरह जिसे खाने-पीने को खूब मिलता है किंतु मुक्त वातावरण नहीं ।”[9] स्त्री-शोषण के लिए प्रयुक्त यह आलंकारिक भाषा लेखिका के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग प्रतीत होती है । तो ‘मानो मेरे पीछे बाघ दौड़ा आ रहा है’, महँगाई ने तो माँ-बाब की कमर ही तोड़ दी थी’ और ’मेरा खून खौलने लगता है’ जैसे मुहावरों के प्रयोगों ने भी इस आत्मकथा का सौन्दर्य बढ़ाया है । ‘दोहरा अभिशाप’ की भाषा को हम एक संतुलित भाषा भी कह सकते हैं । इसमें न तो अधिक अति साहित्यिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है और न ही अनावश्यक गालियों का । परन्तु यह संतुलित भाषा कहीं भी इसकी कलात्मकता में बाधा नहीं बनी है । कौसल्याजी ने अनेक स्थान पर बहुआयामी भाषा का प्रयोग करके अपनी आत्मकथा को कलात्मक सौन्दर्य प्रदान किया है । जैसे- “जाति तो हमने कब की झटक दी है”[10] और ”निरसा जाने से पहले ही हमारी जाति वहाँ पहुँच गई थी”[11] ऐसे भाषा प्रयोग एक ओर इस आत्मकथा को सुन्दर तो बनाते ही हैं तो दूसरी ओर पाठक इसे एक घोषणा के स्तर पर भी लेता है जिसमें एक समूची पीडित जाति की पीड़ा से मुक्त होने की छटपटाहट भी लक्षित की जा सकती है । दोहरा लक्ष्य सिद्ध करने वाली यही भाषा ‘दोहरा अभिशाप’ के शिल्प-विधान की महत्वपूर्ण विशेषता है ।
दलित आत्मकथाओं की भाषा में गालियों का प्रयोग सर्व सामान्य है । ‘दोहरा अभिशाप’ एक दलित आत्मकथा होते हुए भी इसमें गाली-गलौज वाली भाषा देखने नहीं मिलती । इसमें न तो व्यर्थ की गालियां हैं और न ही कृत्रिम आक्रोश । कौसल्याजी ने अपने भाव-विश्व एवं परिवेश के अनुरूप एक सहज भाषा का प्रयोग किया है । सदियों से अनपढ़ रहने का शाप भुगतने वाली दलित जाति पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले अपने ही लोगों के बारे में कैसा सोचती है इसकी एक झलक इस भाषा में मिल जाती है- ”इतनी बड़ी हो गई हैं, थन लटक रहे हैं, शादी नहीं हुई, बूढी होंगी तब करेंगी क्या ?” कोई कहती : ”अरे, जाने दो । अभी तक क्या कोरी रह गई है ? इतने यार-दोस्त आते हैं घर में, तो क्या कुछ नहीं होता होगा ?”[12] कौसल्याजी के संघर्षपूर्ण कड़वे-मीठे अनुभवों से उपजी यह भाषा सहज भी प्रतीत होती है तो विशिष्ट भी । व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करती भाषा भी ‘दोहरा अभिशाप’ में प्रयुक्त हुई है । परन्तु कौशल्याजी का यह आक्रोश कहीं भी सायास नहीं प्रतीत होता । “बाबा ने हेड मिस्ट्रेस के चरणों के पास अपना सिर झुकाया दूर से, क्योंकि वे अछूत थे, स्पर्श नहीं कर सकते थे । बाबा का चेहरा कितना मायूस लग रहा था उस वक्त ! मेरी आँखें भर आई थीं । अब भी इस बात की याद आते ही बहुत व्यथित हो जाती हूँ । अपमान महसूस करती हूँ । जाति-पाँति बनाने वाले का मुँह नोचने का मन करता है । अपमान का बदला लेने का मन करता है ।”[13] अनुभव की राह से गुजरकर आने वाली यह आक्रोशपूर्ण भाषा आत्मकथाकार के कथ्य के साथ एकाकार हो गई है । कथ्य और शिल्प के इस सामंजस्य ने भी प्रचलित दलित आत्मकथाओं से इस आत्मकथा को विशिष्ट बनाया है ।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि ‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा का शिल्प-विधान शिल्पगत सजगता प्राप्त किसी अनुभवी रचनाकार द्वारा निर्मित न होते हुए भी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल रहा है । अस्पृश्य समाज में पैदा होकर जाति के नाम पर घोर मानसिक यातना झेलने वाली एक शिक्षित गृहिणी द्वारा रचित यह आत्मकथा आत्मरति या आत्मपीडन की भावना से मुक्त है । परिणाम स्वरूप इसमें न कथ्य खींच-तान कर जोड़ा गया है, न शिल्प । अपने अनुभवों को खुलेपन एवं प्रामाणिकता से निरूपित करने के प्रयास में एक सहज शिल्प-विधान का निर्माण होता गया है । अपनी बात करते हुए अनायास आजी(नानी) की बात को गूँथने की कथा-प्रविधि, अपनी दलित एवं स्त्री होने की पीड़ा को प्रभावशाली ढंग से वाणी देने के लिए शब्द-चित्रों का सार्थक विनियोग, संतुलित, सरल और भाव-प्रवण भाषा, पूर्व दीप्ति, विवरणात्मक और विश्लेषणात्मक शैली आदि इसी सहज शिल्प-विधान के कलात्मक उपकरण हैं, जिनके कारण यह रचना दलित महिला आत्मकथा साहित्य की नींव का पत्थर बनने में सफल हुई है ।
संदर्भ-
- 1. हंस पत्रिका- मार्च-2010
- 2. दोहरा अभिशाप – फ्लैप
- 3. दोहरा अभिशाप पृ. 15
- 4. वही पृ. 28
- 5. वही पृ. 68
- 6. वही पृ. 51
- 7. वही पृ. 106
- 8. वही पृ. 104
- 9. वही पृ. 78
- 10. वही पृ. 116
- 11. वही पृ. 102
- 12. वही पृ. 75
- 13. वही पृ. 47