कंस का नया अवतार

साठोत्तर युग के प्रमुख नाटककारों में रंगमंच के प्रति बहुआयामी प्रतिबद्धता दयाप्रकाश सिन्हा की एक विशिष्ट पहचान है । सिन्हाजी का रंगमंच से निरन्तर जीवन्त संबंध है इसीलिए वे प्रकाशन के पूर्व अपने नाटकों की स्वयं प्रस्तुति करके उन्हें मंचसिद्ध करते हैं । उन्होंने अपने नाटकों में कथ्य और शिल्प की दृष्टि से नये प्रयोग किये हैं । सिन्हाजी के अब तक बारह नाटक प्रकाशित हो चुके हैं । सिन्हाजी की नाट्ययात्रा में ‘साँझ-सबेरा’, ‘मन के भँवर’, ‘कथा एक कंस की’, ‘अपने अपने दाँव’, ‘दुश्मन’, ‘ओह अमेरिका’, ‘सादर आपका’ , ‘इतिहासचक्र, मेरे भाई मेरे दोस्त’, ‘इतिहास’ (वृत्त नाटक), ‘सीढ़ियाँ’ और ‘रक्त-अभिषेक’ इत्यादि नाटक महत्त्वपूर्ण पड़ाव हैं ।

सिन्हाजी के नाटकों में व्यक्ति, समाज और आसपास का परिवेश केन्द्र में रहता है । उनके नाटकों में मुख्यतः आधुनिक युग में व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षा, अंतर्द्वन्द्व, पारिवारिक संबंधों में विखराव, घुटन, अकेलापन, मूल्य विघटन, पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण, साम्प्रदायिकता, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, भ्रष्टाचारी व्यवस्था की विसंगतियाँ आदि की अभिव्यक्ति मिलती हैं । सिन्हाजी के प्रत्येक नाटक का कथ्य समाज की कोई न कोई समस्या द्वारा समकालीन संदर्भ से जुड़ता है ।

मिथकीय नाटक के रूप में ‘कथा एक कंस की’ एक महत्त्वपूर्ण नाटक है । मिथ (Myth) एवं मायथोलोजी (Mythology) मूलतः ग्रीक शब्द है । जो पौराणिक परिकल्पनात्मक कथाओं का बोधक है । ग्रीक में ‘मुथोस’ तथा लैटिन का ‘मिथास’ मिथ के मूल स्त्रोत हैं, जिनका अर्थ होता है, शब्द, कथा या कहानी । अंग्रेजी साहित्य एवं कला में मिथ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । मिथ के लिए हिन्दी में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘मिथक’ शब्द प्रयुक्त किया है । वैसे ‘मिथ’ के लिए पुराकथा, पुराण कल्पना, देवकथा, आदिम कथा जैसे शब्दों के प्रयोग भी किये जाते हैं किन्तु ये सारे शब्द मिथ की सार्थकता को व्यक्त करने में इतने सफल नहीं हो पाये, जितना मिथक ।

‘मिथक’ के संदर्भ में ‘एन साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ में कहा गया है कि-
‘‘मिथ (मिथक) आदिम संस्कृति का एक अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण उपादान है, यह विश्वास को अभिव्यक्त, विकसित और संहिताबद्ध करता है, यह नैतिकता की सुरक्षा करता है उसे दृढ़ करता है, यह शास्त्र-विधि, धार्मिक अनुष्ठान की सक्षमता को प्रमाणित करते हुए मनुष्य के निर्देशन के लिए व्यावहारिक नियमों का निर्धारण करता है । इस प्रकार मिथक मानव सभ्यता के लिए अत्यावश्यक उपादान है । यह केवल निरर्थक कथा ही नहीं अपितु एक ठोस क्रिया व्यापार और सक्रिय बल है । यह केवल बौद्धिक व्याख्या या कलात्मक बिम्बविधान की प्रस्तुति ही नहीं करता बल्कि आदिम विश्वासों और नैतिक विवेक का एक व्यावहारिक दस्तावेज है ।’’[1]

डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के मतानुसार-
‘‘आधुनिकता के पूरे आवरण में भी मिथक झाँकता है और अपने अतीत को वर्तमान के लिबास में प्रस्तुत करता है ।’’[2]

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिथक हमारी पौराणिक सांस्कृतिक धरोहर को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है । मिथक स्वयं एक सृजन है, जो परवर्ती सृजन को एक नई दिशा और जीवन देता है । हमारे यहाँ वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत तथा पुराण आदि मिथकीय ग्रंथ समृद्धि की दृष्टि से विश्व साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं । वास्तव में ‘मिथक’ रचनाकार की कल्पना को मूर्त रूप में प्रगट करने के लिए साधन मात्र होते हैं, जिनके माध्यम से लेखक प्राचीन आख्यान, देवकथा, पुराणकथा, धर्मगाथा को आधार बनाते हुए उसे अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाते हैं । मिथक अतीत का उपयोग करके केवल कथा, इतिहास या इतिवृत्त ही नहीं प्रस्तुत करता बल्कि उसका आधार लेकर समग्र जीवन को, एक नई व्याख्या द्वारा आधुनिक रूप में हमारे सामने व्याख्यापित करता है तथा हमें कुछ नये आयाम देकर, समस्त मानव को अपने अतीत से जोड़ता है ।

‘कथा एक कंस की’ नाटक की भूमिका में दयाप्रकाश सिन्हा ने लिखा है कि-
‘‘मिथक का वर्तमान संदर्भ में नया अर्थ निकाला जा सकता है, किन्तु उसकी प्रमुख घटनाओं तथा चरित्रों को बदला नहीं जा सकता । मिथक के निश्चित फ्रेम के भीतर ही उलट-फेर की जा सकती है, किन्तु मूलरूप में मिथक परिवर्तित नहीं किया जा सकता । उदाहरण के लिए कृष्ण और कंस के प्रसंग का कितना ही आधुनिकीकरण क्यों न किया जाये, कृष्ण ही कंस का वध करेगा । इसका विपरीत कभी भी सम्भव नहीं है । मैंने इस नाटक में, जहाँ तक हो सकता है, कथानक और कथाक्रम को अधिक से अधिक मिथक के निकट रखने का प्रयत्न किया है । केवल उसमें ‘इंटरप्रेटेशऩ’ के मामले में मैंने नाटककार की रचनात्मक स्वतंत्रता का उपयोग किया है ।’’[3]

दयाप्रकाश सिन्हा रचित ‘कथा एक कंस की’ नाटक का नायक कंस है । सिन्हाजी ने कंस से सभी संबंधित पुराणवृत्तों का गम्भीर अध्ययन-अन्वेषण कर उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं के अन्तर्गत ही नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है । कंस के माध्यम से इतिहास की उस घटना को पहचानने की कोशिश की गई है जिसके द्वारा स्वेच्छाचारी शासक समय-समय पर मंच पर आते रहते हैं । स्वयं नाटककार दयाप्रकाश सिन्हा ने प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखा है कि-
‘‘मैंने कंस के द्वारा उन व्यक्ति-तन्त्री स्वेच्छाचारी शासकों के निर्माण और विनाश का अन्वेषण किया है जिनका समय-समय पर इतिहास के विभिन्न मोड़ों पर आविर्भाव हुआ है, चाहे वह कंस हो या औरंगजेब, या हिटलर या मुसोलिनी । ऐसे व्यक्ति आत्म-सत्ता के विस्तार की उद्दाम आकांक्षा से पीड़ित उस मार्ग पर बढ़ते ही जाते हैं, जहाँ से लौटना संभव नहीं होता, और जिसकी परिणति आत्मनाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । शेर के सवार की भाँति वह अन्त तक शेर से उतर नहीं सकते । अन्ततः ऊपरी तड़क-भड़क के बावजूद वह विवशता की घुटन अनुभव करते हैं, जो उनके जीवन की वास्तविक त्रासदी होती है । इस नाटक के द्वारा मैंने एक स्वेच्छाचारी शासक के उत्थान-पतन के अतिरिक्त उसकी महत्त्वाकांक्षा में निहित त्रासदी को पकड़ने की भी चेष्टा की है । यही नाटक की मूल संवेदना है ।’’[4]

मथुरा नरेश कंस पौराणिक पात्र होते हुए भी आज के सत्ताधारी शासक वर्ग का प्रतिनिधि है । नाटककार ने कंस को डरपोक बालक, भावुक प्रेमी, क्रूर, स्वार्थी शंकालु महत्त्वाकांक्षी राजा और भगवान कंस के रूप में चित्रित किया है । डॉ. जयदेव तनेजा के मतानुसार-
‘‘कंस यहाँ किसी व्यक्ति विशेष का बोधक न होकर किसी भी निरंकुश, अत्याचारी और शासक का प्रतीक है तो कृष्ण इसके उद्धारकर्ता का प्रतीक । परन्तु इस नाटक की मूल शक्ति ‘कंस और कृष्ण’ (जो एक बार भी मंच पर नहीं आते) के बाह्य संघर्ष में न होकर स्वयं कंस के भीतर की सद् और असद् वृत्तियों के द्वन्द्व और एक कलाप्रिय, भावुक, सुन्दर एवं स्त्रियोचित करुण कोमल स्वभाव के सामान्य व्यक्ति कंस के क्रमशः महाराजाधिराज कंस और फिर भगवान श्री कंस बनने की उलझी हुई और लम्बी प्रक्रिया के मनोवैज्ञानिक उद्घाटन में निहित है ।’’[5]

नाटक के प्रारंभ में शिथिल और क्लान्त कंस से हम परिचित होते हैं । भयानक सपने से भयभीत कंस को वंशी की ध्वनि बेचैन कर देती है । कितनी रातें बीत जाने पर उसे नींद नहीं आती । सत्ता के शिखर पर पहुँचकर भी कंस को चैन प्राप्त नहीं होता है । कंस के चरित्र को नाटककार ने मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत किया है । नाटककार ने छोटे-छोटे फ्लैशबैक दृश्यों के माध्यम से कंस के जीवन विकास और मोड़ों के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का उद्घाटन करते हुए उन कारणों और स्थितियों पर भी प्रकाश डाला है जिसके फलस्वरूप कोई भी व्यक्ति कंस बनने को मजबूर हो जाता है । बहुत ही कोमल और संवेदनशील व्यक्तित्ववाला कंस जब वीणा को अपना प्रिय हथियार बताता है तब पिता उग्रसेन उसे ‘पुरूष के वेश में स्त्री’ कहते हैं। भरी सभा में कंस बकरे की आँख में से टपकते आँसू देखकर द्रवित हो उठता है और कमान से तीर उतार लेता है, तभी पिता उग्रसेन क्रोधित होकर कहते हैं कि-
‘‘तुम हाथों में स्त्रियों के कंगन पहनकर वीणा बजाओ । ये पुरूषों के खेल तुम्हारे जैसे स्त्रैण पुरुष के बूते के नहीं ।’’[6]

कोमल प्रवृत्ति के कंस के व्यक्तित्व पर पिता द्वारा किया गया अपमान बहुत ही बुरा प्रभाव डालता है । पिता उग्रसेन द्वारा बालक कंस को घनघोर वन में अकेला छोड़ दिया जाता है । जंगली पशुओं के डर से वस्त्र गीले हो जाने पर पिता उग्रसेन उसे दोनों हाथों से मारते हैं । बर्बरताविहीन संसार की कल्पना करनेवाला कंस पिता द्वारा किये गये अपमान, तिरस्कार और उपहास की प्रतिक्रिया में सिर्फ निर्ममता, हिंसा, हत्या और क्रूरता को ही पुरुषत्व मानकर अपने पिता-उग्रसेन को भी घुटने टेकने और गिड़गिड़ाकर क्षमा याचना के लिये विवश कर देता है-
‘‘क्लीव, कापुरुष, डर से कपड़े गीले करनेवाला कंस, आज पिता महाराज आपके जीवन का नियामक है । पिता, महाराज, मैंने सौगन्ध खायी थी, आपके उपहास और विद्रुप से विकृत होठों पर एक दिन क्षमा-याचना होगी । आज वह दिन आ गया है । पिता महाराज, क्षमा मांगिये । सुना नहीं आपने ! पिता महाराज, क्षमा मांगिये ।’’[7]

यहाँ पर संगीत प्रेमी, भावुक और संवेदनशील कंस प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त क्रूर बनता हुआ नज़र आता है । सत्ता के शिखर पर पहुँचकर भावुक प्रेमी कंस स्वार्थी बन जाता है । प्रेमिका स्वाति को सेनापति प्रद्मोत से विवाह करने पर विवश कर देता है ताकि प्रद्मोत पर निगाह रखी जा सके । प्रद्मोत के संदर्भ में गुप्त सूचनाएँ कंस स्वाति के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है । बहन देवकी के प्रति अत्यधिक प्रेम होते हुए भी कंस अपनी सत्ता की रक्षा के लिए उसे कारागार में डाल देता है ।

कंस का अहंकार क्रूरता में बदलने लगता है । नाट्यमंडली द्वारा खेले गये ‘नृसिंहवतार’ नाटक में हरिण्यकशिपु का अंत देखकर आगबबूला हो जाता है । यादव साम्राज्य में नाटक, संगीत, देवोपासना, धर्मशिक्षाओं के निषेध का आदेश देता है । नाट्यमंडली के सभी कलाकारों को फाँसी का आदेश देता है । अहंकारी कंस को जब इस बात का पता चलता है कि स्वाति ने कृष्ण को न मारकर खुद विष खा लिया तब उसे फाँसी पर लटका देने का आदेश देता है । पत्नी अस्ति के मुख से कृष्ण की प्रशंसा को कंस सह नहीं पाता और उसकी गला घोंटकर हत्या कर देता है । अहंकारी कंस स्वयं इस बात का स्वीकार करता है कि-
‘‘मैंने तो हत्या की है उस प्रतिगर्व की, जो मेरा गर्व सहन नहीं कर सकता, चाहे वह पत्नी हो, मित्र हो, बहन या पिता हो । उसे नष्ट होना ही है ।’’[8]

महत्त्वाकांक्षी कंस अपने आपको भगवान श्रीकंस के रूप में स्थापित करता है । सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए कंस को कृष्ण की वंशी का स्वर भयभीत करता रहता है । नाटक के अंत में वंशी के स्वर से बेचैन कंस लड़खड़ाकर गिर पड़ता है और जीवन के लिए भीख माँगता दिखाई देता है । प्रत्येक सत्ताधारी की यह नियति होती है कि वह शिखर पर पहुँचकर नितान्त अकेला, शिथिल, भयाक्रान्त और पराजित सा अनुभव करता है । डॉ. लक्ष्मीराय का मत है कि-
‘‘कंस का चरित्र्य निरंकुश और सत्ताधारी शासक का प्रतीक है जो सत्ता और महत्त्वाकांक्षा में निहित त्रासदी को भोगता दिखायी देता है । इस उपक्रम में नाटककार ने इसमें व्यक्ति संश्लिष्ट मनोविज्ञान में गहरे उतरकर उन कुंठाओं और अपर्याप्त क्षमताओं को भी ढूँढ़ने का प्रयास किया है । जिससे कंस की निरंकुश मानसिकता का निर्माण हुआ है।’’[9]

आज के बुद्धिजीवी युग में मिथक के विभिन्न प्रसंगों को तार्किक और विश्वसनीयता का आधार देने के लिए नाटककार ने कई प्रसंगों को नवीन अर्थ संदर्भ प्रदान करने का प्रयास किया है । जैसे कि - आकाशवाणी को कंस के भयभीत मन की वाणी के रूप में प्रस्तुत करना, स्वयं विष खाकर पूतना (स्वाति) को आत्महत्या करते दिखाता, कृष्ण की वंशी स्वर को विद्रेह का प्रतिरूप मानना, कृष्ण को अवतार न मानकर यादव रोष का प्रतीक मानना इत्यादि प्रसंगों से यह नाटक समकालीन प्रतीत होता है । डॉ. दशरथ ओझा के शब्दों में कह सकते हैं कि-
‘‘प्रयोगधर्मी नाटककारों में श्री दयाप्रकाश सिन्हा का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।.... मिथक पर आधारित यह नई चेतना का नाटक है ।.... ‘कथा एक कंस की’ के लेखक ने आधुनिक रचनाधर्मिता का बहुत कुशल निर्वाह किया है ।.... कथा को मनोवैज्ञानिक आधार देने के साथ-साथ लेखक ने उसे तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक चेतना और स्थिति से जोड़ा भी है । ... इसमें आधुनिक चेतना के तो आयाम दिए ही हैं, एक बड़े समकालीन मूल्यगत प्रश्न को भी उठाया है ।’’[10]

संदर्भ

  1. 1. डॉ. कविता शर्मा, हिन्दी के स्वातंत्र्योत्तर मिथकीय खण्डकाव्य, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद, प्र.सं.1999, पृ.14
  2. 2. वही, पृ.16
  3. 3. दयाप्रकाश सिन्हा, कथा एक कंस की (नाटककार का दृष्टिकोण प्र. संस्करण की भूमिका), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, सं.2008, पृ.12
  4. 4. वही, पृ.12-13
  5. 5. सं. रवीन्द्रनाथ बहोरे, नाटककार दयाप्रकाश सिन्हा समीक्षायन, डॉ. जयदेव तनेजा, व्यक्ति से भगवान बनने की त्रासदी, संजय प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2011, पृ.103
  6. 6. दयाप्रकाश सिन्हा, कथा एक कंस की, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.2008, पृ.40
  7. 7. वही, पृ.42-43
  8. 8. वही, पृ.84-85
  9. 9. डॉ. लक्ष्मीराय, आधुनिक हिन्दी नाटक चरित्र सृष्टि के आयाम, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.1989, पृ.429
  10. 10. डॉ. दशरथ ओझा, ‘कथा एक कंस की’ नाटक के फ्लेप पर से, उद्धृत

प्रा. ज्योत्सना गोस्वामी
सरकारी विनयन कॉलेज
सेक्टर-15, गांधीनगर