‘मधुकलश’ एक विवेचन
मधुकलश:
मधुकलश:
माना जाता है कि मधुकलश में संग्रहीत कविताएँ सन् १९३५ से १९३६ दो वर्षों के बीच लिखी गई हैं और जिसका प्रकाशन सर्वप्रथम सन् १९३७ में किया गया। मधुकलश बच्चन जी का सर्वश्रेष्ठ, लोकप्रिय काव्य संग्रह है, जिसमें कुल मिलाकर १२ कविताएँ संग्रहित हैं। इसमें सामाजिक परिवेश में व्यक्ति को प्रत्येक मानसिक घात-प्रतिघात को तन्मयता से ध्वनित किया है। ‘‘संगीतात्मकता, अखंडित रस नियोजन, अनुभूतियों की ईमानदारी और कल्पना के संयोग से आवृत्त, भावानुकूल भाषा आदि गुणों ने इस संग्रह के गीतों को दुर्बल होने से बचा लिया है। साथ ही गीतों की लम्बाई ने उसके कथ्य व शिल्प किसी में भी निरसता आने से बचा लिया है।’’(१) इतना ही नहीं, प्रतिक रूपाकादि के भावसंगत विशिष्ट प्रयोग द्वारा सजीव चित्रों की सृष्टि करने में सफल हुए हैं। फिर भी ‘‘न जाने क्यों बच्चन जी के ‘मधुकलश’ की चर्चा उतनी नहीं हुई, जितनी उनकी ‘मधुबाला’, ‘निशा-निमंत्रण’ और ‘एकांत-संगीत’ की। न सिर्फ उस पुस्तक में उस युग की काव्यात्मक अनुभूतियों का काफी खजाना है, बल्कि उस काल की काव्यात्मक समस्याओं की कुंची भी है, जिसके बगैर उस युग को नहीं समझा जा सकता। यों भी मेरी समझ में हिन्दी की लम्बी कविताओं में जिनमें शुरू से आखिर तक यह काव्य गुण समान रूप से प्रवर्तमान हो- ‘मधुकलश’ की कवितायें बेजोड़ हैं।’’(२) बच्चन जी की रचनाओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि उनकी पंक्तियाँ बिजली की तरह कौंधकर मन में प्रवेश कर जाती है। छायावादोत्तर काल में प्रेम के क्षेत्र में सबसे स्पष्टवादी कवि बच्चन जी ही हैं। उनके गीतों को स्पष्टवादिता का स्वर इस हद तक है कि उनके आलोचकों की संख्या बढ़ती रही। बच्चन जी ने अस्तित्वादी दर्शन और भारतीय आदर्श की जो स्थापना की है शायद उन जैसा सनातन-विद्रोही व्यक्तित्व अन्य कोई में असमर्थ ही है।
मधुकलश की कविताओं के केन्द्रिय भाव को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।
यह एक प्रतिकात्मक काव्य है। इसके ‘‘प्रत्येक शब्द जीवनसंगीत का लय ताल-वाद्य स्वर सभी अपने साथ लेकर आता है। लगता है शैशव की दहलीज को लांघ कविता कामिनी यौवनारंभ की अबोली, अखोली-अल्हड़ता में बंद आँखों और खुले पांवों से दौड़ी चली आ रही है और अपनी मस्ती का त्वरा थिरकन का उन्मद चाचल्य का साम्य प्रकृति के क्रिया व्यापारों में देख पुकार उठती है।’’(३) गतिशिल जीवन मधु रस का रागमय मुखरण प्रकृति के सुकुमार वातावरण में उसी से अभिप्रेरित हुआ है, जिसमें मधुबाला के मनोजगत के सत्य एवं सौंदर्ययुक्त चित्रण एवं वेदना से दृश्य बने कवि जीवन की विविधताओं का उदारतापूर्वक सूक्ष्म अघ्ययन कर सत्य और सरसता की महत्ता को स्वीकार करते हैं। जीवन में सुख-दुःख के क्षण भी आते हैं इतना ही नहीं, प्रत्येक कर्म के लिए निश्चित घड़ियाँ भी होती हैं अतः नियति को सत्ता जानकर हास्य-रूदन को भूलकर आनंदपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए। इस कविता द्वारा कवि ने व्यक्ति की विवशता के प्रति खीज, रिस और चुभन को संयम, तटस्थता, सह्रदयता, भावत्वरा के साथ रागात्मक पदों-छंदों में रूपायित करने का प्राणवंत प्रयास किया है। कवि की वासना:
‘विशाल भारत’ में छपी बनारसीदास चतुर्वेदी की टिप्पणी के प्रतिक्रिया स्वरूप् बच्चन जी ने ‘सरस्वती’ में प्रस्तुत कविता द्वारा स्वयं पर लगाए निराशा, पथभ्रष्टता तथा वासना-आरोप का उत्तर दिया है। बच्चन जी की पूर्वकालीन अधिकांशतः रचनाओं में व्यक्ति के अस्तित्व की व्यंजना एवं भाव-दर्शन किसी न किसी प्रतीक द्वारा अभिव्यक्त हुआ है। काव्य में प्रयुक्त ‘मैं’ प्रतीक द्वारा कवि का व्यक्तित्व स्पष्ट होता है जिस पर समाज के अच्छे-बुरे तत्व प्रभाव डालते हैं। अतः सामाजिक दृष्टि से व्यक्ति के बहुत से अपराध प्रवृत्यात्मक रूप् में उसी के न होकर समाज के सभी व्यक्तियों के होते हैं। उदाम लालसा या तृष्णा को निर्भिकता एवं सहजता से अभिव्यक्त करने का श्रेय सर्वप्रथम कविवर बच्चन जी को है ‘‘यह स्पष्टता आगे चलकर व्यक्तिवादी कवियों के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता बन गई है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि व्यक्तिपरक गीतिकाव्य ने अनुभूतियों के प्रकाशन में ईमानदारी का ध्यान सदैव रखा है पर यही ईमानदारी उनकी कठोर आलोचना का कारण बनी है।’’(४)‘‘मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।’’(५) सुषमा:
कवि की निराशाः
यह एक सामान्य और साफ कविता है, जिसमें कवि पद्य की अपेक्षा गद्य के निकट पहुंच गए हैं । कवि को स्वयं को भी इस कविता में संतोष नहीं है।
श्यामा जी की रोगशैय्या के पास बैठकर लिखी कविता में कवि ने निराशावादिता के आरोप की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। कवि विश्व के आमूल परिवर्तन हेतु स्वप्नों को लेकर आए, किन्तु केवल निराशा ही हाथ आई। आशा निराशा के विरोधी कण समुहों से निर्मित, अमृत और हलाहल को साथ लिए, तथाकथित क्षय की स्मृतियों को कवि ने कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया है।री-हरियाली:
कवि का गीत:
प्रस्तुत कविता में सर्व भवन्तु सखिनः की मंगल भावना एवं स्वाभिमान सहित विनम्रता सचमुच सराहनीय है।
संघर्षमय वातावरण में स्वयं के मन को बहलाते हुए कवि ने भाव-पुष्पों को सरस्वती की नाजुक धरोहर मानकर संसार के विशाल मार्ग पर समर्पित किया हे। इसमें कवि की अंतःप्रेरणा ही प्रमुख दिखलाई पड़ती है।पथभ्रष्ट:
कवि स्वीकारते हैं “मेरे जीवन की तीव्र अनुभूतियों और संघर्षों ने मुझे इतना भावप्रण बना दिया था कि इन संकीर्ण, कट्टरपंथी और प्रायः ईष्र्या-द्वेष प्रेरित आलोचकों के आरोप भी मुझे प्रत्युत्तर में गीत अथवा कविता लिखने को उकसा जाता थे।’’(६) अतः प्रवीण निंदकों की खबर लेते हुए कवि कहते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के कारण बहे लहू से सिंचित मंदिर-मस्जिद के पथ की अपेक्षा मधुमय प्रेम पथ ही स्वीकार्य है। इसमें व्यक्ति जीवन की साहसिकता, महत्त्वाकांक्षा, दुर्दमनीय सुखेषणा के अन्मुक्त राग के पीछे अभावग्रस्त व्यक्ति की मानसिक हलचल दिखलाई पड़ती है। नियति से अपराजीत होकर भी अपराज्य और क्रियाशील बने रहने का संदेश नवीनता से प्रस्तुत किया है।
कवि का उपहास:
मधुकलश के कवि में अपने सृजन के प्रति अनुठा आत्मविश्वास दिखलाई पड़ता है। वे मानवीय भावनाओं के महत्त्व को समझकर जीवन के किसी पक्ष के प्रति उपेक्षा या उदासीनता व्यक्त नहीं करते, परन्तु जीवनानुभूति रस को ही ध्वनित करते हैं जिसे शुष्क तर्क द्वारा नहीं, बल्कि रसास्था द्वारा समझा जा सकता है- ‘‘शुष्क ज्ञानी चाहिए तो चाहिए रससिद्ध भी।’’(७)
संवेदनशील किन्तु संघर्षशील कवि अपने लघु अस्तित्व की रचनात्मकता और महानता को समझकर प्रत्येक क्षण आगे बढ़ते ही रहते हैं और यह बिलकुल सही है कि जब व्यक्ति स्वयं ही दर्पण-दृश्य बन जाता है तो संसार की आलोचनाएँ बेकार हो जाती हैं और एक बौना व्यक्ति भी समाज के लिए विध्वंसक बन जाता है। इसमें अजेय पौरूष के प्रतीक व्यक्ति का आक्रोश व्यक्त हुआ है।
माँझी:
बच्चन जी का नाविक, हृदयज्वाला को प्रज्वलित रखते हुए, संसार के विघ्नों के कांपे बिना, अपने धैर्य और पौरूष पर विश्वास रखकर, विश्व-क्रन्दन को गीतों द्वारा व्यक्त करने के लिए स्वयं के बनाए आदर्शों पर आगे ही बढ़ता है। काव्य में पलायनवादिता कहीं भी नहीं है।
लहरों का निमंत्रण:
तालों पर मस्त, अलौकिक नृत्य रत, लहरों द्वारा आमंत्रित किनारे पर ही रूककर भला कैसे संतोष कर सकते हैं अर्थात् कवि जीवन-संग्राम में थककर पीछे हटना नहीं चाहते, बल्कि आगे ही बढ़ने का अटल निश्चय है। उसपार वाली, दूर की कल्पना के पास जाकर, उसे देखकर पर्दाफाश करने की प्रबल उमंगों को भय भी रोक नहीं सकता क्योंकि- ‘‘एक तिनका भी बना सकता
यहाँ पर मार्ग नूतन।’’(८) संघर्षमय जीवन व्यतीत करनेवाले कवि कोरे भाग्यवादी नहीं है। इस नियति ने जहाँ उन्हें अपनी परिस्थितियों पर विजय पाने की प्रेरणा प्रदान की है वही दूसरी और अधिक निर्मम होकर कार्य करने की शक्ति भी दी है। इसलिए पलायन वादिता से दूर, कवि के बाहु, संघर्ष रूपी लहरों से सामना करने को सदैव लालायित रहते हैं। मेघदूत के प्रति:
अग्रवाल विद्यालय में हिन्दी के अध्यापकीय कार्य के समय स्मृति पट पर संजोये महाकवि कालिदास के ‘मेघदूत’ की प्रतिक्रिया इस कविता में अभिव्यक्त हुई है, जिसमें कवि की विशिष्ट मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं।
गुलहजारा:
जीवन रूपी उपनव में मिटती, उजड़ती, बिखरती चम्पाकली की तरह कवि के यौवन बाग से गुलहजारा के क्रमिक विकास – हास - परिहास की असंख्य स्मृतियाँ एवं मर्मान्तक वेदना से द्रवित गुलहजारा अर्थात् श्यामा जी की अंतिम मुस्कान की ओर स्पष्ट संकेत दिखाई पड़ता है और लाख प्रयत्न करने पर भी जब उसे बचाया नहीं जा सकता तो असहाय कवि चित्कार कर उठते हैं-
‘‘हर कलिका की किस्मत में
जग-जाहिर, व्यर्थ बताना,
खिलाना न लिखा हो लेकिन
है लिखा हुआ मुर्झाना।’’(९)
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि ‘मधुकलश’ तत्कालीन समाज- दर्शन का गवाह है जिससे व्यक्ति की साहसिकता, महात्वाकांक्षा, दुर्दमनीय सुखेषणा के दर्शन होते हैं।संदर्भ सूची:-
१. बच्चन व्यक्तित्व और कृतित्व-प्रो. कृष्णचंद्र पंडयाजी, पृ. १०८
२. नयी कविता: संयुक्तांक ५६- रामस्वरूप् चतुर्वेदीजी, पृ. ८८
३. बच्चन व्यक्तित्व और कृतित्व-प्रो. कृष्णचंद्र पंडयाजी, पृ. १०७
४. लोकप्रिय बच्चन- डॉ. दशरथराम सं. प्रो. दीनानाथशरणजी, पृ. ७०
५. कवि की वासना:मधुकलश- हरिवंशराय बच्चनजी, पृ. ४२
६. क्या भूलू क्या याद करूँ- हरिवंशराय बच्चनजी, पृ. ३२५
७. कवि का उपहास: मधुकलश- हरिवंशराय बच्चनजी, पृ. ८४
८. लहरों का निमंत्रण: मधुकलश- हरिवंशराय बच्चनजी, पृ. १०५
९. प्रारंभिक रचनाएँ-भाग-२, हरिवंशराय बच्चनजी, पृ. १३४
डॉ. रसीला डोबरिया
२२-अ, श्री कॉलोनी गली नंबर-२,
पंचवटी सोसाइटी के पीछे,
नाना मोवा रोड,
राजकोट(गुजरात) ३६० ००१.
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