हिन्दी उपन्यास और सामाजिक समस्याए
गद्य के अनेक दूसरे रूपों की तरह ‘उपन्यास’ भी भारतेदुहरिश्चन्द्र – युग (1850 इ. से 1885 ई.) की ही देन है । भारतीय नवजागरण के इस दौर में कला और ज्ञान के अछूते एवं अपरिचित प्रायः क्षेत्रो की तलाश और अन्वेषण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, हिन्दी का यह गद्यरूप वस्तुतः उसी की स्वाभाविक निष्पति के रूप मे सामने आया । “गद्य की अनेक विद्याओं में भारतेदुहरिश्चन्द्रने स्वयं अपनी तेजस्वी उपस्थिति का प्रमाण दिया था लेकिन उपन्यास की ओर, चाहते हुए भी वे समुचित ध्यान नही दे सके ।”1 परंतु उनके निबन्धो में कथात्मकता के प्रति जो आग्रह है, उसे देखते हुए यह लगे बिना नही रहता कि कुछ और मोहलत मिलने पर वे कदाचित् इस दिशा में भी कुछ करते है । उनकी रचनात्मक सजगता का परिचय इसी बात से मिलता है कि उन्होने ‘पूर्णप्रकाश और चन्द्रप्रभा’ नामक उपन्यास बंग्ला से हिन्दी मे अनुवाद करवाया था । भारतेन्दुयुगीन सुधारवादी आग्रहों के अनुकूल ही इसमें एक और यदि वृद्ध विवाह के दोषों का उदघाटन किया गया था, वही इस समस्या के निदान के रूप में लड़कियों की शिक्षा पर बल दिया गया था ।
हिन्दी उपन्यास के संदर्भ में उसके उद्भव की दृष्टि से यह सवाल भी उठाया जाता रहा है कि भारतीय नवजागरण के दौर में विकसित अनेक दूसरी चीजों की तरह उपन्यास सीधे-सीधे परिचय से आया या उसके उद्भव में भारतीय आख्यान परम्परा की भी कोई भूमिका रही है ? उपन्यास के लिए जिस संक्रांतिकालीन समाज की अनिवार्यता की ओर संकेत किया जाता रहा है, जिसमें व्यक्ति और समाज के द्वन्द्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है – भारतीय नवजागरण कालीन समाज उस संक्रांति की देहरी पर खड़ा था । ब्रिटीशराज की स्थापना के बाद मध्यवर्ग का विकास तेजी से होने लगा था । कहीं भी उपन्यास इसी मध्यमवर्गीय समाज की आवश्यकताओं और अकांक्षाओं से जुडा साहित्य रूप रहा है । इसी वर्ग के पढ़े-लिखे लोग इस नवविकसित गद्य-रूप के पाठक रहे है और उन्हीं में से कुछ अपने या अपने आस-पास के जीवन को अंकित करने की लालसा से उत्प्रेरित होकर ही उसमें रचनात्मक हस्तक्षेप की दिशा में अग्रसर हुए हैं । इन सारी अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उपन्यास भारत में ब्रिटिश सम्पर्क का ही सीधा परिणाम था ।
“अनुवाद और रूपांतर के माध्यम से अंग्रेजी के सम्पर्क में आनेवाली भाषाओं मे इस गद्य रूप की उपस्थिति में इसके उद्भव के सूत्रों को देखा जा सकता है ।”2 अपनी पुस्तक ‘रियलिज्म एण्ड रियालिटी द नोवेल एण्ड सोसायटी इन इंडिया’ मे मिनाक्षी मुखर्जी ने इस सवाल को उठाते हुए इसे स्वीकार किया है कि अंग्रेजी और ब्रिटीश साम्राज्य के संम्पर्क के परिणाम-स्वरूप विकसित यह साहित्यरूप भी ठीक वैसे ही भारत मे नहीं आया जैसे रेल्वे और क्रिकेट आये थे, वे इसे मानती है, कि भारत में उपन्यास की शुरूआत अंग्रेजी पढ़े लिखे तेजी से विकसित मध्यवर्ग की देन है ।
“श्री राधाकृष्णदास के अनुसार उपन्यासों की ओर पहले इनका ध्यान कम था । इनके अनुरोध और उत्साह से पहले पहल ‘कादम्बरी’ और ‘दुर्गेशनन्दिनी’ का अनुवाद हुआ । स्वयं एक उपन्यास लिखना आरम्भ किया था, जिसका कुछ अंश ‘कवि-वचन-सुदा’ में छपा भी था । नाम उसका था “एक कहानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती ।”3 यही कारण है कि उपन्यास पहले उन भारतीय भाषाओं में लिखे गए, मराठी ओर बांग्ला, जो पहले सीधे तौर पर अंग्रेजी के सम्पर्क में आ चुकी थी । अंग्रेजी पढ़ने वाले लेखको ने जो स्वाभाविक रूप से शहरों में रहते थे, शहरी जीवन को ही केन्द्र मे रखकर विभिन्न भारतीय भाषाओं मे उपन्यास की शुरूआत की यही कारण है कि साहित्य-रूप के तौर पर उपन्यास, कहीं थोडां पहले कहीं थोडा बाद में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय मिट्टी में अपनी जड़े रोपता दिखाई देता है । भारत में चूंकि संस्कृत, और अन्य भाषाओं में भी आख्यान-साहित्य की एक सुसमृद्ध परम्परा रही हैं, हिन्दी उपन्यास के रूप-निर्माण में उसकी भूमिका को भी पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता । विकास के आरंभिक दौर में ही नहीं परवर्ती उपन्यास पर भी विशेष रूप से ऐतिहासिक–सांस्कृतिक पृष्ठभूमिवाले उपन्यासों पर, इस अख्यान-परम्परा के तत्वों को खोज निकालना कठिन नहीं है।
“उपन्यासकार अपनी सृजन क्षमता तथा कल्पना का आधार लेकर समाज का यथार्थ रूप प्रस्तुत करने में सफल रहता है, इसीलिए, ऐसी कला जिसे उपन्यास कहते है केवल समाज में ही उत्पन्न हो सकती है जहाँ आर्थिक विषमताएँ व्यक्ति को सोचने के लिए बाध्य करती है ।”4
हिन्दी में प्रथम उपन्यास को लेकर भी कभी-कभी विवाद उठता रहा है । जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था, ‘अंग्रेजी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास पहले पहल हिन्दी में लाला श्री निवासदास का ‘परीक्षा गुरू’ ही निकला था तो वे वस्तुतः इस ब्रिटीश सम्पर्क से ही उपन्यास के विकास का सूत्र जोड रहे थे । लाला श्री निवासदास के ‘परीक्षागुरू’ का प्रकाशन वर्ष-1882 ई. मे हुआ । शुक्लजी के बाद कुछ लोगों ने कुछ दूसरे उपन्यासों का उल्लेख भी किया है, हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यास के रूप में लेकिन इन दावों को कोई व्यापक स्वीकृति नहीं मिल सकी । विजयशंकर मल्ल ने श्रद्धाराम फिल्लौरी के ‘भाग्यवती (1877) उल्लेख किया तो गोपालराय ने पंडित गौरीदत्त के ‘देवरानी-जेठानी की कहानी’ (1870) को लेकर यह दावा पेश किया । लेकिन उपन्यास के कुछ मौलिक लक्षणो से युक्त होने पर भी इस उपन्यास के संदर्भ में गोपालराय की टिप्पणी है, इसमें उस जटिल वस्तु-विन्यास, नाटकीय शिल्प और मनोवैज्ञानिक तथा विश्वासोत्पादक चरित्र-चित्रण का अभाव है, जो उपन्यास के लिए आवश्यक माना जाता है । उपन्यास के संदर्भ में जिन न्यूनताओं का उल्लेख गोपालराय ने किया है, वे ‘परीक्षा गुरू’ में नही होने से भी शुक्ल जी की बात को बल मिलता है ।
गोपालराय ने अपनी इसी भूमिका में ‘परीक्षागुरू’ से पूर्व प्रकाशित कुछ और उपन्यासों का उल्लेख भी किया है । इन उपन्यासों में उन्होंने ‘वामारक्षक (1872)’ भाग्यवती (1877) अमृतचरित्र (1880) और निःसहाय हिंदू (1881) का उल्लेख किया है, लेकिन एक पूर्ण विकसित कलारूप के तौर पर ये रचनाएँ उल्लेख तक ही सिमीत रह जाती है ।”5 ‘परिक्षा गुरू’ को ही हिन्दी उपन्यास का आरंभ-बिन्दु मानकर उसके प्रकाशन के सौ वर्ष बाद, 1982 ई. में हिन्दी उपन्यास के जन्म की शताब्दी तो मनाई ही गई हिन्दी के अनेक आलोचकों ने विभिन्न दृष्टियों से इसका मूल्यांकन कर अप्रत्यक्ष रूप से जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यता पर ही अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई है । यदि इस व्यापक स्वीकृति को किसी रचना के महत्त्व और सार्थकता की कसौटी माना जा सकता है तो निर्विवाद रूप से ‘परीक्षा गुरू’ इस पर खरा उतरता हैं ।
हिन्दी उपन्यास-अन्तर्यात्रा के तीनयुग उपन्यास यथार्थ समाज का दर्पण है, जिसमें मानव जीवन में प्रत्येक क्रियाकलाप का प्रतिबिम्ब रहता है । उपन्यास का सम्बन्ध एक ऐसे जीवन से है जो अनेक विषमताओं, अनुभवो, द्वंद्वो और संघर्षो से युक्त होता है अतः कोई भी उपन्यासकार अपने विषय का चयन समाज को छोड़कर नही करता और न ही वह किसी पूर्वाग्रह को लेकर चलता है, उसकी कल्पना स्वतंत्र होती है और उसी के आधार पर वह सफलता प्राप्त करता है । “डॉ. सुरेश सिन्हा के शब्दों मे – “आधुनिक उपन्यास परिवर्तित सामाजिक एवं कलात्मक परिस्थितियों की देन है ।” 6
हिन्दी उपन्यास सामाजिक तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी, ऐतिहासिक आदि प्रकार के लिखे गये । प्रमुख उपन्यासकारों में लालाश्री निवासदास, बालकृष्ण भट्ट, ठाकुर जगमोहनसिंह महत्ता, लज्जाराम शर्मा, राधाकृष्णदास, अयोध्यासिंह उपाध्याय, देवकीनन्दन खत्री, किशोरीलाल गोस्वामी गोपालराम गहमरी, ब्रजनन्दन सहाय, जयशंकरप्रसाद वृन्दावनलाल वर्मा, जैनेन्द्र कुमार, भगवती चरण वर्मा, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सियाराम शरण गुप्त, इलाचन्द्र जोशी, अश्रेय, यशपाल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन, अमृतराय, प्रभाकर माचवे, धर्मवीर भारती, अमृतलाल नागर, रांगेप राघव, अश्क शिवप्रसाद मिश्र आदि उपन्यासकारो की अपनी रचनाओं ने भेट समाज को प्रदान की ।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र को आधार स्वीकार कर हिन्दी उपन्यासों की दी गयी परम्परा को तीन कालों मे विभक्त किया जा सकता हैं –दहेजप्रथा –
- प्रेमचंद्र पूर्व युग – सन् – 1882 से 1916 तक ।
- प्रेमचंद्र युग – सन् 1916 से 1936 तक ।
- प्रेमचन्दोत्तर युग – सन् – 1936 से आगे ।
विवाह मे टीके तथा अन्य अनेक रीतियों का निर्वाह करते समय बहुत सा नकद रूपया और दहेज कन्या पक्ष की ओर से दिया जाता है । दहेज देने का प्रचलन आज भी अनेक स्थानों पर विद्यमान है । इस प्रश्न को लेकर वर एवं कन्या पक्षवालों में कहा सुनी हो जाना बड़ी साधारण बात है । डॉ. भीष्म मख़ीजा – उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा और लोकजीवन में नामक पुस्तक में लिखते है कि – “बादल माते अपनी पुत्री रामा के दहेज में समधी शिबूमाते की सौ भैसे देने का बचन देता है । वायदा खिलाफी होने पर शिबू बादल चौधरी को उसी के गाँव मे सैकड़ो गालियाँ देता है । बादल और उसके साथी भी शिबू को प्रतिउत्तर में खुब गालियाँ सुनाते हैं तथा बारात को जूते लगवाकर अपने गाँव से निकालने की धमकी देते है । इस प्रकार शिबू अपमानित होकर बहु को विदा करवाए बिना, बारात को लेकर बजटा वापस आ जाते हैं ।” 7
दहेज के दूषण के कारण कितनी बेटीयों का ब्याह नहीं होता, कितने को जिन्दा जलाया जाता है, आदि प्रकार की समाज में समस्याए है । पर्दाप्रथा –
पर्दाप्रथा भी यह सामाजिक समस्या है – जिसमें समाज के पुरुषो के द्वारा स्त्रीयों को पर्दा करने के लिए मजबूर किया जाता है । यदि स्त्रीयाँ पर्दा नहीं करती तो उन्हे परिताणित किया जाता है । जैसे- बहुए- मुंह पर आंचल डालकर सास-ससुर तथा अन्य बड़ो के सामने घूंघट करती है । वृद्ध स्त्रीयों द्वारा भी लम्बा घूंघट निकालने की रीति है । डॉ. भीष्म मखीजा लिखते है कि – “रामा बेतवा पार करके बजटा पहुँचकर मुंह पर घूंघट डाले अपने ससुर शिबू मांते के दरवाजे पर जा खड़ी होती है ।” 8 पर्दाप्रथा यह समाज का भयंकर दूषण है जिसके कारण स्त्रीयों को यातना झेलनी पडती है । पर्दाप्रथा को राजाराममोहन राय जैसे समाज-सुधारक ने दूर करने का प्रयास किया । पर्दाप्रथा यह सामाजिक समस्याए है । जिसे सदा दूर करने का प्रयास करना जरूरी है । जातिवाद –
भारतीय ऋषि-मुनियों के द्वारा सारा समाज चार वर्णो में विभाजिक किया गया है । इस विभाजन का आधार धर्म, कर्म, गुण एवं सामर्थ्य है । समाज के सभी लोगों के लिए उनकी योग्यता, सामर्थ्य एवं रूचि के अनुसार उन्हें लोक-पात्रों के साधन जुटाना ही इसका उद्देश्य था । सभी वर्ण कर्माश्रित थे । “वृन्दावनलाल वर्माने अपने उपन्यासों मे उत्तरवैदिकयुग से लेकर आधुनिककाल तक के लोक-समाज का चित्रण करते हुए जातिवाद पर विशेष प्रकाश डाला है ।” 9 इसके बावजूद समाज मे जातिवाद के नाम पर दंगे होते है । जिसमे कई लोगों की मौत हो जाती है । कितनी, बहने-माताएँ विधवा होती है, बच्चे अनाथ बन जाते है – यह एक विकट सामाजिक समस्याएँ जो हमे समाज में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती है । अछूत समस्या –
अस्पृश्यता जिससे विश्व के अधिकांश देशमुक्त हो चुके है, उनसे भी भारत का जनमानस आज तक अपना पीछा नहीं छुडा पाया है । अपने देश में सदियों पूर्व ऋषि-मुनियों ने वर्णाश्रम धर्म की स्थापना, समाज मे एक अनुशासन लाने के लिए की थी और उस समय कर्म के अनुसार उसके निर्धारण की व्यवस्था की किन्तु आगे चलकर कर्म के स्थान पर जन्म के अनुसार वर्ण के निर्धारण की व्यवस्था का मान्यता मिल गई और हिन्दू धर्म की एक स्वस्थ परम्परा रोग बन गई । ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्ध आदि वर्णो के माध्यम से ऊँच-नीच की भावना प्रबल हो गई । एक मौज करता तो दूसरा पिसता था । हिन्दू धर्म की ऐसी विगलित दशा हो गई थी कि इन्सान बेवसी, गरीबी और शोषण को एक सामाजिक सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया ।
“गरीब और बेवसी वहीं होती है, जहाँ जुल्म होता है, शोषण होता है । समाज न ऐसे नियम बना दिए कि शोषण और जुल्म को इस देश में खुली छूट मिल गई ।” 10 हमारे समाज के उच्च वर्ग के लोग शुद्रो पर किस प्रकार अत्याचार करते रहे है यह किसी से छिपा नही है । हमारे समाज के शिक्षित और सभ्य कहे जानेवाले लोग भी जाँति-पाँति और छुआ-छूत कलुष से अछूते नहीं है । छुआ छुत की इसी भावना ने हमारे देश की एकता को हमेशा तोडने का कार्य किया है । ऊँच-नीच की भावना ने समाज मे एक प्रकार का जह़र फैलाने का कार्य किया है । यह अछूत की सामाजिक समस्या है जिसे हमे दूर करने का प्रयास करना चाहिए ।
समाज में अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याए विद्यमान है, जिसे हम सभी को एक-जूट होकर दूर करने का भगीरथ प्रयास करना जरूरी है । प्रत्येक स्त्री-पुरूष को यथा संभव अपना योगदान देना जरूरी है । जिसके कारण समाज में फैली अनेक प्रकार की बुराईयों, कुरीतियों, को हम दूर करने में सफल होगें । जैसे प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यासों में ग्रामीण जीवन की विविध समस्याओं को उजागर करने का प्रयास किया है । यह सभी सामाजिक समस्याएं है ।
इसप्रकार हिन्दी उपन्यास और सामाजिक समस्याएँ – दोंनो का तालमेल विविध उपन्यासों मे देखने को मिलता है । यह है – हिन्दी उपन्यास और सामाजिक समस्याएं है ।संदर्भ सूचि
1. हिन्दी उपन्यास का विकास – श्री मधुरेश पृष्ठ, - 11 सुमित प्रकाशन इलाहाबाद संस्करण, प्रथम - 2009
2. वही, पृष्ठ – 12
3. हिन्दी उपन्यास – श्री शिवनारायण श्रीवास्तव पृष्ठ-19 सरस्वती मन्दिर प्रकाश, वाराणसी संस्करण – 1960
4. उपन्यासकार रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ –वीणा गौतम पृष्ठ- 9 – 10 राजेश प्रकाश कृष्णनगर, दिल्ली – 51 संस्करण – प्रथम – 1975
5. हिन्दी उपन्यास का विकास - श्री मधुरेश, पृष्ठ – 13 सुमित प्रकाशन इलाहाबाद संस्करण, प्रथम – 2009
6. उपन्यासकार रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ – वीणा गौतम पृष्ठ – 12 राजेश प्रकाश कृष्णनगर, दिल्ली – 51 प्रथम - संस्करण 1975
7. उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा और लोक जीवन डॉ. भीष्म मखीजा पृष्ठ – 66 नटराज पब्लिशिंग हाउज करनाल, हरियाणा संस्करण – 1997
8. वही, पृष्ट - 69
9. वही, पृष्ठ – 96
10. भगवती चरण वर्मा के उपन्यास और युग चेतना डॉ. जवाहरलालासिंह कला प्रकाशन, वाराणसी – 10 प्रथम संस्करण – 2000
11. हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यास और उपन्यासकार डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना विश्वभारती पब्लिकेशन नई दिल्ली प्रथम संस्करण – 2004
12. हिन्दी उपन्यास – एक अन्तर्यात्रा – डॉ. रामदरश मिश्र राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली – 2 संस्करण – 2002
13. हिन्दी उपन्यास पर पाश्चात्य प्रभाव - भारतभूषण अग्रवाल किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली – 2 संस्करण – 2001
प्रेमासिंह के. क्षत्रिय
5, फौजदार की नवी चाँल,
पो. सैजपुर – बौघा,
नरोडारोड, अहमदाबाद-382345
गुजरात
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