‘ हिन्दी नाटकों में आधुनिक युगबोध ’

हिन्दी नाटक आज एक महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है,वह है उनकी सामाजिक प्रतिब्घता। नाटक विधा ने युगिन जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति की है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हमारे समाज, संस्कृति ऐवं राजनीति ने नयी करवट ली और ऐक नये प्रकार की आर्थिक परिस्थिति हमारे राट्रीय जीवन में स्फुरित हुई। राट्रीय जीवन में उभर ने वाली इन नयी गतिविधियों, घटनाओं, परिवर्तनों तथा अनेक प्रकार के तनावों को पृष्ठभूमि में रखकर आधुनिक युग के हिन्दी नाटककारों ने मनवीय सम्बन्धों और मूल्यों के विघटन को अपने नाटकों में सशक्त रूप में अभिव्यक्त किया है।
            आधुनिक भारतीय समाज में बहुआयामी परिवर्तन आया है। नवीन युग चेतना ने मानवीय सम्बन्धों को पूरी तरह से प्रभावित किया है,परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में अनेक नयी नयी समस्याएँ उभर रही है। शिक्षा और नए विचारों के प्रभाव से युवा पीढ़ी संघर्षपूर्ण तनाव की स्थिति का अनुभव कर रही है। आधुनिक हिन्दी नाटककारों ने इस परिवेश को केन्द्र में रखकर अपने नाटक लिखे हैं। आज के सामाजिक ढाँचे, आज की समाज व्यवस्था, समाजलक्षी सोच, सामाजिक सम्बन्धों की वास्तविकता आदि को बड़े सलीके के साथ आधुनिक हिन्दी नाटककारों ने अपने नाटकों का विषय चुना है। आधुनिक दौर में मोहन राकेश, लक्ष्मीनारायणलाल, सुरेन्द्र वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, बृजमोहन शाह, शंकर शेष, विभुकुमार आदि नाटककारों ने इस दिशा में अपने लेखकीय अभिगम को नाट्य रचनाओं के माध्यम से उजागर किया है।   
            मोहन राकेश ने आधुनिक युगबोध को उजागर करने वाले तीन रंगमंचीय नाटकों की रचना की है । उनका ‘आषाढ़ का ऐक दिन’ प्रत्येक युग में होने वाले राज्य सत्ता तथा कलाकार, कला ऐवं प्रेम के संघर्ष को दिखाते हुऐ कालीदास के महान चरित्र में छिपी दुर्बलता के माध्यम से स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का पुनरान्वेषण करता है । ‘लहरों के राजहंस’ मोहन राकेश के नाटककार की अनुभूति और अभिव्यक्ति संघर्ष की लम्बी प्रक्रिया से सृजित ऐक महत्वपूर्ण उपलब्धी है । ‘ आधे अधूरे’में अपरिचित,चुके हुऐ सम्बन्धों की पीड़ा में टूटते परिवार के सदस्यों और विसंगत परिस्थियों में जीते उनकी विवश छटपटाहट को मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है। आधुनिक हिन्दी नाटककारों में डॉ.लक्ष्मीनारायणलाल का नाम बहु चर्चित है । डॉ. लाल ने अपने सामाजिक नाटकों में मनुष्य और समाज की समस्याओं की अभिव्यक्ति तो की ही है, साथ-साथ पौराणिक आख्यानों तथा चरित्रों दारा भी आधुनिक भावबोध और सामाजिक यथार्थ को व्यंजित किया है । ‘एक सत्य हरिश्चंद्र’  नाटक में लाल ने राजा हरिश्चंद्र के पौराणिक मिथक का आधार लेकर सामाजिक स्थिति पर तीखा व्यंग्य करते हुए वर्तमान को अभिव्यक्त किया है।  इस नाटक में लौका की जागृति सातवे दशक के पश्यात के जन मानस की जागृति है। ‘लौका हमें हमारी ही कथा हमारा ही कार्य नाट्य बनकर दिखाता है। हमने उसे इस तरह कभी नहीं देखा था। वह था न जाने कब से था। पर देखने को हमें यहीं मिला। लाल ने हमें दिखाया,केवल यह बात नहीं है। हमने खुद अपनी आखों से  देखा ।   जितना जो   कुछ जीवन में जिया जा सका वही है सत्य हरिश्चंद्र ।’[1] आधुनिक भावबोध के नाटकों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’ नाटक बहु चर्चित रहा है। इस नाटक में राजनीतिक वातावरण का प्रभाव अधिक रहा है। आज की बकरी गांधीजी के नाम पर कमाने वाली राजनीतिक टोली के स्वार्थपरायणता का साधन बनती है। नेता ने बकरी स्मारक निधि, बकरी शांति प्रतिष्ठान, बकरी सेवा संघ, बकरीथन चुनाव चिन्ह आदि का निर्माण किया भारतीय जनता के शोषण के लिए। ऐसे ठगों का पर्दाफाश करता हुआ नाटक में युवक पात्र कहता है- ‘ठीक है। कल को आप लोगों को भी जेल ले जायेंगे। आज बकरी गांधीजी की हुई,कल को गाय कृष्ण जी की हो जाएगी,बैल बलरामजी के हो जायेंगे । ये सब ठग है ठग ....।’[2]   ‘ फंदी ’ नाटक में डॉ. शेष ने आधुनिक यांत्रिक और कृत्रिम जीवन के कष्ट को झेलने वाले युवक की दयनीय कथा को  चित्रित किया है। फंदी को फैसले के प्रश्न पर अनुतरित रह जाता है और विशाल दर्शक समूह में से कोई भी नहीं चाहता कि फंदी को फांसी की सजा हो। बैरिस्टर गंगानाथ की आखिरी दरखास्त है-‘ फैसला देते  समय इस मामले में जो नयी चुनौतियॉ, नये प्रश्न और मनुष्यता का जो संर्दभ आया है, उसका ध्यान रखा जाए ।’[3] समकालीन हिन्दी नाटककारों में विशेषतः राजनीतिक व्यंग्य नाटककार के रूप में सुशीलकुमारसिंह का नाम बहुचर्चित है । ‘सिंहासन खाली है’ उनकी सबसे श्रेष्ठ नाट्य रचना है। मूलतः राजनीतिक परिप्रेक्ष्य का व्यंग्यात्मक नाटक है,और राजनीति की यथार्थ विसंगति को उभारने वाला भीं है। सिंहासन सत्ता का एक ऐसा प्रतीक है जिस पर बैठकर हमारे नेता असत्य, हिंसा और अन्याय आदि अमानवीय स्थितियों की प्रतिष्ठा करते हैं। लेखक ने व्यंग्यात्मक शैली में आज की राजनीति पर प्रहार किया है- ‘मनुष्य का इतिहास सिंहासन पर बैठने का इतिहास है....यह न होता तो शायद मनुष्य के इतिहास का निर्माण न होता ।’[4]
            आधुनिक युगबोध के नाटकों में नाटककारों ने समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए कथानक, प्रतिनिधि चरित्र, प्रतीक,वातावरण और रंगमंच का भरपुर सहारा लिया है। समकालीन सामाजिक नाटककार सामयिक युग के ज्वलंत प्रश्नों को एक कटु सत्य के रुप में सामने रखता है। इन नाटकों में किसी सामाजिक समस्या या परिस्थिति की विसंगतिता के दारा पात्र और परिवेश का द्वन्द प्रस्फुटित होता है। आज का हिन्दी नाटककार अपने परिवेश और भौतिक जगत की समस्याओं के प्रति प्रतिबध्ध है।

संदर्भः

  1. एक सत्य हरिश्चन्द्र – डॉ.लक्ष्मीनारायण लाल,पृ.1
  2. बकरी – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, पृ.36
  3. फंदी – डॉ. शंकर शेष, पृ.64
  4. सिंहासन खाली है – सुशीलकुमार सिंह, पृ.5

प्रस्तुत कर्ता
डॉ. करसन रावत
हिन्दी विभाग,नरोडा कोलेज,अहमदाबाद

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