'दाई’ और ‘छौआ माँ’ दलित कहानी में दलित नारी: एक तुलनात्मक अध्ययन
गुजराती दलित साहित्य के वर्तमान समय में समरसता की बात जोरो से चल रही है. या यूँ कहे की थोपी जा रही है. दलित लेखक, चिन्तक भी इस मकड जाल में फसता जा रहा है. यह भटकाव क्यों? आम जनता इस से बेखबर है मगर बुद्धिजीवी लोग के पास यह बात जरुर पहुचती है,तब उनका मौन हमें अखरता है. डॉ. आम्बेडकर ने समरसता के बारे में सही सही आकलन किया और कहा था कि - “जहाँ लोग दूसरों के साथ सहानुभूति की संपूर्णता का अनुभव नहीं करते हैं, वहाँ उनके आचरण में समरसता असम्भव होती है.”(1) ‘समानता, बंधुता(भाईचारा), स्वतंत्रता’ के संवैंधानिक त्रि-सूत्र में समरसता सम्मिलित है. डॉ. आम्बेडकर की प्रेरणा से जो साहित्य रचा गया उसीमे यह बात निहित है. किन्तु वह सोच जो मनुवाद से जुडी है उसमें ज्यादा बदलाव नहीं आया है. यहाँ तक की दलित समाज भी अपनी आत्मालोचना करने में चूक गया है. इसलिए दलित समाज में औरत दलितो में भी दलित है और दलित समाज खुद भिन्न भिन्न जातिओ में अटा पडा है. दलित साहित्य वह है जो खुद को परिवर्तित करे और जो अपरिवर्ति रूढ़ी जड़ लोग है उन्हें डंके की चोट पर सही दिशा बताये.
हमारी भारतीय संस्कृति विषमतावादी है, उसमें भी औरत होना सबसे बड़ा गुनाह है. भारतीय संस्कृति में औरत गुलाम है. और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में दलित औरत भी गुलाम है. यही कारण है की भारतीय साहित्य में औरत का आभव स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है. यह मनु विधि-विधान आज भी प्रवर्तमान है. औरत को मनु ने ढोल, पशु, शुद्र के समकक्ष रखा है. यहाँ औरत का कोई अस्तित्व नहीं हैं. वह एक वस्तु मात्र रह गयी है. ‘मनुस्मृति’ में मनु ने स्पष्टरूप से कहा है की –
“बाल्योपितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने.
पुत्राणांभर्तरिप्रेते न भजेत्स्त्री स्वतन्त्रताम. ५-१४८.”
(बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे. यौवनावस्था में पति के अधीन पर पति का परलोक होने पर पुत्रों के अधीन होकर रहे. स्त्री कभी स्वतन्त्र होकर न रहे.)”(2).
सदियों से नारी पुरुष के अधीन रहती आई है और खुद भी इस अन्यायी व्यवस्था का हिस्सा बनके निमित्तमात्र रह गई है. उसे वस्तु समझ के बेचा जाता है, जुए में लगाया जाता है, उसे आपस में बाँटा जाता है, उसे जब चाहे भोगा जाता है, जिन्दा जलाया जाता है, सती बनाया जाता है, देवदासी बनाया जाता है, उत्पादकता या संतानोत्पत्ति का साधन समझ के मन चाहे तब फैंक दिया जाता है......यह व्यवस्था का ही मकड जाल है जहाँ औरत के अस्तित्व पर सब मौन है. नारीवादी साहित्य और दलित या अंबेडकरवादी नारी साहित्य आज अपनी आवाज बुलंद कर के अपना हक-अधिकार मांग रही है और हर क्षेत्र में अपनी दस्तक दे रही है.
भारतीय समाज व्यवस्था बहुत ही जटिल है. इस व्यवस्था में औरत भी अपने आपमें कटी हुई है. वह औरत होते हुए या पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था में गुलाम होने के बावजूद वर्ण व्यवस्था के तहत अपना विशेष स्थान बनाये रखती है और जातियों की अपनी यथास्थिति व्यवस्था को बनाये रखती है. इस लिए जो औरत जहा जन्म लेती है वह अपना विशेषाधिकार छोड़ना नहीं चाहती. इस लिए जो सबसे नीचे स्तर पर जन्मी औरत पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के साथ-साथ वर्ण, जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, धर्म, व्यवस्था का भी भोग बनती है. जिसका दर्द ऊपर के पायदान पर बैठी औरत से कई गुना ज्यादा है. उदाहरण के तौर पर राजस्थान का भंवरीबाई प्रसंग, फूलनदेवी प्रसंग, हाल ही में घटित गुजरात का पाटण पी.टी.सी. प्रसंग आदि. ऐसी कई घटनाएँ हमारे आस-पास घटती रहती है. हम एक विषमता वाली समाज, वर्ण, धर्म, वर्ग, जाति, संप्रदायों वाली व्यवस्था में रह रहे है जहाँ हमारी संवेदना मर चुकी होती है. ऐसे में अत्याचार से पीड़ित औरत की सिसकती आवाज एक आह बन कर दफ़न हो जाती है.
इस अन्यायी, घृणित, वीभत्स समाज व्यवस्था पर गहराई से चोट की डॉ.आम्बेडकरने और अपने विशद अध्ययन के माध्यम से जाना की वर्ण एवं जाती व्यवस्था की उत्पत्ति मनु ने नहीं की लेकिन उसे मान्यता एवं मजबूती मनु ने ही दी. इसलिए डॉ. आम्बेडकर ने इस हिंदू धर्म की आधार शिला, सीमास्तम्भरूप ग्रन्थ ‘मनुस्मृति’ को सितम्बर १९२७ को सार्वजनिक रूप से जला दिया. इस सामाजिक क्रान्ति कि आग के पीछे महात्मा ज्योतिबा फुले की प्रेरणा थी. महात्मा ज्योतिबा फुले ने १८५७ में लडकियों के लिए भारत में पहला स्कूल खोला. जहाँ सावित्री बाई फुले अध्यापिका थी.
दलित समाज में नारी का जीवन विशिष्ट है. वह पुरुष से ज्यादा श्रम करती है फिर भी वेतन उन्हें पुरुष से कम ही मिलता है. ज्यादातर दलित पुरुष शराब और मादक पदार्थो के सेवन में मस्त रहता है, वही स्त्री घृणित से घृणित कार्य भी करती है (हालांकि उसे सामाजिक एवं आर्थिक मजबूरी में करना पडता है). दैनिक जागरण’ की एक रिपोर्ट के अनुसार “आंकड़े बताते है कि हर सप्ताह औसतन ग्यारह (११) दलित देश में मारे जाते हैं, जब कि इक्कीस(२१) दलित महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती है.”(3) दलित नारी दलितो में भी दलित है और शोषितों में भी ज्यादा शोषित है. दलित नारी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि सत्ता से कोशो दूर है. वह अपने पैरों पर खड़ी होने के बावजूद वह पुरुष के अधीन है. वह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, दैहिक, मानसिक आदि शोषण से शोषित है.
साहित्य में दलित महिला कि कई दास्ताँ लिखी गई है. यह कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मकथन आदि कई विधा में अभिव्यक्त हुई है. दलित लेखिकाओ के अभाव के बावजूद दलित नारी को केन्द्र में रखकर काफी साहित्य रचा गया है. यहाँ कहानी को केंद्र में रखकर बात करने का उपक्रम है.
गुजराती में ऐसी प्रमुख कहानियो में “दाई” ( हरीश मंगलम्) गांठाळ, सपाटू परवानुं मन( प्रवीण गढवी), माणकी, मंकोड़ा, राति रायणनी रताश (बी. केशर शिवम्), वन्टोळ (भी. न. वनकर), नरक, भवाई (धर्माभाई श्रीमाली), थळी (मोहन परमार), आशरो (अरविंद वेगडा), सोमली (हरिपार) आदि.
हिंदी में अम्मा(ओमप्रकाश वाल्मीकि),अपना गाँव(मोहनदास नैमिशराय), पहचान(विपिन बिहारी), सुनीता (रजत रानी ‘मीनू’), बहु-झूठाई (रमणिका गुप्ता), टूटता बहम, सिलिया, छौआ माँ, दमदार( सुशीला टाकभौरे), सुमंगली(कावेरी), मंगली (डॉ. कुसुम मेघवाल) आदि.
यहाँ हम “दाई” और “छौआ माँ” कहानी की विस्तृत चर्चा करेगें.
कथानक :-
“दाई” गुजराती कि सुप्रसिद्ध दलित कहानी है. इसी कहानी के माध्यम से हरीश मंगलम् जाने जाते है. “दाई” के कथानक को देखे तो एक दलित नारी जो आम पकाकर बेचती है पर वह दाईपने का कार्य भी करती है. सारे गाँव के लोग उन्हें ‘बेनी माँ’ के नाम से पहचानते है. सवर्ण-अवर्ण का भेद जैसे बाकि लोगो के साथ है वैसे ही ‘बेनी माँ’ के साथ भी निभाया जाता है. किन्तु यह भेद कुछ अलग सा है यह भेद जरुरत पड़ने पर सब सवर्ण लोग उन्हें मान और आदर से बुलाते है , जैसे ही काम खत्म हुआ वह पलभर में अछूत बन जाती है. ‘बेनी माँ’ दली और पशी कि सफल प्रसूति कराती है. कुछ वक्त बीत जाने के बाद जब ‘बेनी माँ’ पशी से मिलती है तो वह सहज ही उनके बेटे को दुलार से बुलाती है, पर वह ‘बेनी माँ’ के पास आने से अचानक रुक जाता है क्योंकी उनकी माँ उसे ‘बेनी माँ’ को छूने से मना कर देती है. ‘बेनी माँ’ के हाथ तब लकवा से ग्रस्त हो ऐसे अनुभव करते है. उनकी सारी महेनत और दाईपने कि कुशलता को लोग रामकबिर कि मन्नत मान कर भुला देते है. इससे त्रस्त आकर ‘बेनी माँ’ चले जाते है. आगे रास्ते में उन्हें खेलते बच्चे मिलते है जो ‘बेनी माँ’ को ‘ढेढ’ कहकर उनका अपमान करते है. ‘बेनी माँ’ देखती है तो वह दली का लड़का होता है जिसे प्रसूति करवाकर खुद ‘बेनी माँ’ ने उसे जीवनदान दिया था.यहाँ कहानी खत्म होती है. पाठक के सामने बर्बर एवं विकृत मानवीयता कई प्रश्न छोड़ जाती है.
“छौआ माँ” कहानी के कथानक में ‘छौआ माँ’ गाँव में अपनी बेटी ‘तुलसा’ के साथ रहती है और दाईपने का कार्य करती है उसके साथ-साथ वह सवर्णों के घर में झाड़ू-पोछा भी लगा लेती है. गाँव कि बहु बेटियों को वह चाहती है, वह इतनी भोली है कि सही गलत वह समझ नहीं पाती. वह गाँव कि कितनी ही औरतों की सफल प्रसूति कर चुकी है. पर जब उनकी गैरमौजूदगी में जब गाँव वाले जबरदस्ती करके उनकी बेटी को गन्दा काम करने के लिए मजबूर करते है, अनुभव न होने के बावजूद. तब छौआ माँ बिफर उठती है और गाँव में जाकर सबको भला-बुरा सुनाती है. गाँव वाले उन्हें वर्ण व्यवस्था का पत्ता पढ़ा देते है किन्तु छौआ माँ उन्हें ही लपेट के उच्च समाज का नग्न सच उजागर कर के, विद्रोह करके वह गन्दा कार्य न करने कि कसम खाती है. बिना कुछ करे शम्बूक का वध हो जाता है तो ‘छौआ माँ’ क्या है? आखिर उन्हें समाज की वेदी पर बलि चढना ही पडता है. उच्च जाति के लोग उन्हें आग के हवाले कर देते है. सीधी सादी यह कहानी पाठक को झकझोर के रख देती है. हालाँकि इस कहानी की शैली थोड़ी शिथिल है, किंतु आम्बेकरवाद से रूबरू जरुर करवाती है.
सामाजिक संघर्ष :-
दलित समाज विभिन्न जातियो में अटा-पडा है, दलितो में भी दलित औरत ज्यादा दलि़त है. सामाजिक रूप से भी और पुरुषसत्तात्मक विधि-विधान में भी वह गुलाम है. किन्तु दलित औरत और सवर्ण औरत में काफी फर्क भी होता है. जहा सवर्ण की औरत घर की चौखट पार नहीं कर सकती वहाँ दलित औरत घर के बाहर श्रम भी करती है और अपनी मर्जी से शादी-ब्याह भी कर सकती है. यह समाज की कैसी विडम्बना है की औरत समान होते हुए भी अन्याय का शिकार होती है. सवर्ण औरत और दलित औरत सामाजिक और पुरुष सत्तात्मक सत्ता के अधीन है फिर भी सवर्ण औरत दलित औरत से भेद करती है, जो की यह अमानवीय है. दूसरी बात यह की चारो वर्ण या वर्ण के बाहर अंधश्रद्धा फैली हुई है और औरत इसमें ज्यादा फंसी हुई है. शिक्षा का दर आज भी औरत के लिए नीचा ही रहा है. सबसे गंभीर बात यह है की सती-प्रथा का रूप आज बदल गया है. आज नारी को जन्म लेने से पहले ही भ्रूण में मार दिया जाता है. तीसरी बात यह की मानवीय रूप से दलित औरत कितना भी सवर्ण समाज को काम आये किन्तु जरुरत पूरी होने पर वह अछूत ही रहती है. यह सब बाते प्रस्तुत कहानी में गंभीरता और गहराई से कही गई है.
“दाई” कहानी आरक्षण विरोधी आंदोलन से जुडी हुई है और सवर्ण समाज के उच्च या अभिजात लोगों को यह याद दिलाने के लिए भी यह प्रमाण साबित हुई है. कहा जाता है की कम गुणांक पाने वाले छात्र कैसे डॉक्टर बन जाते है? आरक्षण के नाम पर?! तब यह दोनों कहानी हमें बताती है की अनपढ़ भी डॉक्टर से बहेतर काम करते है तब क्यों तुम्हे आरक्षण याद नहीं आता? “दाई” कहानी में एक औरत को डॉक्टर इंजेक्शन लगा के चला जाता है, जो अभिजात समाज की ही है मगर ‘बेनी माँ’ उसे अकेले मरने को नहीं छोड़ देती. जबकि दलित के बच्चे मर भी जाये वहां कोई डॉक्टर खबर लेने तक भी नहीं आता. मानवीयता की यह दो मूर्ति सेवा के बदले क्या पाती है? दर-दर की ठोकरे और अपमान! जब दली अपनी जेठानी की प्रसव पीड़ा के वक्त ‘बेनी माँ’ को बुलाती है तब वह कहती है की-
“…बेनी माँ मैं दली... मेरी जेठानी पशीमाँ को पीड़ा शुरू हो गयी है. डॉ. परेश पटेल को बुलवाया था मगर वे तो इजेक्शन देकर चले गए. कहा कि चिंता मत करना. दो घंटे में बच्चा हो जायेगा.”(4)
मगर दो के चार घंटे होने के बावजूद पशी को बच्चा नहीं होता है. तब ‘बेनी माँ’ उसे जिलाती है. ‘बेनी माँ’ अनपढ़ है फिर भी वह बड़े से बडे डॉक्टर से भी अच्छी प्रसूति करवाती है. हालांकि डॉक्टर कोई भी जाति का हो वह एक डॉक्टर हैं किन्तु वह अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाता. किन्तु अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से निभाते हुएं भी बेनी माँ को उसका बदला क्या मिला? इतना करने के बावजूद जब वह फिर से पशी को मिलती है तो उसे उसके बेटे पर प्यार उभर आता है. ‘बेनी माँ’ बच्चे को बुलाती है पर पशी यह कहकर बच्चे को रोक लेती है कि-
“देखना बेटे बेनी माँ को छूना मत!!!”(5)
यह हिंदू समाज व्यवस्था का दोहरा मापदंड है कि जरुरत पड़ने पर वह गधे को भी बाप बना लेते है. प्रेमचंद कि “दूध का दाम” कहानी भी इस वक्त याद आ जाती है. आज मानवीयता शब्द खोखला हो गया है, उसमे कोई जान अब नहीं बाकी है. फिर भी जहा आज भी संवेदना बाकी है वहाँ यह संवाद दिल को दहला देता है. सोचने पर मजबूर कर देते है की हमारी आधी से ज्यादा आबादी कहाँ खड़ी है और हम किस मुँह से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात कर रहे है? जहां एक औरत जिसे जिलाती है उनके मुंह से यह विद्रूप और अमानवीयता भरे, विकृत संस्कृति भरे संवाद को सुनने पड़ते है. महज एक शुद्र या शुद्र के बाहर जन्म लेने के गुनाह से..... दलि का बेटा डायला अभी बच्चा ही है फिर भी उनके मुख से यह नफ़रत भरी बात निकल पड़ती है-
“रे ढेढ़ी. दूर हट, छूना मत. दिखाई नहीं देता क्या?”(6) बेनी माँ देखा तो वह दली का बेटा डायला था. सीता को धरती ने अपनी गोद में समां लिया था, आज सूर्य भी बादल में छुप गयां है. प्रसव पीड़ा से भी गहरा दर्द आज दाई ‘बेनी माँ’ भुगत रही है. हरीश मंगलम् कि कलम को विश्लेषित करते रमणिका गुप्ता “दाई” के बारे में कहते है की - “हरीश मंगलम् ने अपनी कहानी ‘“दाई” ’ में बड़े सूक्ष्म ढंग से बच्चे जनानेवाली ‘दाई’ के आहत मानस को छुआ है, जब उसी द्वारा जनाया गया बच्चा और उस बच्चे की माँ अछूत कहकर हिकारत की नजर से देखते हैं.”(7)
‘बेनी माँ’ इस भेद को अपने मानवीयतापूर्ण कर्म के माध्यम से मिटाना चाहती है, वह इस भेदपूर्ण जीवन से आहत है, दुखी है. ‘बेनी माँ’ जिसे बचाती है उन स्त्री और बच्चे से अपनी संवेदना या सम्बन्ध जोडती रहती है. यही सम्बन्ध उन्हें वर्ण, जाति, समाज के भेद की वजह से दुःख पहुंचता है. पशली, दली और डायला के संदर्भ से यही बात यहाँ उजागर होती है कि जन्म से ही नीति-निर्धारण होता है. आज भी ‘बेनी माँ’ जैसी कई दलित स्त्रिओं को ‘राम-पात्र’ में पानी पीना पडता हैं!! जो जहां जन्मता है वहां के संस्कार पाता है, चाहे वह संस्कार कितना ही मानवीयता के विरुध्ध क्यो न हो!!
“छौआ माँ” कहानी भी इसी तरह से मोहभंग की कहानी है. मानवीय संवेदना से परिपूर्ण होने के बावजूद दलित महिला को जन्म के आधार पर अछूत पने का डंख झेलना पडता है. उच्च जाति के लोगों की मीठी-मीठी बातों में आकर दलित महिला घृणित से घृणित कार्य भी बिना कोई ऊब से करती है और अपने आप को गाँव का और उच्च जाति का हिस्सा मानने लगती है. यह व्यक्तिगत तौर पर सुधारवादी सरल रास्ता जरुर है किन्तु पर्दा उठ जाने के बाद उनकी आँखे खुली की खुली रह जाती है. ‘छौआ माँ’ मानती है की वह एक मानवीय कार्य कर रही है और गाँव वाले उन्हें सम्मान दे रहे है, वोह अपनी बेटी को कहती भी है की -“कभी कभी तो डाकटर-डाकदरनी भी हाथ टेक देवे हैं, धबरा जाये हैं कि अब का करें ? ...धबरा के मोहे बुलायें है. बेटा, सभी लोग डाकदर भी नहीं बुला सके हैं, डाकदर कू पैसा जादा देना पड़े है, उनकी फ़ीस जादा लगे है... फिर कौन करेगो उनके काम, मेरे सिवा?... वे तो मैंको ही डॉकदरनी कहें हैं....”(8)मगर तुलसा यह भ्रम से दूर है और वह स्पष्ट मानती है की सवर्ण समाज स्वार्थी है. इसी लिए वह यह घृणित कार्य से दूर ही रहती है. वह अपने बच्चो को कहती थी की- “अपमान भरी इस नरक की जिन्दगी से बाहर निकलो, इन्सान बनकर जीना सीखो....”(9)
किन्तु ‘छौआ माँ’ यह जानती है कि उनका गुजर-बसर सब ऊँची जात वालो की बजे से ही होता है. वह उनपर निर्भर है, इसलिए यह घृणित कार्य भी उसे पेट के लिए करना पडता है. एक दलित औरत के साथ सवर्ण औरत कैसा व्यवहार करती है? “किसी के पेट दुखने, आंत उतारने, नाभ भरने जैसी तकलीफ में भी उसे बुलाया जाता है. वह पेट मलकर मिनटों में ठीक कर देती है. मगर दाई मां के छूने के कारण उन्हें नहाना जरुरी हो जाता हैं, भले ही तकलीफ फिर से क्यों न बढ़ जाये.”(10) यह सवर्ण समाज कि स्वार्थ वृत्ति को उजागर करती है. जब तुलसा को जबरदस्ती करके गाँव के लोग जचकी का कार्य करने ले जाते है. बिना अनुभव के तुलसा को गाँववालो कि यह मनमानी सहनी पड़ती है और उन्हें जचकी का कार्य भी करना पड़ता है. यह बात जानकर ‘छौआ माँ’ गाँव वालो को खरी खोटी सुनाती है पर गाँव वाले उन्हें तब अपनी जात दिखा देते है और कह देते है की –
“ तो का हो गओ?... जचकी का काम बेटी से करा लियो तो का हो गओ?... वा क्यों नहीं करेगी तेरो काम? जो तू करती आई है, वही तेरी मोडी करेगी. जो तुमरो कर्म है वही तुमरो धरम है. कैसे नहीं करेगी वा ये काम? तेरी मोड़ी का बामन-बनिया की छोरी है?... गन्दगी उठाने के काम तुमरी जात के लोग ही करे हैं-“(11) कृतध्नी समाज की यह नग्न तस्वीर है. वर्ण व्यवस्था आज भी बेखौफ होकर अपना अस्तित्व प्रकट करती रहती हैं. जन्म और लिंग के आधार पर आज भी श्रम-विभाजन कायम है.
भारतीय सामाजिक ढांचा विषमतावादी है और हिंदू धर्म में सब जाति-जमाती में बिखरा हुआ है यह कोई एक संगठन नहीं है. दलितो के उद्धार के लिए जो कुछ संस्था कार्य करती है वह भी नव-ब्राह्मणवादी मानसिकता की शिकार हो चुकी है. ’दाई’ और ‘छौआ माँ’ कहानी व्यक्तिगत तौर पर मानवीयता का सिद्धांत प्रतिस्थापित करना चाहते है. किन्तु इसका असर समाज पर कितना पड़ता है? आज तक ‘दाई’ कहानी की चर्चा बहुत हुई है पर वर्ण व्यवस्था की यथास्थिति आज भी पुरे भारत में बनी हुई है.
आर्थिक संघर्ष :-
शुद्रो को या दलितो को संपत्ति एकत्र करने का अधिकार नहीं है, शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, उसे शस्त्र धारण करने का अधिकार भी नहीं है. यह सब अगर दलितो को मिलने लगेगा तो वह विद्रोह कर देगा. इसलिए दलित लोगो को आर्थिक रूप से कमजोर रखा जाता है. यहाँ तक कि उनके बच्चे कुपोषण का शिकार होकर भूख से मरते है, स्वास्थ्य सेवाओ का अभाव होने से वह कई रोगों से पीड़ित होते है, सरकारी सेवाए सिर्फ ऊँचे और सवर्ण समाज कि जागीर बन के रह जाती है. जब कि श्रम करने पर भी उन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती. ज्यादातर दलित बेगार करते है. दो जून को रोटी के लिए. ‘बेनी माँ’ और ‘छौआ माँ’ सवर्ण समाज का कार्य करती है. आर्थिक रूप से वह सवर्ण समाज पर निर्भर है. दलित स्वावलंबी नहीं है. दलित महिला पुरुषो से भी ज्यादा कार्य करती है, उन्हें मैला तक उठाना पडता है. १९९१ की जनगणना के आधार पर डॉ. तारा परमार कहते है कि -
“पुरुषों में साक्षरता दर ६४.१३ प्रतिशत तथा महिलाओं में ३९.२९ प्रतिशत है। साक्षरता और शिक्षा के अभाव में स्त्रियाँ जिन अनेक लाभों से वंचित रहीं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है रोजगार। १९९१ की जनगणना के आंकड़े दर्शाते हैं कि कार्यशील जनसंख्या का ७१.४२ प्रतिशत पुरुष थे और मात्रा २८.५८ प्रतिशत महिलाएं थीं जबकि असलियत यह थी कि ऊंची निरक्षरता दर के बावजूद अधिकांश महिलाएं काम करती थीं।“(12) ‘बेनी माँ’ दलित है, उनके पास पक्का घर नहीं है, घर में रोशनी नहीं है. यही हाल ‘छौआ माँ’ का है. ‘बेनी माँ’ आम पकाने का और दाईपने का कार्य कर रही है. छौआ माँ जचकी का काम, जच्चा के सौर घर कि साफ- सफाई, झाडू-पौछा, लीपना-पोतना आदि कार्य करती है. इन सब कार्य करवाने के पीछे सवर्ण समाज मीठी-मीठी बातों में इन दोनों औरतों को उल्जाये रखते है. मगर जब कुछ देने को होता है तो वह हाथ खड़े कर लेते है. यह उच्च जाति का अहम है और अपनी जाति-बिरादरी का दंभ भी है. स्त्री सशक्तिकरण की बात बहुत हो रही है किन्तु जहाँ शिक्षा का अभाव, आर्थिक बेहाली, सामाजिक रूप से अछूत हो वहाँ स्त्री सशक्तिकरण कैसे हो सकता है? दलित स्त्री का यहाँ अकेले होना हमें समाज की पूरी आर्थिक व्यवस्था का दर्शन नहीं मिलता. लेकिन सुशीला टाकभौरे के जीवन में देखा जाये तो वह खुद आर्थिक रूप से पगभर होने के बावजूद खुद का कोई वजूद नहीं होता. यह बात ‘हंस’ के स्त्री विशेषांक में देखने को मिलती है.
मानवीय संवेदना –
‘दाई’ कहानी दलित चेतना से ज्यादा मानवता का सिध्धांत प्रतिस्थापित ज्यादा करती है जबकि दलित महिला का कोई अस्तित्व ही अभिजात समाज में नकारा गया है. यहाँ दलित स्त्री की यथार्थ स्थिति का दर्शन यथा-तथ वर्णित होता है. प्रस्तुत कहानी के एक छोटे से प्रसंग से दलित नारी और दलित समाज की दयाजनक स्थिति से हम परिचित होते है. ‘बेनी माँ’ मानवीयता के नाते दाईपने का कार्य करती है, तो मानवीयता के नाते वह सवर्ण महिलाओ को कहती है की - “अरे रांडो, ऐसी गलती मत करना. मारना हो तो सब मेरे घर आकर मरना. पर ऐसा कुछ हो तो मुझे बुला लेना.”(13) मगर उनकी सारी दाईपने की महेनत “रामकबिर” की मन्नत के नाम बलि चढ जाती है. यह ‘बेनी माँ’ कोई कल्पना नहीं है यह हकीकत है. उनकी उदारता इस कहानी को दलित कहानी बनाती हैं.दलित इस देश के निवासी होते हुए भी अपनी जमीं से पराये है. ‘छौआ माँ’ कहानी में छौआ माँ गाँव का सारा काम बिना किसी ऊब के करती है जैसे सब अपना ही है. मगर और समाज के लिए वह जन्म से दलित है इसलिए यह काम उन्ही को करना है. देश की आजादी की आधी सदी गुजर चुकी है फिर भी देश की ९५ प्रतिशत जनता भेदभाव का शिकार होते है. इसी कहानी में ‘छौआ माँ’ सवर्ण समाज की असली सूरत देख लेने के बाद, उनकी स्वार्थान्धता देखते हुए अपना गन्दा कार्य छोड़ देती है. किन्तु सवर्ण समाज ऐसे कैसे माफ़ कर सकता है? तब भी ‘छौआ माँ’ एक महिला होने के नाते मानवीय कार्य करने के लिए लालायित हो जाती है और सोचती है - “‘न जाने किस के घर का बुलऊआ है? बेचारी बहू-बेटी मेरी राह देख रही होगी....’ उनके मन में दया और ममता की हिलोरे उठने लगीं.”(14) यह दया सवर्ण समाज में नहीं आई. और उसे आग में झोंक दिया गया. आज उच्च पदों पर महिलाएं आसीन है किन्तु कितनी महिलाए महिलाओ के बारे में और उसमे भी दलित महिलाओ के बारे में सोचती है? मनु ने अभी तक अपना प्रभाव पूरे भारतीय मानस पर जमाए रखा है. मानवीयता का कंकाल सड़ रहा है, जर्जर होके मिट रहा है. तब यह कहानियां हमें मानवीय पक्ष पर सोचने को मजबूर करती है.
दलित चेतना के संदर्भ में तुलनात्मक अभ्यास :-
दलित साहित्य आंदोलन कोई जाति, धर्म, समाज या किसी जाति विशेष का विरोधी नहीं है. वह उन ब्राह्मणवादी, मनुवादी, वर्ण-जाति भेद वाली मानसिकता या संस्कृति का विरोधी है, जो गलत है. रीती-नीति, विधि-विधान का विरोधी है जो यथास्थिति बनाये रखने के लिए गरीब, अनपढ़ जनता का खून चूसती है. इस मनुवादी, ब्राह्मणवादी रणनीति या राजनीति ने पूरे बहुजन दलित लोगों को गुटों में बांधकर उन्हें एक पूरे हाशिये के बाहर रखा गया है. इस व्यवस्था ने पूरे हाशिये के समाज को मानसिक रूप से पंगु बना रखा है. भारत में गुलामी प्रथा का मतलब यह पंगु मानसिकता है. इस पंगु मानसिकता को बताना और उसको मिटा के रहना यही दलित चेतना का ध्येय है. मानवीय जीवन में परिवर्तन और नवजीवन के लिए संघर्ष रत साहित्य ही दलित चेतना को उजागर करता है. डॉ. बाबासाहेब की विचारधारा और उनके आदर्श समाज का दर्शन साहित्य के माध्यम से दलित चेतना के रूप में प्रकट होती है. “छौआ माँ” दलित चेतना के संदर्भ में कुछ अंश तक खरी उतरती है किन्तु उनमे व्याप्त अंधश्रद्धा दलित चेतना की व्यापकता को सीमित बना देती है. छौआ माँ के विद्रोह में यह चेतना के कुछ अंश देखे तो-
- * “ ’उसकी बेटी क्या बामन–बनिया की छोरी है -?” यानि कि मैं .... मेरे चरित्र पर इतना बड़ा लाच्छ्न ? बामन-बनिया कि छोरी मेरे पेट से....मेरी बेटी बामन –बनिया से......’ चरित्रवान औरत की अस्मिता पर यदि कलंक लगाया जाये तो वह आक्रोश की सीमा को भी पार कर जाती है.”(15)
- * “ ‘अरे गांव की एक-एक बात को मैं जानूं हूँ. सबको कालो-पीलो मैं जनू हौं. बामन-बनिया कौन से भले हैं? सब में कालो-पीलो भरो है. वे हमको बुरा कहें हैं, वे तो हमसे हजार गुना बुरे होय हैं.....”(16)
- * “ ‘बहुत कर ली मैंने तुम्हारी सेवा, अब नहीं करूंगी. तुम मेरे नहीं तो मैं भी किसी की नहीं. तुम्हारे पाप धोते-धोते मैं पापन हो गई?’”(17)
‘छौआ माँ’ अनपढ़ और अछूत है. किन्तु जब वह यह जान जाती है की सवर्ण समाज आज भी स्वार्थान्धता में जी रहा है, तो वह उनके सारे नग्न सत्य उजागर करने लगती है. यही नहीं वह विद्रोह करके जो कार्य आज तक करती आई है ऐसा दाईपने के कार्य को नकार देती है. यह दलित महिला की अस्मिता की आत्म खोज है. मगर यह संघर्ष यहाँ खत्म नहीं होता. दलित चेतना विचार जहाँ जग जाता है वाहाँ सवर्ण लोगों के लिए खतरा बन जाता है. वह उन्हें मिटाने की, नष्ट करने की हर संभव कोशिश करते है. ‘छौआ माँ’ को आखिर आग के हवाले कर दिया जाता है. छौआ माँ आग के हवाले हो जाती है, वह आग के दरिया में डूब के भी झुकति नहीं है. यह घटना इस कहानी को दलित चेतना के दायरे में लाकर खड़ा कर देती है.
‘दाई’ कहानी जितनी कहानी बनती है उतनी दलित चेतना में कमजोर दिखाई देती है. हालाँकि यह कहानी मानवीय संवेदना को झकझोर के रख देती है. ‘बेनी माँ’ के मन में इस विषमता के लिए बहुत ही दुःख है. वह विद्रोह तो कही करती नहीं दिखाई देती, किन्तु जो वह भोगती है वह पाठक को दलित जीवन से अवगत जरुर कराती है. यह कहानी अंत में भी विद्रोही नहीं बनती, पर यथास्थिति के प्रति असंतोष हमें गहरे तक अनुभव कराती है, ब्राह्मणवादी मानसिकता यथार्थ जीवन में व्याप्त और फली फूली है, उनके प्रति दुख है और उन्हें मिटाने के लिए वह खुद को नरक में झोंकती है. पर काले-जड़ पत्थर पे पानी की तरह सवर्ण समाज में कोई बदलाव नहीं आता. इन दोनों कहानियो के बारे में नीचे कुछ बिंदु दलित चेतना के संदर्भ में दिए जा सकते है -
- • ‘दाई’ कहानी दलित चेतना जगाने में चुक गई है, पर यथार्थ दलित जीवन के दुःख का आलेखन इस कहानी को दलित कहानी बनाता है. ‘छौआ माँ’ कहानी डॉ. बाबासाहेब की विचारधारा पर चल कर यथास्थिति के सामने उठ खड़ी होती है. यह कहानी उनके विद्रोही तेवर से दलित चेतना की कहानी बनती है.
- • दाई कहानी की पृष्ठभूमि आरक्षण विरोधी आंदोलन है और साथ ही साथ एक जिन्दा नारी कि कहानी है, जो इस विषमता भरे माहोल में रहकर भी अपनी मानवीयता बरक़रार रखती हैं. इस बात से वह सवर्ण समाज को बताते है की दलित लोगों ने अपने अनुभव से जो कुशलता पाई है, वहाँ अनुभव और शिक्षा से बने डॉक्टर कि गैरजिम्मेदारी कहानी में वर्णित है. फिर भी दलित लोग के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है. ‘छौआ माँ’ कहानी में दलित महिला अपनी अस्मिता की खोज करती दिखाई देती है.
- • इन दोनों कहानी में जो यथार्थ परिस्थिति है वह प्रकट हुई है. जिसमे दलित समाज में व्याप्त अंधश्रद्धा दिखाई गई है. कहानी की नायिका इस मकड़जाल में फंसी हुई है. रीत-रिवाज, मान्यताएं, परंपरा, व्रत, त्यौहार आदि में रसी-बसी रहती है. यह दोनों कहानी इस कू-रुढियो को तोडती नहीं दिखाई देती है. यह पक्ष दलित चेतना संदर्भ में कमजोर नजर आता है.
यह कहानी यह बताने में जरुर कामयाब दिखती है की दलित चाहे कितना ही योग्य क्यों न हो किन्तु वह आखिर दलित ही रहता है. इस हीनता बोध को त्याग देना, इनसे उपर उठाना ही दलित चेतना है. जिसका यथार्थ अंकन इन कहानियों में मूर्तमान हुआ है.
अंत :-
इन दोनों कहानियों का अंत करुण है. इस करुणांत का मुख्य कारण भारतीय रूढ़िवादी एवं ब्राह्मणवादी मानसिकता है. यह मानसिकता ढाई हजार वर्षों से चली आ रही है. दाई कहानी का अंत कुछ इस तरह है - “उसके ऊपर काले-काले मेघ छाए हुए थे. ठंडी आह भरकर ‘बेनी माँ’ भारी पैरों से घर की और चल पड़ी. इतने में बरगद की किसी डाली से टप-टप कर गोदा गिरा... जैसे डायला की नाभि झडी हो.”(18) और ‘छौआ माँ’ कहानी के अंत में गाँववाले लोग ‘छौआ माँ’ को जला देते है -“फिर वह बहुत जोर से चीखी. उसकी खुली आँखों में पूरा गांव समां गया. मगर वह कहीं शून्य में विलीन हो गई-“ (19) यह सजा क्यों दी जाती है बेकशूर दलितो को? यह मानसिकता आज भी हिंदू लोगो देखी जाती हैं. अपना विशेष स्थान बनाये रखने के लिए हिंदू लोग सब हिंसा को जायज ठहराते है, न्याय संगत मानते हैं. इन कहानियों के अंत कई सवाल खड़े करते है. जो कि आज भी अन्नुत्तर ही हैं. यह उस यथार्थ की और इशारा करती है की जो अन्याय. स्वार्थान्धता, खुद का विशेष स्थान और शोषण का अंधेर है, यह अंधेर कब तक चलता रहेगा?
भाषा :-
दलित साहित्य भाषा की द्रष्टि से विशेष रहा है. वाकई में इस धारा ने भारतीय भाषा के शब्दभंडोल में वृध्धि की है. उनकी अपनी अलग पहचान है. यह भाषा दलित जीवन को यथार्थ रूप से वर्णित करती है. यहाँ प्रस्तुत दो कहानियां दलित जीवन की यथार्थ परिस्थिति का वर्णन करती और उसे भाषा के माध्यम से जीवंत बनाती है. दाई कहानी की भाषा विशिष्ट है और वह कहानी को वास्तविक बना देती है. उनकी भाषा कोई पाठक को मंत्रमुग्ध बना देती है और कहानी प्रवाह में घसीट के ले जाती है. दाई कहानी इसलिए कहानी बनाती है. उसमें जो भाव है उससे पाठक समसंवेदन का अनुभव करता है. ‘छौआ माँ’ दलित कहानी है और उनकी भाषाशैली से दलित जीवन की बोली भी यहाँ प्रस्तुत होती है. मगर कहानी का विस्तार उनकी भाषा शैली को शिथिल बना देती है. दाई कहानी में पृष्ठ- ५० पर देखे तो “यह तो पशी माँ है,पशली की किस्मत अच्छी थी कि बच गई....” इस संवाद में जहा “पशी माँ” शब्द है वहा असल में “बेनी माँ” शब्द है. दूसरी असंगतता पृष्ठ-५१ पर है. पृष्ठ-५१ पर ‘पशी’ का बेटा ‘डायला’ बताया गया है जबकि वह मूल में ‘दली’ का बेटा है. इस असंगतता को छोड़कर बाकी की कहानी में कोई असंगतता नजर नहीं आती. ‘छौआ माँ’ कहानी में भी कुछ असंगता है. पृष्ठ-७३ पर ‘सब बात अच्छी रही तो सब बाद पक्की करके ही आयेगो.’ यहाँ जहा ‘बाद’ है वहा ‘बात’ शब्द आता है. दूसरी असंगतता पृष्ठ -७३ पर ‘हिंदू-महाजन भंगी-चमारों के घर जला देते हैं, उनकी बस्तियाँ जला देत हैं’ यह विधान में पहले “देते” आता है और बाद में “देत” आता है जो असंगत है. वहाँ भी “देते” आना चाहिए.
“दाई” और “छौआ माँ” कहानी में साम्य और वैषम्य :-
I. साम्य :-
- • दोनों कहानी दलित महिला को केन्द्र में रखकर लिखी गई है.
- • दोनों कहानी दाईपने के कार्य से जुडी है.
- • दोनों कहानी में दाईपने का कार्य के बदले सवर्ण समाज से धृणा, हिकारत और नफरत ही नसीब होती है. सवर्ण समाज की स्वार्थान्धता को बताया गया है.
- • दोनों नारी अशिक्षित, अनपढ़ है. फिर भी दाईपने के कार्य में डॉक्टर को भी शर्मिंदा कर दे ऐसी कुशलता है.
- • दलित नारी होने के नाते उन्हें अछूतपन जैसी अमानवीय प्रथा का भोग बनना पड़ता है.
- • दोनों कहानी आदर्श मानवीयता की बात करती है.
- • दोनों कहानी में दलित महिलाओ में व्याप्त अंधश्रद्धा की बात भी कही गई है.
- • दोनों कहानी के लेखक लिंग से अलग है. एक पुरुष है तो एक स्त्री है.
- • ‘दाई’ कहानी मानवीयता का सन्देश दे के रुक जाती है और शेष जीवन में संघर्ष का संकेत देती है. जबकि ‘छौआ माँ’ कहानी मानवियता की बात करते हुए परिवर्तन की बात करती है.
- • दाई की नायिका खुद को मानव समज़ाने की कोशिश करती है. किन्तु छौआ माँ खुद को इन्सान समझती है और विद्रोह भी करती है. अमानवीय कार्य को त्याग देती है.
- • ‘दाई’ में नायिका बिलकुल अकेली है. ‘छौआ माँ’ में ‘छौआ माँ’ विधवा है किन्तु उनकी बेटी, जमाई, नाती-नातिन और परिवार है.
- • ‘दाई’ कहानी कहानी के तौर पर उत्तम है किन्तु दलित चेतना में चुक जाती है, मगर पत्थर हृदय को भी पिघला दे ऐसी अभिव्यक्ति इस कहानी को दलित चेतना में सम्मिलित करती दिखाई देती है. ‘छौआ माँ’ कहानी के तौर पर कमजोर और शिथिल नजर आती है किन्तु परिवर्तन की बात करती है, दलित चेतना की बात करती है.
दोनों कहानियां भारतीय दलित साहित्य का विस्तार करती है. भारतीय दलित साहित्य आज अपना विद्रोही रूप धारण कर चुका है, किन्तु आज भी काफी सारी गलत धारणाये बंधी हुई है. यह कहानियां दलित स्त्री के नाते भविष्य में दलित स्त्री का मूल्यांकन करने के लिए उपयोगी होगी.
निष्कर्ष :-
प्रस्तुत कहानी में से कुछ निष्कर्ष निकले जा सकते है. जो निम्नानुसार है-
- • दलित नारी वर्ण व्यवस्था में दलित है, पुरुषसत्तात्मक संस्कृति में दलित है और तो और वह सवर्ण औरत में भी अवर्ण होने के नाते दलित है. दलितो में भी दलित, उसमे भी दलित है. इसका कारण मात्र जन्म के आधार पर खड़ी वर्ण-व्यवस्था या सामाजिक (गैर)व्यवस्था है.
- • दलित नारी श्रमिक है, मगर उन्हें नारी होने के नाते दलित पुरुष से ज्यादा अत्याचार सहने पड़ते है. हमारी व्यवस्था ही असंवेदनहीन है. जहां मानवता का कोई मूल्य नहीं है.
- • दलित नारी में शिक्षा का अभाव होने से वह अंधश्रद्धा का भोग बनती है. यह दलित नारी को मानसिक रूप से पंगु बना देती है.
- • इन दोनों कहानी का समय काल १९८० से लेकर २००६ तक का है. मतलब साफ है कि भारत कि आजादी कि आधी सदी बीत जाने के बाद भी शोषण, अन्याय, अत्याचार हो रहे है. और दलित समाज आज भी हाशिये में ही है. दलित नारी उससे भी ज्यादा हाशिये पर है.
- • यह कहानियां औरत कि सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक पक्ष को यथार्थ रूप से वर्णित करती है. दलित नारी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक, जातिय, राजनीतिक आदि रूप से शोषित है, हाशिये पे है.
‘छौआ माँ’ जैसी कहानियां डॉ. बाबासाहेब कि वैचारिकी से जुडती दिखाई देती हैं. जब तक यह साहित्य एक आंदोलन का रूप नहीं ले लेता और परिवर्तन का रूप धारण नहीं करता, तब तक वह नग्न यथार्थ को आलेखित करती रहेगी. दलित कहानियां आज अनेक आंदोलन को तीक्ष्ण धार दे रही है, आगे की दिशा बता रही है और आगे दिशा बताती रहेगी.
उपसंहार :-
प्रस्तुत ‘दाई’ कहानी १९८७ में “गुजराती दलित वार्ताओ” दलित कहानी संग्रह में छपी थी. जिसके सम्पादक मोहन परमार और हरीश मंगलम् है. ‘छौआ माँ’ कहानी २००६ में “संघर्ष” कहानी संग्रह में छपी थी. जिनकी लेखिका सुशीला टाकभौरे है. प्रस्तुत कहानियां दलित जीवन के प्रति जो कुंठित और पूर्वग्रह युक्त नजरिया है उसमे बदलाव लाने की कोशिश करती है. ‘छौआ माँ’ कहानी डॉ. बाबासाहेब के विचार दर्शन से रूबरू कराती है तो ‘दाई’ कहानी मानवीयता कि बर्बर परिस्थिति को यथार्थ रूप से वर्णित करती है. दाईपने का कार्य मतलब दूसरों को जीवनदान देना, मगर सवर्ण समाज जो जीवन देने वाला है उन्हें ही मारता है. यह उपकार के बदले अपकार है. ब्राह्मणवादी समाज कृतध्नी है. डॉ. बाबासाहेब ने सर्वोत्तम जीवन के लिए कहा था जो यहाँ उदधृत कारना चाहता हूँ- “जिस प्रकार अपने जीवन का खतरा उठाते हुए माँ अपने शिशु की देख-भाल करती है. उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को सभी प्राणियों के प्रति अपार प्रेम प्रदान करने के लिए माँ बनना चाहिए, उसे सम्पूर्ण विश्व के प्रति सद् भावना रखनी चाहिए, ऊपर-नीचे और उस पार, सभी के लिए उसके मन में घृणाहीन और शत्रुतारहित अबाध प्रेम होना चाहिए. ऐसी जीवन-पद्धति विश्व में सर्वोत्तम है.”(20)
दलित आंदोलन की जड़ में सावित्रीबाई फुले और रमाबाई आम्बेडकर जैसे स्त्री रत्न है. यह जब दलित नारी और अन्य नारी जो शोषित है उनके प्रेरणा स्त्रोत बन जायेगें तो दलित आंदोलन, दलित नारी आंदोलन एवं नारी आंदोलन और मजबूत होगा.
संदर्भ सूची :-
- I. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘दाई’ (‘तलब’ – कहानी संग्रह), नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८,
- II. टाकभौरे, डॉ. सुशीला, “छौआ माँ” (‘संघर्ष’ - कहानी संग्रह), शरद प्रकाशन, नागपुर-२२, प्र. सं.- २००६,
- 1. शशि, डॉ. श्याम सिंह(प्रधान संपादक), सेठ, कैलाश चन्द्र, नरसिंह्मन, भारती (संपादक),”डॉ. आम्बेडकर: सम्पूर्ण वाङमय”, खण्ड-६, डॉ. आम्बेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार, नई दिल्ली, पृ.१२६
- 2. कौशल्यायन, डॉ. भदन्त आनन्द, “मनुस्मृति जलाई गई क्यों?’, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली-९३, प्र. सं.- २००५, द्रि. सं. अक्टूबर-२००६, पृ. ५२
- 3. ‘दैनिक जागरण’, (वर्तमान पत्र), दिल्ली (दिल्ली संस्करण), २४-०९-२००९.
- 4. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘तलब’, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८, पृ. ४८
- 5. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘तलब’, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८, पृ. ५०
- 6. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘तलब’, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८, पृ. ५०
- 7. गुप्ता, रमणिका, वाल्मीकि, ओमप्रकाश(संपादक), “दलित हस्तक्षेप”, शिल्पायन ,दिल्ली-११००३२, सं. २००४, पृ. ७१
- 8. टाकभौरे, डॉ. सुशीला, ‘संघर्ष’,(कहानी संग्रह), शरद प्रकाशन, नागपुर-२२, प्र. सं.- २००६, पृ.- ३९
- 9. वही, पृ.-७३
- 10. वही, पृ.-६५
- 11. वही, पृ.-७३
- 12. (डॉ.तारा परमार http://hindivangmay1.blogspot.com/2008/12/blog-post_07.html), ४, मई २०१०, १२.५०pm
- 13. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘तलब’, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८, पृ. ५०
- 14. वही, पृ. ७८
- 15. वही, पृ.७३
- 16. वही, पृ. ७४
- 17. वही, पृ. ७४
- 18. मंगलम्, हरीश, हिंदी अनुवाद- गुप्ता, फूलचन्द, ‘तलब’, नवभारत प्रकाशन, दिल्ली-९३, प्र. सं.-२००८, पृ. - ५१
- 19. टाकभौरे, डॉ. सुशीला, ‘संघर्ष’(कहानी संग्रह), शरद प्रकाशन, नागपुर-२२, प्र. सं.- २००६, पृ.- ७९
- 20. डॉ. आम्बेडकर, भीमराव, लुईस, डॉ. प्रकाश (मुख्य संपादक) - ‘हम दलित’(हिंदी पत्रिका), सोशल एक्शन ट्रस्ट,नई दिल्ली- ११०००३, मई २००३, अंक-५, पृ. २.