Sahityasetu
A leterary e-journal

ISSN: 2249-2372

Year-3, Issue-6, Continuous issue-18, November-December 2013

अशोक वाजपेयी की कविताओं में मृत्यु-बोध

अशोक वाजपेयी की मृत्यु-बोध की कविताओं में बुनियादी द्वन्द्व मृत्यु है। इसको कवि अंत या समापन नहीं मानते। ये कविताएँ एक तरह से प्रेम की भाँति और उतनी ही अनावृत्त, अकुण्ठ और वरेण्य भी है। न केवल यही उतनी ही लीलामय है, जितनी कि प्रकृति और रति है।

अशोक वाजपेयी के यहाँ जीवन की लय में बसी हुई एक सहज सच्चाई है, जो हमारे दैनंदिन की आत्मीय वास्तविकता है। अगर कहें तो नश्वरता और मृत्यु हमारी बुनियाद है।

हिन्दी कविता-संसार जिस हद तक इस बुनियाद से अलग है यह असुविधाजनक और लगभग अस्वीकार्य लगता है कि प्रेम, प्रतीक्षा, स्मृति के प्रसंगों पर कविता लिखी ही क्यों जाएँ, पर यह निरर्थक प्रश्न है। कविता ही क्यों? साहित्य की किसी भी विधा को किसी साँचे में न तो गढ़ा जा सकता है और न उसका औचित्य है। इस सोच के पहले बहुत क्षति हुई है और अगर इससे उबरने की असावधान मुद्रा से निजात पाने की कोशिश नहीं की गई तो हमें अपने सारे महत्त्वपूर्ण साहित्य को खारिज करना होगा जिसके बाद हमारे हिस्से सिर्फ आयोजित साहित्य होगा। जहाँ जीवन और व्यवहार के बीच मीलों का फासला होता है।

ज्योजिष जोषी लिखते हैं कि -- “वस्तुत: कविता अपनी अभिव्यक्ति में हमें कितनी दूर तक अंतरंग बनाती है। हमारी दिशा, सोच और वर्तमान को किसी सीमा तक मार्मिकता से जोड़ती है। प्रश्न किसी की उपलब्धि में यहाँ खड़ा होता है। कालिदास जिसे ‘शिथिल सामाजिक दोष’ कहते हैं उसका आशय यह होता है कि कोई भी साहित्यिक भी अपने क्थ्य में कहाँ और कितनी सफाई से ईमानदार रह पाया है। यह नहीं इस सक्रियता की तीव्रधार कहें तो कार्य और कारण ही न मिल सकें और आप महान क्रान्ति कर बैठें। अगर ऐसा ही हो तो फिर संस्कृत की उत्कृष्ठ काव्य-परंपरा में कालिदास से लेकर भवभूति, भक्तियुग में हिन्दी साहित्य में तुलसी से सूर और आधुनिक काल में प्रसाद से लेकर अज्ञेय को आप कहाँ रखे? यह प्रश्न बड़ा विकट है। रचनाकार शिथिल समाज-दोष से बचना चाहते हैं, तो उन्हें अपने प्रति ईमानदार रहना बहुज ज़रूरी है। अशोकजी की कविताएँ इस ईमानदारी की कसौटी पर खरी उतरती है। उनके यहाँ प्रेम के जो-जो स्तर दिखाई देते हैं और जीवन की जिन भंगिमाओं को लेकर पाठकों को गुज़ारते हैं यह उनकी रचनाकार की उपलब्धि तो है ही! साहित्य की निजी गुणवत्ता की प्रतिष्ठा भी। कविता में भाषा की चमक और शब्दों का ऐसा अनूठा प्रयोग है कि जिसमें तथ्य अपनी पूरी गरिमा के साथ एक उत्सव की तरह प्रकट होता है। यही कवि की कविताओं की बहुत ज़रूरी पहचान है।" [1]

अशोकजी की कविताओं का लोक बहुत विस्तृत है। वहाँ जीवन के गहन भावों के सघन मर्मों की पहचान है। जीवन के अंतरंग क्षणों को इतनी तादात्म्यता के साथ जीनेवाले कवि हिन्दी संसार में अधिक नहीं है। अपनी आकांक्षा, समृति और बार-बार उम्र के फासले को पार कर अतीत के उस जीवन में लौटना जहाँ की रम्यता वर्तमान की कठोरता को अपद्स्थ करने की शक्ति देती है यही कवि की कविताओं की बड़ी उपलब्धि है। पूर्वजों के प्रति कवि की निवेदित कविताए इसका प्रमाण है। वहाँ निश्छल भावों की आस्था उन्नत श्रद्धांजलि है। इस समय में अपने को पाने की कोशिश और संबंधों की ताकतवर आशीषों से पूर्वजों को लौटा लाने की यही अदम्यता। कवि की निजता को सुरक्षित रखने का एक सार्थक उपक्रम है। अपनी ‘आसन्नप्रसवा माँ’ शीर्षक कविता में ‘इन्हीं दिनों’ गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिए –

ईश्वर जीवन-भर उसे कुतरने के बाद
इन्हीं दिनों आखिरी कौर की
उत्सुक प्रतीक्षा में
घात लगाकर बैठा होगा
इन्हीं दिनों
उसने हिम्मत कर
एक बार उठकर
हवा से हवा, आकाश से आकाश, मिट्टी से मिट्टी
अलग कर
.....
इन्हीं दिनों [2]

इस कविता को यदि ध्यान से देखें तो लगेगा कि जीवन की लम्बी पारी में व्यक्ति कितना कम होता जाता है और यह उसके घटने की प्रक्रिया जीवन के साथ सहज होती है। उसमें भी एक माँ निरन्तर अपनी पीड़ा में अंत की ओर जाने की तैयारी करती है। भौतिक तत्त्वों को एक-एक कर अलगाती हुई वह किस तरह थोड़ा-थोड़ा जीती है यह देखना और अनुभव करना भावपूर्ण है। इसी कविता में आगे ताल के प्रतीक  रूप में कुत्ता हालाँकि यह दुनियादारी भी हो सकता है  और इसमें ज़िन्दगी जैसी उम्मीद और मौत जैसी जैसी चालाक लालच मौज़ूद है। बिम्बों की यह पारदर्शी बिम्बों की यह पारदर्शिता उन कथित कवियों के यहाँ दुर्लभ हैं, जिन्होंने अपने होने को ही खत्म कर दिया है या जिन्होंने अपनी उम्मीद पीट-पीट कर कविता रचना अपना तुक माना है।

कई जगह कवि को माँ का न होना भी खलता है। यहाँ जिन संकेतों से कवि अपनी माँ की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं, ठीक उसी तरह अनुपस्थिति को भी कर देते हैं। कवि की स्मृति यहाँ बार-बार लौट आती है – मृत्यु के गंध में लिपटी –

यहाँ की गली में मुझे तुम दिखती हो
वृंदावन मन्दिर से लौटती हुई
या कि नलिनी जयवन्त की कोई फिल्म देखकर
अभी रुकेगा तांगा और उसमें उतरेंगे मेहमान
और तुम मुझे दौड़कर सामने नाना के यहाँ से.... [3]

मृत्यु और अनुपस्थिति पर अशोकजी के विचार देखिए –
मरना जीने का समापन नहीं है। अक्सर हम जीते-मरते साथ-ही-साथ है, हम जीवन में आगे बढ़ते हैं, पर मृत्यु की ओर भले हमें ऐसा न लगता हो... हम जीते हैं, क्योंकि हम याद करते हैं, कर पाते हैं जो नहीं है उससे जो था हम याद से ही जो पाते हैं, स्मृति से ही जो अनुपस्थिति है, वह उपस्थिति हो जाता है। [4]

अशोकजी की कविताएँ यद्यपि घोषित रूप से सामाजिक सरोकार जैसी ठेठ सरलीकृत पैमानों में नहीं अँटती, लेकिन इसमें सच्चाई है। वह बहुत दूर और देर तक जीवित रहनेवाली कविताएँ हैं। तात्कालिकता के दबाव से मुक्त होकर हिन्दी कवि ने जीवन की किलकती चाहत और उसके दिन-ब-दिन होते जाते पराभव को बखाना है। स्मृति और अनन्यता देखनी हो तो ‘पिता के जूते’ शीर्षक कविता देखी जा सकती है। जो मानवेतर प्राणियों और वस्तुओं के सहभाव में ऐसी स्थिति निर्मित करती है। जहाँ पिता का न होना जितना खलता है उससे कहीं अधिक उनके पुन: बचपन में लौटने की उम्मीद बनती है –

जूते कोशिश करके भी याद नहीं कर पाते
उन पैरों को जो उनमें थे
यह सपना देखते हैं
नन्हें पैरों का
जिनके लिए वह हमेशा बड़े साबित होंगे। [5]

एक वृद्ध के जूतों को याद करने की कोशिश और फिर सपना देखना नन्हें पैरों का जिनके लिए वह हमेशा बड़े रहे हैं। मृत्यु जैसी भयावह स्थिति में भी इस तरह का समाधान है। संवेदना का यही बारीक अनुशीलन कवि की कविता का लोक है।

अशोकजी एक बहुत समझदार कवि हैं। और जमाने के रंगों से कुछ-कुछ बेखबर भी। वह परंपरा को गर्व के साथ निभा ले चलता है। इस प्रस्तावना के साथ हम कहीं भी जाते हैं पूर्वज होते हैं हमारे आसपास और हम भी क्या अपनी जवाबदेही में उन्हीं का काम आगे नहीं बढ़ाते –

हम अपने बच्चों को
छोड़ जाते हैं पूर्वजों के पास
काम पर जाने के पहले।
हम उठाते हैं टोकनियों पर
बोझ और समय। [6]

कवि जब पूर्वजों की अस्थियों में रहने की बात करते हैं तो उनका आशय यही होता है कि हम उन्हीं से बने-सँवरे हैं। उनमें जुड़कर हम परंपरा को इस्तेमाल करते हैं, जो हमें शक्ति देता है और आगे कुछ करने को ताकतवर प्रेरणा भी। उनके यहाँ अपने समय की बहुत व्यग्र चिंता है। कवि पर आरोप लगाया जाता है कि वह सामाजिक सरोकारों की बात नहीं करता। स्वयं कवि ने इस ढंग को अपने बयानों और टिप्पणियों से इसे पुख्ता बनाया है। पर यह जानकर हैरत होती है कि बड़बोले सरोकारोंवाले कवियों की चिन्ता कुछ व्यापक है। कहनेवाले कहेंगे कि जहाँ वे विचार लेकर चलते हैं, वहाँ ऐसी कविताएँ बन जाती हैं। पर वह यह मान सकते कि बिना विचार से क्या होता है? अपने समय की बेपनाह मुश्किलों से कवि लगातार जीकर भी हताश नहीं दिखाई देता। उसकी तलाश निरंतर जारी रहती है। अपने युग के कठिनतम् क्षणों में कवि की यही जिजीविषा उसे अपने वक्त के प्रति संजीदा बनाती है –

पर अपनी उम्मीद लिए,
फिलहाल हम चल रहे हैं --
उस मोड़ की ओर,
उस घर की ओर,
उस जल और धूप की ओर [7]

यहाँ कवि की चिन्ताएँ कई स्तरों पर प्रकट होती है। अपने समय की भयावहता पर कवि की चिन्ता का एक और दृष्टांत देखने योग्य है –

ये सदियों का
बिल्लियों की तरह घूमना
चिथड़ों की तरह सपनों का पंख फड़फड़ाना
आनंद-भर धूप से ढँकी चाँदनी
रूक-रूक कर होती बारिश
बारबार जलती-बुझती आग
सहम कर बहती हवा
यही हमारा समय है। [8]

इन पंक्तियों में आज के तीखे यथार्थ की तस्वीर है। आखिर रूक-रूक कर बरसात क्यों हो रही है? हवा सहम कर क्यों बह रही है? इसका कारण कहीं और खोजने जाने की ज़रूरत नहीं है। हमारी समुचित मानवता खत्म हो रही है और इस खतरे के दौर में कवि कह उठता है –

अगर बच सका
तो वही बचेगा
हम सब में थोड़ा-सा आदमी – [9]

वे थोड़े-से आदमी अपने उसूलों के कायल है, जो ईमानदारी से जीते हैं। जो धोखा खाकर भी प्रेम देते है। क्या ऐसे थोड़े-से आदमी हम में कहीं बच रहे हैं? कवि का आश्वासन कि बचेगा वह आदमी। यह ध्वनि भी देता है कि अब नहीं होने कि स्थिति में उदात्त मूल्यों की प्रतिष्ठा का यही कार्य-संघर्ष और आस्था-अनास्था के द्वन्द्वों में गुज़रता है। कवि की यहाँ मनुष्यता के प्रति आसक्ति भी कविता की विराट अर्थवत्ता को सूचित करती है और असंमजस का भाव फलित होनेवाली आशंका से सचेत करती है। इस क्रम में कवि की और भी बहुत-सी कविताएँ हैं, जिन्हें उद्धृत की जा सकती हैं, जो पूरी तीव्रता से कवि की अपने यथार्थ के प्रति संवेदनशीलता को व्यक्त करती हैं। इनमें ‘अगर इतने से’ शीर्षक की पंक्तियाँ देखी जा सकती है –

आत्मा के अँधेरों को
अपने शब्दों की लौ ऊँची कर
अगर हरा सकता
तो मैं अपने को रात-भर
एक लालटेन की तरह जला रखता
अगर इतने से काम चल जाता। [10]

कवि अँधेरे के खिलाफ़ संघर्षरत है और किसी भी सूरत में इसे परास्त करना चाहता है। पर यह अँधेरा उसकी आत्मा का अँधेरा है। यह अँधेरा अपने समय के भयावने त्रासद अनुभवों से कम है, केवल विषाद और ग्लानि ही बची है। व्यापक मानवीय सरोकार से तिलतिल बनी यह कविता शायद इसलिए भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि वह अपनी पूरी संरचना में तनाव से व्याप्त है और शुरू से अंत तक प्रश्नाकुलता है। देखिए –

अगर इतने से काम चल जाता
तो मैं जाकर बुला लाता देवदूतों को
कम्बल और रोटियाँ बाँटने के लिए [11]

यहाँ तात्कालिक का जोरदार निषेध भी है। हमें स्थायी समाधान की ओर उद्वेलित करता कवि वर्तमान और भविष्य के उस बिन्दु पर चोट करता है, जहाँ हम और भी कातर और बेसुध हो जा रहे हैं। जो लोग अशोकजी की कविताओं पर केवल आरोप ही लगाते हैं, उन्हें कविता की दूरंदर्शिता तथा अर्थवत्ता की यह छवि दिखाई नहीं देती। संवाद और विमर्श की इस घटिया बिरादरी में स्वस्थ मानसिकता की  बात करना और भी भ्रामक होता है। जहाँ पहले से तय प्रणाली के तहत निंदा या भर्त्सना करने का रिवाज हो, वहाँ फिर उम्मीद ही कोई क्या करे?

अरविंद त्रिपाठी अशोकजी की मृत्यु की कविताओं के बारे में टिप्पणी करते हैं –
"इस तरह से हिन्दी साहित्य में अशोक वाजपेयी निराला, श्रीकान्त वर्मा के बाद के कवि हैं, जिनकी कविता में जीवन और मृत्यु की छाया एक-दूसरे पर अपनी परछाईँ डालकर साथ-साथ चलती है। वे प्रेम से ज्यादा मृत्यु को इतना प्यार करनेवाला हिन्दी में शायद ही दूसरा कोई कवि हो जो मृत्यु को किसी प्रेमिका की तरह गले लगाता है।" [12]

अकेले अशोकजी ने हिन्दी साहित्य में मृत्यु पर जितनी कविताएँ लिखी, उतनी किसी और कवि ने नहीं। मृत्यु की भयावहता और उसके बाद जीवन के लोप तथा उससे जुड़ी स्मृतियों पर रचित कविताओँ को विश्लेषित किया जाय तो इसमें हिन्दी कविता की उपलब्धि दिखाई देती है। ‘कुछ तो’ शीर्षक कविता की पंक्तियाँ देखिए –

अपनी गाड़ी में ले जायेगी
लादकर मृत्यु सारा अंबार और अटाला
पर छूट ही जायेगी
एक टुटही मेज़ और बाल्टी –
सब चले जायेंगे
सुख-दु:ख, धैर्य और लालच
सुंदरता और पवित्रता
पर प्रार्थना के अंतिम अक्षय शब्द की तरह
बची रह जायेगी कामना –
सब कुछ नष्ट नहीं होगा
कुछ तो बचा ही जायेगा। [13]

अशोकजी यथार्थ रूप से मृत्यु की पहचान को नया अर्थ देते हैं। हम आज बीसवीं सदी में देखे तो मानवीय मूल्यों, परंपराओं और संसार की चीज़ें नष्ट होती जा रही देखते हैं। इससे कवि निराश नहीं हुए।

मृत्यु भी सब कुछ नहीं ले जा सकती। यह किताना बड़ा सच है। यही है अर्थ की असाधारणता और अनुभव की अद्वितीयता। जिसे अज्ञेय रचनाकार का धर्म मानते रहे हैं। कविता में जितनी करुणा है, उतना ही विषाद है। उसमें क्षोभ भी कम नहीं है, पर एक यह संतोष उसे जिलाता है – कुछ तो बच ही जायेगा। यह मृत्यु से गहरे साक्षात्कार और उसके गहरे संलाप से संभव हो सका है कि कवि जीवन के अंत को अनुभव में ले सका है। एक और स्तर यह है –

अंत के बाद
हम समाप्त नहीं होंगे --
यहीं जीवन के आसपास
मँडरायेंगे --
यहीं खिलेंगे गंध बनकर,
बहेंगे छाया बनकर,
छायेंगे स्मृति बनकर। [14]

जीवन के प्रति यह आसक्ति प्रकृति में बस जाती है। इसीलिए यहाँ के बाद कुछ नहीं है। क्या हम चले जाकर भी छोड़ नहीं जाते, खुद को अपने लोक में। मृत्यु का दंश भी मनुष्यता के उदात्त विस्तार में समा जाय। जैसे मल्लिकार्जुन मंसूर पर लिखी कविता अपने समय के एक महान संगीतज्ञ को श्रद्धांजलि भी है और उसके माध्यम से उसका व्यक्त चित्र भी। संगीत की बारीक पर्यवेक्षणा भी और दया से हीन तथा महामानव तुच्छ, ईश्वर की भर्त्सना भी –
“अपने लिए कुछ नहीं बटोरते उनके संत-हाथ

सिर्फ़ लुटाते चलते हैं सब कुछ
गुनगुनाते चलते हैं पंखुरी-पंखुरी सारा संसार।
ईश्वर आ रहा होता
घूमने इसी रास्ते
तो पहचान न पाता कि स्वयं है
या कि मल्लिकार्जुन मंसूर। [15]

इसी तरह ‘बहुरि अकेला’ कविता-संग्रह में कवि ने श्रद्धांजलि स्वरूप पर जो कविताएँ लिखी हैं वह बहुत मार्मिक तो हैं ही, मृत्यु के बहाने जीवन की गहन पड़ताल भी हैं। तमाम मतवादों से परे यहाँ कवि ने जैसे मृत्यु से संवाद किया हो ऐसा लगता है। वह बहुत भोलेपन से गूढ़ दार्शनिक प्रश्न भी उठाता है और जीवन का उसे एक चरण मानकर अपदस्त भी करता है। कहा जाय तो इस खंड़ की कविताओं को भावप्रवण लोकगीत कहना चाहिए। यद्यपि हिन्दी में ऐसी परंपरा नहीं है। इस लंबी अवधि में किसी भी कवि के यहाँ ऐसी करुणापरक, मगर मृत्यु का अर्थ तलाशती कविताएँ नहीं –

होने के अवधि है
रंग है
मोड़ और उतार है
न होना निरवधि [16]

अशोकजी की मृत्यु-बोध की कविताओं में एक ऐसा लोक हैं, जिसमें मृत्यु विलोपन के पर्याय रूप में प्रस्तुत होता है। यह एक ऐसा लोक है जिसमें मृत्यु लगभग छूट जाती महसूस होती है –

यह निराकाश
निराताप
नि:संख्य नि:शून्य
सुतपा के चेहरे वाला
कौन है? [17]

इस शून्य की संख्याओं के आगमन से न सिर्फ़ अनंत है, बल्कि अनंत कवि की अतूट शृँखला है। कई जगह पर मृत्यु लगातार अपने भीतर ही जीवन को अपने गूढ़ संकेत उभारने का अवकाश भी दे रही है –

सुख पर दु:ख ऐसा छाया
जैसे दु:ख सुख की माया। [18]

 

इस तरह कवि को लगता है कि जैसे बिछोह के बाद प्रिय से संवाद करता है और बताता है –

यह अभिषेक का समय है
दीने की घूलधक्कड़
मैल कलुष और तजने का समय। [19]

फिर लगता है कि मृत्यु की छीनाझपटी में आलम्ब असंमझस में हैं कि वह जाये या रहे। क्या करे? तब तक कवि उसे अपनी सारी व्यथा दबाये  रखे कहता है –

नितान्त प्रतीक्षा का समय
प्रार्थना के बाद यति का समय
साँकल खोलने
कीचड़ सने जूते उतारने
छाता और लाठी कौने में धरने
गुनगुनाने
यात्रा पर निकलने का
समय।
अंत का समय
आरंभ का समय। [20]

मृत्यु जीवन का अंतिम चरण है। फिर उसका अफसोस क्यों? यह तो महायात्रा है। जहाँ मनुष्य का जीवन एक अध्याय समाप्त कर दूसरे अध्याय की शुरूआत करता है। शोक में भी दोष लेने और देने की यह उदात्तता हिन्दी कविता में पहली बार दिखाई देती है, जहाँ कवि दु:ख से कातर होकर व्यग्रता से निर्बल नहीं, वरन् नाना प्रकार के तर्कों से वह स्वयं को संतुष्ट करता है, धैर्य बंधाता है और एक तरह से स्वागत कर मृत्यु के आतंक को भेदता है। उसे अनावृत्त करता है –

विदा कोई समय नहीं है
हर क्षण विदा है [21]

इस तरह की कविताएँ अपने भावजगत् में संवेदना व्यक्त होती हैं। जो बीत जाता है वह विदा हो ही लेता है। अपने सक्रिय जीवन में तो व्यक्ति हर पल बीत रहा होता है। धीरे-धीरे उस अनंत यात्रा की ओर बढ़ता है –

वह आँसुओं, हिचकियों का घर
चीख और आर्तनाद का घर
विषाद का घर [22]

विद्यानिवास मिश्र ने ठीक ही लिखा है कि – “विशेष रूप से इन कविताओं के बारे में – ऐसी कविताएँ भारतीय कविता में तो विरल हैं ही विश्व-कविता में भी विरल हैं।" [23]

आश्यर्य की बात नहीं है कि यह कविताएँ संगीत की दुनियाँ में प्रवेश करती हैं। बहुरि अकेला खंड की कविताएँ कुमार गंधर्व की गायकी पर उतनी ही तीक्ष्ण खोज है, जितनी बारीकी से मृत्यु का साक्षात्कार।

अशोकजी की मृत्यु-बोध की कविताएँ – ‘पिता के जूते’, ‘इन्हीं दिनों’, ‘मौत की ट्रेन में दिदिया’, ‘दिवंगत माँ के नाम पत्र’, ‘फिर घर’, ‘कितने दिन और बचे हैं’, ‘अंत के बाद’, ‘शरण्य’, ‘बच्चे’, ‘आवृत्ति, ‘एक खिड़की, ‘बची हुई, ‘यही बचता है, ‘दु:ख का शिल्प, ‘दिवंगत बहन, ‘शहर के पार मौत!, ‘मेरी काया’, ‘‘किससे?’, ‘बच्चे एक दिन’, ‘अनंत में’, ‘कायाकल्प’, ‘क्यों?’, ‘अचल चिड़िया’, ‘उड़ती चट्टान’, ‘विकल्प’, ‘अंत की ओर’, ‘मैं चला जाऊँगा’, ‘शायद’, ‘बेखबर’, ‘पुरखों के घर’, ‘ओझल’, ‘गोधूलि में ही’, ‘शेषगाथा’, ‘वापसी’, ‘अगली बार’, ‘मृत्यु’, ‘वहीं नहीं’, ‘अकेले क्यों? ’, ‘वहाँ भी’ – आदि कई कविताएँ जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन की खोज है।

अशोकजी की उपरोक्त सभी कविताएँ पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कवि मृत्यु से पलायन नहीं करते, बल्कि मृत्यु से जूझते दिखाई पड़ते हैं। संसार का एक नियम है कि काल किसी को भी छोड़ता नहीं है। पर यहाँ कवि काल से निर्भय होकर उसकी प्रतीक्षा करता है। मृत्यु का विकल्प वे जीवन में ढूँढ़ते नज़र आते हैं। उनकी उपरोक्त कविताओं में कवि की स्मृतियों में दिवंगत माँ, पिता, बहन, बालसखा मित्र, स्वजनों, मल्लिकार्जुन मंसूर, कुमार गंधर्व आदि की मार्मिक छवियाँ प्रस्तुत होती है।

इन सभी कविताओं में कवि का आत्मीयता का भाव देखने को मिलता है। मृत्यु कवि के यहाँ बिम्बों में ढलकर आती है या दूसरे शब्दों में कहें तो कवि ने मृत्यु का सौन्दर्यीकरण किया है।

संदर्भसूचि

  1. अगर इतने से, पृ. 11-12
  2.  आविन्यो, पृ. 42
  3.  जो नहीं है, भूमिका से उद्धृत
  4.  एक पतंग अनंत में, पृ. 20
  5.  अगर इतने से, पृ. 41
  6. तत्पुरुष, पृ. 18
  7. साक्षात्कार, जन-मार्च-1995, पृ. 130
  8.  तत्परुष, पृ. 30
  9.  अगर इतने से, पृ. 30
  10.  वही, पृ. 30
  11.  अशोक वाजपेयी : पाठ-कुपाठ, पृ.341
  12.  तत्पुरुष, पृ. 20
  13.  कहीं नहीं वहीं, पृ. 25-26
  14.  समय से बाहर (बहुरि अकेला), पृ. 102
  15.  वही, पृ. 88
  16.  बहुरि अकेला, पृ. 16
  17.  वही
  18.  समय से बाहर (बहुरि अकेला), पृ. 92
  19.  वही, पृ. 93
  20.  वही, पृ. 84
  21.  वही, पृ. 84
  22.  अशोक वाजपेयी : पाठ-कुपाठ, पृ. 355
  23.  वही, पृ. 302

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डॉ. अमृत प्रजापति
गवर्मेन्ट आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज कडोली
तहसील- हिम्मतनगर, जि. साबरकांठा, चलभाष-9426881267