ख्यात साहित्य और इतिहास:  एक विश्लेषण

इतिहास के प्रथम व्याख्याता यूनानी विद्वान हिरोदोतस (Herodotus 545-456-BC) ने इतिहास को खोज गवेषणा या अनुसंधान के अर्थ में ग्रहण करते हुए, इसके चार लक्षण निर्धारित किए थे, एक तो यह कि इतिहास वैज्ञानिक विधा हे, अतः इसकी पद्धति आलोचनात्मक होती है, दूसरे यह मानव जाति से संबंधित होने कारण मानवीय विधा (मानविकी) है। तीसरे, यह तर्कसंगत विधा है, अतः इसमें तथ्य और निष्कर्ष प्रमाण पर आधारित होते हैं । चौथे यह अतीत के आलोक में भविष्य पर प्रकाश डालता है, अतः यह शिक्षाप्रद विधा है। साथ ही इतिहास का लक्ष्य प्राकृतिक या भौतिक परिवर्तन की प्रक्रिया की व्याख्या करना है। वस्तुतः अतीत के  किसी भी तथ्य, तत्व एवं प्रवृत्ति के वर्णन, विवरण, विवेचन व विश्लेषण को जो कि काल विशेष या काल क्रम की दृष्टि से किया गया हो, इतिहास कहा जा सकता है। इतिहास का लक्ष्य सदा अतीत की व्याख्या करते हुए विवेच्य वस्तु के विकास क्रम को स्पष्ट करने का होता है।
संक्षेप में समझा जाए तो इतिहास व्यक्ति के विकास का क्रमवार अध्ययन है। यह समाज से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ा विषय है एवं साहित्य समाज का दर्पण है। समाज के विभिन्न आयाम इतिहास के द्वारा ही अतीत से परिष्कृत हो, वर्तमान एवं उससे आगे भविष्य तक की विकास यात्रा अनवरत तय करते है। इतिहास घटनाओं को सिलसिला देता है और साहित्य घटनाओं के अन्दर का सत्य बताता है। इतिहास यदि संस्कृति को अंकित करता है तो साहित्य इसे अभिव्यक्ति देता है। वास्तव में साहित्य क्या है? यदि यह एक वृहद् अवधारणा है तो इतिहास इसका एक अंग है, और यदि साहित्य को इतिहास से विभक्त किया जाय तो अनके बीच मे समाज एक सेतु है।
वस्तुतः समाज की सही तस्वीर साहित्य एवं इतिहास दोनों मिलकर तैयार कर सकते हैं। साहित्य और समाज की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया का  उपयोग समीक्षक की  अपेक्षा  इतिहासकार के  लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। किसी भी युग की सांस्कृतिक अन्विति का अध्ययन जाति धर्म, युग धर्म और सामयिक प्रवृत्तियों के समीकृत अध्ययन से हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि साहित्य के सामाजिक मूल्यों के अध्ययन से हम किसी भी साहित्य संपत्ति को सम्पूर्णतः विश्लेषित नहीं कर सकते, परंतु साहित्यिक और सामाजिक आन्दोलनों एवं संस्थाओं के संबंधों के विषय में निश्चय ही हमारे ज्ञान की वृद्धि होती है।

इतिहासकार ट्वायनबी लिखते हैं कि, यदि ‘ईलियड’ को कोई इतिहास के रुप में पढना चाहे तो उसे वह हानियों से भरा मिलेगा और यदि कोई कथा के रुप में पढना आरम्भ करे तो उसमें उसे इतिहास ही इतिहास मिलेगा। सभी इतिहास इस रूप में ‘ईलियड’ के समान ही हैं कि कल्पना के तत्व को वे बिल्कुल निकाल नहीं सकते । तथ्यों का चुनाव, उनका विन्यास और उपस्थान कल्पना साहित्य के क्षेत्र है, और यह लोकमत ठीक है, कि कोई इतिहासकार तब तक महान नहीं हो सकता जब तक महान कलाकार ना हो। एक विशुद्ध इतिहास ग्रंथ भी साहित्य की अमूल्य निधि होता है। ‘मालवा में युगान्तर’ कृति पर स्व. डॉ. रघुवीर सिंह को हिन्दी का प्रसिद्ध मंगलाप्रसाद पारीतोषिक दिया गया था, लार्ड एक्टन की कृति ‘लेक्चर्स आन द फ्रेंच रिवॉल्युशन’, कालॉईल का ‘ऑन हिरोज एण्ड हीरो वर्शिप’, अंग्रेजी साहित्य के भी उतने ही उत्कृष्ट ग्रंथ माने जाते है, जितने इतिहास के।
इतिहास लेखन के लिए सर्वाधिक जरूरी है, उसके स्रोतों का उचित एवं सकारात्मक मनोयोग से अध्ययन करना। यदि वे स्रोत समकालीन साहित्य हों तो यह एक विशिष्ट अध्ययन हो जाएगा। इतिहास लेखन के उद्देश्य से लिखे गए समकालीन ग्रन्थों का विश्लेषण न सिर्फ इतिहास की नई दिशा तय करता है, बल्कि प्रचलित अवधारणाओं का प्रमाणन एवं संशोधन जैसे महत्वपूर्ण कार्य भी सम्पादित करता है। अतः स्थानीय भाषा साहित्य का अध्ययन तत्क्षेत्र संबंधी इतिहास लेखन की प्रथम आवश्यकता होनी चाहिए।
यों तो भारत में इतिहास लेखन की परंपरा काफी पुरानी रही है 1, परंतु जिस इतिहास की वर्तमान में परिभाषा प्रचलित है, जो आधुनिक मानदण्डों के आधार पर है, जिसे पूर्णरूपेण पश्चिम से आयातित अवधारणा भी कह सकते हैं, के अनुसार इतिहास लेखन यहाँ पश्चातकालीन घटना थी। जब मध्यकाल तक आते-आते कुछ स्थानीय भाषाओं का विकास हुआै 2 एवं उन्होनें अपने-अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करना शुरू कर दिया तभी से साहित्य एवं साहित्येतिहास का विकास आरंभ हुआ,  यही सर्वाधिक उचित प्रतीत होता है।
मध्य-पश्चिमी भारत के एक वृहद् क्षेत्र का प्रतिनिधित्व उस समय राजस्थानी भाषा कर रही थी।ै 3 इस या किसी भी छोटे या बड़े क्षेत्र में यह भाषा कब प्रचलित थी, इसका ठीक-ठीक उत्तर तो नहीं दिया जा सकता परंतु इतना अवश्य स्पष्ट है कि इसकी विकास यात्रा की शुरुआत 9 वीं - 10वीं सदी के आसपास हो चुकी थी।ै 4 राजस्थानी भाषा की विकास यात्रा का अध्ययन करने से पता चलता है कि इस साहित्य के विषयवस्तु के केन्द्र में प्रमुखतः ऐतिहासिक पात्र एवं घटनाएं ही रही,  इसलिए साहित्येतिहास की समृद्ध परम्पराै 5 एवं राजस्थानी भाषा की विकास यात्रा को हम दो समलम्ब रेखाओं के चित्र में प्रदर्शित कर सकते हैं। रहा प्रश्न इतिहास से परिचय एवं प्रणयन का तो राजस्थानी साहित्य की एक इतिहास संदर्भित विधा का विकास 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआै 6, जिसे यहाँ के रचनाकारों ने आगे चलकर ‘ख्यात’ नाम दिया। यद्यपि ‘वात’, ‘विगत’, ‘वंशावली’, ‘हाल’, ‘हकीकत’, ‘रासो’, ‘विलास’, ‘प्रकास’, ‘वचनिका’ आदि  विधाएं भी राजस्थानी साहित्य में इतिहास का प्रतिनिधित्व कर रही थी, परन्तु ‘ख्यात’, इतिहास के संदर्भ में इन सबका अधिक परिष्कृत एवं विकसित रूप था।
‘ख्यात’ शब्द मूलतः संस्कृत का शब्द है।ै 7ख्या’ धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जुड़ने से ‘ख्यात’ शब्द बना हैै 8, जिसका अर्थ है भूतकाल की घटनाओं का वर्णन भूतकाल को ज्ञात करना।ै 9 ‘ख्यात’ शब्द का राजस्थानी भाषा में प्रयोग कब एवं किस संदर्भ में शुरु हुआ? क्या गहन व्याकरणात्मक अध्ययन के बाद ही इसे इतिहास के पर्यायवाची के रूप में चुना गया? इन दोनों प्रश्नों के तुष्ट उत्तर देना संभव नहीं परंतु यह तो स्पष्ट है कि, समकालीन ख्यातकारों ने ‘ख्यात’ शब्द का प्रयोग इतिहास के रूप में ही किया था। सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक ख्यातों को प्रकाश में लाने वाले लुईजीपीयो टेस्सीटोरी द्वारा तैयार की गई ग्रन्थों की सूची एवं उनके वर्गीकरण से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि, ख्यात एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। टेस्सीटोरी का सर्वेक्षण न सिर्फ भाषा विज्ञान की दृष्टि से अपितु साहित्य में इतिहास के निर्धारण की दृष्टि से भी श्रेष्ट था।ै 10
ख्यात लेखन का काल –
ख्यात लेखन का आरम्भ कब हुआ? इस संदर्भ में सबसे प्राचीन उल्लेख कवि मुरारी के एक श्लोक में मिलता है, जो कि 8वीं- 9वीं सदी की रचना है, जिसके अनुसार यह चारणों के गीतों के रूप में प्रचलित थे।ै 11 इसका अर्थ यह हुआ कि, ख्यातों का जो स्वरूप अभी देखने में आता है वो आरम्भ से वैसा नहीं था। सम्भवतया यह क्रमिक विकास का ही परिणाम है। परंतु कवि मुरारी के श्लोक से आगे बढ़ते हैं तो यह श्लोक एक अपवाद स्वरूप ही लगता है, क्योंकि आगे एक लम्बे समय तक, लगभग पाँच सौ से भी अधिक वर्षों तक ‘ख्यात’ नाम की रचना न देखने में आती है, न ही कहीं उल्लेख ही मिलता है। यद्यपि पहले ही मात्र श्लोक में ही उल्लेख पर संतुष्ट होना पड़ता है, अन्यत्र कहीं दृष्टांत नहीं होता, तथापि उल्लेख है इसलिए नकारा भी नहीं जा सकता। अतः यही मान लेना उचित होगा कि ख्यात साहित्य का प्रारम्भिक काल 8वीं-9वीं सदी के आसपास रहा होगा और प्रारम्भिक दौर में ये गीतों के रूप में प्रचलित थी।
अब सीधे आते हैं 16वीं सदी के उत्तरार्ध में जहाँ तथाकथित प्रथम ख्यात मिलती है।ै 12 जिनका स्वरूप वंशावली या पीढ़ियावली की तरह था एवं साथ ही कुछ विशिष्ट उपलब्धियाँ एवं अन्य जानकारियाँ दी जाती थी। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं इनका स्वरूप परिष्कृत होता जाता है और वंशावलियों के साथ जुड़ने वाला विवरण विस्तार लेने लगता है एवं ख्यातों का स्वरूप बड़ा होने लगता है। इस दौर में जब ख्यातें पुनर्परिभाषित होने लगीं तब राजस्थानी साहित्य भी अपने विकास के चरम पर था, ख्यात साहित्य भी इस विकास का ही एक हिस्सा था, अतः निश्चित विषयवस्तु के साथ उसके स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होते रहे। गद्य एवं पद्य की विभिन्न विधाओं का उपयोग इतिहास विषयक वृत्तांत के लिए किया जाता और उनका संग्रह ख्यात के रूप में बना दिया जाता, या यों कह सकते हैं कि इतिहास विषयक सामग्री को विभिन्न विधाओं में लिख कर तैयार संग्रह या पोथी का नाम ‘ख्यात’ दे दिया जाता।ै 13आगे चल कर इसकी विषयवस्तु पर फ़ारसी तवारीखों का प्रभाव भी पड़ा और उनकी ही तरह स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में भी इनकी रचना होने लगी।
इस संबंध में एक विचार सर्वाधिक प्रचलित है कि, अकबर के काल में जब उसनें देशी राजाओं से उनके इतिवृत्त मंगवाए तब प्रत्येक राज्य में ख्यातें लिखी गई और तब से ही ख्यातें लिखी जानी शुरू हुई।ै 14 परन्तु इस तथ्य में अधिक सामर्थ्य नजर नहीं आता क्योंकि एक तो उपर दिये हुए विवरण से यह सिद्ध हो जाता है कि, ख्यातों का आरम्भ 8वीं-9वीं सदी के आसपास का है, दूसरा यदि 16वीं सदी की ख्यातों को भी देखें तो उनका विवरण राव जोधा के काल से प्रामाणिकता लिए हुए मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस साहित्य की रचना राव चुण्डा के मण्डोर पर अधिकार और राव जोधा के जोधपुर गढ़ की स्थापना के साथ ही शुरू हो जाती है। अर्थात् 15वीं सदी के मध्य से। अतः संक्षेप में ही क्यों ना हो समकालीन घटनाओं को लिखने की परंपरा मुगल आधिपत्य से पहले ही मारवाड़ में तो अवश्य ही प्रारंभ हो गई होगी, परंतु अकबर के शासनकाल का इतिहास लिखने के लिए जब सन् 1589 ई. में अबुल फज़ल ने साम्राज्य के संबद्ध राजपूत नरेशों आदि से उनके राजघरानों की वंशावलियाँ और राज्यों आदि के ऐतिहासिक इतिवृत्त प्रस्तुत करने की मांग की तब तो अपने राज्यों या राजघरानों के ऐतिहासिक विवरणों की ख्यातें लिखने का क्रम राजस्थान में विकसित होने लगा।ै 15
यह सत्य है कि, एक सदी से भी अधिक समय से ख्यात साहित्य का इतिहास लेखन में प्रयोग हो रहा है, लेकिन आज भी ऐतिहासिकता पर लगे प्रश्नचिन्ह उतने ही गहरे हैं, जितने की आरंभ में थे। इस स्रोत को सदा अप्रामाणिक माना जाता है और प्रयोग के समय विशिष्ट बचाव का सिद्धान्त दिया जाता है। यहां हम ख्यात साहित्य की ऐतिहासिकता का उस पर लगे कुछ आक्षेपों के संदर्भ में विश्लेषण एवं ख्यात साहित्य में इतिहास बोध, इन दो विषयों पर बात करेंगे।

ख्यात साहित्य की ऐतिहासिकता

ख्यात साहित्य की ऐतिहासिकता पर जो प्रमुख आक्षेप लगाए जाते हैं, वे इस प्रकार हैं-

  1. ख्यात साहित्य पर सबसे बड़ा आक्षेप यह लगता है कि, ये राज्याश्रय में रहने वाले चारणों एवं भाटों की रचनाएँ हैं, इसलिए इनमें अतिश्योक्तिपूर्ण वर्णन है, और क्योंकि ये राजाओं को खुश करने के उद्देश्य से लिखी गई इसलिए इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।ै 16

चारण एवं भाट राजदरबार में आश्रित कवि या रचनाकार हुआ करते थे, जिनका प्रमुख कार्य शासक का या उसके वंश का प्रशस्ति गान करना होता था, जो स्वाभाविक रूप से अतिश्योक्तिपूर्ण हुआ करते थे, क्योंकि इसी से खुश होकर राजा उन्हें आजीविका प्रदान किया करते थे। अतः यह सामान्य अवधारणा विकसित हुई कि, चारणों द्वारा रचित रचनाएँ सर्वदा इसी प्रकार की रही है या आश्रय में लिखा गया प्रत्येक साहित्य चारणी साहित्य का हिस्सा है। सामान्य रूप में देखा जाए तो यह अवधारणा उचित ही प्रतीत होती है, क्योंकि वास्तव में राज्य में दरबारी साहित्य के रचनाकार अधिकतर चारण ही होते थे। अब यदि ख्यातें शासकों द्वारा लिखवाई गई तो वो भी एक प्रकार का दरबारी साहित्य ही है।
अब कुछ प्रमुख प्राप्त ख्यातों के आधार पर इस बात को देखते हैं कि इस साहित्य के रचनाकार कौन हुआ करते थे एवं रचना का उद्देश्य क्या हुआ करता था? 

ख्यात का नाम

ख्यातकार

जाति

रचना का उद्देश्य

मुंहता नैणसी री ख्यात

मुंहता नैणसी

जैन

व्यक्तिगत रूचि

जोधपुर राज्य री ख्यात

खिड़िया आईदान

चारण

राज्यादेश

उदयभाण चांपावत री ख्यात

उदयभाण चांपावत

राजपूत

व्यक्तिगत रूचि

मुन्दियाड़ री ख्यात

चैनदान बारहठ

चारण

राज्याश्रय

बांकीदास री ख्यात

बांकीदास आशिया

चारण

व्यक्तिगत रूचि

दयालदास री ख्यात

दयालदास सिंढ़ायच

चारण

राज्यादेश

मारवाड़ री ख्यात

तिलोकचन्द जोशी

ब्राह्मण

व्यक्तिगत रूचि

जैसलमेर री ख्यात

अजीतमल मेहता

जैन

राज्याश्रय

भण्डारियां री पोथी

नरसिंघ दास

भण्डारी

व्यक्तिगत रूचि

जसवंतसिंघ री ख्यात

तिंवरी गांव के पुरोहित

पुरोहित

व्यक्तिगत रूचि

पंचोली सिवकरण लालचंद री बही

पंचोली शिवकरण

पंचोली

व्यक्तिगत रूचि

 

उपरोक्त सूची से यह स्पष्ट हो जाता है कि ख्यात साहित्य के रचनाकार सिर्फ चारण या भाट ही नहीं होते थे अपितु अन्य जाति के विद्वान रचनाकारों ने भी इस साहित्य की रचना की है। अतः रचनाकार के आधार पर लगा आक्षेप अब निराधार नजर आता है। अब रचना के उद्देश्य की चर्चा की जाए। उपरोक्त सूची में हमने इन ख्यातों की रचना का उद्देश्य भी देखा। ख्यातों की रचना मुख्य रूप से या तो रचनाकारों की व्यक्तिगत रूचि पर किये गए सामग्री संकलन के आधार पर हुई या फिर राज्याश्रय में रहकर राज्यादेश से। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि यद्यपि लगभग सभी ख्यातकार किसी न किसी रूप में राज्य या प्रशासन से जुड़े हुए थे लेकिन सभी का उद्देश्य शासक या वंश का गौरव वर्णन करना नहीं था। कुछ रचनाकारों ने व्यक्तिगत रूचि के कारण निजी संग्रह के लिए भी ख्यातों की रचना की थी। मुंहता नैणसी री ख्यात, बांकीदास री ख्यात, मारवाड़ री ख्यात, उदयभाण चांपावत री ख्यात सम्भवतया इसी प्रकार की ख्यातें हैं। दूसरे प्रकार की ख्यातें जो राज्याश्रय मे लिखी गई जिनमें कि संबंधित शासक या वंश का गौरवपूर्ण इतिहास लिखा गया था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ख्यातों की रचना सिर्फ राज्याश्रय में एवं राजाओं को खुश करने के लिए  ही नहीं हुई थी। अब जहाँ तक राज्याश्रय में रचित ख्यातों का प्रश्न है तो उसमें रचनाकारों ने अपने आश्रयदाताओं की मान मर्यादाओं का ध्यान अवश्य रखा और ऐसे तथ्य जो कि उनके मान सम्मान में कमी ला सकते थे, उन्हें छोड़ दिया या उनका स्वरूप बदल दिया। यह स्थिति तो किसी भी काल में हर उस रचनाकार की रही हे, जो आश्रय में रचना कर रहा है। मध्यकाल में वो आश्रय किसी शासाक का हो या आधुनिक काल में किसी सरकार, वर्ग या विचारधारा का। वैसे आश्रय से उत्पन्न पूर्वाग्रह एवं उसका इतिहास लेखन पर प्रभाव हमें वर्तमान तक में भी देखने को मिलता है। जबकि वर्तमान का पूर्वाग्रह ज्यादा हानिकारक है, वो इसलिए कि उसके पीछे नवीन वैज्ञानिक विधियों से रचित तर्कों का मजबूत सहारा होता है एवं वैज्ञानिकता की छाप होती है। अतः पूर्वाग्रह को किसी भी लेखनी से निकाल दिया जाए तो वास्तव में वह असामयिक हो जाएगी और उसमें जिस भी समय का वर्णन हो वह कहेगा कुछ नहीं क्योंकि शब्द भी तभी बोलेंगे जब कोई उन्हें अपनें अनुभवों से सजीव रखेगा। यह तर्क देकर यह बिलकुल नहीं कहा जा रहा है कि ख्यातकारों के पूर्वाग्रह सही थे, लेकिन यह कहने का प्रयास किया जा रहा है कि, उन पूर्वाग्रहों का अध्ययन हमें समकालीन सामाजिक मनोविज्ञान के दर्शन अवश्य करा सकता है, अतः किसी भी स्रोत को नकार देना वास्तव में इतिहास का ही नुकसान करना है।

  1. ख्यात साहित्य पर दूसरा आक्षेप यह है कि ख्यातों में स्रोतों का उल्लेख नहीं है अतः इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

इतिहास लेखन की प्रथम आवश्यकता उसके स्रोत हैं और इतिहास की प्रामाणिकता की प्रथम आवश्यकता उसके स्रोतों का उल्लेख है। काल कोई भी रहा हो स्रोतों का उल्लेख एक महत्वपूर्ण अंग माना जाता रहा है। राजस्थानी साहित्य की इतिहास विषयक रचनाओं पर सदैव ही यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें स्रोतों का उल्लेख नहीं है अतः उनके वर्णन की प्रामाणिकता संदेहास्पद हैं।

ख्यात साहित्य पर भी सर्वदा यह आरोप लगता आ रहा है कि, स्रोतों का उल्लेख नहीं है एवं अधिकांश कल्पनाओं पर ही आधारित है। परन्तु नैणसी के ग्रन्थों में उसने सर्वदा स्रोतों का उल्लेख किया है एवं साथ ही उन पर यदा-कदा अपनी टिप्पणियाँ भी दी है। विद्वानों ने यह तथ्य प्रकाश में आने के बाद इसे अपवाद स्वरूप माना कि इसके अतिरिक्त और कहीं स्रोतों का उल्लेख नहीं है, और यह स्वीकार लिया गया। इसका ख्यातों की ऐतिहासिकता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें वर्तमान की इतिहास लेखन की कसौटी पर कसा गया और इस आधार पर नकार दिया गया।
इस स्थापना की सत्यता को भी जांचना आवश्यक है जिसके आधार पर ख्यातों की ऐतिहासिकता संदिग्ध कर दी गई कि, ख्यातों में स्रोतों का वर्णन नहीं है (नैणसी की ख्यात को अपवाद मान कर)। अभी तक प्राप्त ख्यातों में सम्भवतया सबसे बड़ी ख्यात है- राठौड़ां री ख्यात। यह ख्यात कई प्राचीन ग्रन्थों को आधार बना कर लिखी गई थी। ख्यात के अन्त में दिये गए श्लोक में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि इसके संकलनकर्ता या लेखक को कितना श्रम करना पड़ा एवं कितने ग्रन्थों का अध्ययन किया गया था।ै 17 इसके अलावा भी अन्य ख्यातों में स्रोतों से संबंधित उल्लेख मिलते हैं। उदयभाण चांपावत री ख्यात, मुन्दियाड़ री ख्यात, पंचोली सिवकरण लालचंद री बही, भण्डारियों री पोथी, राठोड़ां री ख्यात आदि में नैणसी की ख्यात की तरह ही कई तरह के उद्धरण, स्रोतों एवं प्रामाणिकता से संबंधित मिल जाएंगे।ै 18 जिस प्रकार वर्तमान में इतिहास के ग्रन्थों में स्रोतों का उल्लेख किया जाता है- पाद टिप्पणियों द्वारा, संदर्भ ग्रन्थ सूची द्वारा उस प्रकार का प्रचलन उस समय बिलकुल भी नहीं था। ऐसे में  यदि यदा-कदा भी टिप्पणी के रूप में  स्रोत से या उसकी प्रामाणिकता से संबंधित तनिक भी उल्लेख प्राप्त होता है तो इससे ग्रन्थ की प्रामाणिकता सिद्ध होने मे सहायता मिलती है और ऐतिहासिकता के प्रश्न पर ख्यातों को मजबूत सहारा मिलता है।

  1. तीसरा आक्षेप यह है कि, ख्यातकारों का ज्ञान अपूर्ण था, उसमें तिथियाँ, नाम, घटनाएँ आदि अधिकांश में गलत है।ै 19

वास्तव में इस अवधारणा की शुरूआत हुई महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचन्द औझा द्वारा जोधपुर राज्य की ख्यात के विषय में व्यक्त किए गए विचारों से, जो उन्होनें जोधपुर का इतिहास भाग प्रथम भूमिका में व्यक्त किए- “लेखक ने विशेष छानबीन किए बिना जन श्रुति के आधार पर बहुत सी बातें लिख डाली है.................राव सीहा की एक रानी पार्वती और उसके बहुत पीछे होने वाले राव रणमल्ल की रानी कोड़मदे तथा जोधा की पुत्री श्रृंगार देवी के नाम तक उसे ज्ञात न थे। जब वास्तविक इतिहास से ही ख्यात लेखक अनभिज्ञ थे तो भला ने सही संवत कहाँ से लाते”।ै 20श्रीयुत् औझा द्वारा व्यक्त विचार तर्कों के साथ उचित ही प्रतीत होते हैं। इन्हीं विचारों के भविष्य में स्थापित तथ्य बना दिया गया और सभी ख्यातों के विषय में लगभग यही धारणा बन गई कि ख्यात लेखक वास्तविक इतिहास से ही अनभिज्ञ थे, तो नाम, तिथियाँ और घटनाएँ भी अधिकांश में गलत ही हैं। वास्तव में यह तथ्य सिर्फ जोधपुर राज्य री ख्यात के संदर्भ में था परन्तु पश्चातकालीन इतिहासकारों ने इसे सम्पूर्ण ख्यात साहित्य पर लागू कर दिया।
अब देखना यह है कि इस तथ्य की प्रासंगिकता कितनी है। सबसे पहले ‘जोधपुर राज्य री ख्यात’ के संदर्भ में ही देखते हैं। श्रीमान् औझा ने स्वयं ही इस ख्यात का कितना उपयोग किया है इसका पता उनके ग्रन्थ की पाद टिप्पणियों से ही चल जाता हैै 21, जो स्वयं ही ख्यात की प्रासंगिकता को सिद्ध करते हैं। यह पहले ही देख चुके हैं कि ख्यात लेखन का कार्य राव जोधा के समय से प्रारम्भ हुआ था, अतः उसके बाद की तिथियाँ एवं घटनाएँ सही हैं एवं इससे पूर्व की सारी तिथियाँ और घटनाएँ जनश्रुति पर आधारित हैं। वास्तव में औझा जी ने जो तर्क दिये हैं वो इसी काल के हैं एवं सम्भवतया इसी काल के लिए भी। राव जोधा के बाद का इतिहास निरंतर प्रामाणिकता लिए हुए है एवं तिथियाँ, नाम और घटनाएँ राव मालदेव के काल से लगभग सभी सही है। इसके अलावा दूसरी ख्यातों में भी यही स्थिति है। ख्यातों के रचनाकाल का समकालीन वर्णन तो पूर्ण प्रामाणिकता लिए हुए है।
जहाँ तक औझा जी द्वारा दिए गए तर्कों का प्रश्न है तो यदि कुछ तिथियाँ या नाम गलत होने से इतिहास की प्रामाणिकता समाप्त हो जाती है तो हम उन इतिहासकार महोदय को क्या कहेंगे जिन्होने जोधाबाई को अकबर की पत्नी बताया जबकि वो जहाँगीर की पत्नी थी।ै 22 यह तो वो विषय है जिस पर अकूत स्रोत उपलब्ध हैं और तब भी थे जब ये गलती हुई, परन्तु इसके लिए इतिहासकार व्यक्ति की इतिहास के प्रति समझ एवं कृतित्व पर संदेह करना अनुचित होगा।
अतः यह तर्क कि ख्यातकारों का ज्ञान अपूर्ण था एवं तिथियाँ और घटनाएँ बहुदा गलत मिलते हैं, का कोई ठोस आधार नहीं है एवं न सिर्फ इस तर्क के आधार पर ख्यातों की ऐतिहासिकता नकारी जा सकती है.

ख्यातों में इतिहास बोध-
ख्यात लेखन का आरम्भ हमने 15वीं सदी तय किया था, एवं इसका प्रचलन 19वीं सदी तक रहा। इसका प्रसार क्षेत्र अपने पूर्ण वैभव के समय में मारवाड़ एवं बीकानेर राज्य (राठौड़ राज्य) रहे एवं अन्त तक यह कई राज्यों तक फैल गई यथा – जैसलमेर, उदयपुर, जयपुर। अतः हमें 15 वीं से 19 सदी के काल में इतिहास बोध को देखना होगा, और साथ ही यह कि उस बोध या समझ का ख्यातों में कितना प्रभाव देखने को मिलता है।

  1. विषयवस्तु-

इस निश्चित काल में इतिहासोल्लेख के राजस्थानी ग्रंथों मे अचलदास खीची री वचनिका, कान्हड़दे प्रबंध, दलपत विलास, छन्द राऊ जैतसी रऊ बिठू सुजई राउ कहियउ, पृथ्वीराज रासो प्रमुख हैं। यह सभी संभवतः ख्यात साहित्य के प्रारम्भिक एवं उससे कुछ पूर्व काल के हैं। इनकी विषयवस्तु मुख्य रुप से किसी व्यक्ति विशेष की जीवनी या उसकी कोई घटना विशेष थी। वह व्यक्ति प्रायः ही कोई शासक (छोटे या बड़े राज्य का) था, लगभग सभी में ही उसकी उपलब्धियों के वृत्तान्त सत्य को तथ्य में निरुपित किया गया। यह वह समय था जब  भारत में मुस्लिम शासकों का वर्चस्व बढ रहा था एवं उनकी संस्कृति का प्रभाव भी। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही तुर्क अपने साथ अपनी इतिहास लेखन परम्परा भी लेकर आए। इतिहास लेखन की विधाओं – फारसी विधा व अरबी विधा में से तुर्को ने फारसी विधा को अपनाया, जिसमें इतिहास सुल्तान, उसके दरबार व उसके अमीर वर्ग के इर्द – गिर्द घूमता है। एक शासक के आसपास ही घूमने वाले उल्लेख की दृष्टि से उपरोक्त साहित्य एवं फारसी लेखन में समानता दिखाई पड़ती है। सम्भवतः तत्कालीन इतिहास बोध की कड़ी यही थी। वे लोग इतिहास का अर्थ शासक विशेष के विभिन्न कार्यों या शासक के आसपास घटित घटनाओं से लगाते थे।
अब संदर्भ ख्यातों का लेते है। ख्यातों का प्रारम्भिक स्वरूप वंशावली का था। तत्पश्चात् विगत हकीकत के रूप में विकसित होते हुए पूर्ण रूप से ख्यात का रूप लिया। आज जो ख्यातें मिलती है, अधिकांश प्राचीन की प्रतिलिपि है और हमने पहले देखा था कि जोधपुर की स्थापना के समय से ही इतिवृत्त लिखने की परम्परा यहाँ थी चाहे वो किसी भी रूप में रही हो। ख्यातों की विषय वस्तु भी प्रायः राजवंश के इर्द–गिर्द की घूमती है। शासक या राजवंश का यथासंभव सांगोपाग अभिलेख ख्यातों में प्राप्त होता है। ‘नैणसी री ख्यात’ राजपुताना के विभिन्न राजवंशो का इतिवृत्त है, ‘उदयभाण चांपावत री ख्यात’, राठौड़ शासकों एवं उनसे निकली शाखाओं का विवरणात्मक अभिलेख है। ‘मुन्दियाड़ री ख्यात’ मारवाड़ के राठौड़ शासकों का इतिहास है। ‘मारवाड़ री ख्यात’ महाराजा रामसिंह से महाराजा मानसिंह तक का इतिवृत्त है। ‘दयालदास री ख्यात’ – बीकानेर राज्य का 18 वीं सदी तक का सम्पूर्ण इतिहास है। ‘जोधपुर राज्य री ख्यात’ प्रारम्भ से लेकर महाराजा मानसिंह तक का मारवाड़ राज्य का इतिहास है। इस तरह सभी ख्यातें शासकों के इर्द–गिर्द ही घूमती है। विभिन्न ठिकानों की ख्यातें भी मिलती है। ये ख्यात का  अन्तिम सोपान था। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शासक के आसपास घटित घटनाओं एवं उनके वंश से संबंधित जानकारी को उस काल में इतिहास समझा जाता होगा। इसमें राज्य प्रशासन, शासक की राजनीतिक, उपलब्धियाँ, प्रतिपादित जनहित के कार्य, सांस्कृतिक योगदान, आर्थिक स्थिति, आदि सभी सम्मिलित होते थे, परंतु इन सब का संदर्भ केन्द्र शासक वर्ग ही रहता था।

  1. इतिहास दृष्टि एवं इतिहास लेखन-

दूसरा बिन्दु यह है कि, इतिहास दृष्टि एवं इतिहास लेखन में क्या भेद था। यह इस संदर्भ में कि व्यक्ति के विचार उसकी निजी एवं स्वतंत्र सम्पत्ति होती है, जबकि उनका लेखन या उनकी अभिव्यक्ति उन विचारों को अस्तित्व प्रदान कर उसे भौतिक रूप में परिणत करती है, जो सम्भवतया निजी एवं स्वतंत्र नहीं होते क्योंकि उसे विभिन्न प्रकार के अवयव प्रभावित करते  हैं। आत्म-चिन्तन से लेकर अभिव्यक्त-चिन्तन तक का विचार का सफर बहुधा ही उसका स्वरूप बदल देता है। क्योकि आत्म-चिन्तन सर्वदा बाह्य भौतिक परतंत्रता से मुक्त होता है, उसका कोई भौतिक स्वरूप भी नहीं होता, लेकिन वास्तव में किसी विषय की मीमांसा का वह आधार होता है, इसलिए महत्ता स्वीकृत है। ख्यातकारों का व्यक्तिगत दर्शन क्या रहा, यह या तो उनके व्यक्तित्व का अध्ययन कर पता चल सकता है या फिर कृति का अध्ययन कर।
‘नैणसी री ख्यात’ एवं ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ दोनों ही ग्रंथों का अध्ययन कर उपरोक्त आधार पर रखी गई समस्या का हल हो सकता है। क्योकि ख्यात का संकलन नैसणी ने किया था उसका लेखन नहीं जबकि विगत का लेखन उसने किया था। ख्यात नैणसी का सम्भवतः आत्म-चिन्तन था क्योंकि उस चिन्तन को भौतिक स्वरूप देने से पूर्व ही उसने स्वयं को समाप्त कर लिया था और विगत उसके चिन्तन की अभिव्यक्ति का पूर्ण भौतिक रूप था। अतः कृति के आधार पर इन दो अवधारणाओं के मध्य संघर्ष को समझा जा सकता हैं। ख्यात का नैणसी संकलन ही कर पाया था, उस सामग्री का सम्पादन वह नहीं कर सका इसलिए वह यथावत ही रही, परंतु विगत में उसने उस सामाग्री का प्रयोग सम्भवतः किया होगा। यद्यपि चुण्डा के पूर्व का विवरण ख्यात एवं विगत दोनों में ही अप्रामाणिक है परंतु जैसे सेतराम से संबधित बात का विवरण ख्यात में हैै 23ेकिन विगत में नहीं। इससे हम यह अवश्य मान सकते हैं कि नैणसी ने इस बात को उतना ऐतिहासिक एवं आवश्यक नहीं समझा होगा।
एक अन्य उदाहरण लेते हैं मालदेव के समय हुए सुमेलगिरी के युद्ध का । ख्यात में इसका विगत की अपेक्षा विस्तार से वर्णन मिलता है। विगत में अति संक्षिप्त में यह वर्णन समाप्त कर दिया गया, जबकि ख्यात में कुछ अधिक विस्तार से हैं। इस प्रकार पुनः दोनों कृतियों में भिन्नता देखने में आ रही है। अब दूसरी अन्य कृतियों पर भी विचार करें, ‘मुन्दियाड़ री ख्यात’ में राजपूत शासकों के मुस्लिम शासकों से विवाह से संबंधित बात को छिपाने की चेष्टा नहीं की गई है, इस ख्यात से यह भी सिद्ध होता है कि मुस्लिम विवाह अकबर से पूर्व भी प्रचलित थे। परंतु ‘दयालदास री ख्यात’ में इस प्रकार के विवरण को स्थान नहीं मिला है। ऐसा नहीं है कि ख्यातकार को इसका ज्ञान नहीं था। आत्म-चिन्तन का अभौतिक रूप एवं अभिव्यक्त-चिन्तन का भौतिक रूप यहाँ इन दोनों के ही उदाहरण है। इस प्रकार इन कुछेक उदाहरणों से हमने यह समझने का प्रयास किया कि इतिहास दृष्टि एवं इतिहास लेखन में भी अन्तर पाया जाता है, जो तत्कालीन इतिहास लेखन की प्रवृतियों के एक पहलू को स्पष्ट उजागर करता है।

  1. उद्देश्य-

तीसरा बिन्दु ख्यात लेखन के उद्देश्य से संबंधित है। इन रचनाओं की रचना का हेतु क्या था? इस तथ्य से संबंधित वर्णन हमने पूर्व में भी देखा था, कि दो प्रकार के कारण रहे। एक व्यक्तिगत रूचि के कारण उत्पन्न जिज्ञासा को शान्त करने हेतु संदर्भित सूचनाओं का संकलन एवं दूसरा शासक वर्ग द्वारा दिये आदेश की पूर्ति। दोनों में समान यह था कि सामग्री अतीत से संबंधित हुआ करती थी। जो स्पष्टतः इतिहास का प्रमाण थी। दूसरे बिन्दु में हमने देखा था कि इतिहास (विचार) एवं लेखन दो भिन्न अवधारणा है, जो या तो विषय को विस्तार देकर परिष्कृत बनाती है या फिर विषय की आदर्श स्थिति में क्षेपक का कार्य करती है। यहाँ सन्तुलन, उद्देश्य से संबंधित अवधारणा स्थापित करती है। हेतु जितना प्रचलन के अधिक निकट होगा उतना ही विडम्बनाओं को स्वयं से दूर करेगा। तत्कालीन प्रचलित अवधारणा (इतिहास के बारे में) का हमने सूक्ष्म अध्ययन किया। क्या ख्यातकारों का उद्देश्य इस प्रचलन के अनुसार ही था? सम्भवतः हाँ क्योंकि न्यूनाधिक परिवर्तन के बाद समकालीन रचनाएँ (ऐतिहासिक) समान रूप में परिलक्षित होती है।

  1. स्रोत एवं उनकी व्याख्या-

ख्यातों में इतिहास बोध का अंतिम बिन्दु उसकी विषयवस्तु के विभिन्न तत्त्वों से संबंधित है। यथा – स्रोतों प्रयोग, उनका उल्लेख, अतीत का वर्णन (किस संदर्भ में – राजनीतिक, सामाजिक आदि) एवं व्याख्या। ख्यातों की रचना का आधार सर्वदा – प्राचीन बहियां, पट्टे परवाने ताम्रपत्र, विभिन्न कवियों आदि की रचनाएँ जनश्रुति एवं याददाश्त रहे। तब पुरातात्विक सामग्री का उपयोग इतिहास लेखन में सम्भवतः इस क्षेत्र में देखने में नहीं आता। अतः उपलब्ध स्रोत ये ही थे, और इन्हीं के आधार पर ख्यातों में संबंधित विषय का वर्णन किया जाता था। इन स्रोतों का कई जगह यथावत प्रयोग भी कर लिया जाता था। सम्भवतः कुछ की जाँच भी की जाती थी, लेकिन अधिकांश ख्यातों में यदि स्रोतों का विश्लेषण हुआ है तो कई जगह यथावत्  ही है। इसका एक कारण यह भी रहा होगा कि रचनाकारों के पास अन्य विकल्प नहीं था, अतः विकल्प के अभाव में परीक्षण की या तो तकनीक ही विकसित नहीं हो पाई थी या फिर आवश्यकता हीं नहीं समझी गई।

 कुछ ख्यातों में रचनाकारों ने स्वयं को तटस्थ करते हुए विभिन्न टिप्पणियां की हैं, जिनसे यह तो पता चलता है कि परीक्षण की अवधारणा जरूर थी। अतीत का वर्णन प्रमुखतः राजनीतिक संदर्भ ही हुआ करता था, परंतु शासक वर्ग के आस पास के दूसरे अन्य पहलुओं सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक आदि की भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से तस्वीर ख्यातों में है, जिसका आगे अध्यायों मे स्पष्ट उल्लेख किया जाएगा। अंतिम बात आती है व्याख्या की, रचनाकारों ने विभिन्न तथ्यों को लगभग एक मर्यादित शैली में विवेचित किया है। सर्वदा शासक वर्ग की तरफ खड़े रहकर सभी घटनाओं को देखा जाता था, लेकिन जहाँ व्यक्तिगत रूचि से उत्पन्न रचना है, वहाँ तटस्थता का भाव भी देखने में मिलता है। ‘नैणसी री ख्यात’, ‘मारवाड़ री ख्यात’, ‘बांकीदास री ख्यात’ इसी प्रकार की ख्यातें हैं। जहाँ व्याख्या व्यक्तिगत दर्शन के आधार पर प्रायः स्वतंत्र रहकर की गई। जोधपुर राज्य री  ख्यात. ‘दयालदास री ख्यात’, ऐसी ख्यातें हैं, जो शासक वर्ग की और बैठकर लिखी गई। परंतु इसमें वो बात नहीं देखने को मिलती जो अबुल फजल के अकबर नामा में थी कि प्रत्येक पृष्ठ को अंतिम रूप देने से पूर्व वह अकबर की उस वर्णन पर स्वीकृति लेता था। ऐसा उक्त ख्यातों के सन्दर्भ में नहीं था। इन ख्यातकारों ने अपने राजवंश की मर्यादा का पूरा ध्यान रखा लेकिन इतिहास की मर्यादाओं की भी बनाए रखा या यह कह सकते हैं कि संतुलन स्थापित किया, यद्यपि इसमें कई तथ्यों को छुपाया गया या नजर अन्दाज कर दिया गया लेकिन फिर भी इतिहास के लिए नेष्ठ सामग्री तो उत्पादित नहीं की थी।

शायद यह समय की ही विडम्बना है कि आज हम तय कर रहे हैं, कि ख्यात इतिहास है या साहित्य। तत्कालीन रचनाकारों ने तो इन्हें इतिहास के उद्देश्य से ही निरुपित किया था, क्योकि यदि साहित्य की ही रचना करनी होती तो उसके लिए पद्य की अनेकानेक श्रेष्ठ विधाएँ उपलब्ध थी। जो वर्णन को और अधिक रोचक बना सकती थी, उसे अलंकृत अधिकाधिक रूप में भी किया जा सकता था, परंतु वास्तव में यह ध्येय नहीं था। अब यदि वर्तमान में इतिहास लेखन के मायने अधिक विकसित हो गए एवं बदल गए हैं तो  इसमें तत्कालीन इतिहासकारों का कोई दोष नहीं, यह भी पूरी तरह संभव है कि आज से कुछ सदियों बाद इतिहास विषय अधिक विकसित  होगा और उसके मायने भी बदलेंगे, तो आज के लिखे इतिहास पर तब भी सम्भवतया यही प्रतिक्रिया हो सकती है, जो आज हम ख्यातों के विषय में कर रहे हैं। वस्तुतः एक समग्र एवं सकारात्मक दृष्टि का अवलंबन आवश्यक है, इसके अनुसार हम ख्यातों को तत्कालीन लिखित इतिहास एवं वर्तमान में समकालीन इतिहास की आधार सामग्री मान सकते है। अब यदि कोई इतिहास का शोधार्थी है तो उसके लिए ख्यातें इतिहास होंगी और साहित्य का अध्येता हैं तो वे साहित्येतिहास होगी।

संदर्भ

1. जैन आगमों में प्राचीन भारत के ऐतिहासिक धार्मिक ग्रन्थों में से महाभारत को इतिहास पंचमाण कहा गया है।– अगरचन्द नाहटा, राजस्थानी ऐतिहासिक बातों व ख्यातों की परम्परा, परम्परा, अंक- 11, पृष्ठ- 117.

2. सीताराम लालस, राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, पृष्ठ-6-7; हिरालाल माहेश्वरी, हिस्ट्री ऑफ राजस्थानी लिट्रेचर, पृष्ठ- 3-4

3. हिरालाल माहेश्वरी, हिस्ट्री ऑफ राजस्थानी लिट्रेचर, पृष्ठ- 3-4; लु.पि.टेस्सीटोरी, पुरानी राजस्थानी (अनुवाद- नामवर सिंह), पृष्ट- 34

4. राजस्थानी का प्राचीन नाम मरू भाषा है। सर्वप्रथम मरूभाषा का नाम हमें मारवाड़ राज्य के जालौर ग्राम में रचे गए जैन मुनी उद्योतन सूरी के प्रसिद्ध ग्रन्थ कुवलयमाला में मिलता है। इस ग्रन्थ की रचना वि.स. 835 में हुई थी। इसमें तत्कालीन 18 भाषाओं का उल्लेख है जिसमें मरूभाषा का नाम भी है। - सीताराम लालस, राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, पृष्ठ-9, 87-91.

5. सर जार्ज ग्रियर्सन, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, खण्ड-4, भाग-2, पृष्ट-4.

6. डॉ. घनश्याम देवड़ा, परम्परा, अंक 74-75, पृष्ठ- 13; डॉ. दशरथ शर्मा, दयालदास की ख्यात, पृष्ट-4.

7. सीताराम लालस, राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, पृष्ठ- 1

8. वामन शिवराम आप्टे, संस्कृत हिन्दी कोश, पृष्ट- 327

9. सीताराम लालस, राजस्थानी सबद कोस, प्रथम खण्ड, पृष्ठ- 831

10. टेस्सीटोरी ग्रन्थ सर्वेक्षण, परम्परा, अंक 28-29, पृष्ट- 14

11. अगरचन्द नाहटा, राजस्थानी ऐतिहासिक बातों व ख्यातों की परम्परा, परम्परा, अंक- 11, पृष्ठ- 116; डॉ. घनश्याम देवड़ा, परम्परा, अंक 74-75, पृष्ठ- 13

12. डॉं. दशरथ शर्मा, दयालदास की ख्यात, पृष्ट- 4; डॉ. शिवस्वरूप शर्मा, राजस्थानी गद्य साहित्य उद्भव एवं विकास, पृष्ट- 75.

13. कविराजा संग्रह में प्राप्त ग्रन्थांक 78 भण्डारियां री पोथी एक ख्यात ही है। उसी में पत्र क्रमांक 72(क) पर लिखा है कि ‘संवत 1719 आ ख्यात नरसिंघदास दीवाण रे पोथी में लिखाणी अचलदासजी रा दादा रे’ इसी प्रकार ग्रन्थांक 6 पंचोली शिवकरण लालचंद री बही में लिखा है ‘ख्यात री नकल सिवकरण लालचंदजी री बही जूनी थी तिणसु उतराई संवत 1871 रा

14. डॉं. दशरथ शर्मा, दयालदास की ख्यात, पृष्ट- 4; डॉ. जे.के. जैन, ख्यात देश दर्पण, सम्पादकीय; डॉ. राम कुमार गरवा, राजस्थानी गद्य शैली का विकास, पृष्ट- 97.

15. डॉ. रघुवीर सिंह, वीर विनोद, भुमिका

16. डॉ. राम कुमार गरवा, राजस्थानी गद्य शैली का विकास, पृष्ट- 97; डॉ. टी.के. माथुर, परम्परा, अंक 110-111, पृष्ट-66-67; डॉ. घनश्याम दत्त शर्मा, दि सोर्स ऑफ सोशियल एण्ड इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ राजस्थान, पृष्ट- 74.

17. जोधपुर राज्य री ख्यात, भूमिका, पृष्ट-14; महाराजा मानसिंघ री ख्यात, पृष्ट- 240.

18. जोधपुर राज्य री ख्यात, पृष्ट- 71; बांकीदास री ख्यात, पृष्ट- 121,164,167; जसवंत सिंघ री ख्यात, पृष्ट- 72-73; मुन्दियाड़ री ख्यात, पृष्ट- 6; भण्डारियां री पोथी पत्र- 7(क), 8(क), 36(ख) ; उदयभाण चांपावत री ख्यात(कविराजा संग्रह ग्रन्थांक-76), पृष्ट- 25(क).

19. डॉ. टी.के. माथुर, परम्परा, अंक 110-111, पृष्ट-66-67

20. गौरी शंकर हिराचन्द औझा, जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृष्ट- 5

21. औझा जी के जोधपुर राज्य के इतिहास प्रथम भाग के पृष्ट 234-280 के बीच जोधपुर राज्य री ख्यात के 39 सन्दर्भों में से 29 सन्दर्भ स्वीकार किए हैं एवं बाकी 10 सन्दर्भ या तो तर्कों द्वारा नकार दिये या फिर संदिग्ध मान कर विचाराधीन छोड़ दिये।

22. वी.एस. भार्गव, मारवाड़ के मुगलों से संबंध, पृष्ट- 41-42 (पाद टिप्पणी)

23. मुंहता नैणसी री ख्या, भाग- 3, पृष्ट-193-204

संदर्भ साहित्य
संपादित ग्रन्थ-

  1. जसवंत सिंघ री ख्यात, रावत सारस्वत, राजस्थान विश्वविद्यालय अध्ययन केन्द्र, जयपुर, 1987.
  2. जैसलमेर री ख्यात,डॉ.नारायण सिंह भाटी, राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, 1981.
  3. जोधपुर राज्य री ख्यात, डॉ. रघुवीर सिंह, डॉ. मनोहर सिंह राणावत, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, 1988.
  4. दयालदास कृत दयालदास री ख्यात, डॉ. दशरथ शर्मा, शार्दुल रिसर्च इंस्टिट्यूट, बीकानेर, 1948.
  5. बांकीदास री ख्यात, नरोत्तमदास स्वामी, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1989.
  6. महाराजा मानसिंघ री ख्यात, डॉ. नारायण सिंह भाटी, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1979.
  7. मारवाड़ री ख्यात, डॉ. हुकम सिंह भाटी, राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, 2000.
  8. मुंहता नैणसी कृत मुंहता नैणसी री ख्यात (भाग- 1,2,3), आचार्य बद्रीप्रसाद साकरिया, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर,1984,1962,1993 क्रमशः.
  9. राठौड़ां री ख्यात, कैलाश दान उज्जवल, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1999.
  10. दयालदास कृत ख्यात देश दर्पण, गिरजा शंकर शर्मा, राज्य अभिलेखागार, बीकानेर,1989
  11. मुंहता नैणसी कृत मारवाड़ रा परगना री विगत (भाग- 1,2,3), डॉ. नारायण सिंह भाटी, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1960,1962,1964 क्रमशः.
  12. श्यामलदास दधवाड़िया कृत वीर विनोद, डॉ. रघुवीर सिंह, मनोहर सिंह, शिवदत्त दान, मयंक प्रकाशन, जयपुर, 1986.

अप्रकाशित ग्रन्थ-

  1. उदयभाण चांपावत री ख्यात, श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ, कविराजा संग्रह, ग्रन्थांक- 216 (डॉं. रघुवीर सिंह द्वारा संपादित टंकित प्रति).
  2. पंचोली सिवकरण लालचंद री बही, श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ, कविराजा संग्रह, ग्रन्थांक- 6.
  3. भण्डारियां री पोथी, श्री नटनागर शोध संस्थान, सीतामऊ, कविराजा संग्रह, ग्रन्थांक- 139.
  4. मुन्दियाड़ री ख्यात, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर में संग्रहित हस्तलिखित पाण्डुलिपि.

अन्य-

  1. आप्टे वामन शिवराम, संस्कृत-हिन्दी कोश
  2. औझा गौरीशंकर हिराचंद जोधपुर राज्य का इतिहास (भाग-1,2), , जोधपुर, 1938,1941.
  3. गरवा रामकुमार, राजस्थानी गद्य शैली का विकास, जयपुर, 1976.
  4. गोयल प्रीति प्रभा, संस्कृत व्याकरण, जोधपुर, 2002.
  5. ग्रियर्सन सर जार्ज, लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया, कलकत्ता.
  6. जिज्ञासु मोहन लाल, चारण साहित्य का इतिहास (भाग-1), जोधपुर, 1968.
  7. टेस्सीटोरी लुईजीपीओ, पुरानी राजस्थानी (अनुवाद- डॉ. नामवर सिंह), काशी, 1955.
  8. ट्वायनबी अर्नाल्ड जे, इतिहास एक अध्ययन, लखनऊ.
  9. भाटी डॉ. हुकम सिंह, संस्कृत व राजस्थानी ऐतिहासिक कृतियों का विवेचन, उदयपुर, 1998.
  10. भाटी डॉ. नारायण सिंह, सोर्स ऑफ सोशियो इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ राजस्थान एण्ड मालवा, जोधपुर.
  11. भाटी डॉ. हुकम सिंह, राजस्थान के इतिहासकार, उदयपुर, 1998.
  12. भार्गव वी.एस., मारवाड़ मुगल संबंध, जयपुर, 1973.
  13. माहेश्वरी हिरालाल, हिस्ट्री ऑफ राजस्थानी लिट्रेचर, दिल्ली, 1980.
  14. राणावत मनोहर सिंह एवं शिवदत्त दान, राजस्थानी ऐतिहासिक ग्रन्थों का विवरणात्मक सूची पत्र, सीतामऊ, 1991.
  15. राणावत मनोहर सिंह, इतिहासकार मुहणोत नैणसी एवं उसके इतिहास ग्रन्थ, जोधपुर, 1983.
  16. लालस सिताराम, राजस्थानी सबद कोस, जोधपुर.
  17. शर्मा घनश्याम दत्त, दि सोर्स ऑफ सोशल एण्ड इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ राजस्थान, जयपुर.
  18. शर्मा शिवस्वरूप, राजस्थानी गद्य साहित्य-उद्भव एवं विकास, बीकानेर, 1961.

डॉ. विक्रम सिंह अमरावत
सहायक प्राध्यापक, इतिहास
म.दे.ग्राम सेवा महाविद्यालय  
गूजरात विद्यापीठ, सादरा

vsamarawat@gmail.com
Mobile- 91-8128293711

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