मानस का वैश्विक परिप्रेक्ष्य
आज विश्व के लिए तुलसीदास जी की रचनाओं में सबसे शाश्वत और अमूल्य मणि है रामचरितमानस । साहित्य-सौष्ठव के कारण सभी प्रतिष्ठित भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है । मात्र भारतीय विद्वानों ने ही नहीं बल्कि पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस ग्रंथ को विश्व के श्रेष्ठ काव्य की संज्ञा से अभिहित किया है । ‘एच. एच. विल्सन’ मानस के प्रथम पाश्चात्य समीक्षक हैं । तुलसीदास जी के ‘मानस’ में आधुनिक युग से गहरा संबंध है । आज चारों तरफ योग, मनोविज्ञान, पर्यावरण, नारी सम्मान, एक वैश्विक परिवार और वैश्विक त्यौहारों की बोलबाला है, जो हमारे साहित्यिक ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में पहले से ही मौजूद है । तुलसीदास जी ने मानस में राष्ट्रीय बीज का बपन किया, जो वट-वृक्ष के रूप में विशाल रूप धारण कर चुका है । वह भारतीय ही नहीं सारे विश्व के लोगों के लिए यह एक सशक्त सामाजिक चिन्तनधारा प्रस्तुत करता है । सामाजिक चिन्तन के साथ वैश्विक परिप्रेक्ष्य को भी तुलसीदास जी ने सामने रखा है । इन पर नजर करें –
योग : वैश्विक स्तर पर :
आज समूचे विश्व में ‘योग’ शब्द बहुत प्रचलित है, योग का अर्थ है जोड़ना, पूरे विश्व को जोड़ना । ध्यान हमें जोड़ता है, अधिक प्रेममय बनाता है, शांत बनाता है और सभी कार्य कि सफलता का कारण भी योग को ही माना जाता है । श्रीमद्भागवतगीता में श्रीकृष्ण ने “योगः कर्मसु ‘कौशलम्’”1 अर्थात् कर्मो में कुशलता को ही योग कहा है । महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग बताये है – “यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।”2 योग में ध्यान को सब प्रकार की सफलता का अनिवार्य अंग माना गया है । तुलसीदास जी ने ‘मानस’ में ध्यान को ही अधिक महत्व दिया है । उदाहरण के तोर पर –
जो तम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ।।
तब संकर देखेउ धर ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना ।। (बाल, दो-55/2, पृ. 56)
शिवजीने सती को श्रीरामजी की परीक्षा के लिए मना किया फिर भी सती ने परीक्षा ली । इसी समय शिवजी को बहुत दुःख हुआ, बाद में जब शिवजीने पार्वती से पूछा आपने क्या परीक्षा की, तब सती ने बताया मैंने तो मात्र प्रणाम हि किया तब शिवजीने उत्तर दिया, आपने जो कहा वह जूठ नहीं हो सकता, मेरे मनमें यह पूरा विश्वास है । शिवजीने ध्यान करके देखा और सतीजीने जो चरित्र किया था सब जान लिए । इस आधार पर जान सकते है कि सफलता पूर्वक कार्य करने में ध्यान का कितना महत्व है ।
वैश्विक स्तर पर देखा जाय तो बातो बातो में लोग योग कि ही बातें करते हैं और कहते है – “योग करो योगी बनों अन्यथा रोगी बनोगे ।” प्राचीन काल में केवल ऋषि-मुनि ही योग के बारे में जानते थे, आज समूचे विश्व में प्रचलित है ।
मनोविज्ञान : वैश्विक स्तर पर :
पृथ्वी पर जब से मानव की उत्पत्ति हुई होगी संभवतः तभी से मनोविज्ञान का प्रारंभ हुआ होगा । आज मनोविज्ञान विश्व में प्रचलित हो चुका है । फ्रायड इस के प्रणेता बने है । कालनिक ने बताया है कि – “मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है ।”3 सामान्यतः मन का विज्ञान अर्थात् अतःकरण की गहराइयों का विज्ञान ही मनोविज्ञान है । तुलसीदास जी ने मानस में अपने ही मन की बात बतायी है –
निज कबित केहि लाग न नीका ।
सरस होउ अथवा अति फीका ।। (बाल, दो-7/6, पृ. 12)
यहाँ तुलसीदास जी ने सब से बडी मन की बात कही है यह आज के फ्रायड का मनोविज्ञान है जो विश्व प्रसिद्ध है । इसी प्रकार संपूर्ण मानस मनोमंथनो से भरपूर भरा हुआ है ।
पर्यावरण : वैश्विक स्तर पर :
आज समूचे विश्व में प्रकृति का दोहन हो रहा है, जिसके कारण हमारे भविष्य के साथ भावी पीढ़ी का भविष्य भी खतरे में है । आज का सम्पन्न समाज यह भूल गया है कि मानव जाति का संपूर्ण विकास प्रकृति की गोद में ही होता है । वह हमें जीवन व्यवहार की हर चीज देती है । रहने के लिए धरा-धाम, स्वास्थ्य के हेतु हरित खाद्यान्न, पहनने को वस्त्र तो जीवनरूपी वृक्ष सींचने हेतु जल तथा प्राणों की रक्षा के लिए शुद्ध वायु । इतना ही नहीं आनंदानुभूति के लिए वन, पर्वत, नदी, समुद्र, झरने आदि अपरिमित साधन प्रकृति ही तो देती है । तुलसी के प्रकृति के माध्यम से ही तो किसी भी व्यक्ति को नाना प्रकार के नवद्रुमीं, फलों और पुष्पों सहित वृक्षों का मुस्कराना, पवित्र जल युक्त नदियों का बहना, पशु-भ्रमरों का आपसी वैर भाव छोड़कर प्रफुल्लित रहना, जन समाज को खुश करने के लक्षण जान पड़ते है, तुलसीदास जी के शब्दों में –
सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति ।
प्रगटी सुन्दर मैल पर मनि आकर बहु भाँति ।। (बाल, दो-65, पृ. 60)
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं । खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं ।।
सहज बचरू सब जीवन्ह त्यागा । गिरि पर सफल करहिं अनुरागा ।। (बाल, दो-65, चौ. 1, पृ. 65)
‘मानस’ में पर्यावरण चिन्त विश्व स्तर पर संपूर्ण रूप से प्रदूषण से बचने का उत्तम प्रयत्न तुलसीदासने किया है । आज यह विश्व प्रसिद्ध बचचुका है ।
नारी : वैश्विक स्तर पर :
भरतमुनि ने कहा है – ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।’4 अर्थात् जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता बिराजते हैं । गृहस्थ धर्म में नारी की ही प्रधानता है । तुलसी ने नारी को पुरूष से ज्यादा महत्व दिया है । जब राम को वनवास होता है और उसकी सूचना राम कौशल्या को देते हैं तब उनका मातृत्व हृदय द्रवित हो जाता है और वे कहती है –
जौं केवल पितु आयसु ताता । तौ जानि जाहु जानि बड़ि माता ।
जो पितु मातु कहेउ बन जाना । तौ कानन सत अवध समाना ।। (अयोध्या, दो-55/1, पृ. 351)
प्राचीन युग में नारी का सम्मान था आधुनिक युग में तो कहीं भी एसी जगह नहीं है, जहाँ नारी का सम्मान न हो । आज विश्व के कोने कोने में नारी का सम्मान होता है ।
विश्व एक परिवार :
‘मानस’ में व्यक्ति से शुरू कर के परिवार, जाति, समाज और राष्ट्रीय की निर्माण करते हुए ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना को सार्थक बनती है । तुलसी की वाणी विश्व वाणी है । किन्तु उनका संदेश देश काल का अतिक्रमण करते हुए समूचे विश्व के लिए अनुकरणीय बन गया है । राम के जीवन का आदर्श वैमनस्य को मिटाकर मानव-मानव में प्रेम और बंधुत्व का संबंध स्थापित कर सकता है । तुलसी की दृष्टि में समस्त विश्व सत्ता और राम के रूप में समाया हुआ है –
सियाराम मय सब जग जानी ।
करुऊँ प्रनाम जोरि जगु पानी ।। (बाल, दो-7/1, पृ. ......)
तुलसी के राष्ट्रीय विचार करें तो निश्चय ही मानस विश्व साहित्य के आदर्श प्रमाणित होंगे । आज विश्व के समग्र परिवार में एक रूप होने की भावना विकसित हो चुकि है ।
निष्कर्षतः ‘मानस’ में जितने भी प्रसंग जुड़े हुए हैं वे स्पष्ट संकेत करते हैं कि मानस का उत्तम वैश्विक रूप मात्र भारत में ही फैला हुआ नहीं है बल्कि संपूर्ण विश्व में अति प्रखरता से व्याप्त है और योग्य मार्गदर्शन देकर श्रेष्ठ कार्य करने की प्रेरणा विश्व समाज को दे रहा है ।
संदर्भसूचि
प्रफुल्ला एम. पटेल, नानी ओजर, -पोस्ट - नानी ओजर, पीपला फलय़ा, दूघ डरी प।से, ता. जी. – वलसाड- 396055