समाजशास्त्र और साहित्य का समाजशास्त्र
आदिकाल में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समूह में रहता था, उसके आपसी व्यावहार एवं सम्बन्धों से समाज का निर्माण हुआ और वह एक सामाजिक प्राणी कहलाया। इसीलिए मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक सम्बन्धों के जाल को समाज कहा है । समाजशास्त्र समाज के समस्त सन्दर्भों, समस्याओं एवं पहलुओं का क्रमबद्ध अध्ययन करनेवाला विज्ञान है । ऑगस्ट कॉम्ट को समाजशास्त्र का जनक माना जाता है, इन्होंने सन् 1838 में इस शब्द का प्रयोग किया। हालांकि उन्होंने पहले ‘सोशल फिजिक्स’ कहा बाद में इसे समाजशास्त्र के नाम से स्वीकार किया गया । लैटिन शब्द Socius(समाज) और ग्रीक शब्द Logos (विज्ञान या अध्ययन) से अंग्रेजी शब्द Sociologyबना है, इसे ही समाजशास्त्र कहा जाता है । समाजशास्त्र की विषयवस्तु की महत्ता एवं उपयोगिता, क्षेत्र की व्यापकता आदि के कारण समाजशास्त्रियों के लिए सर्वसम्मति से कोई एक परिभाषा दे पाना कठिन है ।
समाजशास्त्रियों द्वारा दी गई परिभाषाओं के आधार पर पाँच प्रमुख श्रेणियाँ निम्नवत हैं-
उपर्यक्त ढंग से परिभाषाओं का सरलीकरण करते हुए भी समाजशास्त्र के स्वरूप, महत्ता और उसकी व्यापकता का पता चलता है । समाजशास्त्र सामाजिक अन्तःक्रियाओं और सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन-विश्लेषण करता है । समाजशास्त्र मनुष्य और समाज के विविध संगठनों, समुदायों, संस्थाओं, प्रक्रियाओं, संदर्भों, संघर्षों, परिवर्तनों, समस्याओं और समाधानों, का विवेचन करता है । मानव अर्जित ज्ञान को प्रायः दो मुख्य भागों में विभक्त किया गया है – एक, प्राकृतिक या विशुद्ध विज्ञान, (भौतिक विज्ञान, ऱसायन विज्ञान, जीव विज्ञान आदि) और दो, सामाजिक विज्ञान (ऱाजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र आदि) । आधुनिक समाजशास्त्र का इतिहास भले ही पुराना न हो किन्तु उसका सम्बन्ध तो मानवजाति के अस्तित्व और विकास से जुड़ा है । साहित्य और समाज का सम्बन्ध मनुष्य की आदिम अवस्था से है । कालान्तर समाजशास्त्र विकसित हुआ, इसकी पूर्णता, स्वतंत्रता, उपयोगिता, कार्यक्षेत्र आदि की महत्ता साबित करने के लिए प्रयास हुए । समाजशास्त्र के जनक ऑगस्ट कॉम्ट ने समाजशास्त्र और अन्य सामाजिक विज्ञानों के साथ कोई सम्बम्ध नहीं माना है । साहित्य और समाजशास्त्र, साहित्य का समाजशास्त्र, और समाजशास्त्र का साहित्यिक विवेचन को लेकर विशुद्ध समाजशास्त्रियों एवं साहित्यकारों में मतभेद हैं । समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर (1820-1903) और इमाइल दुर्खीम (1858-1917) ने समाजशास्त्र के अध्ययन क्षेत्र को व्यापक मानते हुए ज्ञान के समाजशास्त्र, विज्ञान के समाजशास्त्र और कला के समाजशास्त्रीय विश्लेषण को समाजशास्त्र की विषयवस्तु में सम्मिलित किया है ।
समाजशास्त्र में पद्धति का प्रयोग, तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण,सिद्धांत-निर्माण एवं परीक्षण, कार्य-कारण सम्बन्धों का विवेचन होता है, वहाँ क्षेत्र कार्य (Field-work) के लिए अवकाश अधिक होता है । साहित्य में पहले इस प्रकार के कार्य होते थे, आधुनिक युग में भी कमोबेश हो रहा है । जार्ज ग्रियर्सन,सुनीत कुमार चटर्जी, भोलानाथ तिवारी, कामता प्रसाद गुरु, आचार्य हजारी प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, रेवा प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, रामनरेश त्रिपाठी, के.का.शास्त्री आदि विद्वानों की सूची लम्बी है, जिन्होंने आदर्शात्मक शोध-कार्य किए । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर का अध्ययन कबीर के समयकाल और तत्कालीन समाज एवं स्थितियों को समझ कर किया । साहित्य के समाजशास्त्र का स्तरीय अध्ययन करने के लिए ‘टेबल वर्क’ के साथ ‘फील्ड वर्क’ की भी आवश्यकता होती है । सामाजिक समस्याओं- (बेरोजगारी, गरीबी, अपराध, व्यसन, वेश्यावृत्ति, मानसिक-शारीरिक रोग, परिवार विभाजन, आदि) का अध्ययन करते समय सामाजिक समस्या की प्रकृति, प्रकार, कारण एवं समाधान के बारे में पड़ताल करना पड़ेगा ।
किसी भी विकासशील जीवंत समाज के लिए साहित्य और समाजशास्त्र का अध्ययन अनिवार्य है । साहित्य अपने मौखिककाल से अब तक समाज की विभिन्न गतिविधियों, स्थितियों, प्रक्रियाओं, संदर्भों से गुजरता हुआ, उसे अपने में समेटे हुए एवं अपने परिवेश के साथ न्यूनाधिक अभिव्यक्ति करता हुआ सतत प्रगतिशील होता है । आर्थिक परिबलों के साथ साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत जितनी समृद्ध होगी, समाज उतना विकसित और संपन्न होगा, सिर्फ आर्थिक संपन्नता से भौतिकवादिता ही बढ़ेगी। साहित्य दर्पण मात्र नहीं है, वह परिवर्तन-परावर्तन की क्रिया से भी लैस होता है। राज्याश्रय में या निजानन्द के लिए लिखा गया साहित्य और लोकतंत्र के साहित्य में पर्याप्त अन्तर हो सकता है । साहित्य की दर्पणवादी व्याख्या की अपनी सीमाएँ हैं । “अतीत का अनुभव साक्षी है कि जब ऐसा मानकर निर्णय किया गया तो अनर्थकारी परिणाम सामने आए । कर्नल टॉड ने जिस रासो साहित्य को आधार बनाकर राजपूताना का इतिहास लिख डाला, जब उसी की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठ खड़ा हुआ तो इस भूल का एहसास हुआ ।”1 साहित्यकार अपने समाज और समय की अनदेखी नहीं कर सकता । कबीर, तुलसी, सूर के साहित्य में समाज और समय की गतिविधियों को स्पष्ट देखा जा सकता है। आज का रचनाकार नहीं कह सकता - 'सन्तन को कहा सीकरी सो काम' ।
साहित्य का भी समाजशास्त्र होता है, इसे विशुद्ध समाजशास्त्री मानने को तैयार नहीं हैं, वे इसे समाजशास्त्र की ही एक शाखा मानते हैं । तो दूसरी ओर ऐसे साहित्य-आलोचक भी हैं जो साहित्य के समाजशास्त्र को इसलिए नहीं स्वीकारते क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध बाजारू साहित्य से है। एक तीसरी स्थिति वह है, जहाँ साहित्य और समाजशास्त्र के अन्तःसम्बन्ध और उसके प्रभाव एवं उपयोगिता को समझने तथा स्वीकारनेवाले विद्वान अपने-अपने ढंग से पहल करते हैं । वास्तविकता यह है कि साहित्य के गम्भीर-मूर्धन्य आलोचकों ने जिसे बाज़ारू, सस्ता एवं सतही, तथा चालू किस्म का (लगभग अछूत-सा) साहित्य मान कर उसे हाशिए पर रखा, उसका उत्पादन, विक्रय और लोकप्रियता बहुत अधिक है । यहाँ सवाल यह है कि ऐसा साहित्य अपने उपभोक्ताओं की किन आवश्यकताओं या उद्दश्यों की पूर्ति करता है ? क्या उसका भी अपना कोई साहित्यशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र या समाजशास्त्र होता है ? इस दिशा में राजेन्द्र यादव ने देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन महत्वपूर्ण कार्य है । साहित्य की कसौटी बदलने की बात प्रेमचन्दजी ने कही थी। कालान्तर में, दलित लेखन और स्त्री दृष्टिकोण को समझने के प्रयास हुए और उनके साहित्य के सौन्दर्य को स्वीकृति भी मिली ।
साहित्य के समाजशास्त्र के प्रवर्तक को लेकर विद्वानों में मतभेद है, किन्तु प्रमुखता दो नाम सामने आते हैं- फ्रांसीसी मादाम स्तेल(1766-1817) और फ्रांसीसी विचारक इपॉलित अडोल्फ तेन(1828-1893) । हालांकि इससे भी पहले हर्डर (1744-18711 ने भी इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया था । मादाम स्तेल का मानना था कि साहित्य का अपने समय के राजनीतिक विश्वासों और गतिविधियों से गाढ़ परिचय होना चाहिए । उन्होंने साहित्य के सामाजिक आधार का विवेचन करते हुए साहित्य पर प्राकृतिक परिवेश और प्रजाति का प्रभाव स्पष्ट किया । उनका यह प्रयास आरम्भिक था, अक्रमिक और अनगढ़ था, इसके बावजूद तेन और परवर्ती समाजशास्त्रियों ने कुछ हद तक विकासात्मक अनुकरण किया।
तेन की दृष्टि और पद्धति को स्पष्ट करते हुए मैनेजर पाण्डेय कहते हैं- " कला और साहित्य की कृतियों को सामाजिक तथ्य तथा घटना के रूप में देखना, उनकी उत्पत्ति की व्याख्या में कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करना,प्रकृतिविज्ञानों की वस्तुपरक पद्धति को अपनाना और कृतियों को मानव चेतना की अभिव्यक्ति समझना "2 उनकी विशेषताएँ हैं । तेन का मानना था कि किसी भी महान कृति में तत्कालीन समाज, उसके रीति-रिवाजों और समय की अभिव्यक्ति होती है । साहित्य और समाज के बीच वस्तुपरक सरोकार कौन से हैं ? किन अर्थों में साहित्य समाज का दर्पण है ? कृति और पाठक के बीच कैसा सम्बन्ध है ? आदि प्रश्नों का उत्तर उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्र का स्वरूप स्पष्ट करते हुए दिया है। मैनेजर पाण्डेय के अनुसार "उनके साहित्य के समाजशास्त्र के चार मुख्य पक्ष हैं-1.साहित्य के भौतिक-सामाजिक मूलाधार की खोज 2. लेखक के महत्व का विश्लेषण 3.साहित्य में समाज के प्रतिबिंबन की व्याख्या 4.साहित्य का पाठक से सम्बन्ध।"3 इसप्रकार तेन ने साहित्य के विकास में समाज की भूमिका स्पष्ट करते हुए प्रजाति, परिवेश और युग को कारण माना ।
आलोचनात्मक समाजशास्त्रियों ने संस्कृति के समाजशास्त्र का चिंतन एवं विकास किया। अडोर्नो, हर्वट, मारकुस और लिओलावेंथल ने इसमें अपना योगदान दिया। तेन के पश्चात और गोल्डमान से पूर्व एक कड़ी के रूप में लावेंथल महत्वपूर्ण साहित्य के समाजशास्त्री माने जाते हैं । यथार्थवाद के हिमायती लावेंथल ने ‘अर्थ की संरचना’ पर विशेष बल दिया है। उन्होंने साहित्य की सामाजिकता का विश्लेषण करते हुए उसमें मनोविज्ञान की उपयोगिता को भी महत्वपूर्ण माना ।उनका मानना था कि रचनाकार जिन पात्रों का सृजन करता है वे काल्पनिक होते हुए भी सवाये सच होते हैं, वे व्यक्ति-अनुभव को भलीभाँति समझ लेते हैं । लावेंथल लोकप्रिय संस्कृति और साहित्य का विश्लेषण-विवेचन करते हुए उसे मध्यवर्ग का साहित्य मानते हैं। उस साहित्य को ठीक-ठीक समझने के लिए मध्यवर्गीय मानसिकता-आवश्यकता को जानना अपेक्षित है । किन्तु उनके " लोकप्रिय साहित्य के विवेचन में कहीं भी मजदूरों और किसानों की मानसिकता के लिए कोई जगह नहीं है ।"
देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी से लेकर गुलशन नंदा की तरह के लेखकों के उपन्यास, तथा मनोहर कहानियाँ एवं फिल्मी कलियाँ जैसी पत्रिकाओं के पाठक बहुत अधिक हैं । दूसरी ओर साहित्यिक कही जानेवाली पत्रिकाएँ अपने जन्म से ही आखिरी घड़ी का इन्तज़ार करने लगती हैं । स्पष्ट है कि तिलस्मी, जासूसी, रोमांस या अपराध से सम्बद्ध उपन्यासों-कहानियों-पत्रिकाओं को जिस तरह लोकप्रियता मिल जाती है उस तरह किसानों और मजदूरों को केन्द्र में रख कर लिखनेवालों को नहीं मिलती, उन्हें ताउम्र संघर्ष करना पड़ता है । यह बात साहित्य के आलोचकों द्वारा कही जाती रही है कि सिर्फ लोकप्रियता के आधार पर साहित्य को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । समाजशास्त्रीय अध्ययन लेखक, पाठक और विक्रय तीनों को केन्द्र में रखता है।
जार्ज लुकाच समग्रता और वस्तुनिष्ठता में माननेवाले थे । समग्रता की अवधारणा हीगल से होकर वाया मार्क्स से लुकाच के यहाँ आती है । बीसवीं सदी में कृति की समग्रता को लुकाच ने ही प्रचलित एवं प्रतिष्ठित किया । लूसिएँ गोल्डमान(1913-1971) ने पूर्व सिद्धांतों और विचारों का अध्ययन करते हुए साहित्य के समाजशास्त्र विषयक विश्वदृष्टि दी । उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण के लिए जो प्रणाली विकसित की उसे उत्पत्तिमूलक संरचनावाद (जेनेटिक स्ट्रक्टरलिज्म) कहते हैं । इसकी मूल अवधारणा है समग्रता । गोल्डमान मानते हैं कि "कोई साहित्यिक कृति एक निश्चत सामाजिक वर्ग की विश्वदृष्टि के संदर्भ में ही पूरी तरह समझी जा सकती है । इसके विपरीत यदि किसी कृति को केवल उसके कृतिकार की जीवनदृष्टि के प्रकाश में देखने का प्रयास किया गया तो वह खण्ड दर्शन होगा ।"
रेमण्ड विलियम(1921-1988) के लेखन और विचार विकासात्मक रहे हैं । इसीलिए उन्होंने परवर्ती चिंतन में साहित्य को व्यापक सांस्कृतिक संदर्भ में और संस्कृति को व्यापक साहित्यिक संदर्भ में रख कर देखने का प्रयास किया है, जिसमें राजनीतिक संदर्भ भी शामिल हों। रेमण्ड ने ‘अनुभूति की संरचना’ पर बल देते हुए उसे वास्तविक जीवन का अनुभव माना है । उनका मानना था कि प्रत्येक काल में समुदाय विशेष का अपना जीवन अनुभव होता है और यह सहज ही आगामी पीढ़ी को मिलता रहता है।
साहित्य के समाजशास्त्रीय विश्लेषण की कई पद्धतियाँ हैं, जिसमें विधेयवादी दृष्टिकोण, मार्क्सवादी विश्लेषण, संरचनावादी दृष्टिकोण, आलोचनात्मक-समाजशास्त्रीय दृष्टिको उत्पत्तिमूलक संरचनावादी दृष्टिकोण, आदि मुख्य हैं । सामाजिक वास्तविकता, जीवन अनुभव, विचारधारा और अभिव्यक्ति की कलात्मक क्षमता का साहित्य सृजन पर सीधा प्रभाव पड़ता है । लेखक की ऐतिहासिक दृष्टि, पूर्वग्रह और ग़लत विचारधारा से दूरी, तटस्थता एवं ईमानदारी, सत्य में अटल विश्वास से जो साहित्य निर्मित होगा वह यथार्थ के अधिक करीब और अपनी अलग पहचान रख सकेगा । यही कारण है कि प्रेमचन्द का गाँव तथा किसान, और रेणु के गाँव तथा किसान एक दूसरे से पर्याप्त अन्तर एवं नवीनता रखते हैं । साहित्यकार की रचना के केन्द्र में वर्ग या व्यक्ति हो सकता है, जैसे कि प्रेमचन्द और अज्ञेय का साहित्य । वर्षों बाद प्रेमचन्द की परम्परा अपने विकसित एवं परिमार्जित रूप में यदि आज भी विद्यमान है तो उसकी पड़ताल उपर्युक्त आधारों पर की जा सकती है ।
एंगेल्स ने कहा था - "यथार्थवाद लेखक के विचारों के बावजूद प्रकट हो सकता है।" जार्ज लुकाच ने इसी आधार पर टॉलेस्टॉय और बालज़ाक के उपन्यासों के आधार पर सिद्ध किया कि लेखक की विचारधारा और रचना के सामाजिक यथार्थ के बीच सदैव समानता हो यह जरूरी नहीं, विरोध भी हो सकता है । साहित्य का उद्देश्य सिर्फ इतिहास या राजनीतिक लेखाजोखा प्रस्तुत करना नहीं है । इस संदर्भ में मैनेजर पाण्डेय एंगेल्स का हवाला देते हुए कहते हैं - "1848 की क्रान्ति के बाद किसी ने एंगेल्स से पूछा कि 1848 की क्रांति की कविताएँ कहाँ गईं। एंगेल्स ने जवाब दिया 'वे सब अपने समय के राजनीतिक पूर्वग्रहों के साथ मर गईं ।"4 साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन उन पहलुओं और कारणों की भी जाँच-पड़ताल करता है जिनसे किसी रचना की प्रासंगिकता, उपयोगिता और लोकप्रियता स्थापित होती है ।
साहित्य का समाजशास्त्र समाज और साहित्य की पृष्ठभूमि और दोनों के बीच के सम्बन्धों की पड़ताल एवं व्याख्या करता है । साहित्य की विविध विधाओं की अपनी विशिष्ट प्रकृति, रूप-संरचना, शब्दावली, शैली होती है इसलिए उसके अनुरूप समाजशास्त्रीय विवेचन करना चाहिए । साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन सावधानीपूर्वक करना चाहिए कि “साहित्य के विविध रूपों और विधाओं का समाजशास्त्र एक जैसा नहीं हो सकता ।....रचना का समाजशास्त्रीय विवेचन करते समय उसकी प्रकृति की परख जरूरी है ।....रचना का ऐसा समाजशास्त्र जो उसके सामाजिक महत्व का विश्लेषणकरे,लेकिन उसके कलात्मक सौंदर्य पर ध्यान न दे, वह अधूरा होगा ।”5 इस बात को हम उपन्यास के विकास एवं लेखन में सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक पहलुओं के योगदान से समझ सकते हैं ।
भारत में उपन्यास का जन्म जिन परिस्थितियों में हुआ वह यूरोप में उपन्यास को जन्म देनेवाली परिस्थितियों से भिन्न एवं विपरीत थीं । यूरोप के औद्योगिकीकरण और मध्यवर्ग के विकास की जगह भारत में उपनिवेशवादी व्यवस्था थी इससे जमींदारों का एक नया वर्ग उभरा। जमींदारों, रियासतदारों, महाजनों, के अलावा पाश्चात्य शिक्षा ग्रहण किया समुदाय भी था, जिसे मध्यवर्ग के अन्तर्गत रख सकते हैं । छोटे किसानों की स्थिति दोनों जगह खराब थी, किन्तु परिस्थितियाँ और कारण भिन्न थे । एशिया में "सच्चे आधुनिकीकरण की जगह 'औपनिवेशिक आधुनिकीकरण' ने ले ली जिसके मुख्य शिकार भारतीय किसान थे ।"6 शासक की भाषा और साहित्य का प्रभाव जनता पर सीधा पड़ता है, वह धन्यता चाहे न भी अनुभव करे किन्तु स्वीकरने के लिए बाध्य होता है, चाहे वह मुग़लकाल रहा हो या अंग्रेजी शासन । शुरुआती दौर में अंग्रेजी के घटिया उपन्यासों का बंगला, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ । तिलस्मी, जासूसी, और रोमांस को केन्द्र में रख कर लिखे गए आरंभिक उपन्यासों का गद्य पर्याप्त विकसित न था । यह समस्या यूरोपीय उपन्यासों के सामने न थी ।
आरंभिक भारतीय उपन्यासों की मुख्य प्रवृत्तियों में सुधारवाद, शिक्षा, नैतिकता एवं आदर्श, यथार्थ, आदि हैं । जमींदारी-महाजनी शोषण, किसानों-मजदूरों की बदहाल स्थिति, शहरीकरण आदि प्रवृत्तियाँ परवर्ती उपन्यासों में उभरी हैं । जमींदारी शोषण और किसानों-मजदूरों की बदहाल स्थिति का जो चित्र फकीरमोहन सेनापति(उड़िया), ताराशंकर बंद्योपाध्याय और प्रेमचंद प्रस्तुत करते हैं वैसा पन्नालाल पटेल (गुजराती) के यहाँ नहीं है। डॉ.भोलाभाई पटेल ठीक कहते हैं कि “वहाँ महाजन सूदखोर रक्तशोषक है । गुजरात में महाजन का अर्थ सूदखोर नहीं है, उसका एक अर्थ है benevdent परोपकारी भी है ।”7 प्रेमचंद का साहित्य उपनिवेशवादी मानसिकता एवं शोषण से छुटकारा पाने के लिए संघर्षरत है । वे स्पष्टरूप से गरीब, शोषित किसानों-मजदूरों के पक्षधर हैं और सामंतवाद, पूंजीवाद, तथा साम्राज्यवाद के खिलाफ हैं । उनकी वर्ग-दृष्टि एवं पक्षधरता-सहानुभूति और विचारधारा के कारण वे आलोचनात्मक यथार्थवादियों से कुछ अलग दीखते हैं । मैनेजर पाण्डेय के अनुसार “जनवादी यथार्थवादी दृष्टिकोण ही प्रेमचंद के विषयचयन, उसके संगठन, और रचना-रूप के विकास का नियामक है ।.....भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के रचनाकार प्रेमचंद के लिए यह जनवादी यथार्थवाद केवल एक साहित्यिक दृष्टिकोण न था, इसका उनके लिए राजनीतिक,दार्शनिक, और व्यावहारिक महत्व था ।” 8
साहित्य के समाजशास्त्र का उपयोग विशुद्ध समाजशास्त्री भी जाने-अनजाने, प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से करते हैं । रामायण साहित्यिक कृति है, डॉ. संजीव महाजन सामाजिक विचलन (Social Deviance) का उदाहरण ‘रामायण’ के शम्बूक-वध की घटना से देते हैं “उसका यह व्यवहार वर्ण धर्म के अनुकूल नहीं था क्योंकि शूद्रों को इस प्रकार की तपस्या करने का अधिकार नहीं था । शम्बूक अपराधी घोषित किया गया, वह विचलन का दोषी था”।9 प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ में प्रसव-वेदना से तड़पती बुधिया को छोड़ कर उसका पति.. और ससुर भुने हुए आलू खाता है, इतना ही नहीं कफ़न के पैसों का उपयोग जिस तरह खाने-पीने में करता है, उसे लेकर अधिकांश दलित लेखकों और आलोचकों ने क्या प्रतिक्रिया दी, सभी को मालूम है । गुजराती उपन्यास ‘मानवीनी भवाई’ (1947) में छप्पनिया अकाल की पृष्ठभूमि है । अकाल से पीड़ित, भूख से तड़पते आदिवासी भील गिद्ध की तरह मरे ह्ए पशु पर टूट पड़ते हैं, कलेजा काँप जाये, रोम-रोम सिहर उठे ऐसा वर्णन है । उपन्यास का नायक कालू देखता है कि झाड़ी में एक औरत खरगोश जैसा कुछ खा रही है, उसका भ्रम था या वास्तविकता, खरगोश था या उसका अपना बच्चा ! बच्चा ही था । “जगत में सबसे बुरा अगर कुछ है तो भूख है ।”10 वास्तव में, ऐसी कृतियों के समाजशास्त्रीय अध्ययन-विश्लेषण की आवश्यकता होती है । साहित्यिक कृतियों के समाजशास्त्रीय अध्ययन-विवेचन करने के लिए विभिन्न पद्धतियों का उपयोग होता है । एक ही पद्धति और पैमाने से ज्ञान-विज्ञान के किसी भी क्षेत्र का अध्ययन-विश्लेषण संभव नहीं है । साहित्य का समाजशास्त्र अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र साहित्य विधा है और उसका सम्बन्ध अन्य सामाजिक विज्ञानों से भी है ।
संदर्भसूचि
डॅा.ओमप्रकाश शुक्ल, गुजरात आर्ट्स एण्ड कॅामर्स कॅालेज(सायं), अहमदाबाद