वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में इतिहास और कल्पना
हिन्दी उपन्यास के विकास में वृंदावनलाल वर्मा का योगदान महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है । उनसे पहले हिन्दी में किशोरीलाल गोस्वामी जैसे उपन्यासकारों द्वारा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे तो गए हैं परन्तु उन उपन्यासों का साहित्यिक महत्व नहीं के बराबर है । ऐसे में ‘इरावती’ नामक अपूर्ण उपन्यास से ऐतिहासिक उपन्यास की जो नींव जयशंकर प्रसाद ने डाली उसको अधिक दृढ़ बनाने का संपूर्ण श्रेय वर्माजी को ही जाता है । हिन्दी में वृंदावनलाल वर्मा ही ऐसे पहले ऐतिहासिक उपन्यासकार हैं जिन्हों ने इतिहास और कल्पना शक्ति का सुभग समन्वय करके एक नई परंपरा का आगाज़ किया है । डा. श्रीमती ओम शुक्ल ने लिखा है ‘उन्होंने विस्मृतप्राय अतीत के अस्पष्ट एवं धुंधले चित्रों को अपनी कल्पना द्वारा निखारा । उनके उपन्यासों में ऐतिहासिक सत्य तथा कल्पना का मानों मणिकांचन संयोग हुआ है ।’ 1 वर्माजी का पहला ऐतिहासिक उपन्यास ‘गढ़ कुण्डार’ सन् 1929 में प्रकाशित हुआ था और इसके बाद ‘विराटा की पद्मिनी’(1930), ‘मुसाहिबजु’(1940), ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’(1946), ‘कचनार’(1947), ‘मृगनयनी’(1950), ’टूटे काँटे’(1954), ‘अहिल्याबाई’(1955), ‘भुवनविक्रम’(1957), ‘माधवजी सिन्धिया’(1957) आदि ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं । यहाँ इनके स्वातंत्र्योत्तर यानी 1947 के बाद प्रकाशित उपन्यासों के संदर्भ में इतिहास और कल्पना के सुन्दर समन्वय को उजागर करने का प्रयास किया जा रहा है ।
वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में इतिहास और कल्पना की जाँच-परख करने से पहले इतिहास और उपन्यास के पारस्परिक सम्बन्ध को समझ लेना आवश्यक होगा । वैसे देखा जाए तो हमारे प्राचीन साहित्य में इतिहास और कथा में कोई बहुत बड़ा अन्तर नहीं है । परन्तु विज्ञान युग में दोनों के बीच की भेद-रेखा बखूबी रेखांकित की गई है । इतिहास तथ्यों के आधार पर सत्य की खोज करता है । कभी-कभी इस सत्य को स्वाभाविक बनाने के लिए कल्पना और अनुमान का सहारा भी लेता है । परन्तु उसकी इस कल्पना का तथ्य से इतना निकटतम सम्बन्ध होता है कि उन दोनों को अलगाना कठिन हो जाता है । जब कि उपन्यास मानवीय सत्य की स्थापना करने हेतु तथ्यों की उपेक्षा भी कर सकता है । उपन्यास के लिए तथ्य बंधन नहीं हैं । साथ ही इसी विज्ञान युग ने इतिहास और उपन्यास के बीच के सामंजस्य को भी उदघाटित किया है । डा. गोविन्दजी इसी सामंजस्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं –‘इतिहास विशुद्ध तथ्योन्मुखी बना तो रसात्मक साहित्य से दूर हटा, किन्तु जब उसने संस्कृतियों, सभ्यताओं एवं समाज के विकास पर दृष्टिपात आरंभ किया तो भावनाओं के क्षेत्र में उसने व्यापक रूप से प्रवेश किया और ऐतिहासिक उपन्यास की रचना का आधार बना ।’2 अर्थात्- इतिहास किसी उपन्यास की रचना का आधार बनता है तब उपन्यास का अंतिम लक्ष्य भी मात्र मनोरंजन न रहकर मनुष्य जीवन के सत्य का उदघाटन बन जाता है । इतिहास जब उपन्यास में वर्णित होता है तो कल्पना के जरिए रमणीय और आकर्षक बनता है । इतिहास के पात्र मूक होते हैं परन्तु जब वे उपन्यास में चित्रित होते हैं तो बोलने लगते हैं । जीवंत बन जाते हैं । शिवकुमार मिश्र का मत है –‘जहाँ इतिहास हमें शुष्क एवं नीरस हड्डियाँ देता है वहाँ ऐतिहासिक उपन्यासकार उन्हीं हड्डियों में रक्त और मांस का सृजन कर उन्हें ऐसा सुन्दर शरीर प्रदान करता है जिसमें जीवन होता है, गति होती है, सत्य होता है और उस सत्य को रमणीय बनाने वाले रंगीन धागे भी !’3 इस इतिहास को ऐतिहासिक उपन्यास के रूप में ढालता है उपन्यासकार । इस उपन्यासकार का दायित्व बहुत बड़ा है । वह केवल इतिहास को ही न दोहराए और इतिहास की सीमा से बाहर भी न आ जाए इसके लिए उसे हर क्षण सावधान रहना पड़ता है ।
वृंदावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यासों की रचना करते समय ऐतिहासिक उपन्यासकार की इन मर्यादाओं का सदैव ध्यान रखा है । उनका प्रसिद्ध उपन्यास ‘कचनार’ 1947 में प्रकाशित हुआ । इस उपन्यास में 18वीं शताब्दी का वर्णन है । ‘परिचय’ में ही लेखक स्पष्ट करता है कि ‘मैंने कचनार के लिखने में इतिहास और परम्परा दोनों का उपयोग किया है ।... उपन्यास में वर्णित सब घटनाएँ सच्ची हैं ।’4 परन्तु ये घटनाएँ किसी एक देश और काल की न होकर अनेक देशों और कालों की हैं । ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इन्हें एक स्थान और काल में गूँथ दिया गया हैं । इस उपन्यास की रचना करने से पहले लेखक ने संसार सागर गजेटियर, बुन्देलखंड के इतिहास, लाल कवि के छत्र प्रकाश, भुवाल सन्यासी के मुकद्दमे तथा मराठी राज्य के विविध विवरणों और अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया है । ‘कचनार’ उपन्यास में मुख्य कथा धामोनी के राजा दलीपसिंह और कचनार की प्रेम कथा है । दूसरी कथा कलावती और मानसिंह के प्रेम और विवाह की है । इनके अलावा महन्त अचलपुरी और गुसाँई-समाज तथा सागर राज्य एवं पिंडारियों की शत्रुता की कथाएँ भी वर्णित हैं । लेखक के मतानुसार दलीपसिंह, कचनार, डोरीसंह (डरू) की घटना, अचलपुरी के गुसाइयों के पराक्रम तथा धामोनी गाँव का इतिहास में उल्लेख हैं । परन्तु उपन्यास के अन्य पात्र मानसिंह, कलावती, आदि की ऐतिहासिकता के बारे में लेखक ने कुछ कहा नहीं है । इससे स्वयं स्पष्ट होता है कि ये सभी पात्र और उनसे जुड़ी हुई घटनाएँ पूरी तरह से काल्पनिक हैं ।
‘कचनार’ के बाद वर्माजी का ‘मृगनयनी’ उपन्यास प्रकाशित हुआ । इस उपन्यास की कथावस्तु ई.स.1486 से ई.स.1516 के बीच हुए मानसिंह तोमर से सम्बन्धित है । मानसिंह ग्वालियर का राजा था । लेखक के अनुसार इस उपन्यास के सभी प्रमुख पात्र और घटनाएँ इतिहास प्रसिद्ध हैं । अंग्रेज इतिहासकारों ने मानसिंह को सर्वश्रेष्ठ तोमर शासक माना है । इस उपन्यास में मानसिंह, सिकन्दर लोदी, ग्यासुद्दीन खिलजी, नसीरूद्दीन खिलजी, महमूद बघर्रा, राजसिंह, मृगनयनी आदि ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन है । ग्वालियर पर दिल्ली के बादशाह सिकन्दर लोदी ने पाँच बार आक्रमण किया था परन्तु वह सफल नहीं हो पाया था । ग्वालियर पर विजय पाने के लिए ही उसने आगरा शहर बसाया था । दूसरी तरफ मालवा के विलासी सुलतान ग्यासुद्दीन खिलजी और गुजरात के महमूद बघर्रा भी ग्वालियर को जीतना चाहते थे । परन्तु मानसिंह इतना बहादुर एवं जागृत राजा था कि उसके शासन-काल में ये लोग सफल नहीं हो पाए । इन ऐतिहासिक घटनाओं का सुन्दर वर्णन ‘मृगनयनी’ उपन्यास में हुआ है । लेखक ने प्रसिद्ध संगीतकार बैजू बावरा को मानसिंह का दरबारी गायक बताया है जिसने मानसिंह की गूजरी रानी मृगनयनी के नाम पर ‘गूजरी टोड़ी’ और ‘मंगल गूजरी’ रागों का सृजन किया था । इतिहास में कहीं बैजू बावरा के जीवन की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं होती । लेखक ने राजा मानसिंह तोमर की आठ रानियों का उल्लेख किया है । इसका भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है । लेखक ने इन प्रसंगों के लिए वहाँ प्रचलित किंवदन्तियों को आधार बनाया है । इतिहास और लोककथाओं में रंग भरने के लिए अनेक काल्पनिक घटनाओं की उदभावना की गई है । निन्नी यानी मृगनयनी के भाई अटल और लाखी की प्रेम कथा, उनकी नरवर यात्रा, मानसिंह की पहली रानी भुवनमोहिनी द्वारा मृगनयनी को ज़हर देने का प्रयास आदि कई घटनाएँ वर्माजी की कल्पना की उपज प्रतीत होती हैं । ‘मृगनयनी’ उपन्यास में वर्माजी ने इतिहास की प्रामाणिकता को कल्पना की परत से मनमोहक बनाने का सार्थक प्रयास किया हैं । शायद इसीलिए यज्ञदत्त शर्मा ने उनकी उपन्यास कला पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-‘वृंदावनलालजी ने इतिहास को बन्धन मुक्त कर दिया है और काव्य को बन्धन में बाँधकर उसे लाजवन्ती का स्वरूप प्रदान किया है जो अपने समस्त सौन्दर्य को अपने में समेट कर चित्रित की जाती है ।’5
1954 में वर्माजी का एक और ऐतिहासिक उपन्यास ‘टूटे काँटे’ प्रकाशित होता है । इस उपन्यास में दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के शासनकाल ई.स.1719 से ई.स.1748 का वर्णन है । शिवकुमार मिश्र ने इस उपन्यास की महत्ता बताते हुए लिखा है- ‘हर्ष की बात है कि यह उपन्यास भी उसी परम्परा में है जिसमें वर्माजी के गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और मृगनयनी आदि उपन्यास हैं । वर्माजी की कुशल लेखनी ने इसे भी उनकी ऐतिहासिक कृतियों में अमर कर दिया है ।’6 इस उपन्यास की मुख्य कथा फारसी गज़लों की गायिका नूरबाई से सम्बन्धित है । दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार की गायिका से नादिरशाह प्रभावित होता है और मुहम्मदशाह चार हजार नर्तकियों के साथ उसे नादिरशाह को भेंट करता है । यहाँ तक की यानी नूरबाई के दिल्ली छोड़ने तक की घटनाएँ इतिहास सम्मत है । नादिरशाह उसे ईरान ले जाना चाहता है परन्तु नूरबाई हिन्दु सैनिक मोहन की मदद से उसके चंगुल से भाग निकलने में सफल होती है । नूरबाई दिल्ली से भागकर कहाँ गई होगी इसकी स्पष्टता करते हुए लेखक ने ‘परिचय’ में लिखा है –‘नन्ददास, सूरदास इत्यादि भक्त सन्त कवियों के रस का जो प्रभाव अहिन्दु गायिका पर पड़ा नूरबाई उसीका प्रतिबिम्ब है ।’7 अर्थात लेखक ने उसे कृष्ण भक्ति में लीन करते हुए ब्रज भेजा है । यह पूरी घटना उनकी कल्पना और अनुमान प्रतीत होती है । इस तरह ‘टूटे काँटे’ उपन्यास की प्रारंभ की सारी घटनाएँ ऐतिहासिक हैं तो बाद की सारी घटनाएँ काल्पनिक हैं ।
‘अहिल्याबाई’ 1955 में प्रकाशित लेखक का एक और छोटा-सा ऐतिहासिक उपन्यास है । इस उपन्यास में भी 18 वीं शताब्दी का वर्णन है । अहिल्याबाई इतिहास प्रसिद्ध सूबेदार मल्हार राव होल्कर के पुत्र खण्डेराव की पत्नी है । इस उपन्यास में कम आयु में अहिल्याबाई का विधवा होना, एक के बाद एक सारे रिश्तेदारों का निधन होना आदि घटनाएँ और मल्हार राव, भारमल, गनपत राव आदि चरित्र ऐतिहासिक हैं । तो विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई द्वारा इन्दौर राज्य का सफल संचालन करना, जन कल्याण के कार्य करते हुए जनता द्वारा ‘देवी’ की उपाधि प्राप्त करना आदि घटनाओं में वर्माजी ने अपनी कल्पना-शक्ति का सर्जनात्मक विनियोग किया है । 1957 में प्रकाशित ‘भुवन मोहन’ वर्माजी के ऐतिहासिक उपन्यासों में अलग महत्व रखता है । इसकी कथावस्तु अन्य उपन्यासों से भिन्न है । इसमें उत्तर वैदिक युग की जीवन-प्रणालि, समाज-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था, रीत-रिवाज आदि का वर्णन हुआ है । लेखक ने किसी वैदिक आख्यान को आधार बनाकर अयोध्या के राजा रोमक के बेटे भुवन विक्रम की कथा प्रस्तुत की है । राजकुमार भुवन विक्रम का चरित्र सुधार और गौरी के साथ उसका प्रेम इस उपन्यास की मुख्य कथा है । वर्माजी ने वैदिक आख्यान को मात्र आधार बनाकर इस उपन्यास की कथा में अपनी कल्पना के खूब रंग भरे हैं । इस कारण यह उपन्यास बड़ा ही रोचक बन पड़ा है ।
1957 में ही प्रकाशित ‘माधव जी सिन्धिया’ भी एक शुद्ध ऐतिहासिक उपन्यास है । इस उपन्यास का समय 18 वीं शताब्दी है । लेखक ने इसमें 18 वीं सदी की अराजक राजनीतिक परिस्थिति की पृष्ठभूमि में मराठा वीर माधव जी सिन्धिया और अंग्रेजो के खिलाफ भारत की तमाम शक्तियों को एक करने के उनके प्रयासों का विस्तृत वर्णन किया है । माधव जी के वीर व्यक्तित्व के चित्रण के लिए वर्माजी ने अनेक ऐतिहासिक तथ्यों और कहीं कहीं कल्पना का सुन्दर उपयोग किया है । पतनशील मुग़ल बादशाहों की गतिविधियाँ, उनके वजीरों की स्वार्थपरकता, मराठों, अफग़ानों, जाटों, सिक्ख़ों के युद्ध आदि घटनाओं का एवं गन्ना बेगम, उम्दा बेगम, जवाहरसिंह, गुलाम कादिर, सूरजमल, मल्हार राव आदि पात्रों का इतिहास सम्मत वर्णन वर्माजी ने किया है । इस उपन्यास में लेखक ने कठिन परिश्रम करते हुए रूलर्स आफ इन्डिया, इतिहास विषयक दस्तावेज और मराठा इतिहास से विभिन्न ऐतिहासिक तथ्यों की खोज की है और इनका ऐसा विनियोग किया है कि उनकी कल्पना शक्ति को रमने का मौका यहाँ कम मिला है ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वातंत्र्योत्तर युग में वृंदावनलाल वर्मा के जितने भी हिन्दी उपन्यास प्रकाशित हुए हैं उनमें उपन्यासकार ने अपनी मातृभूमि बुन्देलखंड को समग्रतया उभारने का प्रयत्न किया है । इन छ उपन्यासों में से चार उपन्यासों में तो 18वीं सदी का ही वर्णन हुआ है । तो एक में 15वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर 16वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक का और एक में उत्तर वैदिक युग का वर्णन हुआ है । उन्होंने अपने उपन्यासों मे इतिहास और कल्पना का समन्वय किया है । इसके लिए एक ओर जहाँ उन्होंने आधारभूत इतिहास का अध्ययन एवं अनुसंधान किया है, प्रचलित जनश्रुतियों का आधार लिया है तो दूसरी ओर इतिहास के रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए कल्पना का सुन्दर और सार्थक उपयोग किया है । हम यह भी कह सकते हैं कि जहाँ इतिहास मौन हो जाता है वहाँ वर्माजी का उपन्यासकार बोलना शुरू करता है । डा. श्रीमती ओम शुक्ल के शब्दों में कहें तो-‘उन्होंने इतिहास को कल्पना के साँचे में ढालकर अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है ।’8
संदर्भ-
नियाज़ पठान, हिन्दी विभाग, एम.एन.कॉलेज, विसनगर