संपादकीय
16 जुलाई, 2020 का दिन था । सुबह दस बजे के करीब पैरों में दर्द शुरू हुआ और शाम तक तो पूरे शरीर को बुखार ने अपनी चपेट में ले लिया था । दवाई का कोर्स शुरू कर दिया परन्तु 23 तारीख तक भी किसी तरह के आराम के आसार नज़र नहीं आए तो आखिरकार कोरोना टेस्ट कराया और वह पोज़िटिव निकला । और फिर शुरू हुआ अस्पताल और दवाइयों का सिलसिला । दूसरे दिन पत्नी तन्वी का टेस्ट भी पोज़िटिव । गनीमत यह थी कि बच्चों और परिवार के दूसरे सदस्यों के टेस्ट नेगेटिव आए थे । इसे पूरी घटना में काली बदली में सुनहरी किरण माना जा सकता है ! पर इससे मुसीबतों में कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं था । एक तो आठ और साढ़े नौ साल के बच्चे कभी माता-पिता से दूर न रहे हों और पिछले तीन महीनों से ‘कोरोना यानी खेल खत्म’ के समाचार अनायास ही उनके जेहन में अंकित होते रहे हों; ऐसे में एम्ब्युलन्स में मुझे ले जाया जा रहा था तब उनके चेहरे के भाव देखकर ही आधा तो मैं टूट चुका था । सोसायटी और बाद में शहर की सड़कों से सायरन के साथ गुजर रही एम्ब्युलन्स की खिड़की से सड़क की दोनों तरफ खड़े रहकर आशंका से, विस्मय से, और शायद भय से देख रहे लोगों की भीड़ आँखों के सामने उभर रही है । एम्ब्युलन्स का ड्रायवर तो मस्ती से फिल्मी गाने बजाता हुआ अस्पताल की ओर चला जा रहा था । जर्जर बोगी जैसी एम्ब्युलन्स पूरी की पूरी थरथरा रही थी । जेहन में कई कई भाव उभर रहे थे । क्षणिक ऐसा भी विचार आ जाता था कि ‘इस रास्ते लौटना संभव होगा या आखिरी सफर ?’ पर, नहीं मन मजबूत था । मन में तर्क चल रहे थे । मात्र सात से आठ प्रतिशत ही मृत्युदर है, बाकी सब तो ठीक हो जाते हैं, और फिर, समय पर दवाई और इलाज मिल जाए तो कोई समस्या नहीं आती ....। बहुत कुछ चलता रहा जेहन में ।
पत्नी भी बुखार से लड़ रही थी, सरकारी अस्पताल में भर्ती होने के बाद कुछ ही समय में दूसरे अस्पताल में ट्रान्सफर कर दिया गया, उसी तरह दूसरे दिन पत्नी को भी सरकारी अस्पताल में चौबीस घण्टे रखने के बाद दूसरे अस्पताल में भेज दिया गया । घर में दूसरे एक और सदस्य का भी रिपोर्ट पोज़िटिव और मुसीबतों की चरम सीमा शुरू । तीन लोग अस्पताल में, घर में पाँच बच्चे, एक वृद्धा और जो जवान था वह भी बुखार की चपेट में ! इस नागपाश में फँसने के बीच के तीन दिन बड़े ही खतरनाक थे । कुछ खाने का विचार आता तो भी उल्टियाँ शुरू हो जाती । सामने अगर खाने की कोई चीज़ आ जाए तो उल्टी हुए बिना न रहती । कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । जबान बिल्कुल खराब हो चुकी थी । मुझे खांसी-कफ बिल्कुल कम था । खांसी कभी कभार ही आती थी । ओक्सिजन लेवल कभी कम नहीं हुआ था । ब्लडप्रेशर और बुखार आना भी बंद हो चुका था । जो तकलीफ थी, वह दर्द था । जीवन में कभी महसूस न किया गया हो ऐसे इस दर्द ने दिमाग को हिलाकर रख दिया था । यह दर्द इतना असह्य, अपूर्व था कि मन होता पैर काटकर फेंक दूँ । सारी दवाइयाँ जैसे बेअसर थी । दूसरी तरफ खाए बिना कमजोरी ने पूरी तरह जकड़ लिया था । हाथ ऊपर करने में भी जैसे पहाड़ उठाने जैसा फील होता । इसीलिए मल्टीविटामिन की बोतल चढ़ाना शुरू किया । उन भयंकर दिनों में डॉ. पार्थ रावल और डॉ. मयूर गोहिल एवं नर्स श्वेताजी ने निरन्तर साथ दिया । बारी-बारी आकर हिम्मत बँधाते रहे । मुझे बिल्कुल ऐसा फील होता कि अंतिम घड़ी करीब है । अपने अंत के भय से भी ज्यादा बाद में परिवार की चिंता अच्छे अच्छों को तोड़ देती है – उस समय को बिल्कुल करीब से देखा और फिर 28 जुलाई की रात जैसे उजाला दिखा । पहली बार शरीर में नयी ऊर्जा प्रकट हुई और साथ ही किसी शक्ति का संचार हुआ । खड़ा हुआ, मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की और अपने कमरे में टहलता रहा । स्वजनों को याद किया और मजबूत हुआ ‘मुझे अभी बहुत काम करना बाकी है ।’ यह सबकुछ गांधीनगर की भूमि में घटित हुआ । जहाँ विशाल परिवार, मित्रों का समूह और जानी-पहचानी होस्पिटल्स होने के कारण राहत रही ।
निरन्तर पंद्रह दिनों तक चलने वाली इस जंग को आखिरकार जीत लिया गया । अंत भला तो सब भला के अनुसार बाद में स्वस्थ होकर घर भी पहुँच गया । इसमें डॉक्टर्स, नर्स, परिवार के लोग, मित्रों और सरकारी तंत्र ने जिस प्रकार कड़ी मेहनत की इस वजह से ही घर वापस आ सका हूँ । कमजोरी अभी गई नहीं है परन्तु अब श्रद्धा है कि उसे कवर कर लूँगा । यह बात वैसे तो बिल्कुल निजी है, यहाँ उसे क्यों लिखना चाहिए ऐसा प्रश्न मुझे भी होता है परन्तु शुरूआत इससे करने का कारण यही है कि, पिछले तीन-चार महीनों से कोरोना (कोविड-19) शब्द और उसकी भयंकर प्रसरणशीलता के जो आंकड़े देखे हैं, समग्र विश्व के देशों पर उसका शिकंजा जिस तरह धीरे धीरे कसता जा रहा था उसका यह एक प्रत्यक्ष अनुभव भी है और वही कोरोना जब शरीर में घुस आया तो कहाँ से आया इसका पता ही नहीं चला है । मास्क कभी छोड़ा नहीं है, सेनेटाइज़र के बिना कभी बाहर निकलना नहीं हुआ, भीड़ से दूर रहा हूँ, किसी संक्रमित के सीधे संपर्क में नहीं आया; बावजूद इसके यह वायरस आया कहाँ से ? कोरोना के इस प्रत्यक्ष अनुभव के बाद का मनोविश्व- मुझे लगता है कि, मुझे यह कहना चाहिए ।
‘डर’ – इस समय का सबसे बड़ा फैक्टर है । डरना पड़े ऐसी परिस्थिति भी है । मात्र ‘कोविड-19’ वायरस ही नहीं. उसके साथ अनेक प्राकृतिक और मानव सर्जित आपदाएँ साथ मिलकर इस धरती पर आयी है । इस साल धरती का कोई भी भूखंड, कोई भी देश इन प्राकृतिक आपदाओं से बच नहीं पाया है । भूकंप के झटके, विश्व के घने जंगलों में आग, अनेक स्थानों पर बर्फ वर्षा, बिन मौसम इतनी बारिश हुई है कि कई देशों में कई-कई प्रदेश पानी में डूबे हुए हैं । भारत में ही पूर्वांचल, बिहार, उत्तरप्रदेश के कुछ भाग, मुंबई जैसै महानगर पानी में लिप्त हैं । पूरी दुनिया में भयंकर बिजली गिर रही है । कई लोग बिजली गिरने से मर चुके हैं, कई लोगों की मौत कोरोना का इलाज कराते समय अस्पताल में आग लगने से हुई है । लोकडाउन खुलने के बाद पाकिस्तान में ईद मनाने घर जा रहे पेसेन्जरों से भरा हुआ प्लेन करांची में क्रेश हो गया तो आज ही 8, जुलाई, 2020 के दिन केरल में एयर इन्डिया का दुबई से आने वाला प्लेन क्रेश हुआ है । जिसमें 21 से ज्यादा जिन्दगियाँ खत्म हो गई हैं । ये सभी कोरोनाकाल में फँसे हुए लोग थे । लम्बे इन्तज़ार के बाद घर पहुँचने की आशा में स्थानान्तरित होने वाले लोग थे ।
शहरों मे फैल रहे संक्रमण से बचने के लिए, बेकारी और बेरोजगारी से बचने के लिए भारत में बड़े पैमाने पर गाँवों की ओर हिजरत शुरू हुई । यह तो एक स्वतंत्र शोध और आलेखन का विषय है । लोकडाउन के उस दौर में मजदूरों-गरीबों की इस पैदल हिजरत और उससे उपजी करुण घटनाएँ बेसुमार हैं । यह समस्या शायद दुनिया के किसी अन्य देश में देखने नहीं मिली । मजदूरों की हिजरत अद्वितीय थी । खास करके मुंबई तो कोरोना का सेन्टर बन गया और वहाँ से यू.पी. और बिहार जाने वाले श्रमिकों की भीड़ ने नये नये रेकॉर्ड स्थापित किए । पैदल सातसौ किलोमिटर का सफर तय किया हो ऐसे किस्से भी बाहर आए तो एक लड़की ने तो घर पहुँचने के लिए अपने पिता को साइकिल पर बिठाकर चारसौ किलोमिटर की साइकिल यात्रा तय करके नयी मिसाल कायम की । उन श्रमिकों के जख़्मी पैर, रास्ते में ही दम तोड़ते बच्चों और स्त्रियों की तस्वीरें विचलित करने के लिए काफी थी । मनुष्य की दया से लेकर मनुष्य की क्रूरता तक के व्यापक रूप इसमें उजागर हुए हैं । कई स्त्रियों और बच्चों ने तो बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया, कुछ तो रेलवे ट्रेक पर थककर सोये हुए थे और गुड़ज ट्रेन के नीचे कुचलकर मर गए, कुछ ट्रक या दूसरे व्हिकलों में भेड़-बकरियों की तरह छिपकर वतन वापसी कर रहे थे तब दुर्घटना हुई और उसमें खत्म हो गए, कुछ व्हिकल खाई में गिरे और उसमें सैकड़ों मर गए ! जिन्दगी के इन भयंकर रूपों को देखकर मनुष्य की रूह काँप गई ।
सरकार ने किसी पूर्व घोषणा के बिना, लोगों को अपने स्थानों पर पहुँचने का अवसर दिए बिना लॉकडाउन लागू कर दिया यह तर्क के आधार पर भले ही अच्छा निर्णय लगता है परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया और समस्या विकट रूप धारण करती गई तब ऐसा लगता है कि सरकार को थोड़ा पूर्व आयोजन से निर्णय लेना चाहिए था । दरअसल अनलोक की प्रक्रिया के बाद ही देश में कोरोना ने गति पकड़ी, कोम्युनिटी स्प्रेड की घटनाएँ शुरू हुईं । ऐसी अचानक आने वाली आपदा के समय निर्णय लेना किसी भी सरकार के लिए सरल नहीं होता । पूर्व आयोजन भी सरल नहीं होता परन्तु इतिहास से सीखना चाहिए – इस बात को सामान्य मनुष्य नहीं समझ सकता यह तो ठीक है परन्तु सरकार के पास भी आयोजन न हो यह कैसे चल सकता है....?
धर्मस्थानों ने मानवता का रूप दिखाते हुए लाखों लोगों के पेट भरने की घटनाएँ भी सामने आयी हैं, तो दूसरी तरफ धार्मिक अँधता के प्रयासों से कोरोना के प्रसरण में वृद्धि भी हुई है, डॉक्टरों-नर्सों और पुलिस कर्मियों पर पत्थर फेंके जाने की घटनाएँ भी शायद भारत के अलावा विश्व में कहीं देखने नहीं मिली हैं । यह मानवीय क्रूरता की परिसीमा है । तो इससे विपरीत कई ऐसे लोकनायक पैदा हुए, जिन्होंने वतन पहुँचने के लिए हिजरत कर रहे लोगों को तन-मन-धन और भोजन की व्यवस्था उपलब्ध करायी है । इस महामारी में बचाव कार्य कर रहे मेडिकल क्षेत्र के कर्मचारी, पुलिस कर्मी, सरकारी तंत्र के कर्मचारी से लेकर अधिकारी और कुछ नेताओं ने इस दौर में सबकुछ भूलकर मानवसेवा को ही अपना धर्म माना है । समग्र मनुष्य जाति की रक्षा के लिए दिन-रात की परवाह किए बिना प्रयत्नशील रहने वाले लोगों की कथाएँ भी इतिहास के पन्नों पर अंकित हुई है ।
एक तरफ कोरोना और दूसरी तरफ उसकी मदद करने वाली इन प्राकृतिक आपदाओं के बीच इन्हीं दिनों में कुछ बम विस्फोट भी हुए हैं, कोरोना वायरस खुद भी किसी लेबोरेटरी में बना होने की आशंका से भी मनुष्य जाति मुक्त नहीं है । चीन द्वारा पूरी दुनिया को तबाह करने के षडयंत्र के रूप में भी वायरस फैलाने की पेटर्न को देखा जाता है । बैरूत में हुए बम धमाकों से पूरा विश्व स्तब्ध है । अभी इसका पता नहीं चल पाया है कि यह दुर्घटना थी या हमला । मिडल ईस्ट के देश, चीनी समुद्र, चीन और भारत की सीमा पर चल रहा झगड़ा, तुर्किस्तान की लड़ाई, अफग़ानिस्तान में निरंतर हो रही हत्याएँ, ईरान के परमाणु कार्यक्रमों से निरन्तर खफा रहने वाला अमरीका, ताईवान, होंगकोंग और चीन के बीच के संघर्ष, इज़राइल और मिडल ईस्ट के देशों के बीच बढ़ती जा रही चिंता, रूस की विचित्र राजनीतिक भूमिका और शस्त्रों के व्यापार में हुई वृद्धि आदि इस समय की बड़ी चिंता है ।
दूसरी तरफ कोरोना के कारण पूरे विश्व के देशों में पैदा हुई है आर्थिक मंदी । क्योंकि लगभग फरवरी-मार्च 2020 से व्यापार-वाणिज्य बंद है । अति आवश्यक वस्तुओं को छोड़कर दूसरी हर वस्तु के आयात-निर्यात पर पाबंदी है । अंतर्राष्ट्रीय परिवहन भी रुका हुआ है । संगोष्ठियों और संमेलनों से लेकर राजनीतिक गलिहारों में सन्नाटा पसर चुका है । कला, खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, महासंमेलन, आदान-प्रदान, मिलना-जुलना सबकुछ स्वाभाविक रूप से रुका हुआ है । हर देश जैसे व्यापक अर्थ में एक कैदखानें में तब्दील हो चुका है । मोटे तौर पर कहा जाए तो पूरा जीवन ही लकवाग्रस्त है, संशयग्रस्त है । अस्पृश्यता ही मानो आज का बड़ा धर्म बन चुका है । और यही सबसे बड़ा आघात है । स्पर्श और प्यार का आदान-प्रदान ही रुक जाए तो फिर जीवन का क्या अर्थ रह जाएगा ?
दस साल से कम उम्र वाले बच्चों के लिए तो यह जीवन का बड़ा टर्निंग पोइन्ट बना रहेगा । बचपन दीवारों के बीच गुम हो गया, स्पर्श की पूरी दुनिया ही छीन ली गई, चेहरे के मास्क ने मनुष्य की पहचान ही सीमित कर दी । खुला आकाश, ऊर्जा से भरे हुए मैदान, हमउम्र बच्चों की किलकारियों से गूँजते स्कूलों के मैदान, हँसी-मजाक से भरे-पूरे क्लास रूम, गलियों में खेले जाने वाले खेलों से ये बच्चे कितने दूर हो गए हैं.... ? कहाँ गए वे दिन । बार-बार सेनिटाइज़र से धूलते हाथ, कान की खूँटी से लटकते मास्क में घुटता भय, किसी भी स्पर्श से पहले पैदा होता खौफ और अजनबी के प्रति स्वाभाविक तिरस्कार मानो आज का कटु यथार्थ बन गया है । कोई भी किसी को स्वस्थ रूप में देखने की स्थिति में नहीं है ।
अस्पताल मरीजों से भरे पड़े हैं । सरकारी और निजी अस्पतालों के अलावा अस्थायी रूप से तैयार किए गए आइसोलेशन और क्वोरोन्टाइन केन्द्रों में अब मरीजों की संख्या इतनी है कि उन्हें कहाँ रखना यह समस्या है । बड़े शहरो की इस स्थिति के बीच अब संक्रमण की पेटर्न भी बदल रही है । शहरों से भागकर गाँवों में गए हुए संक्रमितों से अब गाँवों में भी कोरोना फैल रहा है । तो दूसरी ओर कोरोना के इलाज के लिए प्रशिक्षित स्टाफ अब कम पड़ने लगा है । अब तक स्वस्थ रहे लोगों में इस परिस्थिति ने भय का माहौल पैदा किया है । निरन्तर आशंका, भय, संक्रमण का खौफ और दूसरी तरफ बचत भी खर्च हो जाने के कारण रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए चल रही जद्दोजहद – इन सबसे मध्य और उच्च मध्य वर्ग जूझ रहा है । खास करके प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले नौकरीपेशा, कोन्ट्राक्ट पर काम कर रहे कर्मचारी, छोटे व्यापारी, रोज कमाकर खाने वाले मजदूर, श्रमिक और बड़ा निवेश कर चुके व्यवसायी और बड़ी बड़ी फीस वसूलने वाले स्कूलों में फिक्स वेतन पर काम कर रहे सैकड़ों शिक्षकों की स्थिति दयनीय बन चुकी है । इस महामारी ने बड़ी गहरी चोट लगाई है । सरकार द्वारा कई तरह की मदद के बाद भी उनके लिए टिके रहना और वापस खड़े होना आसान नहीं है । हालांकि यह भी हकीकत है कि मनुष्य जाति बेमिसाल है । मनुष्य गिरता है और फिर दुगने उत्साह से लड़ता है, इसके सैकडों उदाहरण हैं, अनेक आपदाओं से लड़ते हुए वह जो नवसर्जन करता है वह अभूतपूर्व होता है । मुझे पूरा विश्वास है कि एक-दो सालों में मनुष्य फिर दुगनी रफ्तार से आगे बढ़ेगा ।
सबसे अधिक संक्रमित देशों में भारत अब तीसरे स्थान पर है । आश्वस्त होने जैसी बात यह है कि भारत में मृत्यदर कम है और रिकवरी रेट 70 प्रतिशत से ऊपर है । लोकडाउन के विकट दौर को पार करते हुए अब अनलोक-3 के दौर से गुजर रहे हैं । अधिकांश उद्योग-व्यवसाय खुल चुके हैं परन्तु कोरोना का खौफ हर जगह बना हुआ है । यानी कि कुछ भी पूर्ववत नहीं है । धर्मस्थान भी खोल दिए गए हैं । विवाह और सामाजिक प्रसंगों को मनाने पर नियमन लागू है । राजनीतिक या सांस्कृतिक या किसी भी प्रकार के उत्सवों को सार्वजनिक रूप से मनाने के लिए उचित पाबंदी जारी है । स्कूल-कॉलेज, सिनेमागृह बंद हैं और अब भी एक-दो महीनों तक खुलने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे । देश के जाने माने उद्योगपति श्री रतन टाटा का एक विधान इन दिनों बहुत प्रचलित हुआ है – ‘2020 के इस साल में जीवित बचे रहना ही बड़ी सफलता मानी जाएगी ।’
सचमुच, आज की सबसे बड़ी सफलता जिन्दा बचे रहना ही है । विकास, व्यवसाय-रोजगार, सफलता और नये इनिशियेटिव का यह समय नहीं है । फिलहाल, वह सब कुछ स्थगित है । कोई भी नया साहस संभव नहीं है । घर से निकलकर चौराहे पर आयी हुई चाय की दुकान में जाकर चाय पीना भी आज के लिए बड़ा साहस बन गया है । उस दौरान आप संक्रमित होते हैं तो फिर गई भैंस पानी में । संक्रमित होने का मतलब मृत्यु नहीं है परन्तु उससे कम भी नहीं है । कोई दवाई खोजी नहीं गई, जो दावे किए जाते हैं उसमें अभी विश्वास रूपी रंग घुला नहीं है । कुछ दवाइयाँ बाजार में उपलब्ध हो चुकी है परन्तु कोई दावे के साथ कह सके ऐसी स्थिति में नहीं है । वैक्सिन ढूँढ निकालने का दावा कई रिसर्च एजन्सी कर रही हैं परन्तु साथ ही साथ उनके अंतिम टेस्ट भी चल रहे हैं – इसलिए बाज़ार में उपलब्ध होने में दो-तीन महीनों का समय लग सकता है । फिलहाल जो भी उपचार हो रहे हैं वे परंपरागत फ्लू एवं न्यूमोनिया से सम्बन्धित हैं । काढ़ा पी-पीकर पूरा समाज कुढ़ने लगा है । आयुर्वेद के उपचार, होमियोपेथिक दवाइयाँ, घरेलू उपचारों की बाढ़ आ चुकी है । सुबह से शाम तक सर्दी और बुखार से बचने के लिए शरीर में गर्म पदार्थ डालते रहने का उद्यम खूब चल रहा है । किसी को भी पता नहीं है कि कोरोना वायरस आता कहाँ से है ? ठीक कैसे होता है ? यह भी तय नहीं है कि इस तरह उपचार करने से शत प्रतिशत परिणाम मिलता है या नहीं ? घर में कैद रहने वालों से आकर कोरोना लिपट गया है और कूड़े के ढेर पर रहने वाले, चौबीसो घण्टे मरीजों के बीच असुरक्षित अवस्था में रहकर मेडिकल वेस्ट का निकाल करने वाले सेवा कर्मियों को कोरोना छू भी नहीं सका है ! ऐसी स्थिति में फिलहाल कोई नतीजा आखिरी नहीं माना जा सकता । कोई तरीका कारगर प्रतीत नहीं होता । बीस-पच्चीस साल के युवा डॉक्टर, सेवाकर्मी से लेकर ऐसे लोग कोरोना के खिलाफ जंग हार चुके हैं, जिनका सही में बहुत अद्यतन रूप से इलाज हुआ था, महँगी दवाइयाँ और लेटेस्ट इलाज के बाद भी जिन्हें नहीं बचाया जा सका ऐसे कई लोगों के नाम सुनकर झटका लगता है तो दूसरी तरफ 90 साल से बड़ी उम्र वाले लोग, जिन्हें कई तरह की दूसरी बीमारियाँ भी थी, कमजोर और वैसे भी मृत्यु के करीब थे ऐसे कई लोग कोरोना के सामान्य इलाज से, महीना-पन्द्रह दिन होस्पिटल में रहकर, कुछ तो पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक वेन्टिलेटर पर रहने के बाद भी घर वापस आये हैं ! इसे कुदरत का कमाल भी कह सकते हैं और कोरोना का भी । कोरोना किस तरह पैदा होता है, विकसित होता है और प्रसरित होता है उसकी कई एनिमेशन फिल्में, कई लेख, अनेक डॉक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा समझाने के बाद भी जैसे कोई ऐसा फैक्टर है जो अभी हाथ नहीं लगा है !
इस कोरनाकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि अगर कही जाए तो यह है कि इस दौर में मानव संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए अनेक दिशाएँ खुली हैं । सोशियल मीडिया ने इस संकटकाल में मनुष्य को अभिव्यक्ति का मंच देकर एक नया रूप प्रदान किया है, सोशियल मीडिया के प्लेटफोर्म पर मनुष्य अपने अनेक रूपों के साथ प्रकट हुआ है । पूरे विश्व की भाषाओं में कितना कुछ प्रकट हुआ होगा ?! कोरोना के कारण घर की चार दीवारों में कैद मनुष्य को इस समूह माध्यम ने मुक्ति का मार्ग दिखाया है । फेसबुक, ट्विटर, वोट्सएप और विडियो एप के जरिए कितना कुछ उँडेला गया है !! लोगों की वैयक्तिक संवेदना से लेकर आसपास के अनुभव, बदला हुआ जीवन और उसमें पनपे हुए नए नए परिमाण, कटाक्ष, साहस, ब्लेक ह्युमर, नेताओं –सामाजिक व्यवस्था – धर्म क्षेत्र का खोखलापन, लोगों के विविध प्रकार के पलायन आदि से सम्बन्धित विडियो की धूम मची हुई है । सोशियल मीडिया के कई नए सेलिब्रिटी भी इस दौर में उभर आए हैं । दाम्पत्य जीवन से लेकर पारिवारिक जीवन में खड़ी हुई विविध परिस्थितियों के कारण हिंसाचार बढ़ने के आंकड़ों ने भी चौंकाया है । हम सोच भी नहीं सकते ऐसे ऐसे विषयों पर कई तरह के न्यूज़ आए हैं, व्यूज़ आए हैं और अ-पूर्व कही जाने वाली मानवीय संवेदना प्रकट हुई है । अच्छे-बुरे पहलुओं की कोई सीमा नहीं है । इन सबको तो समेटना भी संभव नहीं है ।
मनुष्य-जीवन बिल्कुल थम-सा गया और इसीके चलते मनुष्य से अलग पक्षी-जीवन, प्राणी-जीवन, अन्य जीवसृष्टि, नदी-तालाब, बर्फ से ढँके पहाड़ों से लेकर शहरों में फैला प्रदूषण, पूरे विश्व का परिवहन थम जाने के कारण पैदा हुआ अवकाश और उसमें से जन्मी कुछ अच्छी बातें, कम हुआ प्रदूषण, वातावरण में आई शुद्धता, शहरों की निर्जन सड़कों पर आ गए जंगली प्राणी और इन सबके कारण कल्पनातीत जो दृश्य खड़े हुए हैं उनकी तस्वीरों ने धूम मचा रखी है । सोशियल मीडिया ने इसका पूरा पूरा आनंद उठाया है । ओज़ोन की परत ठीक होने से लेकर दिल्ली, मुंबई, चेन्नाई जैसे बड़े शहरों मे कम हुए प्रदूषण की ख़बरों ने पुलकित भी किया है । लोगों के लिए घर में लोकडाउन होकर रहने का अनुभव विशिष्ट था – दिन-रात घूमता रहने वाला, उद्यम में रत रहने वाला मनुष्य एकदम अचानक ही पेरेलाइज़्ड हो गया और परिणाम स्वरूप उसके जीवन में अभूतपूर्व बदलाव आए । इन अनुभूतियों को उसने व्यक्त किया, कुछ ने विडियो बनाए, कुछ ने उसे कविता या कहानी का रूप दिया और कुछ लोगों ने इन अनुभवों को सोशियल मीडिया पर लाइव शेर किए । इसीके चलते विश्व में अब तक आई हुई महामारियों के संस्मरणों, तस्वीरों, पुरानी पीढ़ी के लोगों के अनुभवों, उस पर लिखे गए साहित्य से लेकर अनेक कहानियों, लेखों, समीक्षाओं आदि को पुन: प्रकाश में भी लाया गया है ।
जीवन से जुड़ी हुई कोई ऐसी बात नहीं होगी जिस पर इस कोरोना की महामारी ने असर न डाला हो । 2020 के आरंभ से ही इस वायरस ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी । विश्व के कुछ सयाने देशों और समाजों ने एहतियात बरतते हुए कोरोना से बचने के उपाय तुरन्त शुरू कर दिए थे । जैसे कि, जापान दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जिस महाक्रूर अनुभव से गुजरा था उसमें से सीख लेते हुए वहाँ के लोगों ने मास्क को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना दिया था । रेडियेशन और महामारी से बचने के लिए जापानी रोजमर्रा के जीवन में मास्क एवं सोशियल डिस्टन्स का प्रयोग सहज रूप से करते आए हैं इसलिए चीन से बिल्कुल करीब होने के बावजूद कोरोना के कहर से काफी बचे हुए हैं । तो भारत, पाकिस्तान, अफग़ानिस्तान से लेकर अनेक आफ्रिकन देशों में कोरोना तैजी से फैला होने के बावजूद मृत्युदर यूरोप-अमरीका की तुलना में कम रही । इसका एक कारण इन देशों में निरन्तर चलने वाले वैक्सिन प्रोग्राम भी रहे हैं । साथ ही साथ बड़ी आबादी वाले इन देशों के लोगों की कुछ विशेषताओं और जीवनशैली ने उनके भीतर सहज रूप से जो इम्युनिटी सिस्टम खड़ी की है, इसका भी साथ मिला है । यूरोप-अमरीकन देशों के लोग स्वच्छता को लेकर बहुत सजग है और इसीलिए वहाँ के लोगों की प्रतिरोधक क्षमता थोड़ी सी कमजोर होने के कारण वहाँ संक्रमण अधिक फैला, मृत्युदर भी वहाँ काफी अधिक रहा और उच्च गुणवत्तायुक्त मेडिकल सिस्टम भी असफल रही ! इन सभी निष्कर्षों को तो अभी आरंभिक ही कहा जा सकता है । इनकी वैज्ञानिक तार्किकता से पुष्टि होना बाकी है, अनुसंधानों के बाद ही यह स्पष्ट होगा । परन्तु एक बात तो हमारी समझ मे आ गई है कि कुदरत के चक्र को डिस्टर्ब करने के परिणाम भुगतने के लिए अब मनुष्य को तैयार रहना होगा ।
कोरोना की इस महामारी ने मनुष्य को नितान्त नंगा कर दिया यह उसकी दूसरी उपलब्धि है ।
इतना विकट समय है । किसी भी मनुष्य को किसी भी समय कुछ भी हो सकता है ऐसा यह समय है । मनुष्य ने बहुत अनुसंधान किए हैं, मेडिकल क्षेत्र में आधुनिक उपलब्धि प्राप्त की है, बावजूद इसके कोविड-19 पर काबू पाने की क्षमता इतने समय बाद भी उसके हाथ नहीं लगी है यह उसकी सबसे बड़ी लाचारी है । अँधेरे में तीर चलाने लायक इलाज हो रहे हैं । मनुष्य आदिम अवस्था में जितना लाचार था उतना ही आज भी लगता है । इसे क्या मनुष्य का सबसे बड़ा सबक नहीं माना जा सकता....!?
इस सबक को गहराई से समझने की जरूरत है । सामान्य थियरी के मुताबिक यह वायरस चमगादड़ से मनुष्य में आय़ा है । चीन के लोग दुनिया में विचित्र भोजन के लिए कुख्यात है । ऐसा कहा जाता है कि मानवभ्रूण से लेकर शायद ही ऐसा कोई जीव होगा जो चीनी लोगों के मेनू का हिस्सा न हो ! यह सिर्फ खाने की बात हो तो कोई बात नहीं । मांसाहारियों से तो पूरा विश्व भरा पड़ा है और अगर ऐसा नहीं होता तो जमीन पर इतना उत्पन्न भी नहीं होता कि उससे मनुष्य का पेट भरा जा सके । सी फूड और पालतू मीट से काम चल सकता है इतनी समझ भी आज का मनुष्य अगर विकसित नहीं कर पाया तो कुदरत का संतुलन कहाँ तक बरकरार रह सकता है...!? ऐसा भी नहीं है कि यह सृष्टि सिर्फ मनुष्यों के लिए है । समुद्र की गहराई से लेकर हवा की परतों तक कई जीवों का जन्म होता रहता है, वे जीते हैं और इस व्यापक जीवनचक्र को चलाते हैं । मनुष्य जाति ने इस क्रम को अपनी इच्छा के मुताबिक, अपने निजी स्वार्थ की खातिर और बेहद तरीके से डिस्टर्ब करने का कार्य पिछली दो शताब्दियों से किया है । असीमित रूप से कुदरती संपत्ति का उपयोग करके संतुलन बिगाड़ दिया है । प्रकृति हर जीव को जीवित रहने जितना देती ही रहती है, यह व्यवस्था सदियों से देखी जाती है परन्तु मनुष्य जाति के स्वार्थ की कोई सीमा नहीं है । आज इस सच्चाई ने धरती पर डरावनी आपदाओं का रूप ले लिया है । वैज्ञानिक और सजग-संवेदनशील मनुष्य इन बदलावों से चिंतित है । उन्हें पता है कि, ध्रुवों पर बिछी सदियों पुरानी बर्फ पिघल रही है और इससे जलस्तर तो असंतुलित हो ही रहा है परन्तु साथ ही साथ उस बर्फ के नीचे जमे हुए लाखों-करोड़ों वर्ष पुराने समय के वायरस भी जीवन्त होकर पुन: सृष्टि की ओर आ रहे हैं । मनुष्येतर जीवों में रहे बेक्टेरिया और वायरस की मनुष्य जाति में संक्रमित होने की गति क्रमश: बढ़ रही है और सदियों से मनुष्य की मदद करते हुए उसे बचाते रहने वाले मेडिकल क्षेत्र के सामने अचानक नयी चुनौतियाँ आ रही हैं । प्लेग, रेबीज, चेचक से लेकर एन्थ्रेक्स, सार्स और अब यह कोरोना (कोविड-19) इसीके कुछ नमूने हैं । इनके अलावा भी कई नए नए बेक्टेरिया और वायरस का उपद्रव बढ़ रहा है ।
मनुष्य को अगर उपाय ही ढूँढते रहने हैं तो फिर उसका पूरा जीवन इसी भय की आशंका में बीत जाएगा । विकास के साथ अगर रोग बढ़ते ही जाने वाले हैं तो फिर ऐसे विकास का मतलब क्या...? मनुष्य जाति की सबसे बड़ी कमनसीबी यह है कि, आजकल उसके जीवन में कुदरती प्रक्रिया भी कुदरती रूप से नहीं हो रही है । बच्चे को जन्म से ही विविध दवाइयाँ, वैक्सिन, सप्लिमेन्टरी सहायक का आदी बना दिया जाता है और फिर समग्र जीवन के दौरान शायद ही कभी वह रोगमुक्त जीवन जी पाता है । यह स्थिति समग्र प्रशासन के वजूद के सामने प्रश्न खड़ा करती है । मेडिकल का क्षेत्र समग्र मनुष्य जाति के लिए उपकारक है इसका स्वीकार तो करना ही पड़ेगा क्योंकि इसके हजारों-लाखों प्रमाण है, विशेष रूप से दुर्घटनाएँ और कुछ आजीवन साथ चलने वाली बीमारियों में तो मेडिकल क्षेत्र की उपलब्धियाँ अनन्य है परन्तु साथ ही साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी मेडिकल क्षेत्र में हुए व्यापक अनुसंधानों के साथ बीमारियाँ और मनुष्य की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ भी कई गुना बढ़ गई है, आबादी की तुलना में अस्पतालों की संख्या में भी उतनी ही वृद्धि होती रही है । शारीरिक और मानसिक बीमारियों का प्रमाण बढ़ता रहा है । इस असंतुलन पर कैसे काबू पाया जाए इसे प्रशासन नहीं समझ पाया है । एक बहुत ही जटिल तंत्र ख़ड़ा हो रहा है जिसकी नागपाश में से मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता है । शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्त करने की होड़ में वह आर्थिक रूप से बिल्कुल बेहाल हो जाता है । और बाद का जीवन जैसे जीवन रहता ही नहीं है । अथवा तो आजीवन लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे कोमा जैसी हालत में जी रहे सैकड़ों मरीजों को देखकर हम यह नहीं समझ पाते कि इसे मेडिकल विश्व की बड़ी उपलब्धि माना जाए या मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ?! इस स्थिति को समझ पाना मुश्किल है ।
सरकारों के कार्यों का भी विस्तृत मूल्यांकन होगा, होता रहा है । भारत के प्रधानमंत्री मोदीजी ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू की अपील करके पहली बार इस महामारी से जनता को जोड़ा । बाद में 24 मार्च से समग्र देश में लोकडाउन घोषित किया गया । स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार ट्रेन, प्लेन, और सार्वजनिक परिवहन एक साथ थम गया । लगभग सभी सेवाएँ बंद, बाजार बंद, नौकरी-व्यसाय से लेकर सामान्य आवागमन भी संपूर्ण बंद । उसके बाद लोकडाउन की अवधि बढ़ती गई । मनुष्य घरों में कैद हो गए और उसके बाद जो दृश्य देखने मिले, जिस तरह की खबरें चली और प्रधानमंत्री की अपील पर जिस तरह के कार्यक्रम होते गए वह सबकुछ अविस्मरणीय बना रहेगा । शुरू में संध्या के समय थाली बजाकर कोरोना वोरियर्स का उत्साह बढ़ाया गया और बाद में दीप जलाकर कोरोना के खिलाफ एकता का प्रदर्शन किया गया । इन कार्यक्रमों के समर्थन में अधिकांश भारतीय जुड़े तो कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया । कुल मिलाकर शुरू के उन दिनों में देश को एकजुट रखने में सफल रहा गया । आरंभिक दिनों में बहुत चर्चित हुए तब्लीगी जमात के कारनामों ने देश को स्तब्ध कर दिया था, तो बाद में लोकडाउन का भंग करने, गैरकानूनी वस्तुओं की हेराफेरी करने और चित्र-विचित्र लगने वाले प्रसंग उजागर होते गए और पुलिस द्वारा बरती जा रही सख्ती की तस्वीरें, विडियो, मज़ेदार से लेकर करूण प्रसंगों ने लोगों के मानस पर एक भयानक प्रभाव खड़ा किया । उस समय कोरोना का फैलाव आज की तुलना में बहुत कम था परन्तु कोरोनाग्रस्त हुए व्यक्ति को जिस प्रकार इलाज के लिए ले जाया जाता था और उसके परिवार के सदस्यों, उसकी पूरी सोसायटी को जिस प्रकार क्वोरोन्टाइन करने की फूलप्रुफ प्रक्रिया होती थी वह अच्छे-खासे स्वस्थ व्यक्ति को भी ख़ौफ का अनुभव कराने वाली थी । समग्र विश्व में यही स्थिति होने की खबरों ने मनुष्य जाति को अंदर-बाहर से डरा दिया था । भय भीतर तक प्रवेश कर चुका था । तीन-तीन लोकडाउन के दौरान बहुत सारे लोग तो अपने घर से, अपने वतन से दूर फँसे हुए थे, कुछ लोग व्यवसाय के लिए, कुछ लोग सामाजिक कार्यों के लिए, कुछ लोग घूमने के लिए तो कुछ लोग अन्य कारणों से दो-तीन महीनों के लिए घर-परिवार से दूर रहे । इस स्थिति ने बहुत समस्याएँ खड़ी की । बाद में सरकार ने पास देने की व्यवस्था शुरू की, निश्चित नियमों के साथ लोगों को आवागमन की अनुमति दी जाने लगी । परन्तु यह सबकुछ सरल नहीं था । लोगों को पहली बार सुरत से अहमदाबाद आने के लिए भी जैसे विज़ा की जरूरत महसूस हुई । इस व्यवस्था में भी निरक्षर, मजदूर और सामान्य वर्ग के लिए तो अज्ञानता के कारण मुश्किलें बहुत थी ।
स्पेशियल ट्रेन और बसों की सुविधा की गई । एक शहर से दूसरे शहर और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश के बीच आवागमन मुश्किल कार्य बना रहा । मजदूरों और वतन वापसी करने वाले लोगों की संक्रमण के भय के बीच व्यवस्था करना, क्वोरोन्टाइन सेन्टर खड़े करते हुए उसमें हजारों लोगों के खाने-पीने और रहने के इन्तजाम करना बहुत बड़ी चुनौति थी । बेरोजगार लोगों, गरीबों और घुमक्कड़ लोगों की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार की थी । अधिकांश तो अभूतपूर्व व्यवस्था खड़ी भी की गई । इन सब में मानवीय और प्रशासनिक मर्यादाएँ भी देखने मिली तो दूसरी तरफ लोगों की नासमझी, अधीरता और दोगलेपन का खतरनाक रूप भी देखने मिला ।
अगर प्रदेशों पर दृष्टिपात करें तो जिन प्रदेशों में विदेश से आने वाले लोगों की तादाद ज्यादा थी ऐसे प्रदेश महाराष्ट्र, दिल्ली, केरल और गुजरात में स्थिति अधिक खराब थी । महानगरों की घनी आबादी ने भी कोरोना को फैलाने में अहम भूमिका निभाई । धीरे धीरे प्रसरण की पेटर्न भी बदलती गई और प्रशासन भी गलती से सीखते हुए अधिक तैयार होता गया । विश्व में कहीं भी नहीं की गई हो ऐसे अभूतपूर्व कोविड सेन्टर की सुविधा भारत में खड़ी की गई । लोकडाउन में थम चुकी ट्रेनों की बोगियों को होस्पिटल में परिवर्तित कर दिया गया । कॉम्यूनिटी हॉल, होस्टेल से लेकर बंद हो चुकी होटलों के कमरों और स्कूल-कॉलेजों के मकानों को डॉक्टर हाउस में परिवर्तित कर दिया गया । संक्रमण के कारण मेडिकल कर्मियों को घर से दूर रहना जरूरी था । इन परिस्थितियों में अभूतपूर्व मानवीय संवेदनाएँ भी उसी मात्रा में उभर आयी ।
भारत का सामाजिक ढाँचा अलग है । उसमें एक विशिष्ट और निजी लचीलापन है । पारिवारिक ढाँचे से लेकर विस्तृत फलक पर दृष्टिपात करते हैं तब उसमें एक विशिष्ट बुनावट नज़र आती है । सामान्य दिनों में भले ही वह विशिष्टता नज़र न आती हो परन्तु प्राकृतिक आपदा से लेकर राष्ट्रीय समस्या के समय वह अपने व्यापक रूप में प्रकट होती अनेक बार महसूस हुई है । यह विशिष्टता है मानवीय जीवन-मूल्य की । इस भयानक कोरोनाकाल में मनुष्य-मनुष्य के बीच एक दूसरे से दूरी यानी कि सोशियल डिस्टन्सिंग जैसे एक बड़ा अनिवार्य नियम बन गया । भारतीय ढाँचे में यह बहुत मुश्किल कार्य है । एक तो आबादी इतनी ज्यादा कि इस नियम का पालन करना कठिन है, और उसमें भी यहाँ तो तरह-तरह के सामाजिक और धार्मिक नियम एवं मूल्य, लगातार आने वाले त्यौहार और सामाजिक प्रसंगों के ताने-बाने । परिणामस्वरूप कई निष्णात बारबार यह चेतावनी देते रहे कि भारत में यह बीमारी भयंकर रूप धारण करेगी । परन्तु सुखद आश्चर्य के बीच भारत की जनता ने इन नये नियमों को अपना लिया । जहाँ निम्नवर्ग में तो मुश्किल से एक कमरे में दस-पाँच लोगों के रहने की सुविधा होने के कारण ऐसी दूरी बनाए रखना संभव नहीं था वहाँ भी ऐसी दूरी खड़ी करने के नुस्खे अपनाए गए, जुगाड़ किए गए ।
भारत के लोग मुश्किल दौर में एक हो जाते हैं यह पुन: पुन: उजागर हुआ । देश के सबसे समृद्ध माने जाने वाले उद्योगपतियों से लेकर कलाकार, खिलाड़ी से लेकर धार्मिक संस्थान, अन्य संस्थान, व्यापारियों से लेकर सामान्य मनुष्य तक सब जितनी बन सकती थी उतनी आर्थिक मदद से लेकर कई तरह की सेवा देने अपने आप ही सामने आए । प्रधानमंत्री राहत कोष में अविरत और अकल्पनीय दान का प्रवाह शुरू हुआ । अस्पतालों में जरूरी इक्विपमेन्ट, पीपीई कीट से लेकर कई प्रकार की सुविधाएँ भारत में नहीं थी । उन्हें बाहर से आयात करना पड़ता था । विशेष रूप से वेन्टिलेटर की तो सामान्य दिनों में भी कमी थी परन्तु एक-डेढ़ महीने में ही सबकुछ भारत में निर्मित होने लगा, इतना ही नहीं, निर्यात के जरिए दूसरे देशों की भी मदद की जाने लगी । उसी प्रकार हाइड्रोक्लोरोक्विन बनाने में पूरे विश्व में भारत पहला और एक मात्र देश बन गया और इस दवाई की अमरीका से लेकर कई बिल्कुल अविकसित देशों में आवश्यकता खड़ी हुई । एक तरफ भारत के अपने करोड़ों लोगों की जिन्दगी बचाने के लिए इस दवाई का संग्रह करना भी आवश्यक था, फिर भी मानवीय दृष्टि से दूसरे देशों के लोगों की मदद भी भारत ने की । विश्व के कई देशों ने इसके लिए भारत का ऋण स्वीकार किया है । ‘विश्वम् कुटुम्बकम्’ का सूत्र सिर्फ व्याख्यान के लिए नहीं है, भारत अपनी आत्मा से उसे साकार करने के लिए प्रयत्नशील है इस बात की प्रतीति पूरे विश्व को हुई ।
इन्हीं दिनों रामजन्मभूमि पर मंदिर का शिलान्यास भी हुआ; वैसे यह कोरोना से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ मामला नहीं है परन्तु इसका उल्लेख करना भी बहुत जरूरी है । 5 अगस्त 2020 को सीमित महानुभावों की उपस्थिति में यह कार्य संपन्न हुआ । आगामी दो-तीन वर्षों में वहाँ राम मंदिर के निर्माण का आयोजन है । पिछली चार सदियों से इस भूमि पर विवाद चल रहा था । आज़ादी के बाद इस विवाद ने राजनीतिक स्वरूप धारण किया और अनेक आंदोलनों, संघर्षों एवं मानवसंहार के बाद आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इसका सुखद अंत हुआ । इस प्रकार भारतीय समाज और राजनीति के एक उग्र अध्याय को समाप्त किया गया । व्यापक अर्थ में यह एक सांस्कृतिक घटना है । मंदिर की आधारशिला रखने का यह दिन 5 अगस्त जम्मू-कश्मीर प्रदेश को केन्द्रशासित घोषित करने के दिन के रूप में भी मनाया गया । इसके अलावा कोरोनाकाल में कुछ प्रदेशों की सरकारों में हुई उठापटक, राज्यसभा के चुनाव, कुछ राजनीतिक घटनाएँ और विवाद भी इस समय का एक उल्लेखनीय पहलू बना रहेगा । विशेष रूप से भारत में हिन्दू और मुस्लिम के बीच में होते रहे संवाद-विवाद के इन वर्षों की भविष्य-निर्माण में अहम भूमिका होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है । बदलते भारत की उभरती तासीर और तस्वीर का एहसास हवा में तैर रहा है ।
चीन, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, मलेशिया के साथ के भारत के परंपरागत सम्बन्धों में भी बदलाव आया है । साथ ही साथ वैश्विक राजनीति के संदर्भ में भी भारत की विदेश नीति में आए परिवर्तन उल्लेखनीय हैं । आए दिन होती रहती राजनीतिक घटनाएँ और अमरीका, भारत, चीन, रूस, इरान, तुर्किस्तान, इज़राइल, उत्तर कोरिया, जर्मनी, फ्रांस आदि कई देशों में एक साथ मजबूत नेतृत्व उभर आया है इस लिए पावर संतुलन बिगड़ा है । परिणामस्वरूप गणित बदल रहे हैं । तीसरे विश्व युद्ध की आशंका पैदा करने वाले प्रसंगों ने इस कोरोनाकाल के उद्वेग को और बढ़ाया है । एक तरफ अमरीका और उसके मित्र राष्ट्र हैं तो दूसरी तरफ मोर्चा सँभाले हुए हैं चीन और उसके मित्र राष्ट्र । मात्र भारत में ही नहीं परन्तु अन्य देशों में भी नेशनालिज्म की नई परिभाषाएँ गढ़ी जा रही हैं । कट्टर मानसिकता उभर रही है । बाहुबली नेता गोरिल्लों की तरह रणघोष बजा रहे हैं ! मनुष्य के भीतर जैसे डर रहा ही नहीं । फिर से आदिम अवस्था में जाने का भय भी जैसे खत्म हो गया है !
काल लगातार हमें अपनी गिरफ्त में लेता रहता है । वह अपना शिकंजा क्रमश: कसता जाता है । यों देखा जाए तो दूसरे प्राणियों की तुलना में हम काल का बड़ी सजगता से उपयोग करते हैं – उसके समूचे अर्थ में । आदिम अवस्था से लेकर आजतक उत्क्रांति के इस चक्र में डार्विन ने कहा है इस तरह जो सबसे स्वस्थ होता है वही जीव टिका रहता है और विकसित होता है । आज हमारी दृष्टि से मनुष्य उत्क्रांति के शिखर पर बैठा है । पृथ्वी के ऊपर और पृथ्वी के बाहर सौर मंडल में भी मनुष्य ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया है – इस हकीकत मुँह नहीं मोड़ा जा सकता । मनुष्य ने इसके लिए हजारों साल संघर्ष किया है । मात्र संघर्ष ही नहीं, सार्थक संघर्ष और शोधवृत्ति के साथ संघर्ष किया है । मनुष्य के अलावा कोई ऐसा जीव नहीं होगा जिसे वायरस और किटाणु की पहचान होगी ! मनुष्य ने अपने आसपास को पहचानने में सदियाँ गुजार दी है । सूक्ष्म जीवों से लेकर विराटकाय प्राणियों को अपने अधीन करने हेतु वह जूझता रहा है और इसमें वह काफी सफल भी हुआ है तो इसमें उसे लगातार असफलता भी मिलती रही है । आज कोविड-19 का चेलेन्ज भी उसके लिए छोटा नहीं है । उसका हल भी जरूर मिलेगा परन्तु इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ी है वह बेहिसाब है ।
इससे पूर्व की वैश्विक महामारियों ने कई जिन्दगियाँ खत्म कर दी थीं । बहुत बड़ी संख्या में, करोड़ों की तादाद में आबादी नष्ट हो गई थी । उनमें प्लेग, मलेरिया, टी.बी., रेबीज, चेचक आदि बीमारियों के नाम जेहन में उभरते हैं । इन बीमारियों ने तबाही मचाते हुए दुनिया की तीस प्रतिशत से ज्यादा आबादी को उजाड़ दिया था । इस बार कोरोना की महामारी ने एक नया परिमाण दिया है । इसने जानहानि से ज्यादा आर्थिक बेहाली दी है और यह भविष्य के लिए बड़ा खतरा सिद्ध होने वाली है । मनुष्य को छोड़कर बाकी सारी सृष्टि धड़क रही है, जीवन का आनंद उठा रही है और सबसे ज्यादा प्रवृत्त माना जाने वाला मनुष्य घर के भीतर कैद होकर रह गया है ! खैर, मनुष्य फिर से खड़ा होगा । जिन्दगी फिर धड़कने लगेगी ।
इस विशेषांक का विचार अप्रैल के अंतिम दिनों में आया था । उस समय स्मार्ट फोन के झूले पर बैठकर ही समय बिताना पड़े ऐसी स्थिति थी । मन उन दिनों लागू हुए लोकडाउन को लेकर झूरता रहता था । सामने होती थी नई-नई अनुभूतियों की घोषणा करने वाली सोशियल मीडिया की पोस्ट । खास करके ब्लोग और फेसबुक पर कई लेखक, युवा रचनाकार लिख रहे थे । कोई वर्तमान परिस्थिति का आलेखन कर रहा था तो बहुतों को अपने अतीत के संस्मरण-आलेखन से वर्तमान को झेलने की कोशिश करते हुए देखता हूँ । गुजरात के कुछ नामी लेखकों और कवियों को इस माध्यम पर सक्रिय देखकर विचार आया कि यह सब कुछ इसी रूप में सुरक्षित रहना चाहिए । भविष्य के शोधार्थियों के लिए, उत्सुक लोगों के लिए इस सामग्री को स्थायी रूप देना हमारा कर्तव्य है । धीरे धीरे यह विचार विस्तृत होता गया । विडियो कोलिंग से संपादक मंडल के साथ साप्ताहिक मिटिंग होती रही । उस समय बहुत प्रचलित और फिलहाल जिस पर पाबंदी है उस टिकटोक विडियो के जरिये हैरानी में डालने वाले कुछ नये विचार और दृश्य देखने मिले । जैसे, घर में कैद होकर दूर बैठे हुए प्रेमी, अचानक हुए लोकडाउन से पैदा हुआ वियोग, पति-पत्नी के चौबीसों घण्टे अनिवार्य रूप से साथ रहने कारण खड़े हुए डोमेस्टिक हिंसा के प्रसंग, पुरुषों की आदतों में आए बदलाव, बच्चों के लिए घर छोड़कर गली में जाने पर भी पाबंदी आदि आदि । अनायास मिले इस अवकाश के समय हर पीढ़ी के लोगों की क्रिएटिविटी भिन्न भिन्न माध्यमों के जरिए प्रकट होने लगी – इसे सुरक्षित कर लेना जरूरी लगा । भले ही इसका कोई कलात्मक मूल्य न हो, भले ही भविष्य में यह सब अप्रासंगिक बन जाने वाला हो परन्तु यह आज का सत्य है । वह यथार्थ है जिसे हमने जिया है । हमारी पीढ़ी ने इस भयानक समय को जिस तरह जोक्स की हँसी में उड़ा दिया है, जिस तरह वह उसके सामने घुटने टेककर रोयी है, जिस तरह हमारी कमजोरियाँ उजागर हुई हैं; इन सबकी जानकारी भावी पीढ़ी को मिलनी चाहिए । भविष्य में किसी शोधार्थी को इसमें रुचि पैदा हो और वह इस विशेषांक में संगृहीत सामग्री से गुजरने का प्रयास करे तब इस जिन्दादिल, कोरोना से थकी हारी, लड़ते हुए चट्टान की तरह अडिग रहकर भी टूट चुकी और अंतत: जीत हासिल करने वाली पीढ़ी के मिज़ाज़ को छू सकेगा । यह बात हमारे लिए किसी रोमांच से कम नहीं है ।
इस विशेषांक को साकार करने में अनेक लोगों का योगदान रहा है । कितने सारे लेखकों, कवियों, कलाकारों, ब्लोगरों और फेसबुक राइटर्स का सहयोग हमें मिला है । कई मित्रों ने याद रखते हुए कोरोना सम्बन्धी सामग्री हम तक पहुँचाई है । सबके ओरिज़नल सोर्स जान पाना संभव नहीं हो पाया है । यह तो लोक-साहित्य जैसा माध्यम है । लोग अपना निजी कुछ जोड़कर उसे आगे बढ़ाते रहे हैं । जहाँ तक संभव हो सका है वहाँ तक सामग्री जहाँ से मिली है वहाँ का संदर्भ देने का प्रयास हमने किया है । हर जगह यह संभव नहीं हो पाया है । अपनी रचनाएँ भेजने वाले सभी मित्रों के प्रति मैं आभार प्रकट करता हूँ । कुछ लेखकों की रचनाएँ हमने पत्रिकाओं से या कहीं और से प्राप्त करके प्रकाशित की हैं – इन सभी लेखकों-कवियों का भी हम धन्यवाद प्रकट करते हैं । इस सामग्री को जुटाने में जिन जिन मित्रों-विद्यार्थियों ने मदद की है उन सबका आभार ।
खास करके मेरे सह-संपादक डॉ. हसमुख पटेल, डॉ. नियाज़ पठान, डॉ. भावेश जेठवा और इस अंक के लिए हमारे विशेष निमंत्रण पर सक्रिय होने वाले डॉ. दीपक भा. भट्ट और श्री अजित मकवाणा ने बहुत कड़ी मेहनत की है । सामग्री का प्रवाह ही बहता था । उसमें से चुनाव करना, डुप्लिकेशन मिटाना, स्तरीयता और खास तो कहीं से हलकी भाषा का प्रवेश न हो जाए इसका ध्यान रखना सरल नहीं था । इन मित्रों की मदद से यह संभव हो सका है । श्री संवेदन पंड्या ने भी काफी मदद की है । इनके अलावा भी जिन मित्रों के द्वारा हम यह सामग्री आप तक पहुँचा सके हैं उन सबका आभार ।
परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से मदद करने वाले, प्रतिभाव देने वाले और भावी पाठकों का भी हम आभार व्यक्त करते हैं । आपके प्रतिभाव के दो शब्द हमारे लिए बड़ी पूँजी बन जाएँगे । हमारा अनुरोध है कि आप जरूर लाइक कीजिए, कमेन्ट कीजिए, सूचन कीजिए । धन्यवाद ।
नरेश शुक्ल, मुख्य संपादक, साहित्यसेतु
दिनांकः-7 और 8 अगस्त, 2020
शुक्रवार- शनिवार
अनुवादः- डॉ. नियाज़ पठान