ग्रामीण जीवन की सच्ची तस्वीर को प्रस्तुत करनेवाला उपन्यास ‘गांधारी’
(‘गांधारी’ (मराठी-उपन्यास), ले.- ना. धों. महानोर, अनुवादिका(गुजराती)- भारती वेध, प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया न्यू. दिल्ही, संस्करन-१९९७,ISBN- ८१-२३७-२२४७-८, मूल्य-२१, पृष्ठ-८४)
ना. धों. महानोर का पूरा नाम ‘नामदेव धोंडो महानोर’ है। ना. धों. महानोर मराठी भाषा के प्रसिद्द कवि, उपन्यासकार और कहानीकार है। मराठी साहित्य में महानोर सामाजिक जीवन का चित्रण करने में जाने जाते है। ‘गवातल्या गोष्टी’,‘रानातल्या कविता’,‘गाथा शिवरायांची’ उनके प्रमुख काव्यसंग्रह है। मराठी काव्य परंपरा में महानोर का प्रदान विशिष्ट माना जाता है। उनकी कविताओं में प्रणय विषयक, आत्मलक्षिता से परे सामाजिक जीवन भी प्रस्तुत हुआ है। जैसे,
“ घरातली तुलस तिच्या
मायेने वाढत असते ....
बगीच्यातला निशिगंधा...
तिच्या हसन्याने फुलत असते ...
आई म्हणजे आई असते
जगा वेगली बाई असते ...”
(-आई म्हणजे आई असते(मराठी), कवि ना. धों. महानोर)
उपन्यास के क्षेत्र में भी महानोर का विशिष्ट स्थान है। ‘गांधारी’ ग्रामीण जीवन और सामाजिक जीवन को प्रस्तुत करनेवाला उपन्यास है। इसी समय में व्यकटेश माड़गुलकर, रा. र. बोराडे (पाचोला) और आनंद यादव (गोतावला) आदि ने भी अपने उपन्यासों में ग्रामीण परिस्थितियों का चित्रण किया है। पर उन सब में महानोर का ‘गांधारी’ उपन्यास सबसे अच्छा है। ‘गांधारी’ उपन्यास में निझाम सल्तनत के बाद के जीवन को निरूपित किया है। केवल ग्रामीण जीवन के सकारात्मक पहलू ही नहीं ग्रामीण जीवन के नकारात्मक पहलू का भी लेखक ने निष्पक्ष होकर उसका चित्रण किया है।
‘गांधारी’ उपन्यास सात प्रकरणों में विभाजित है। इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन का निरूपण किया गया है। ‘गांधारी’ गाँव का नाम है। इस गाँव में रहने वाले पात्रों का जीवन और सामाजिक गतिविधियां आदि को निरूपित किया है। उपन्यास का वस्तु एक गाँव का है। महानोरे ने उसे सर्जनात्मक रूप से रखा है।
प्रथम प्रकरण में सल्तनत बाद रझाकारों को पोलीस कार्यवाही होती है वही से उपन्यास शुरू होता है। लेखक ने प्रारम्भ में रझाकारों का जुल्म के बारे में वर्णन किया है। मजदूर रझाकार चांदमल शेठ का घर लूटते है। पहलवान लोग क्रूरता से जयसिंह का खून कर देते है। यही घटना से वो अपना डर लोगो में छोड़ जाते है। उनके त्रास से पूरा गाँव विरान हो जाता है। पर बाद में लोग गाँव में धीरे धीरे यह डर- त्रास हररोज नहीं होगा यह सोच के रहते है। और आजादी उनके मन में नया सवेरा लेके आती है। पूरा गाँव फिर से भर जाता हैं। फिर से लोग खेती करके, विकास करके सामूहिक जीवन व्यतीत करते हैं।
‘गांधारी’ गाँव की सामाजिक स्थिति को महानोर ने प्रकरण दो में प्रस्तुत किया है। बाहर से कई लोग गाँव में स्थिर होते है। आजादी के बाद जिस जमीन पर जो मजदूर काम करता है वो जमीन उसकी यानि ‘खेती करे उसकी जमीन’ वैसा कानून आने से छोटा मजदूर जमीन का मालिक बन जाता है। पर शेठ के पास जो कर्ज था उसे पूरा करने के लिए फिर से वो जमीन शेठ को बेच देता है और फिर से वो मजदूर बन जाता है। पंचायती राज आने से सत्ता का विकेन्द्रीकरण होता है। सत्ता गाँव के आदमी के पास आती है। पर कुछ लोग गाँव का विकास करने की जगह सत्ता के लालची बन जाते है। जगदेव जैसे लोग सत्ता के मोह में राजमल जैसे आदमी को मार कर सत्ता प्राप्त करने में सफल हो जाते है। गाँव के मासूम लोगों को आपस में दंगा करवा के वो राज करते है और वही लोग चुनाव में भी जीत जाते है। गाँव में भष्टाचार बढ़ जाता है। आम आदमी को पता ही नहीं चलता की उसका शोषण हो रहा है। जमीन पर से लोन (कर्जा )कोइ ओर लेता है और पैसा लेने साहब(अधिकारी) लोग आते है तब पता चलता है की अपनी अज्ञानता का लाभ शेठ लोगों ने उठाया है। जैसे की- “साहब, मेरे घर लोन की राशि वसूल ने के लिए सोसायटी के साहब की मोटर आई थी। मै हनुमानजी की सोगंद खाकर कहता हूँ की मेने कर्जा (लोन)नहीं लिया है तो भरपाई करने की बात ही क्यो आवे? एक बार शेठ ने दो-चार जगह पर अंगूठे का निशान लगवा लिया था, और जमीन के दस्तावेज मांगें,वो किसके लिए, मुझे क्या पता? मुझे कैसेपता चलता की सज्जन दिखनेवाला चेरमैन मेरा गला काट देगा। अब मै कहता हूँ मुझे कुछ भी पता नहीं है, वह कहता हैंपैसे भर दो ! साहब, उसका पाप मुझे भुगतना पड़ेगा । हम गरीब, अनपढ लोग और क्या कर सकते है? न्याय मांगने कहाँ जाये ? (गांधारी, ले.- ना. धों. महानोर, अनुवादिका- भारती वेध, प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया (1997),पृ. 14-15)
किसान की जुबानी से पता चलता है कि स्वराज्य का स्वप्न टूट गया है। कब्रस्तान की जमीन पर खेती करने के लिए जगदेव जो चाल चलता है, उसमें कलेक्टर के सामने राघो पाटिल की जुबानी काम लग जाती है।
गाँव में सत्ता आने से ग्रामीण जीवन में जो समस्या खड़ी होती है उसका निरूपण महानोर ने किया हैं। सत्ता, धन, भ्रष्टाचार को महत्व मिलने से हमारे निजी मूल्यों पर जो असर हुआ उसका आलेखन रचनाकार ने किया हैं।
उपन्यास के तीसरे प्रकरण में राघो पाटिल के पुत्र भागवत का आगमन होता है जो उपन्यास का नायक हैं। नैतिक जीवन जीने वाला भागवत शिक्षित है। वो खेती कर रहा है। दूसरी तरफ अंधश्रद्धा में राचने वाले लोग भी है। जाइबाइ जैसी बुझुर्ग अपनी लड़की विधवा होने पर दूसरी शादी करवाने के खिलाफ है। वो अपनी लड़की जयवन्ता क्या चाहती है वो नहीं पूछती और सावित्री, सीता जैसे उदाहरण दे के अकेला जीवन बिताने के लिए कहती है। उपन्यासकारने जयवन्ता के बदन का वर्णन बारिकाई से किया है। “जयवनता के वक्षस्थल तथा माथे पर वस्त्र नहीं ओढा था। उसने साड़ी निकाल दी थी। उसका देह नग्न था। लाल झायवाले पीले रंगवाले नितंब पर हलकी थरथराहट थी। क्रांतियुक्त पुष्ट नितंब और जंगा पर डाम के दो तीन दाग थे। श्याम हो रहे कटिप्रदेश पर हलके श्याम रंगवाले धागे का कन्दोरा (चेईन) और ताबीज था। श्याम रंगवाले धागे के कन्दोरे के कारण कमर के नीचे का भाग अधिक नजर में आता था। केल के खम्भे का आधार लेकर जयवन्ता ज्यों- त्यों खड़ी थी।...”(एजन, पृ.25)
महानोर ने भागवत और लालजी की दोस्ती के बारे में प्रकरण चार में लिखा है। लालजी के पास जमीन है। वह भी खेती करता है। पर वो व्यसन करता हैं। लालजी को व्यसन में से भागवत मुक्त कराता हैं। इसी प्रकरण में लालजी- गुलाब का मिलन होता है। नृत्यकला में रस रखनेवाली गुलाब और तबला बजानेवाले लालजी के बीच प्यार हो जाता हैं। लालजी को पता चलता है की गुलाब के जीवन में काफी समस्या हैं तो वो उसे वहाँ से बाहर निकालना चाहता हैं। बाद में लालजी गुलाब की शादी होती हैं। भागवत गुलाब को नया नाम देता है- ‘सावित्री’। परंतु सावित्री और लालजी की शादी को समाज मान्य नहीं रखता। दोनों को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता हैं। इन पात्रों के माध्यम से रूढ़िवादी समाज का भी परिचय होता हैं। समाज से दूर होने के बावजूद उनके प्यार और विश्वास में कोई कमी नहीं आती। केवल भागवत ही इन दोनों का साथ देता हैं। उपन्यास में भागवत, लालजी जैसे नीतिमान, कलाप्रेमी, निर्भय पात्र भी है तो जगदेव जैसे गुंडे लोग भी हैं।
उपन्यास में गायन- वादन वाले प्रसंग में सर्जनात्मकता प्रगट हुई हैं। उन्होंने प्रस्तुत गीत में चरित्रों के भाव को यों प्रकट किया हैं। जैसे-
“मनने लाख मनाव्युं, ना मान्युं
रामजी, तमे पकड्यू आ पंखी जलमाँ।
रंग मारी साड़ीनो जे लाल
मांहे बादलनो छे महाल
मन आज थयुं छे बेताल...” (एजन, पृ.28)
इस गीत में लालजी और गुलाब की संवेदना व्यक्त हुई हैं तो दूसरी तरफ उपन्यास का मेनेजर केवल नाच-गान वाली के रूप में गुलाब को देखता है। गुलाब जब आराम करती है तब मेनेजर बोलता है कि-
“ ‘आज धंधा डूब गया |
‘हाथ जोड़कर कहती हूं, मुझे अब सोने दो। तुमको पैसों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है, इन्सान को खरीद लेते हो क्या ?’- गुलाब” (एजन, पृ.31)
मेनेजर की जुबानी से पता चलता है की उसे केवल अपने धंधे की फिक्र है आदमी की नहीं। मनुष्य की भावनाओं की कोइ अहमियत उसकी नजर में नहीं है। महानोर की ये बात हमारे मन को छू जाती हैं। इस समय मुझे गुजराती साहित्य के कहानीकार सुंदरम की ‘गोपी’ कहानी की याद आ जाती है।
‘गांधारी’ उपन्यास में महानोर ने रूढ़िचुस्त समाज के साथ धार्मिक समाज का भी निरूपण किया हैं। गाँव के विठ्ठल महाराज को सब मानते हैं। पर महाराज कामुक है। गाँव के शेठ की बेटी के साथ और हौसा के साथ महाराज का शारीरिक संबंध है। भागवत और लालजी ऐसे कामुक महाराज को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते है। यह बड़ी विचित्र बात हैं | हौसा और महाराज के संबंध में हौसा गर्भवती होती है पर वो किसी को बताती नहीं है। महाराज गाँव छोड़ के चले जाते हैं। महानोरने महाराज के चरित्र के माध्यम से असल गाँव का चित्र प्रस्तुत किया है। यहाँ पर लेखक ने गांववालों की अंध-भक्ति, अज्ञानता पर करार व्यंग किया हैं | प्रकरण पाँच में इसी ग्रामीण जीवन को महानोर ने निरूपित किया हैं।
प्रकरण छह में गाँव के संभू माली के घर पर अधिकारी लोग बैंक की वसूली करने आते हैं। संभू माली के पास पैसे और अनाज नहीं है। फिर भी अधिकारी वर्ग उस पर ब्याज भरने के लिए दबाव डालते हैं। पुत्री के घर अनाज दे देने से संभू माली के घर में अनाज कम रहा है यह बात जब संभू माली की पत्नी भागवत को बताती है तब भागवत ब्याज सहित पैसे भरने की जिम्मेदारी खुद ले लेता हैं। असल नायक के रूप में महानोर ने भागवत का चित्रण किया हैं। भावगत कहता है कि, “मैं उसके सब पैसे भर देता हूँ। अभी इन्सान इन्सान के लिए पराया हो जाए, ऐसा समय नहीं आ पाया है। परंतु इसके पश्चात इस गांधारी गाँव के प्रति आपकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाएगी, इतना याद रखना।”(एजन, पृ.61) भागवत की बातों से पता चलता है कि उसमें सही माइने में मानवता है। इस प्रकरण में लालजी- भागवत की बातचीत के समय भागवत लालजी को महाराज का जो चरित्र हौसा ने बताया था वो बताता है। पर लालजी यह बात सरलता से नहीं स्वीकारता और भागवत उसे समझाता है। तब वो समझता है।
‘गांधारी’ उपन्यास के अंतिम प्रकरण में महानोर ने भागवत के चरित्र पर ध्यान केन्द्रित किया हैं। गाँव के विकास के लिए पैसे लीए जाते है। लोग इस बात का विरोध भी करते है। तोत्या मांग जैसे निम्न वर्ग के लोग गाँव छोड़ कर भी चले जाते है। भागवत भी इस बात का विरोध करता है। वह गाँव की सभा से चला जाता है। भागवत दूसरों को मदद करनेवाला, संस्कारी, और परिश्रमी किसान हैं। वह जयवन्ता,लालजी, सावित्री, हौसा, सब को मदद करता है। उसमें दूसरे को समझ ने की क्षमता है, पर ठोस निर्णय लेने की शक्ति का अभाव है। सामाजिक समस्याओं के बारे में वो बहुत दुखी हो जाता है।
उपन्यास के अंत में जयवन्ता का शव कुएँ में से मिलता हैं। भागवत खेती में आगे आने के लिए सोचता है। उपन्यास के अंत में भागवत के खेत की फसल को गुंडे लोग खत्म कर देते है यह बात सुन कर वो बेसुध हो जाता है। ‘गांधारी’ उपन्यास में गाँव की दुष्टता का भी बयान मिलता है। ‘गाँव यानि अच्छा ही’ वो खयाल लेके चलने वाले वाचक को यह उपन्यास वास्तव की थापट देती है। इसमें अच्छाईयां और बुराईयां दोनों का महानोर ने चित्रण किया हैं।
पूरे उपन्यास में महानोरने निझाम सल्तनत बाद के ग्रामीण जीवन का निरूपण किया हैं। जैसे कुछ अच्छा होगा इस ख्याल से गांधारी गाँव में रहेने आये हुए लोगों को पंचायती राज और सत्ता गाँव में आनेसे जो शोषण हुआ, गाँव के विकास के बारे में, लोन के बारे में, जमीन के बारे में आदि पर शोषण किया।
उपन्यास में हौसा- महाराज जैसे भी लोग है तो जयवन्ता और उसकी माँ जैसे चरित्र भी है। जयवन्ता की दूसरी शादी नहीं होती हैं तो दूसरी तरफ हौसा अपनी मरजी की मालकिन है। चन्द्रशेखर जहागिरधरे इन पात्रों के बारे में कहते हैं कि –“अतृप्त वासना की आग मे जलकरभस्म होनेवाला जयवन्ता का एकाकी जीवन, तृप्त वासना से भरपूर किन्तु आपराधिक भावना का अनुभव करनेवाला महाराज का कलंकित जीवन और इसके विपरीत हौसाका खुल्लमखुल्ला वासना का स्वीकार करनेवाला जीवन,उसकी नैत्तिकहिम्मत आदि को महानोरने प्राकृतिकरूप में न करके वासना के संदर्भ में प्रस्तुत किया है।”(एजन, प्रस्तावना में से) तोत्या मांगे जैसे निम्न वर्ग के आदमी का विद्रोह अच्छी तरह से प्रकट हुआ है। लालजी-सावित्री को समाज अपनाता नहीं है। इस सन्दर्भ में ‘समाज बहुत बड़ा राक्षस है’ जैसी पन्नालाल पटेल की उक्ति सार्थक है। ‘गांधारी’ उपन्यास में महानोर ने वस्तु, चरित्र, वर्णन, प्रसंग, परिवेश, आदि पहलुओं को अच्छी तरह से रखा है। नायक भागवत में निर्णय शक्ति का अभाव, आत्मलक्षिता आदि बातों की कमी है। पर सामाजिक निसबत,वास्तविकता, असल ग्रामीण जीवन आदि को महानोर ने सही तरीके से चित्रित किया है। गांधारी उपन्यास के सर्जक को और गुजराती में अनुवादित करने वाली अनुवादिका को ये भगीरथ कार्य करने के लिए अभिनंदन...
संदर्भ:-
- गांधारी (मराठी-उपन्यास), ले.- ना. धों. महानोर, अनुवादिका(गुजराती)- भारती वेध, प्रकाशक- नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया न्यू. दिल्ही, संस्करन-१९९७