नई सदी के उपन्यास और विविध विमर्श 


साहित्य को समाज का दर्पण संभवत:इसीलिए कहा गया है कि उसमें समाज के सभी वर्गों और उनकीस्थितियों का वर्णन दिखाई देता है। किन्तु साहित्य सिर्फ प्रतिबिंब नहीं होता। उसमें समाज की हमेशा यथास्थिति ही नहीं होती। साहित्यकार समाज के अलावा समग्र प्रकृति को भी साहित्य में प्रतिबिंबित करता है। इसके अलावा साहित्यकार स्वप्नदर्शी होता है। संसार जैसा है साहित्यकार उसी रूप में उससे सहमत नहीं होता। वह दार्शनिक और विचारक भी होता है। वह संसार का सबसे बड़ा समीक्षक तथा आलोचक भी होता है। इससे भी आगे वह एक कलाकार तथा सर्जक भी होता है। अत: जब वह संसार में कुछ ऐसा देखता है जो उसे अच्छा नहीं लगता, जो इस संसार के लिए गैरजरूरी या अशोभनीय है, जिसमें समग्र मानवजाति का हित नहीं है और जो मानवजाति और उसकी पृथ्वी को असुंदर बनाता है, साहित्यकार तुरंत अपने कला-साधनों के साथ वहाँ पहुँच जाता है और इस संसार को खूबसूरत बनाने के कार्य में लग जाता है। इस तरह एक साहित्यकार एक प्रति संसार की रचनाकरता है जो मौजूदा संसार से गुणात्मक एवं मात्रात्मक रूप से बेहतर होता है। वह बुरे का निषेध और अच्छे का विकास करता है। वह प्रतिकार भी करता है और सृजन भी।

इसी क्रम में वह मनुष्य के साथ होनेवाले अन्यायों का भी प्रतिकार करने लगा। चूँकि समग्र मानवजाति अनेक समूहों में विभाजित रही है अत: एक-दूसरे समूह का शोषण और दमन करता रहा है, क्योंकि इसी में उसका हित समाया रहा है। इन समूहों में सबसे प्राचीन और मनुष्य का सर्वप्रथम विभाजन संभवत: स्त्री-पुरुष के रूप में हुआ। मातृ समाज का अंत हो गया और निजी संपत्ति के अस्तित्व में आते ही समाज में पुरुष प्रधान हो गया और नारी गौण। धीरे-धीरे स्त्री पुरुष के अधीन हो गयी। उससे हर प्रकार की सेवा और अन्य कार्य पुरुष लेने लगा और वह सेविका या दासी हो गयी। उसके अपने विचारों, भावों और संवेदनाओं का कोई मूल्य न रहा और वह मात्र पुरुषों के निर्देशों, आदर्शों और सूचनाओं का पालन करनेवाली सजीव प्राणी रह गयी। पुरुष की दृष्टि में वह शासिता थी और चूँकि अपनी शारीरिक रचना में वह पुरुष की भोग की वस्तु थी अत:अब उसे बाजार में बैठा दिया गया। हर चीज की तरह स्त्री भी एक ‘चीज’ जिसमें सबसे ज्यादा आनंद मिलता था, वह बेची-खरीदी जाने लगी।

श्रम विभाजित समाज कालांतर में वर्ण-विभाजित हो गया। वर्णाश्रम पर आधारित समाज भी निजी संपति की ही खोज थी। चूँकि समाज की विशिष्ट रचना होने के नाते जो साधन-संपन्न थे वे श्रेष्ठ हो गए और जो साधनहीन थे वे क्षुद्र। उनकी क्षुद्रता के कारण ही वे प्रभु वर्ग के आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य थे। वे श्रमिक थे और समस्त पदार्थों के उत्पादक तथा सर्जक थे किन्तु हर जरूरी चीजों से वंचित थे। आगे चलकर तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने उनकी स्थिति को उनके भाग्य से जोड़ दिया। चूँकि वे क्षुद्र लोग शिक्षा और साधन दोनों से वंचित रखे गए अत: उनका मानसिक विकास भी नहीं हुआ। पुरोहित या द्विज वर्ग ने उन्हें समझाया कि ईश्वर ने उन्हें ऐसा ही बनाया है और ईश्वर की इच्छा है कि वे अपने से उच्च वर्ग की सेवा करें, उनके आदेशों का पालन करें। और अपनी स्थिति को नियति और ईश्वर का आदेश मानें, उसे बदलने की कोई कोशिश न करें। दूसरी ओर उन्हें अस्पृश्य भी बना दिया गया। उन्हें हर तरह से जलील किया गया। उन्हें मारा गया, उन्हें नीचा दिखाया गया, अपमानित किया गया पशुओं से भी अधिक खराब स्थिति में लाकर जीने के लिए मजबूर किया गया। वे दलित थे। हजारों वर्षों से उनकी स्थिति बदतर बनी हुई है।

निजी संपत्ति और वर्ग-समाज की स्थापना ने सबसे क्रूर काम किया हो तो वह यह कि उसने संपत्ति के सर्जकों से ही संपत्ति छीन कर स्वयं उसका स्वामी बन गया। जिसके पास संपत्ति थी वह स्वामी बन गया और जो संपत्तिहीन थे वे दास। बल्कि दास स्वयं पशुओं की तरह संपत्ति में तब्दील हो गए। उनका काम स्वामी-वर्ग की सेवा हो गया। मानवजाति ने आर्थिक प्रवृत्ति के लिए पशुपालन एवं खेती अपनाया तो वे उनके भूदास हो गए। उनके उत्पादन संबंध तो बदलते रहे किन्तु इन दासों की स्थिति में कभी परिवर्तन नहीं हुआ। हाँ, उनकी स्थिति बदतर जरूर होती गयी। पहले वे दास थे, सामंती युग में भूदास हो गए और उन्नीसवीं सदी में तथा-कथित पूँजीवादी औद्योगिक क्रांति के पश्चात् वे सर्वहारा में बदल गए। सर्वहारा की स्थिति सबसे अधिक खराब हो गई। पूँजीवादी युग के पूर्व सभी समाजों में श्रमिक भी स्वामी वर्ग की संपत्ति माने जाते थे अत: उनकी रक्षा का उत्तरदायित्व भी शासक वर्ग का ही था। अत: वे किसी भी हाल में उन्हें जीवित रखते थे। इसीमें उनका लाभ था, जैसे हम आज अपने पालतू पशु रखते हैं। उनके खाने, पीने, रहने की व्यवस्था करते हैं। बीमार होने पर उन्हें दवाइयाँ दिलाते हैं। किन्तु पूँजीवाद के अस्तित्व में आते ही पूँजीपति वर्ग ने अपनी इस जिम्मेदारी से अपना पल्ला झाड़ लिया। सर्वहारा वर्ग की किसी स्थिति लिए के वह उत्तरदायी नहीं है।उसके काम की मजदूरी देकर उसकी सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है। वह जिए या मरे, बीमार पड़े, उसके पास रहने के लिए घर या पहनने के लिए वस्त्र है या नहीं इससे पूँजीपति वर्ग को कुछ लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज श्रमिक वर्ग की स्थिति पशुओं से भी खराब है। उसके पास जीवन निर्वाह के लिए उसकी श्रम-शक्ति के अलावा और कुछ नहीं है, उसके श्रम का आज तकनीकी युग में कोई खरीददार नहीं है, या उसका उचित मूल्य उसे नहीं मिलता। समस्त पूँजी का सर्जक, समस्त चीजों का निर्माता सर्वहारा-वर्ग एक अमानवीय जिन्दगी जीने के लिए अभिशप्त है।

इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्रियों, दलितों और श्रमिकों का एक विशाल वर्ग-समूह मुठ्ठी-भरलोगों के अन्याय, दमन और शोषण का शिकार है। तीनों की वर्तमान स्थिति और अत्याचार के मूल कारण में निजी संपत्ति का उद्भव होना ही है। दलितों की स्थिति के लिए उत्तरदायी ब्राह्मणवाद, नारियों की स्थिति के लिए उत्तरदायी पुरुषवाद और सर्वहारा की स्थिति के लिए उत्तरदायी पूँजीवाद तीनों अपने मूल चरित्र और स्वभाव में एक ही हैं। शासक वर्ग के ये तीन चेहरे हैं। इनसे मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है निजी संपत्ति और संपत्ति पर निजी स्वामित्व की व्यवस्था का अंत और पुन: साम्यवादी समाज की स्थापना जो आदिम साम्यवादी काल से गुणात्मक-परिणात्मक रूप से भिन्न ही नहीं बेहतर भी होगी। यह कार्य सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सर्वहारा समाजवादी सशस्त्र क्रांति की सफलतापूर्वक संपन्नता से ही संभव है। इस क्रांति में उत्पीडित महिलाओं और दलित-समाज का सहयोग ही एक साथ तीनों को इस उत्पीड़न से मुक्ति दिला सकेगा।

जैसा कि हम जानते हैं, अत्याचारी का विरोध हर युग में होता रहा है। उत्पीड़कों के विरोध में उत्पीडितों का युद्ध हमेशा से चलता रहा है। हाँ यह कभी इतना धीमा होता है कि हमें दिखाई नहीं देता और कभी इतना तेज कि हम उसमें स्वयं को भी जुड़ा हुआ पाते हैं। पूँजीवाद के उदय और उसके साम्राज्यवादी आकार ने मानवता के हित में लडे जा रहे इस युद्ध को ही गति दी है। क्योंकि पूँजीवाद ने हर मोर्चे पर शोषण को ही प्रधानता दी है। बीसवीं सदी में पूँजीवाद अपने अंतर्विरोधों में बुरी तरह उलझ गया था। उसकी स्थिति अतिशय मरणासन्न हो गई। दूसरी ओर उसने शोषण की हर सीमाओं का उल्लंघन किया है। इसमें स्त्रियों की दशा बिगड़ी। नारियों ने अपने स्तर पर इसका विरोध प्रारंभ किया।

साहित्य में नारी का यह प्रतिरोध स्पष्ट दिखाई देने लगा है। सीमोन-द-बोउवार ने विश्व की समस्त उत्पीडित महिलाओं को पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ हथियारबद्ध कर दिया है। इक्कीसवीं सदी में यह प्रतिरोध प्रथम दशक के हिन्दी उपन्यासों में बड़ी तीव्रता से देखा जा सकता है। मैत्रेयी पुष्पा, सिम्मी हर्षिता, नमिता सिंह, अलका सरावगी तथा मधु कांकरिया जैसी लेखिकाओं ने अपनी औपन्यासिक कृतियों द्वारा इस नारी-चेतना को नई वाणी दीहै। इन उपन्यासों को पढ़कर पाठक को अहसास हुए बिना नहीं रहता कि नारियाँ अब और अत्याचार सहने के लिए तैयार नहीं है। उनमें अपनी स्थिति के खिलाफ लड़ने की हिम्मत आ गई है और अब वे नारी-चेतना से संपन्न है। अब और अधिक समय तक उन्हें अनदेखा नहीं रखा जा सकता और न ही उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक ही माना जा सकता है। वे पुरुषों के समान ही मनुष्य हैं और उन्हें भी पुरुष के समान सभी निर्णयों में समान अधिकार मिलना चाहिए। पुरुषों को अपनी शासकवादी मानसिकता बदलनी होगी।

पूँजीवाद के उद्भवने जातिवाद के बंधनों को स्वयं तोड़ा है। अस्पृश्यता वास्तव में सामंतवाद का लक्षण व स्वभाव था जो पूँजीवादी क्रांति के पश्चात् सामंतवाद के अंत के साथ व्यापक प्रमाण में खत्म हो गया था। किन्तु भारतीय समाज ग्रामीण होने के कारण भारत के गाँवों में यह परिवर्तन बहुत धीरे से हुआ और पिछली सदी में भी कुछ गाँव में, जहाँ पूँजीवाद मंद गति से पहुँचा छुआछूत की भावनाएँ लोगों में विद्यमान रहीं। दलितों ने इसी भावना के विरोध में आवाज उठाई। विशेषकर डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की शिक्षाओं ने दलितों को इस संघर्ष के लिए प्रेरित किया। साहित्य में भी इस सामाजिक परिघटना का प्रतिबिंब दिखाई देता है। इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक तक आते-आते दलित-मुक्ति आंदोलन काफी समृद्ध हो गया। जय प्रकाश कर्दम, रूपनारायण सोनकर, मोहनदास नैमिशराय, कुंवर सिंह बेचैन, जगदीशचंद्र, उमरावसिंह जाटव आदि ने उपन्यास के क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाई। इनके उपन्यासों में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा, गरिमा और गौरव के लिए लड़ी जा रही दलितों की लड़ाई प्रतिबिंबित हुई है।

निजी संपत्ति के अस्तित्व के साथ ही वर्ग-समाज की स्थापना हुई और वर्गों ने आकार लिया। वर्गों के आकार से ही वर्गीय सोच का जन्म हुआ। लेखन की शुरूआत ही वर्गीय साहित्य के लेखन की शुरूआत है। इस तरह, विश्व का समस्त लेखन यहाँ तक कि प्राचीन धर्मग्रंथ, शास्त्र, वेद, उपनिषद्, पुराण, ब्राह्मणग्रंथ, आरण्यक, संहिताएँ, दर्शन, इतिहास, कुरान, बाइबल, जैन—बौद्ध ग्रंथ सभी वर्गीय साहित्य हैं क्योंकि वे सभी किसी-न-किसी वर्ग के हित में लिखे गए हैं। किन्तु बीसवीं सदी के दूसरे दशक में रूसी सर्वहारा क्रांति ने विश्व-भर के मजदूरों में एक उम्मीद जगायी कि सनातन दिखाई देता वर्ग-समाज खत्म किया जा सकता है, शोषण को ख्तम किया जा सकता है और एक ऐसे समाज की रचना संभव है जिसमें सभी मनुष्य समान माने जाएँगे। मनुष्य के बीच के सभी भेदभाव मिट जाएँगे और समस्त मानव-जाति एक परिवार के सदस्य की तरह प्रेम से रह सकेगी। इस उम्मीद को साहित्य में स्थान मिला और भारत में सन् 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। प्रगतिशील लेखन की शुरूआत हुई जिसमें शोषण के खिलाफ आवाज उठाई गयी और पूँजीवादी व्यवस्था के विरोध में सामान्य-जन की भावनाओं को वाचा दी गई।

इककीसवीं सदी में भूमंडलीकरण ने स्थितियों को और बदतर बनाया। शोषण का प्रकार और उसकीसीमा बदली। अब जन-विद्रोह मुखर हुआ। अत:वर्तमान सदी के प्रथम दशक के उपन्यासों में भी विद्रोह का यह स्वर प्रतिध्वनित हुआ। इन उपन्यासकारों ने सर्वहारा–वर्गीय नए सौन्दर्यशास्त्र का सृजन और विकास भी किया और पूँजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध उठनेवाले विद्रोह को पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत किया। विश्व में जहाँ भी अन्याय है, इन उपन्यासकारों ने जरूरी हस्तक्षेप किया है और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हेतु अपनी लेखकीय जिम्मेदारी निभाई है।

शोषण के तीन प्रकार हैं – लिंग-भेद, जाति-भेद एवं वर्ग-भेद। तीनों प्रकार के शोषण के लिए उत्तरदायी एक ही अर्थव्यवस्था है – पूँजी और संपत्ति पर निजी स्वामित्व की व्यवस्था। हालाँकि तीनों शोषकों के नाम अलग हैं – पुरुषवाद, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद। किन्तु अपने चरित्र में वास्तव में तीनों एक ही है। निजी-स्वामित्व की भावना और विचार के यह तीन नाम हैं – तीनों शासक– वर्गके स्वरूप हैं। आज तीनों मोर्चों से विद्रोह के स्वर सुनाई दे रहे हैं। नारी, दलित और सर्वहारा वर्ग की वर्गीय-चेतना विकसित हो गई है। वे अपने हितों और अधिकारों के प्रति सचेत और सजग हो गए हैं। वे अब संघर्ष-मार्ग पर उतर आए हैं।

किन्तु तीनों इस समय भटकाव की स्थिति में है और तीनों अंतर्विरोधों से घिरे हुए हैं। नारीवाद पर लिखनेवाली लेखिकाओं की पहली द्विधा यह है कि पुरुषों द्वारा लिखे गए नारीवादी लेखन को नारीवादी लेखन माना जाए या सिर्फ नारियों द्वारा किए गए लेखन को ही प्रामाणिक माना जाए। दूसरी बात, वे अपने लेखन में कई बार पुरुषों के आमने-सामने खड़ी नज़र आती हैं। वे पुरुषों को अपना विरोधी मानती हैं और उनके समस्त आंदोलन का लक्ष्य पुरुषविरोधी है। जब कि पुरुषवादी सोच पर प्रहार करना चाहिए। नारी और पुरुष एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं और दोनों के बीच वैमनस्यपूर्ण द्वन्द्वात्मक सहअस्तित्व नहीं है। उनके शांतिपूर्ण सहअस्तित्व से ही संसार को गति मिलती है। दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता है अत: उनके बीच संघर्ष बढ़ाने के बजाय सहकार बढ़ाने की आवश्यकता है। नारीवादी आंदोलन की एक और कमजोरी के शिकार इधर के उपन्यास हुए हैं। इन उपन्यासों की कुछ नारी पात्र यौन-मुक्त होना चाहती हैं। वे मुक्त रूप से यौन-संबंध की पक्षधऱ हैं। उनकी यह मनोवृत्ति समाज को अराजकता की ओर धकेलेगा। उन्हें यौन-संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए, किन्तु यह स्वतंत्रता उन्हें पात्र चुनने की आजादी देती है न कि बार-बार पात्र को बदलने की।

इसी तरह दलित साहित्य की एक उलझन हैजो पूरे दलति-मुक्ति आंदोलन को कमजोर बनाती है। कुछ दलित लेखक हैं जो गैरदलित लेखकों द्वारा लिखे गए ब्राह्मण विरोधी साहित्य को भी नकारते हैं। उनका कहना है कि सिर्फ दलित वर्ग का लेखक ही प्रामाणिक दलित साहित्य लिख सकता है। उनका तर्क है कि दलित वर्ग के लेखक के अपने निजी अनुभव होते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था की पीड़ा को वही पहचानता है क्योंकि उसने उस पीड़ा का अनुभव किया होता है, उस यातना को भोगा हुआ होता है। जब कि गैरदलित साहित्यकार के पास ऐसे कोई स्वानुभव नहीं होते और उनका दलितों के पक्ष में लिखा हुआ सारा साहित्य नकली सहानुभूति के सिवाय और कुछ नहीं होता। इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। लेखक एक संवेदनशील प्राणी होता है। वह दूसरे की पीड़ाओं का अनुभव कर सकता है। उसके सामाजिक अनुभव कलात्मकता से प्रस्तुत होकर दलित वर्ग के प्रति पाठक के मन में हमदर्दी पैदा करते हैं और पाठकों को इस आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। लेखक के लेखन के क्षेत्र व्यापक होते हैं। उसके पात्र समाज के सभी वर्ग से आते हैं। वे कई प्रकार के व्यवसाय से जुड़े हुए पात्र होते हैं। क्या लेखक को सभी पात्रों के व्यवसायों का भी अनुभव होना चाहिए? क्या इसी तर्ज पर प्रेमचंद जैसे लेखक को खारिज करना उचित होगा?सबसे बड़ी बात यह है कि गैरदलित लेखक यदि ब्राह्मणवादी मानसिकता से दलित विरोधी साहित्य लिखता है तो उसका विरोध होना चाहिए, किन्तु यदि उसका लेखन दलित वर्ग के हित में जाता है तो उनसे हाथ मिलाकर समान हितोंवाली शक्तियों का ध्रुवीकरण करने की आवश्यकता है, न कि उन्हें अपना दुश्मन मानकर विरोधी खेमें में धकेलने की। इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के हिन्दी के दलित चेतनावाले उपन्यास इस अर्थ में एकांगी तथा विसंगतापूर्ण हैं।

साहित्य और विवरण में फर्क होता है। आत्मकथा अपने निजी अनुभवों का पुँजीभूत प्रकाशन हो सकता है। किन्तु उपन्यास किसी लेखक का स्थूल अनुभव मात्र नहीं होता। उपन्यास एक कलाकृति है। उसमें अपनी एक भाषा, शैली और सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता होती है। विचारों को भी कलात्मकता से प्रस्तुत होना चाहिए। दलित उपन्यास दलित लेखकों के कच्चे अनुभवों की भोंडी प्रस्तुतीकरण बनकर रह जाएँ तो लेखक का भी अहित होता है और साहित्य का भी। सवाल लेखक की जाति का नहीं लेखक की नीयत का होना चाहिए। इक्कीसवीं सदी के दलित लेखकों को इस पर गौर करना चाहिए। इन उपन्यासों को पढ़कर एक और कमजोरी की तरफ ध्यान जाता है। इन उपन्यासों के लेखक बहुत जल्दी में लगते हैं। उन्हें जल्दी से जल्दी इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लेना है। वे स्वयं की तुलना बड़े लेखकों से करते हैं जिन्हें वे तो बड़ा नहीं मानते और इस तरह बड़ों को गाली देकर चर्चा के केन्द्र में आ जाना चाहते हैं। स्वानुभूति की बात को स्वीकारने का एक जोखिम यह है कि एक लेखक एक उपन्यास या अपनी आत्मकथा में अपने सभी अनुभव लिख देने के बाद दूसरी रचना कहाँ से करेगा?वह चुक नहीं जाएगा?उसके लेखन पर पूर्णविराम नहीं लग जाएगा? फिर दलित वर्ग के सभी लेखकों के जीवन अनुभव क्या एक जैसे नहीं हैं? उनमें भिन्नता कहाँ से आएगी? अत: साहित्य में दूसरों के अनुभवों पर प्रतिबंध लगाने से दलित साहित्य का भला होगा न दलित आंदोलन का। किसी एक व्यक्ति के जीवन के निजी अनुभवों में पाठकों को भी क्यों और कहाँ तक रुचि रहेगी?दलित साहित्यकारों ने मार्क्सवाद से विशेष दूरी बना रखी है। जब कि उनकी वास्तविक मुक्ति का मार्ग मार्क्सवाद से होकर ही जाता है। दलित लेखकों को इन विसंगतियों को समझना होगा।

प्रगतिशील साहित्यके अपने अलग-अलग कई खेमें हैं। इनकी इस दशा के लिए भारत और विश्व में वामपंथी आंदोलन का कई गुटों में विभाजन ही उत्तरदायी है। दूसरी तरफ वर्गीय-चेतना पर आधारित लेखकों में वर्गीय सोच की कमी है। आज कोई भी लेखक सर्वहारा वर्गीय सशस्त्र समाजवादी क्रांति का नाम नहीं लेता। इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के वर्गीय-चेतना पर आधारिक उपन्यासों के पाठ के पश्चात् निराशा के सिवाय और कुछ हाथ नहीं आता। कुछ लेखक मजदूरों के आर्थिक संघर्ष को ही क्रांति कहते हैं तो कुछ संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में मानव-जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान ढूँढते हैं। वे इस व्यवस्था तथा पूँजीवाद की अनेक विसंगतियों और कमजोरियों को जानते हैं। इधर के उपन्यासों में इनका विस्तृत वर्णन भी देखने को मिलता है किन्तु द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की समझ के अभाव में वे इन समस्याओं का योग्य समाधान नहीं देते।

प्रतिबद्ध साहित्य की एक कमजोरी यह भी है कि वह व्यवस्था के विरोध में संघर्ष कर रहे दलित-लेखकों तथा नारीवादी लेखिकाओं से ऐक्य नहीं बना पाया है। अत: एक ही लक्ष्य – समग्र मानव जाति की शोषण, अन्याय दमनसे मुक्ति के लिए संघर्ष कर रही शक्तियाँ विभाजित हैं। आनेवाले समय में इन्हें एक होना होगा। पूँजीवाद संगठित है। उसके विरोध में संघर्ष करनेवालों को भी एकजुट होना होगा। इसीमें दलितों, नारियों तथा सर्वहारा की मुक्ति है।नारी-चेतना तथा वर्गीय-चेतना का एकजुट होना ही मानव-चेतना है।

फूलचंद गुप्ता
साबरग्राम सेवा महाविद्यालय,
मुपो. सोनासन, ता. प्रांतिज, जि. साबरकांठा
मो.नं. 9426379499

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