साहित्य अकादेमी, दिल्ही द्वारा राष्ट्रीय पुरष्कार से सम्मानित लेखिका डॉ. बिन्दु भट्ट की गुजराती कहानी का अनुवाद
बीच दहलीज़
डॉ. बिन्दु भट्ट
अनु.- नियाज़ पठाण
एक घण्टे में ऋजु ने आठवीं बार रेल्वे इन्कवायरी में फोन जोड़ा । पर लगातार एंगेज । उसे लगा मेरी तरह क्या पूरा शहर किसी एक क्षण की राह में एक पैर पर खड़ा होगा । उसने घड़ी में देखा । नौ बजे थे । कर्णावती अगर समय पर होगी तो तो पहुँचते ही होंगे । वह झूले पर आकर बैठी और फिर से टी.वी. चालु किया ।
पिछले तीन दिन से ऋजु का पूरा घर लिविंग रूम में सिमट गया है । घर ही क्यों पूरा संसार । मुम्बई जाने से पहले उसका पति तेजस और बेटी पिंकी जैसे ऋजु को इस लिविंगरूम में टी.वी. की नजर कैद में छोड़ गए हैं । बैठने के लिए झूला , देखने के लिए टी.वी. और करने के लिए प्रतीक्षा ।
झूला हिल रहा है पर कहीं पहुँचाता नहीं । हाँ और ना की सीमाओं को छू-छूकर लौट आता है । टी.वी. के दृश्य क्लोज़अप और लोंगशोट की दौड़पकड़ खेले जा रहे हैं । एक क्षण रंग, आकार, और आवाजें उसे पकड़कर आउट कर देते हैं तो , दूसरी क्षण में उसे चकमा देकर दूर चले जाते हैं । वह दाँव लेती और देती रहती है। ऋजु खेल पूरा होने की प्रतीक्षा करती रहती है। इस प्रतीक्षा की डाल पर कोई मँजरी महक सकेगी सही ?
‘कीटाणु रहित स्वच्छता के लिए लाइफबोय’ झूला करीब जाने पर पर्दे पर आने वाला डॉक्टर नारियल जैसा सिर उठाते हुए डिंग मारता है और ऋजु हाथ में रिमोट ले लेती है । चैनल बदलने से पहले उसकी नजर रिमोट पर जड़े हुए अँगूठे के नाखून की तह में बूँद बूँद बँधी हुई सफेद किनार पर पड़ती है । वह सोचती है । एक दिन यह सफेद किनार धीरे-धीरे बढ़ती हुई पूरी फैल जाएगी । बायें हाथ की मुट्ठी बँद करके उँगलियों के उभरे हुए जोड़ पर वह दाहिने हाथ की उँगलियाँ फेरती है । सफेद चकतों का स्पर्श क्यों अलग-सा महसूस नहीं होता ? उसकी उँगलियों के छोर कान की लौ सहलाने लगते हैं । दोनों होंठ मुँह में भींचते हुए उसने सोचा चलो आईने में देखूँ । वह खड़ी हुई ।
बेडरूम में प्रवेश करते ही आदत के मुताबिक हाथ बीजली के स्वीचबोर्ड की ओर गया । उँगलियाँ स्वीच पर दबें इससे पहले उसे हुआ उजाले का क्या काम है ? वह अँधेरे में ही ड्रेसींग टेबल के आईने के सामने जा खड़ी हुई । एक धूँधली-सी परछाई अखंड़ रूप में ज्यों की त्यों सामने खड़ी थी । उसका केवल आकार दिखता था , रंग नहीं । इस अँधकार को ओढ़कर कहीं दूर छीप जाना चाहिए । यहाँ सबकुछ एकरूप एकरस । ऋजु को अचानक उस धूँधली-सी परछाई पर ढेर सारा प्यार उमड़ आया वह कितनी आत्मीय अपनी-सी लग रही थी ? उसने परछाई के चेहरे को छूने के लिए हाथ बढ़ाया और ‘टप’ आदत के कारण स्वीच ओन हो गई । ड्रेसींग टेबल पर फैले उजाले ने आईने में एक चेहरा तराश दिया । लड़-झगड़कर थका हुआ चेहरा । बिखरा हुआ सिर , ढीला जूड़ा , थोड़ी खींचकर टेढ़ी हो गई हेर पीन , मैली अस्तव्यस्त साड़ी , रतजगा । हाँफती आँखें.....
जब से पिंकी और उसके पापा मुम्बई गए हैं ऋजु की दैनिक क्रियाएँ अस्तव्यस्त हो गई है । किसी चीज का होश नहीं है । न नहाने का न खाने का न जागने का न सोने का वह जैसे चौराहे पर खड़ी है और सिर्फ एक ही दिशा खुली है । इस बार तो ज़रूर कुछ....नहीं होगा तो ? मुश्किल से बँद की हुई बेग अचानक खुल जाएँ इस तरह ऋजु चौंक गई । फिर एकबार बाहर लटकते , लटकने की कोशिश करते कपड़ों को उसने बेग में भरकर बल पूर्वक बेग बंद की । उसने उस दिशा में देखना बंद किया तो एक क्षण वह शून्यावकाश में जा गिरी । वह क्यों इस कमरे में आई थी । याद आया । आईने में देखते हुए उसने अपने चेहरे पर नजर फेरी । कान की लौ , आँखों की पलकें –बरौनी पर से होते हुए वह नजर ऊपर के होंठ की किनार पर जा अटकी ।
बयालीस बयालीस साल से जिस चेहरे को निरनतर देखा है , सजाया है , चाहा है वह पिछले दो सालों से अचानक बिलकुल बदल रहा है । धड़ ही अपना परिचित । पर चेहरा पराया धड़ बारबार इस पराये चेहरे को उठाने से मना करता है । लोगों की नजरों से आगाह करता है। दिल नहीं मान रहा पूरे शरीर के एक एक अंग के गलीकूंजी मोड़, ढलान ऐसे तो आत्मीय जैसे वतन की गलियाँ । पर यहाँ तो गाँव का नाम ही बदल चुका है । स्वीकार करना सरल नहीं है।
बीस साल पहले तेजस ने कहा था , ‘ऋजु मैंने तो तुम्हारी आँखें देखकर ही तुम्हें पसंद किया था । बड़ी बड़ी काली आँखें और लम्बी पलकें । अजीब मद भरी स्वप्निल आँखें ।‘ पिछले साल ऋजु ने बेडरूम से नाइटलेम्प निकाल दिया है । हो सके तो तेजस के सो जाने के बाद ही सोती है । दिन में सोती है तो भी साड़ी का पल्लू मुँह पर डालकर किसी के सामने आईने में देखती नहीं है । सफेद पलकें और सफेद बरौनी देखकर उसे खरगोश की आँखें ज़रूर याद आ जाती हैं ।
शुरू में हाथ पैर के नाखून की तह में हलके सफेद बिन्दु देखकर लगा खून की कमी होगी । फिर लगा शायद साबुन या डिटरजन्ट की एलर्जी होगी । फिर तो कान की लौ, पलकें, होंठ, उँगलियों के छोर पोर, कोहनी, टखना हर जगह फैलने लगे ये सफेद बिन्दु । डोक्टर कहते, ‘ल्युकोरडमा शरीर में सबसे पहले ऐसी संवेदनशील जगहों पर ही आक्रमण करता है ।‘ उन्हें पता होगा कि यहाँ तो तिल जितना ताला टूटते ही पूरा किला गिरकर ढेर ! वैसे देखें तो इस चालीसवें साल में क्या फर्क पड़ता है ? और यूँ देखें तो ये चालीस साल मिटाकर नये सिरे से शुरूआत किस तरह की जाए ? पिंकी जैसी शादी की उम्र में हुआ होता तो ?पिंकी तो चेहरे पर खिल निकले हो तो खिल बैठ न जाए तब तक घर से बाहर भी नहीं निकलती । अच्छा हुआ कि डॉक्टर के पास अकेली गई थी । डॉक्टर जानी पहचानी थी । पिंकी की फ्रेन्ड को दवाखाने से बाहर निकलते देखकर लगा कि यह रोग पैतृक तो नहीं होगा न ? फिर खुद ही जवाब ढूँढा । मेरे चाचा या मामा के पक्ष में सात पीढियों में कहाँ किसी को है ? डॉक्टर कहती है इस तरह यह खून का विकार ही होगा । पर संक्रामक होगा तो ?
घर आकर दूसरे ही दिन से रसोई के लिए महाराज भी रख लिया । तेजस-पिंकी से कह दिया कि एलर्जी है इसलिए अभी घर में छोटे छोटे कामों में सेल्फ सर्विस ! दो महीनों के लिए आया हुआ महाराज स्थायी हो गया ।
रोज रात को साथ में बैठकर टी.वी. देखने का क्रम । पिंकी को तो मम्मी की गोद कभी खाली नहीं सुहाती । चलते घूमते काम कर रही ऋजु को दिन में दस बार चिपके नहीं तो पिंकी कैसी । आज ऋजु को पिंकी चिपके तो ‘अब तुम बड़ी हो गई’ ऐसा कहकर अलग की जा सकती है पर बेटी की दूधभरी सुगंध को कैसे अलग किया जाए ?
तेजस को भनक तो लग गई थी पर वह प्रकट नहीं होता था । ‘हमारी पिंकी शादी लायक हुई ‘ ऐसा कहकर अलग बिस्तर करने वाली ऋजु से वह कैसे कहें कि याद है मैं कहीं बाहर जाता हूँ तब तुम्हें नींद की गोली खानी पड़ती है । दिन में एक बार भी अगर तेजस का स्पर्श न मिले तो ऋजु को दहशत होती कि मेरा खून जम जाएगा तो ? पिंकी और तेजस दोनों ही जानते है कि क्या हो रहा है परन्तु न बोलकर अनजान बन रहे हैं ।
ऋजु को कभी कभी होता कि क्यों ये बाप-बेटी कुछ पूछ नहीं रहे हैं । मुझे झकझोरते नहीं । मुझे सांत्वना नहीं देते । इन लोगों ने सबकुछ स्वीकार कर लिया होगा ? क्या उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता होगा ? खुद तो अंदर ही अंदर घूटती जा रही है । दिनभर गृहस्थी की भूमिका निभाने में बार बार गल्तियाँ होती है । पिंकी के लंबे बाल धो देने , तेजस द्वारा मसले हुए दाल-चावल में घी डालने को बार बार हाथ छटपटाते हैं । रात में नींद उड़ जाती है और पैर अपने आप पिंकी के कमरे में पहुँच जाते हैं । बिस्तर में सोई हुई पिंकी का मासुम चेहरा नाईटलेम्प के हलके उजाले में देखकर उसके सीने में दूध का ज्वार उठता है । करवट बदलकर सोए हुए तेजस की बगल में सो जाने के लिए ललचाए हुए शरीर को रोकने के लिए वह उठकर पानी पीती है । पति के खुले पुष्ट सीने से उठती मांसल गंध को रोकने के लिए वह मुँह तकिये में डाल देती है।
गहरी सांस लेकर उसने नजर उपर उठाई । दीवार पर छिपकल एक पतंगिये की दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी । अभी एक सुंदर संसार......... वह वहाँ से हट गई । लिविंगरूम में आकर देखा तो चेनल के कनेक्शन में कुछ प्रोबलम्ब हुआ था । टी.वी. के स्क्रीन पर काले सफेद बिन्दुओं की बारिश शुरू हो चुकी थी । अभी परदा एकदम सफेद हो जाएगा । ऋजु कल्पना मात्र से काँप उठी । उसे सफेद रंग बिलकुल नहीं भाता । किसी की मृत्यु के समय जाती है तो भी काली किनार वाली हलकी आसमानी साड़ी पहनती है । उसने चेनल बदली ।
फिल्म में कोई विवाह-प्रसंग चल रहा था । विशाल शामियाना लटकते झुम्मर, शहनाई की गूँज, ढोल के ताल पर नाचती गाती स्त्रियाँ रंगबिरंगी कपड़े और बातों की झकाझक मंडप में कन्यादान करते माता-पिता । कन्या का हाथ ग्रहण करता कोई राजकुमार......ऋजु की नजरें घूंघट में छिपे हुए चेहरे को ढूँढती हैं । वह गुलाब का चेहरा हथेली में लेती है वहीं.......तेजस अकेला बैठा है कन्यादान करता हुआ.....ऋजु उठकर चली जाने वाली स्त्री के पीछे देखती रहती है ।
चश्मा निकालकर आँख पोंछते हुए ऋजु ने उस दु:स्वप्न को मिटा देने का प्रयत्न किया । दृश्य बदलता है पर संवाद तो....
‘देख बेटा, रंजनबुआ के घर नवचंडी यज्ञ है और मुझे तकलीफ है । तुम अपने पापा के साथ हो आना ।‘
‘पर मम्मी मैं बोर हो जाउँगी ।‘
‘नहीं, देखना वहाँ तुम्हें अच्छी कंपनी मिलेगी । अरे हा, बुआ के जेठ का लड़का, क्या नाम उसका याद आया रोनक वह तुम्हारी तरह ही पढ़ा है । तुम्हें उसके साथ अच्छा लगेगा । और अब तो वह कोई नौकरी भी करता है । उसकी तनख्वाह- ‘
तुम भी अजीब हो । मुझे उसकी तनख्वाह जानकर क्या करना है ? सही में तुम चिपकु बुढ़िया होती जा रही हो ।
ऋजु कैसे बताए कि बेटी मैं बुढ़ी नहीं हो रही , हाँ धीरे धीरे मैदान छोड़ती जा रही हूँ ।
पिंकी गई । तेजस भी । ऋजु ने किसी से कोई स्पष्टता नहीं की । वे दोनों गए तब एक दर्द भरी मुक्ति का अहसास हुआ। एक ओर वह चाहती थी कि तेजस उसे साथ चलने का आग्रह करें । ‘तुम्हारी बेटी के भविष्य के निर्णय में तुम अनुपस्थित ? तुम उसकी जनेता ?’ ऋजु मे मन ही मन जवाब भी खोज रखा था । ‘बेटी ने खुद ही चुना होता तो ?’ तेजस को तो समझा सकूँगी पर पिंकी को । ‘मम्मी नहीं आएगी तो मैं नहीं जाउँगी’ । खुद कसम देकर पिंकी को भेजती पर दोनों बाप बेटी गए । बिना किसी बात की स्पष्टता किए । तीनों जानते है कि स्पष्टता किए बिना नहीं रहा जाएगा इसी तरह स्पष्टता को सहना कैसे ? उसी रात ऋजु ने सपने में देखा कि उसका केवल चेहरा है और हाथ पैर किसी अनजान रास्ते पर चले जा रहे हैं अकेले। उसका ह्रदय और कोख कहीं पीछे छूट गए हैं ।
पिंकी ने ग्रेज्युएशन पूरा किया उसके बाद पिछले एक साल में चार-पाँच अच्छे अच्छे रिश्ते आए । उसमें दो तो परदेश के पर कहीं तय नहीं हुआ । मुलाकात से पहले सबकुछ ठीक लगता । बायोडेटा अप टु डेट, जन्माक्षर भी मिलते , फोटो अच्छी लगती पर अंत में घने बादल बिखर जाते । हर बार अलग अलग जवाब मिलते । जन्माक्षर नहीं मिलते , अभी इरादा नहीं है, हमारे बड़ों को अनुकूल नहीं है, नौकरी पेशा लड़की चाहिए । कई दिनों तक घर में ऐसे जवाब गूँजते रहे । तीनों मास्क पहनकर सांस लेते रहे ।
पिछले महीने मुम्बई से ननद का पत्र आया । जेठ के इंजिनियर बेटे के लिए पिंकी के रिश्ते की बात चलाई थी । जन्माक्षर मिलते थे । परिवार जाना पहचाना था । रिश्ते में रिश्ता । ऋजु ने मौका पाते ही तेजस और पिंकी के भेज दिया । एक बार यदि लड़के-लड़की को जँच जाए फिर दूसरी सब बातें तो.......
बाहर रिक्शा रूकने की आवाज़ आई । टी.वी. बन्द करके ऋजु ने दरवाजा खोला और चबूतरे पर खड़ी रही । उसकी धड़कनें तेज हो गई थी । तेजस रिक्शे वाले को पैसे चुका रहा था। पिंकी खामोश खड़ी थी । क्या इस बार भी ?
ऋजु दो कदम आगे बढ़कर पिंकी के पास गई । उससे नजरें मिलाए बिना पिंकी जल्दी से घर में चली गई । तेजस ने उसके हाथ में वोटर बेग थमाई । तेजस के पीछे चलती हुई ऋजु अचानक रूक गई । उसकी साड़ी का पल्लू दरवाजे के हूक में फँस गया था। पीछे मुड़कर साड़ी का पल्लू छुड़ाते हुए उसने सुना, ‘वे लोग अगले मंगलवार को तुमसे मिलने और घर देखने आने वाले हैं’ । ऋजु बीच दहलीज़ खड़ी रह गई !
प्रो. नियाज़ पठाण, प्राध्यापक, एवं अनुवादक, एम.एन.कालेज, विसनगर, गुजरात (भारत)
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