जब भी राष्ट्रीय स्तर पर काव्य-पाठ करने या ऐसी ही किसी गोष्ठी में जाने का मौका मिला है तब एक अनुभव यह हुआ है कि हिन्दी, मराठी और बंगाली भाषा की कविता को छोड़कर गुजराती कविता स्वरूप, अभिव्यक्ति, नावीन्य, चुस्ती और काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से बहुत आगे है । सामाजिक समस्या से गुजराती कविता का कोई नाता नहीं है ऐसा भी नहीं है, परन्तु वह काव्य-कला की शर्त पर आगे बढ़ती है । अधिक सूक्ष्मता प्रकट करती है । नारेबाजी, आक्रोश और मात्र वर्तमान का निरूपण गुजराती कविता का स्वभाव नहीं है । इस प्रकार, एक ओर हमारी कविता अधिक सौन्दर्यलक्षी और समृद्ध प्रतीत होती है तो दूसरी ओर क्षेत्रीय दृष्टिकोण से सोचा जाए तो ऐसा लगता है कि गुजराती कविता को जैसे एकविधता ने घेर लिया है । ऐसा कहने की वजह यह है कि हमारी ही भाषा में ऐसे कई समर्थ और प्रयोगशील कवि हैं जिनकी कविता ने असाधारण रूप से नये, ऊँचे और निजी लक्ष्य सिद्ध किये हैं और सफलता भी हासिल की है । उस समय गुजराती कवि और कविता पर न्यौंछावर हो जाने का मन करता है ।
सामान्य रूप से कविता यानी गीत, गज़ल, छंदबद्ध, मुक्तछंद, पद्यनाटक अथवा लोक -लय। व्यापक अर्थ में देखा जाए तो आगे जिस एकविधता का उल्लेख किया गया उसमें गीत और गज़ल का योगदान अहम है और अन्य स्वरूपों में अनुभव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से हमारे सामान्य परन्तु बड़ी तादाद में रहे कवियों में सज्जता की कमी नजर आती है। किसी भी कवि का नया स्वर सुनते हैं तब स्वाभाविक रूप से ही निजी अनुभूति और नयी अभिव्यक्ति की अपेक्षा रहती है । गुजराती भाषा में फिलहाल सबसे अधिक गीत-गज़ल का चलन है । और, पिछले कई वर्षों में तो गीत-गज़ल की परिभाषा ही जैसे बदल गई है । फिलहाल, ये दोनों स्वरूप सिद्ध काव्य स्वरूप के बदले सिर्फ प्रस्तुति का करतब बनकर रह गये हैं । प्रस्तुति का लक्ष्य भी जहाँ सामान्य श्रोतागण को खुश करने के अलावा दूसरा नहीं होता तब – किसी नये कवि के लिए अच्छी कविता लिखना अपने आप में एक चुनौति बन जाता है ।
पहले तो कविता संग्रह प्रकट होना ही बड़ी कसौटी माना जाता था। आज के समय में प्रकाशन की सुविधा बढ़ी है और फेसबुक या ऐसे समूह माध्यमों में तो कोई पाबंदी नहीं है । ऐसे में कविता के नाम पर धड़ल्ले से उर्मि प्रलापों का ढेर बढ़ता रहता हैं । लाइक्स गुणवत्ता का पर्याय मानी जाती है । गीत के नाम पर रची जाने वाली अनेक रचनाओं में लय, प्रासानुप्रास या इबारत की दृष्टि से चुस्ती-सजगता शायद ही देखने मिलती है । गीत अब भी रमेश पारेख - अनिल जोशी या ऐसे बड़े कवियों के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ है । स्त्री सहज भाव और प्रेम के गहरे रंगों से भरी छिछली अभिव्यक्ति को गीत मान लिया जाता है । गीत एक उर्मि काव्य है और नाजुक अभिव्यक्ति उसकी विशेषता है इस बात को भूला दिया गया है । किसी कवि की निजी साँसों का गीत सुनाई नहीं देता । सभी कवियों की संवेदन-क्षमता, भाषा-अभिव्यक्ति और शिल्प-निर्माण एक से प्रतीत होते हैं । सबकुछ जैसे एक दूसरे में सम्मिलित हो गया है । एक कवि को किसी दूसरे कवि के शब्द, शब्द-समूह या भाषा के तानेबाने को ग्रहण कर लेना सही लगता है । इतना ही नहीं,इन दिनों हमारे कवियों के सिर पर आध्यात्मिकता ऐसी तो सवार हो गई है कि ‘अनुभव’ और ‘काव्यानुभव’ के बीच मीलों का अन्तर खड़ा हो गया है । स्थिति यह है कि इस विधान को मात्र गीत कविता पर ही नहीं परन्तु सभी काव्य स्वरूपों पर लागू किया जा सकता है ।
गज़ल का खोखलापन बढ़ा है । अनेकानेक गज़लें पढ़ते ही रहे तो भी एक शब्द प्रतीतिजन्य नहीं लगता । अधिकांश गज़लकार कृत्रिमता के सहारे समूहगान कर रहे हैं । रदीफ और काफिया एक दूसरे से मुँह मोड़कर चलते हैं । छंद भंग या वज़न दोष से भी किसीको कोई एतराज नहीं रहा । जहाँ सोद्देश्य, तोल-तोल कर नये ढंग से शब्द प्रयुक्त होता है वहाँ उसकी चर्चा हो उससे पहले ही अर्धदग्ध कवि उस शब्द के कई-कई संस्करण अपने नाम कर लेते हैं । अल्प समय के कलदार कमा भी लिए जाते हैं । कुछ स्थानों पर तो किसी भी सर्जनात्मक कारण के बिना, भाषा और व्याकरण के नियम त्यागकर हमारा सर्जक संभावना की तलाश किए बिना शब्द की धज्जियाँ उड़ाता है । कुछ तो शब्द सिद्धि के विकल्प में प्रसिद्धि के शिखर तय करने निकले हैं ।
वैसे देखा जाए तो, मुक्त छंद की कविता में आंतर लय की कमी तुरन्त नज़र आती है । कविता की शर्त पर विचार-वस्तु संवेदना में शायद ही परिवर्तित होते हैं । ऐसा लगता है कि हम लाभशंकर आदि कवियों की कोशिशों को दरकिनार कर रहे हैं । कुछ कविताएँ तो गद्यखंड या निबंधात्मक लगती है । जिस कवि ने छंद के रियाज़ से अभिव्यक्ति के प्रति किसी बंधन का अनुभव ही नहीं किया और वह जब मुक्त छंद कविता लिखता है तब बरकत कहाँ से आ सकती है ? इस दौर में सोनेट के स्वतंत्र कहे जाने वाले संग्रह भी प्रकट हुए हैं । परन्तु इनमें भी कुछ अपवादों को छोड़कर दक्षता के अभाव में मात्र छंद का आवरण ही रहा है और कई जगहों पर कविता उसमें से गायब नजर आती है । हमारी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक भी दिन प्रतिदिन अधिक से अधिक औदार्य प्रकट करते रहे हैं । सबसे पहले तो यह सबकुछ उनकी नज़र में आना चाहिए । परन्तु, कहा जाता है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है ! उनका चुनाव, हमारी कविता के वर्तमान को निरावृत कर देता है । विविध रूप से कविता के संपादन भी होते रहे हैं । परन्तु ऐसे संपादन प्रमुख रूप से तो जो सर्जक-समीक्षक नहीं हैं ऐसे अध्यापकों की कैरियर ग्राफ के निमित्त होते हैं या कवियों की जनसंख्या गणना के रूप में नज़र आते हैं । संक्षेप में, बाजरे का मूल्य कम और भूसे का ज्यादा की स्थिति निर्मित हुई है । उसमें भी फिर गुटबंदी की रासलीला तो अनोखी है । बड़े बड़े मूर्धन्य भी मामकाः से मुक्त नहीं है !
ऐसे माहौल में भी इस दशक में, उल्लेखनीय कवि, कविताएँ और कविता-संग्रह बिल्कुल नहीं है ऐसा तो कैसै कहा जा सकता है ? 2011 से 2020 तक छोटे-बड़े लगभग पाँचसौ से अधिक कविता-संग्रह प्रकट हुए होंगे । उन सबका स्मरण करते हुए यहाँ तो कुछ अंशों में उल्लेखनीय और भिन्न अभिव्यक्ति को ध्यान में रखकर उस समय के कविता-प्रवाह को देखने का उपक्रम है । एक विहंगावलोकन के रूप में ही, परन्तु जो स्पष्ट नज़र आता है उसकी योग्य चर्चा भी करनी चाहिए । याद रहें कि- यहाँ पिछले दस वर्ष में प्रकट हुए कविता-संग्रहों की सूची बनाने का या उस दौर की कविता का आस्वाद कराने का या नाम स्मरण का इरादा कतई नहीं है । इसलिए यह काम गणक ऋषियों के हवाले छोड़कर आगे बढ़ते हैं ।
कई दशकों से अपनी सर्जनात्मकता के अनेक परिमाण प्रकट करते हुए जो कवि बहुत बड़ा योगदान दे चुके हैं ऐसे अपनी भाषा के प्रसिद्ध और मँजे हुए कवियों के ग्यारह काव्य संग्रह 2012 में ईमेज पब्लिकेशन द्वारा एकसाथ प्रकाशित हुए हैं । हम देख सकते हैं कि इन सभी संग्रहों का आधार दीर्घ समय की साधना और प्रौढ़ता है । कविश्री निरंजन भगत का कविता संग्रह है ‘86मे’ (2012) । इसमें प्रणय के भाव अधिकांश तो संवाद के रूप में अथवा स्त्री-पुरुष की उक्ति के रूप में प्रकट हुए हैं । कवि की द्विधा यहाँ दर्शन में परिवर्तित हुई है इसलिए कई स्थानों पर उनकी कविता कथनात्मक रूप धारण करती है । कवि चेतना की उड़ान इस कविता में अनुभव की जा सकती हैः
‘तुंथी तो शुं, स्वयं आ पृथ्वीथी पण पर अने पार
एवी आ छे मारी अविरत, अविश्राम जीवनयात्रा दुर्दम्य, दुर्निवार,
तें मने पूछ्युं हतुं नेः ‘कहे मानव, क्यां चढीश तुं ?’
हुं मानव, आजे तने कहुं हवे अवकाशने मानवताथी मढीश हुं ।‘ (पृ. 36)
बाईसवें कविता संग्रह ‘इन अने आउट’ (2012) के निवेदन में लाभशंकर ठाकर लिखते हैः ‘कोरा कागज़ और पेन मुझे ‘हाथ’ की प्रतीति कराते हैं । शीघ्र दुर्निवार सिसृक्षा प्रेरक बन जाती है । हाँ, हूँ तो खेलता हूँ ।’ कवि ने शब्द के साथ सर्जनात्मक खेल जारी रखा है और उसके निमित्त अस्तित्वगत प्रश्न, रोजमर्रा की तकलीफें और ओल्टर इगो की बात की है । प्रश्न करने की उनकी पुरानी आदत यहाँ भी बरकरार है ।
‘आ पगथियां कोणे रच्यां छे ?
आटलां बधां पगथियां ?
आम पगथियां चढी रह्यो छुं तो-
क्यारेक क्यांक पहोंचीश ने ?
थयुं के नथी चढवां पगथियां ।
अटकी जाउं ।
आम सतत पगथियां चढी चढीने
मारे क्यां पहोंचवानुं छे-
एनी ज जो जाण न होय
तो
हुं शा माटे चढुं पगथियां ?
अटकी जवानी चांप मारामां नथी ?
ऊषर सभानताने ऊंचकीने
सदीओनी सदीओथी
हुं चढी रह्यो छुं पगथियां ।’ (पृ. 7)
इसके अलावा ‘गांधीने पगले पगले तुं चालीशने गुजरात ?’ जैसी कविताएँ और अपने आप के साथ चलने वाला कवि का तार्किक संवाद अर्थनर्थ की दृष्टि से महत्वपूर्ण है ।
‘सेंजळ’ (2012) राजेन्द्र शुक्ल का ‘गज़ल संहिता’ के बाद का महत्वपूर्ण पड़ाव है । यहाँ कवि तीनों विधाओं, गीत-गज़ल और मुक्त छंद में व्यक्त हुए हैं । विशेषता यह है कि, गज़ल के स्वरूप को उन्होंने हमारे पारंपरिक काव्य-प्रकारों की आभा में रखकर देखने का महापुरुषार्थ किया है और इस तरह गजल को विशिष्ट प्रकार का गुजरातीपन प्रदान किया है । सोरठा-दोहा, भरथरीगान, बाल कहानी-गीत, स्तवन और आनंद का गरबा की रीति अपनाना तो उन्हें ही सूझता है । हमारे यहाँ ‘गज़ल कहना’ ऐसा प्रयोग है । राजेन्द्र शुक्ल ने इस कथने के सभी प्रकारों के क्षितिज से गज़ल को रूबरू कराया है । ऐसे ही तो बड़ा गज़लकार नहीं बना जा सकता न ? इतनी कविताएँ लिखने के बाद भी राजेन्द्र शुक्ल कह सकते हैः
‘सबद सुरंगुं फूटियुं, ऊड्या धूळना ढेर,
काळमींढ फाटी पड्या, फूटी सेंजळ सेर !’ (चतुर्थ टाइटल)
चीनु मोदी अपने लेखन में निरंतर प्रयोग करते रहे हैं । इस दौर में उनका ‘गतिभास’ (2012) कविता संग्रह प्राप्त होता है । इस संग्रह में उनकी कविताएँ मुक्तछंद, अपने लिए गीत, दूसरों के लिए गीत, सोनेट्स, दोहा, मुक्तक और गज़ल इस प्रकार छः भाग में विभाजित है । जीवन रूपी जल अब अधिक नहीं है, इसको जान चुके कवि का इसमें अनोखा मिजाज है । इस एक ही दोहे में कवि मानस का परिचय मिल जाता हैः
सरयु तीरे रामजी, जमना कांठे श्याम,
साबरमतीनी रेत पर लख बंदानुं नाम ।
‘चिदाकाशनां चांदरणां’ (2012) में कविवर चन्द्रकान्त सेठ की कविता का मात्र विस्तार देखने को मिलता है । ऐसा कह सकते हैं कि उनके चलते रहने वाले काव्य-प्रवाह का यह सातत्य है । किसी नये प्रयोग के स्थान पर अपनी मूल मान्यता को ही कवि ने यहाँ दृढ़ किया है । ऐसा ही माधव रामानुज के कविता संग्रह ‘अनहदनुं एकांत’ (2012) के विषय में भी कहा जा सकता है । इन दोनों कवियों ने अपनी कवि मुद्रा की तासीर को बदले बिना सातत्य की महिमा की है ।
‘बे स्टेशननी वच्चे’ (2012) में सुरेश दलाल कहते हैं कि – ‘वेदना के बिना जीवन नहीं है और संवेदना के बिना कविता नहीं है ।’ यहाँ दी जा रही पंक्तियाँ उनकी इन कविताओं की परिचायक बन पड़ी हैः
‘गइ काले रात पडी त्यारे ईश्वरे सही कर्या विना कविता लखी
ए ईश्वरना गीतना उपाड जेवुं आजे प्रभात ऊघड्युं छे
अमारे हवे रमवाना छे अंतराय विनाना अंतरा ।
अने अनायासे ध्रुवपंक्ति साथे प्रास मेळववाना छे ।’ (पृ.23)
पन्ना नायक के कविता संग्रह ‘गुलमोहरथी डेफोडिल्स’ (2012) में ’वि/चित्र’, ’कविता करुं छुं’, ‘हिन्दू समाज’, ’टोळाशाही’ और ’बाने प्रश्न’ जैसी कविताओं में उनकी विकसित हो रही कवि प्रतिभा के प्रमाण प्राप्त होते हैं । तो अनिल जोशी ’पाणीमां गांठ पडी जोई’ में विदेश में बसने और आवागमन के अनुभव द्वारा अपने चिर परिचित लहजे में व्यक्त हुए हैं । अमरिका में भी वे गुजराती वातावरण को अपने साथ रखते हैं । अपनी पहले लिखी जा चुकी और प्रसिद्ध रचनाएँ भी यहाँ रखने का मोह वे छोड़ नहीं पाये हैं यह भी उल्लेखनीय है ।
‘परपोटाना किल्ला’ (2012) में जवाहर बक्षी ’पिपीलिका-आख्यान’, ’त्रिपाद कुंडळ’ के अलावा गज़लें, रूबाइयाँ, मुक्तक और हाईकु लेकर उपस्थित हुए हैं । उन्होंने भी भजन-गज़ल, छप्पा-गज़ल और गरबा-गज़ल लिखकर गज़ल के स्वरूप विस्तार की संभावनाएँ तलाशी है । एकविध गज़लों के दौर में उनके प्रयोग ध्यान आकृष्ट करते हैं । कवि हेमेन शाह रचित ‘आखरे ऊकल्या जो अक्षर’ (2012) मुख्यतः गज़ल संग्रह है । उसमें भी दोहे और अन्य काव्य है परन्तु गज़ल उनका अपना इलाका है । उनकी गज़लों को समझने की चाबी रूप एक शेर देखिएः
’नाकनी दांडीए एनुं घर हतुं,
क्यांक वचमां केडी वंकाई गई ।’
इसी प्रकार से ग्यारह कवयित्रियों के कविता संग्रह भी प्रकट हुए हैं । इस तरह देखा जाए तो 2012 का वर्ष काव्योत्सव का वर्ष लगता है । ’श्याम पंखी अव आव’ (2012) उषा उपाध्याय, ’अढी वत्ता त्रण’ (2012) माला कापडिया, ’अदीठ अक्षर’ (2012) नयना जानी, ’अंतिमे’ (2012) पन्ना नायक, ’छाब भरीने’ (2012) मनोज्ञा देसाई, ’छोळ अने छालक’ (2012) धीरूबहन पटेल, ’एक सहियारो कप’ (2012) नलिनी मांडगांवकर, ’जन्मारो’ (2012) एषा दादावाळा, ’जासूदनां फूल’ (2012) नीता रामैया, ’कंदमूळ’ (2012) मनीषा जोषी और ’नाद निरंतर जगव्या करे छे’ (2012) जया मेहता । इससे पहले इन सभी कवयित्रियों के एक या एक से अधिक कविता संग्रह प्रकट हो चुके हैं । पत्रिकाओं और कवि संमेलनों में हमने उन्हें पढ़ा-सुना है । गीत-गज़ल और मुक्त छंद में ये कवयित्रियाँ व्यक्त होती रही हैं । सभी संग्रह परिस्थिति के कारण मुझे नहीं मिल सके हैं इसलिए विस्तार से बात नहीं हो सकती । परन्तु उनकी काव्य-यात्रा के सातत्य के कारण इनकी रचनाएँ अधिक संतर्पक बन पड़ी होगी ऐसा माने के कई कारण हैं ।
प्रेम, प्रकृति, कृषि-ऋषि जीवन, मिट्टी की माया और जीवन दर्शन को उजागर करने वाला रधुवीर चौधरी का कविता संग्रह ’धराधाम’ (2014) कविता के पाठक को वैचारिक पुंजी प्रदान करने के साथ-साथ स्नेह-सिक्त भी करता है । इस संग्रह में उनकी व्यंग्य की धार से अधिक अखिल का दर्शन और मनुष्यजाति के प्रति समभाव गहन रूप से प्रकट हुआ है ।
’बीजरेखा हलेसां विना तरती रहे’ (2013) कवि जयदेव शुक्ल का अत्यंत महत्वपूर्ण कविता संग्रह है । जयदेव शुक्ल की मुक्त छंद कविता पर्यावरण, प्रकृति, निजी उर्मि –उद्रेक और निजी अनुभवों एवं सूक्ष्म संवेदनाओं को अनेक कलाओं के परिमाणों के साथ व्यक्त करती है । इन कविताओं की सूक्ष्मता अन्य कवियों के लिए भी अध्ययन का विषय बन सकती है।
कमल वोरा के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं: पहला ‘अनेकएक’(२०१२) को साहित्य अकादेमी दिल्ली का वर्ष २०१६ का पुरस्कार प्राप्त हुआ है | दूसरा संग्रह ‘वृद्ध शतक’(२०१५)| इन काव्यों में वृद्धों की मन:स्थिति,पारिवारिक वात्सल्य ,अकेलेपन की पीड़ा और बोझिल वातावरण आपकी कविता को एक भिन्न आयाम देते हैं | कमल वोरा ने साम्प्रत समय के बड़े प्रश्नों को कम छुआ है |उनकी मुख्य दिलचस्पी आम आदमी के मन में उठते संवेदन तरंगों को प्रकृति के बदलते रूपों के निमित्त व्यकत करने में रही है| दरअसल वे महीन नक्काशी के कवि हैं |उनकी कविताओं का रचना शिल्प निजी है |
कवि-चित्रकार गुलाम मोहम्मद शेख का काव्यसंग्रह ‘अथवा’१९७४ में प्रकाशित हुआ था | यहाँ, ‘अथवा अने’(२०१२ ) में कवि ने १९७४ के बाद की रचनाओं का समावेश करके समस्त कविताओं को एक साथ प्रकट किया है | ‘वीतेली वेळानों पडछायो’, ‘बोलता शीखता पुत्रने’, ‘माबापने,’ ‘स्वप्नमां पिता’ तथा ‘जेसलमेर’आदि रचनाएँ महत्त्वपूर्ण है |
काव्यसंग्रह का नाम है ‘शाहीनुं टीपुं’,कवि है रमणीक सोमेश्वर | आप वर्षों से कविता लिखते रहें हैं, अनुवाद भी करते हैं | वैसे कम लिखते हैं, परन्तु उनकी कविताओं का अनुभव विश्व और भाषा-कर्म नितांत निजी है | आम तौर पर आप मन की बात करने के लिए प्रकृति के किसी एक रूप का सहारा ले कर काव्य शुरू करते हैं और काव्य पूरा होने पर भावक के मन में सम्वेदन की एक लकीर छोड़ जाता है | कुछ कविताओं में लाभशंकरीय असर देखने को मिलता है|
इसी समय में अर्धशतक की साहसयात्राः नया पड़ाव ‘महाभोज’ (2019) लेकर आते हैं कवि सितांशु यशश्चन्द्र । यह संग्रह भी वैसे तो ‘ओडिस्युसनुं हलेसुं’ का ही विशिष्ट विस्तार है परन्तु बदले हुए समय और संदर्भों को कवि किस प्रकार देखता है इसे जानना दिलचस्प है । सामाजिक अभिज्ञता और वैयक्तिक सरोकारों के संकेत इन कविताओं की विशेषता है ।
सामान्य रूप से गीतकार के रूप में प्रसिद्ध कवि विनोद जोशी का विराट कदम है चौपाई और दोहा छंद में लिखा गया प्रबंध काव्य ‘सैरन्ध्री’ (2018)।वर्षों तक मन ही मन में आकार धारण करता रहा यह काव्य वर्तमान गुजराती कविता का एक अलग और महत्वपूर्ण पड़ाव है । महाभारत के विराटपर्व में आता सैरन्ध्री के कथानक का कुछ आधार लेकर निज से बिछड़ी हुई सैरन्ध्री के अंतर्द्वन्द्व को विषय बनाते हुए कवि ने नारी का एक नया ही रूप प्रकट किया है । गीत-गज़ल की बाढ़ के इस दौर में यह प्रबंध-काव्य पात्रों के आलेखन ,रचना-रीति, भाषा और स्वरूप की दृष्टि से नितान्त भिन्न है । कह सकते हैं कि कवि का एक नूतन प्रयाण है ।
कवि हरीश मीनाश्रु का अविरत बहता काव्य-प्रवाह भी इस समय का सिद्ध शिखर है । ‘पंखी पदारथ’ (2011), ’शबदमां जिनकुं खास खबरां पड़ी’ (2011), ’सूनो भाई साधो’ (2011), ’नाचिकेत सूत्र’ (2017) और ’बनारस डायरी’ (2016) में कविवर हरीश मीनाश्रु के और गुजराती कविता के भी अनेक रूप उजागर हुए हैं । इस कवि की भाषा अभिव्यक्ति को मैं एक विस्फोट की तरह देखता हूँ । अध्यात्म, अभूतपूर्व बिम्ब विधान, प्रकृति के साथ का अनुबंध, इन्द्रियग्राह्यता और अरूढ रचना-रीति इस कवि को उच्च सिंहासन पर आरूढ करती है । उनके ही शब्दों में कहें कि-
‘ए ज हकदार छे अनहदनो असलमां साधो,
शब्दनी सरहदे हदथी वधारे बेठो छे ।’
गुजराती भाषा में और कविता में जो कुछ भी संभव है वही सबकुछ गज़ल में भी संभव हो सकता है ऐसा मानने वाले कवि संजु वाळा जैसे अपने मत का प्रमाण देते हुए ‘कविता नामे संजीवनी’ (2014) नामक गज़ल संग्रह लेकर उपस्थित हुए हैं । इस संग्रह की गज़लों में हमारी आध्यात्मिक परंपराएँ, भाषा के लहजें और निजी संवेदना के तानेबाने गूँथे गए हैं । गुजराती गज़ल के इस नये रूप को गढ़ने में अन्य कवियों के साथ साथ संजु का भी महत्वपूर्ण योगदान है । जब भी गज़ल की विकासरेखा का आलेखन किया जाएगा तब संजु वाळा की इन रचनाओं का सहर्ष उल्लेख करना पड़ेगा । फिलहाल तो उनकी एक गज़ल से दो-तीन शे’र देखिए-
‘धीमा परंतु मक्कम ए डग भरे निराळा,
दृष्टिमां स्वप्न सृष्टि, मन मारतुं उछाळा ।
उघाडवा दीवालो बिलकुल हता जे सक्षम,
ए टेरवांने कोणे मारी दीधां छे ताळां ?
अंदर रही ऊछरती उत्कंठ कामनाओ,
देखाडवा छे तत्पर कैं आकरा उनाळा ।
’इथरना समुद्र’ (2013) और ’कोई जागे छे’ (2016) इन दो संग्रहों के रचयिता महेन्द्र जोशी हैं । कुछ मुक्तछंद रचनाओं को छोड़कर मुख्यतः ये दोनों गज़ल संग्रह हैं । संजु वाळा, महेन्द्र जोशी और ललित त्रिवेदी । राजकोट की यह त्रिपुटी हमेशा सर्जनशील रही है । गज़ल के स्वरूप की इन्हें अच्छी समझ है इतना ही नहीं, ये तीनों रचनाकार तौल तौलकर लिखने में विश्वास रखते हैं । ललित त्रिवेदी के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैः ’बीजी बाजु हजी में जोई नथी’ (2013) और ’बेठो छुं तणखला पर’(2018) । ये गज़लकार एक दूसरे के प्रभाव में आए बिना अपनी निज गति से आगे बढ़ते हैं । इन तीनों का अपना संघर्ष है और अपनी ही अभिव्यक्ति है । गज़ल को एक साहित्य स्वरूप के रूप में स्वीकार करते हुए, परंपरा से सीखते हुए ये कवि कई मायनों में प्रयोग करते रहे हैं । उनकी विस्तृत आलोचना करने का या उनकी गज़लों का आस्वाद कराने का यहाँ अवकाश नहीं है परन्तु दोनों कवियों के कुछ शे’र: –
‘दिवसो अने रातो मनमां फरी फरीने,
चचरी रही छे वातो मनमां फरी फरीने ।
जळथी जुदां थया छे भीनाशथी थया नहि,
जळनो रह्यो ते नातो मनमां फरी फरीने ।’ महेन्द्र जोशी (कोई जागे छो, पृ.41)
‘हे गज़ल ! तुं ईन्द्रियातीतनी सनातन आकृति,
तुं ज शाश्वत पीरना कांठे वसेली संस्कृति !’
हे गज़ल ! तारां नूपुरमांथी रणकती झंकृति,
पेनने अडके तो आकाशेथी झबके छे द्युति ! ललित त्रिवेदी (बेठो छुं तणखला पर, पृ. 31)
तो उसी तरह राजेश व्यास ‘मिस्कीन’ भी गज़ल के एकनिष्ठ उपासक हैं । उनसे भी हमें एकाधिक संग्रह प्राप्त हुए हैं । ’ए ओरडो जुदो छे’ (2013), ’पाणियारां क्यां गयां ?’ (2015), ’ए समथिंग छे’ (2016) और ’मळेलां ज मळे छे’ (2017) । उनकी गज़लों में जितने सांसारिक संदर्भ आते हैं उतने ही आध्यात्मिक भी आते हैं । भाषा-कर्म, रदीफ-काफिया और छंद विधान की दृष्टि से उनकी गज़लें विशिष्ट मुद्रा तो धारण करती ही है परन्तु हर रचना दूसरी रचना से भिन्न होती है ,यह भी उनकी विशेषता है । परंपरा और आधुनिकता का समन्वय साधने वाले कवि ‘मिस्कीन’ की एक गज़ल के दो शे’र देखिएः –
’खांसे छे वृद्ध फाधर ए ओरडो जुदो छे,
बेसे छे घरना मेम्बर ए ओरडो जुदो छे ।
एकेक श्वास जाणे चाली रह्या पराणे.
घरमां छतांय बेघर ए ओरडो जुदो छे !’ (ए ओरडो जुदो छे पृ. 1)
भरत विझुंडा इस दौर की गज़ल का एक सुन्दर आश्चर्य है । भरत गज़ल को लेकर एकरागी है । उनका सातत्य गज़ब का है । इन दस सालों में उनके पाँच गज़ल संग्रह प्रकट हुए हैं । ‘आववुं अथवा जवुं’ (2013), ’लाल लीली जांबली’ (2015), ’तो अने तो ज’ (2016), ’तारा कारणे’ (2018) और ’तमे कविता छो’ (2019) । इन सभी गज़लों का एक संचय हुआ है उसका नाम है ‘भरतकाम’ (2020) । लाघव और तिर्यकता उनकी विशेषताएँ हैं । गज़ल के स्वभाव के अनुरूप प्रेम और उसके विविध रूप उनकी गज़लों के विषय हैं । उसमें कभी कभी सामाजिक अभिज्ञता के दर्शन भी हो जाते हैं । छोटी और लम्बी बहर दोनों पर उनका अधिकार है । भरत की गज़लें जल्दबाजी में नहीं पढ़ी जा सकती क्योंकि उसकी अर्थच्छायाएँ केन्द्र से लेकर परिधि तक पहुँचती हैं । ’लाल लीली जांबली’ संग्रह से एक ही गज़ल के तीन शे’र:
‘एक बाजु छे दिवस ने बीजी बाजु रात छे,
बेउनी वच्चे ऊभेली क्यांक मारी जात छे ।
शुं हती केवी हती ए जाणीए बस आपणे,
गाम लोकोए तो केवळ सांभळेली वात छे ।
हूं तने मनमांथी काढी नांखी मूकुं जीवमां,
आ मरणमूडीने साचववानी केवळ वात छे ।’ (पृ.37)
कवि हर्ष ब्रह्मभट्ट से तीन गज़ल संग्रह प्राप्त होते हैं । ‘खुदने य क्यां मळ्यो छुं ?’ (2012), ’आभ दोर्यु तो सूर्य उग्यो तो’ (2015) और ’कोडियामां पेटावी रात’ (2015) । इन संग्रहों के बहुत कम समय में एकाधिक संस्करण निकले हैं । हर्ष ब्रह्मभट्ट उर्दू और गुजराती दोनों भाषाओं में गज़लें लिखते हैं । उनकी गज़लों में निजी वेदना की अनुभूतियों के अलावा सामाजिक संप्रज्ञता और कभी कभी हास्य-व्यंग्य की धार देखने मिलती है । निरंतर लिखने वाले ये सर्जक साहित्यिक प्रवृत्ति को भी निरंतर प्रोत्साहन देते रहे हैं । उनकी प्रसिद्ध गज़ल के तीन शे’रः
‘जो आंसु खूटी जाय तो चिंतानो विषय छे,
आ वात ना समजाय तो चिंतानो विषय छे ।'
‘जा तारुं भलुं थाय’ कही केम हस्या ए ?
साचे ज भलुं थाय तो चिंतानो विषय छे ।
देखाय नहीं त्यां सुधी ईश्वर छे सलामत,
क्यारेक जो देखाय तो चिंतानो विषय छे ।’ (आभ दोर्यु तो सूर्य ऊग्यो, पृ. 5)
कवि आकाश ठक्कर अमरिका में रहेते हैं | ‘साचवेली क्षणों’(२०१९) में आप गीत, गज़ल और मुक्तछंद तीनों विधा में विहार करतें है | अपने पूर्वगामियों और समकालीनों से भिन्न अपनी निजी आवाज खोजने की कविने काफी जद्दोजहेद की है | आधुनिक समय के कवियों से प्रभावित हुए है जरूर किन्तु अपनी निजी अनुभूतियों को कविता की शर्त पर विशिष्ट रूप से मूर्त किया है | वतनराग, प्रणय की चाह और असफलता के चिन्ह कई कविताओमें दिखाई पडते है |
रवींद्र पारेख सव्यसाची सर्जक है | लेखन में आपने साहित्य का लगभग एक भी प्रकार छोड़ा नही है | कविता उनका पहला प्यार है । ग़ज़ल को उन्होंने प्राथमिकता दी है । ‘अरसपरसनुं’ (२०१७) और ‘मने तू जोई छे सहवास माटे’ (२०१७) दोनो संग्रह में केवल गज़ल | प्रणय को ले कर निजी पीड़ा, गज़ल का मिज़ाज, वक्रता और विडम्बना इन के मुख्य विषय है | शेर देखते हैं :
‘तने मणवा हुं आगण जाऊं ने पाछण तु बोलावे,
मने तुं प्रेमिका छे के प्रभु, ते स्हेज समजावे ?
मने अजवासनी एवी सखत आदत पड़ी छे के,
बणे छे जात तो पण थाय ना के कोई होलावे !’
अति लोकप्रिय और प्रस्तुति के बादशाह ऐसे खलील धनतेजवी के दो ग़ज़ल संग्रह हैं—‘सोगात’ (2012), तथा ‘सरोवर’ (2018) । वैचारिक पाथेय और जन सामान्य तक पहुँचनेवाली वेदनायुक्त बोलचाल की भाषा, ग़ज़ल के स्वभाव के अनुकूल स्थापना और बदलाव (उत्थापना) वे सहज रूप से करते आए हैं । उनकी एक ग़ज़ल के दो शेर :
मारा दीवा सामे वावंटोण पण हांफी गया,
दीवा झणहणता रह्या ने वायरा खूटी गयां !
‘गामना खेतरथी मांडी शहेरनी गलिओ सुधी,
साव अथडातां कुटातां अहीं सुधी आवी गया ! (सरोवर, पृ.31)
नवोदित ग़ज़लकार किशोर जिकादरा ‘पांपळ वच्चे’ (2019) नामक पहला संग्रह ले कर आए हैं । पहले संग्रह में ही उनकी प्रौढ़ता झलकती है । छंद और अभिव्यक्ति साफसुथरी है । इस कविता की विशेषता यह है कि अपने हृदय की बात सीधी तरह से करने के बजाय प्रकृति के किसी तत्व को आधार बनाकर अथवा किसी जाने अनजाने प्रतीकों का आधार बनाकर बात कर सकते हैं । इसीलिए अभिव्यक्ति में सामर्थ्य और वजन दोनों का अहसास कराते हैं । कहना चाहिए कि आज के सभारंजक और चाटुक्तिकार ग़ज़लकारों से उनकी आवाज जरा हट कर तो है ही, परन्तु अधिक ताजगीयुक्त और व्यंजकपूर्ण भी है ।
मुक्त छंद कविता के तीन संग्रह ऐसे हैं जिनका उल्लेख करना ही पड़ेगा । ‘धरतीनां वचन’ (2012) कानजी पटेल, विचरण (2019) भरत नायक और ‘वहेतुं तेज’ (2019) गीता नायक । कवि कानजी पटेल मात्र मानवीय भावों को चित्रित करने के बजाय समग्र सृष्टि के तत्वों को साथ ले कर चलते हैं । प्रकृति को निहारना और गाना उनका स्वभाव है । कानजी की कविता केआदिस्तरों को समझने के लिए अपनी चेतना को भी समृद्ध करनी ही होगी । भरत नायक का विचरण अजीब प्रकार का है । वे प्रकृति को अपने भीतर उतारते हैं और बाद में ही उसमें उथलपथल मचती है उसे अरूढ़ – अनकहे रूप में चित्रित करते हैं । समुद्र, पहाड़, रेगिस्तान, वन बंधु ही उनकी कविता में अपने आदिम स्वरूप में आते हैं । यह कवि कभी नगरवासी तो कभी वनवासी बन कर हमारे समक्ष आता है । जबकि गीताबहन का यहाँ कवयित्री के रूप में जो व्यक्तित्व प्रकट होता है वह विदग्ध भारतीय नारी की समझदार अंतरचेतना, वैचारिक द्वंद्व, जीवन की क्षणों का, संबंधों के अनोखे समीकरणों और आकांक्षा – अपेक्षाओं के पुद्गल से निर्मित हुआ है । अपने आपकी और जगत की प्रकृति से कदमताल मिलाते हुए जो प्राप्त होता है उसकी सौंदर्यात्मक प्रस्तुति यानी ‘वहेतुं तेज’ की कविताएं ।
जटायु और बाहुक की परंपरा का अनुसरण करनेवाला काव्य है— ‘सुवर्णमृग’ (2013) । रामायण की स्वर्णमृग-कथा तो प्रचलित है । परंतु उस कथा को विषय बनाकर कविता रचते हैं राजेश पंड्या । इस ‘सुवर्णमृग’ में कवि ने लोकलय और लोकभाषा का उपयोग किया है । कवि यहाँ राम और सीता के अलावा हिरण विहीन मृगी के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हैं, यह हृदय द्रवित करने वाला है । काव्य का अंत वेदना की एक लकीर छोड़ जाता है :
‘एवा अगनि तापीने बार नीसर्यां सीताजी
लेवा आव्यां त्यां तो फूलनां विमान रे
सीताने मण्या छे एना राम
पण हजी ओली मृगली भटके छे रानेरान रे.’
‘अनित्य’ (2014) में नगरीय जीवन की मिश्र संकुल वास्तविकता को कल्पना और प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं नीतिन मेहता । अपनी पहचान की आहुति देकर नयी पहचान निर्मित करने का संघर्ष और चिंता उनकी कविता में व्यक्त हुई है । कभी ऐसा प्रतीत होता है कि नीतिनभाई के भीतर बैठा आधुनिक आलोचक कवि पर राज करता है । परंतु कविता में अनुभव के प्रस्तुतीकरण की उनकी कश्मकश सहृदय तक भलीभाँति पहुँचती है ।
‘जणनी आँखे’ और ‘जातिस्मर’ के रचनाकार यज्ञेश दवे का काव्य-संग्रह है—‘गंधमंजूषा’ (2015) । यह कवि छंद नहीं जानता परंतु लय की खोज कर सका है । इन कविताओं का विषय-वैविध्य आकर्षक है । इकोलॉजी के अध्ययन के कारण किसी भी वस्तु या समस्या को कई कोणों से परखने की आदत से उनकी कविता लाभान्वित हुई है । संदर्भ भी खुद ब खुद आ मिलते हैं । ‘वाराणसी’, ‘मातृमुद्रा’ और ‘महाप्रस्थान’ आदि रचनाएँ कवि का आरोहण सूचित करती हैं ।
भाषाविज्ञान के अध्येता और अब कवि के रूप में ख्यात अजय सरवैया ‘आम होवुं’ (201)1 में किसके साथ होना चाहिए ? कहाँ होना चाहिए ? कब होना चाहिए ?– इस पहेली का उत्तर अपने आप से संवाद करके पाने का प्रयास करते हैं । प्रेम, अंधेरा , नदी, घास, पुस्तकें, लायब्रेरी, समय, कवि और कविता के विविध खंडों में यह कवि विचरण करता है । रघुवीर चौधरी ने लिखा है कि— ‘अजय की अधिकांश कविता जितनी नई हैं उतनी कठिन नहीं हैं ।'
‘टकोरा मारुं छुं आकाशने’ (2011) मुक्त छंद में रचित योगेश जोषी का काव्य-संग्रह है । प्रकृति के माध्यम से वैयक्तिक फिर भी वैयक्तिक नहीं लगती ऐसी छोटी-छोटी संवेदनाओं, भावनाओं को अभिव्यक्त करती कविता योगेश जोषी की विशेषता है । वे जितनी सज्जता से लम्बी कविता लिख सकते हैं उतनी ही सज्जता से वे छोटी कविताएँ भी लिखते हैं । कभी ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी कविता संवेदना से लदी है, किंतु शायद यह उनका सर्जक विशेष है । उनकी एक छोटी कविता ‘जरीक मोडुं थयुं’ द्रष्टव्य है :
‘कई तरफ जवुं ?
एक दीवो
प्रगटाववामां
जरीक मोडुं थयुं
ने
बधा ज रस्ताओ
होलवाई गया....’
झालावाडी परिवेश और भाषा का लहजा ले कर आने वाले कवि रमेश आचार्य का मुक्त छंद कविता का संग्रह ‘घर बदलवानुं कारण’ (2013) अपने लाघव और व्यंजकता के कारण आस्वाद्य है । उसमें से ‘घर बदलवानुं कारण’, ‘शेढो’, ‘अंधेरा और प्रेम’, तथा ‘मेरे पड़ोसी’ इत्यादि काव्य उल्लेखनीय हैं ।
‘सीमाडे ऊगेलुं झाडवुं’ (2011) कवि मणिलाल ह.पटेल का काव्य संग्रह अधिकांशतः मुक्त छंदों का है । इसमें समय-समय पर लिखी गयी मुक्त छंद रचनाओं के अलावा ‘यू.एस.डायरी’ और ‘पिताजीने : चार सोनेट’, ‘तरस विशेनां त्रण सोनेट’ तथा कई छांदिक रचनाएँ और गीत हैं । मणिलाल ह. पटेल मूलतः प्रकृति प्रेमी जीव । यहाँ, इन काव्यों में भरपूर प्रकृति है— कुदरती और मानव की । पिताजी वाले एक सोनेट के अंतिम भाग में कवि लिखते हैं :
तमे चाल्या जाळेकमण पर थी झाकण गयुं
अरे पेढ़िओना रथ ऊपरथी तोरण खर्युं..
अने में जाण्युं त्या हृदय थडकारो चूकी गयुं
अचिंत्युं आवीने मरण सूनकारो मूकी गयुं..
अंतिम वर्षों में एकाधिक कवयत्रियों की सक्रीयता दिखाई दी है । निजी दुःखों के स्थान पर कविता की शर्त पर सच्ची कविता रचनेवालों की संख्या कम हो, यह स्वभाविक ही है । याद आती हैं पारुल खख्खर, रक्षा शुक्ल, राधिका पटेल, भार्गवी पंड्या और गोपाली बूच । पारुल खख्खर प्रायः ग़ज़ल – गीत लिखती हैं । अब कहानियाँ भी लिखती हैं यह अलग बात है । उनका संग्रह ‘कलमने डाणखी फूटी’ (2018) में सत्तर ग़ज़लें हैं । यह कवयित्री ग़ज़ल के प्रकार और स्वभाव को जानती है इसलिए वशीभूत होकर लिखती है । रोना रोये बिना भी नारीहृदय के भाव अभिव्यक्त हो सकते हैं ऐसा संतुलन उनकी ग़ज़लों में दिखाई देता है । बानगी के तौर पर उनकी एक ग़ज़ल के तीनेक शेर :
मने कागण, कलम ने अक्षरो सुवा नथी देता,
कविताना अमोला अवसरोसूवा नथी देता ।
अचानक जई चडी छुं कोई आगंतुक जेवी हुं,
कबर मारी ज छे पण पथ्थरो सूवा नथी देता ।
हजारो वार धोई छे छताये जात महेके छे,
गुलाबी स्पर्शनां ए अत्तरो सूवा नथी देता । (पृ. 30)
रक्षा शुक्ल के ‘आल्ले ले’ (2019) नामक कविता संग्रह में गीत, गज़ल और अछांदस रचनाएँ संग्रहित हैं । गीतों का विभाग बड़ा है । भूमिका में कवि अनिल जोशी लिखते हैं कि – ‘रक्षा की भाषा में किसीको इम्प्रेस करने की कोई चालाकी नहीं है । मनोरंजक हेतु नहीं है । भाषा विवेक है इसलिए बिल्कुल भी लाउड नहीं होती.... रक्षा की कविता में नारीवाद या फेमिनिज़म की मशाल नहीं है, परन्तु एक नारी की आकुलता है ।’ रक्षा शुक्ल के एक गीत का आरंभ देखिएः-
‘मूंझाराना म्हेल वचाळे, सोड अमे तो ताणी,
पीडानां पटकूळ प्हेरेली, हुं ज मने अणजाणी ।’ (पृ.3)
‘हुं लागणी’ (2017) नामक अछांदस कविता का संग्रह मिलता है राधिका पटेल से । इन कविताओं की विशेषता यह है कि उनमें दिखावा नहीं है । जो कुछ है वह अपना है फिर भले ही वह थोड़ा बहुत है । राधिका पटेल की कविताओं में एक स्त्री के मनोसंचलन, स्त्री सहज बिम्ब और प्रतीक सहज रूप से व्यक्त हुए हैं । कुछ कविताओं में शब्द बाहुल्य आ गया है परन्तु अभिव्यक्ति में ताज़गी का स्पर्श होता है ।
भार्गवी पंड्या का गज़ल संग्रह है ‘होवापणाना छांयडे’ (2020) । उनकी गज़लें पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वे गज़ल के मिज़ाजी प्रभाव को भूलकर मानव मन की संकुलता को प्रतीकात्मक रूप से उभारना चाहती हैं । इसके लिए उनके पास अपनी निजी भाषा है, जो किसी भी भाव को सहज और सरल रूप से प्रतिबिम्बित कर सकती है । उनके दो शे’र देखते हैः-
‘बंध आँखे रोज स्पर्शीने अछडतां नीकळे,
ने सवारे जोउं तो भीनां ए पगलां नीकळे ।
डाळ झूकी लीमडानी ए नदीना जळ महीं,
पांदडुं तो ठीक, पडछायाय कडवा नीकळे !’ (पृ.48)
‘बीजने झरूखेथी’ (2020) गोपाली बूच की अछांदस कविताओं का संग्रह है । विषय वस्तु की दृष्टि से देखा जाए तो इस कवयित्री की संवेदना का व्याप बड़ा है । निजी पसंद-नापसंद और बेचैनी को वे एक से अधिक परिमाण से देख सकती हैं । अभिव्यक्ति में तिर्यकता के साथ साथ अनुभव की कमजोरी को वे कम करके काव्य-रूप दे सकती हैं । देखिए, आधुनिक नारी इस तरह भी व्यक्त हो सकती है । ‘मुक्ति’ कविता का आरंभ देखिएः-
‘एणे सौथी पहेलां मंगलसूत्र उतार्यु ।
पछी कांडां परथी लाल-लीली चूडी,
माथेथी सिंदूर लूछ्युं,
कपाळ परनो मोटो लालचट्टाक चांदलो पण ।
एनां तमाम पगलांनी चाडी खाती पायल पण ।
एणे उतारी बाजु पर मूकी दीधी,
ए उठी अने माथाबोळ स्नान तरफ आगळ वधी,
पतिना स्पर्शने एणे शरीर उपरथी घसी घसीने धोयो,
हा, मननी चिंता न हती, त्यां सुधी तो आम पण क्यां कशुं पहोंच्युं हतुं !’(पृ.84)
यहाँ जितने काव्य ग्रंथों की बात हो सकी है उनके अलावा भी सैकड़ों कविता की पुस्तकें प्रकट हुई है । उस दृष्टि से देखा जाए तो यह आलेख कभी पूर्ण नहीं हो सकता । हर एक किताब का उल्लेख करना स्वाभाविक रूप से ही संभव नहीं है । परन्तु अभी कुछ कवि और कविता संग्रह ऐसे हैं जिन्हें सूची के तौर पर भी समाविष्ट किया जा सकता है । उनमें भी भाषा, अभिव्यक्ति, मोड़-पड़ाव और याद रह जाने वाली कविताएँ हो ही सकती है । उन सभी नामों का यहाँ उल्लेख कर लिया जाए तो भी बात तो अधूरी ही रहने वाली है । इसलिए क्षमायाचना के साथ उस उपचार का मोह छोड़ देते हैं । इस दौर में कई तरह के संपादन भी होते रहे हैं ।
पिछले दशक की कविता का इस तरह विहंगावलोकन करने के बाद अंततः निष्कर्ष पर आते हैं । कवियों का एक वर्ग ऐसा है जो हमेशा एक खास तरह की सजगता के साथ लिखता है और उनकी निष्ठा सिर्फ और सिर्फ कविता सिद्धि के प्रति है । दूसरा वर्ग ऐसा है जो निरंतर और प्रामाणिक कोशिश करता है । परन्तु सर्जनात्मकता और निपुणता कम पड़ जाती है और उनके हाथों से कभी कोई अनवद्य कृति प्रकट हो उठती है । तीसरे वर्ग में संख्या और अपेक्षा काफी बड़ी है और उन्हें सिर्फ और सिर्फ प्रशंसा और प्रसिद्धि से ही मतलब है । हर जगह और हर भाषा में ऐसी ही स्थिति है । परन्तु हमें तो वही याद रखना है कि जब भी राष्ट्रीय स्तर पर अन्य भाषाओं की तुलना में हमारी श्रेष्ठ, हाँ श्रेष्ठ कविताएँ देखते हैं तो गौरव का ही अनुभव होता है ।