तालाबंदी | डॉ. गायत्री देवी जे. लालवानी
सरकार द्वारा सामाजिक दूरी और तालाबंदी का फरमान आते ही देश में हाहाकार मच गया था। जो जहां था उसे वहीं रहना था वह भी सामाजिक दूरी बनाए हुए। प्रत्येक वर्ग का मानव समुदाय अपने - अपने घरों को लौट, घरों में कैद होता जा रहा था। वातावरण मानो भारी हो गया हो ,किसी भी व्यक्ति के समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि, आखिर वह कहा जाए, किस प्रकार सामाजिक दूरी बनाए और सामाजिक दूरी के चलते अपने काम - काज संभव करे। आखिर यह कॉरोना काल था ही ऐसा। मनुष्य जाति के पिछले पच्चीस हजार वर्षों के इतिहास में पहली बार ही यह समय आया था, जिससे संसार का प्रत्येक व्यक्ति जूझ रहा था तो हमारा देश कैसे अछूता रहता।
देश में कई ऐसे भी लोग थे जो इस व्यवस्था को मानने से इन्कार कर रहे थे। कुछ सरकार के इस निर्णय के खिलाफ थे, पर "मरता क्या न करता" की स्थिति ने सभी को बांध रखा था।l
बाबू रॉय, लखन भेडा और जीतूभाई तीनों मित्रों को यह नहीं सुहा रहा था क्योंकि ये तीनों ही अय्याश किस्म के व्यक्ति थे। इनकी सुबह ही एक - दूसरे के घर पर होती थी, कभी कोई मदिरापान कर होश खो देता, तो कभी कोई। इसप्रकार ये तीनों मित्र एक - दूसरे को संभालते हुए अपने ठिकानों पर पहुंचते। उनके लिए तालाबंदी और सामाजिक दूरी असहज थी, हालाकि किसी के लिए भी यह निर्णय सहज नहीं था। फिर भी अपनी जान से खिलवाड़ कोई नहीं करना चाहता था सभी चाहते थे कि, जल्द से जल्द कोरोना की कोई दवा निकल जाए ताकि सभी इस देशव्यापी, विश्वव्यापी संकट से उबर सके।
बाबू रॉय, लखन भेड़ा और जीतू भाई तीनों की पार्टियां बंद हो चुकी थी। शराब उन्हें मिल नहीं रही थी और नाही वे अब रात को निश्चित समय पर मिल पाते। तीनों ही दोस्त अकेले - अकेले परेशान हो रहे थे। ऐसे भी शराबी को क्या चाहिए, दो घूंट शराब।
दो - तीन दिन वे बिना किसी उथल - पुथल के घर पर टिके रहे हालाकि डर तो उन्हें भी लगता था कि कहीं कॉरोना उन्हें ना जकड़ ले। परंतु सामाजिक दूरी और तालाबंदी की बात उन्हें खटक रही थी।
क्या जरूरत है तालाबंदी की? जब व्यक्ति को खुद की देखभाल खुद ही करनी है। वे बेचारे के भी क्या सकते थे। वे तो क्या बड़े - बड़े नेता इस फैसले को ना रोक टोक सके तो इन तीनों की क्या मजाल।
सुबह तीनों दोस्त आवश्यक सामग्री के बहाने घरों से निकलते और एक - दूसरे से मिलते। एक दिन तीनों बात कर रहे थे।
बाबू रॉय बोला -" कुछ करो यार ऐसे तो मैं बिना कोरोना के ही मर जाऊंगा।"
जीतू बोला - " अरे यार बात तो सही कह रहा है। लेकिन क्या कर सकते हैं?"
लखन भेड़ा जो दोनों मित्रों को अभी तक सुन रहा था तुरंत बोला
" चलो तैयार हो जाओ कुछ करते है।"
जीतू बोला - " पर क्या यार, अभी तो सबकुछ बंद है और ऐसे समय में हम क्या कर सकते है जब सभी एक - दूसरे से बराबर दूरी बनाए रखने का प्रयास कर रहे है।
बाबू रॉय - वैसे लखन तुम क्या सोच रहे हो? क्या करना चाहिए?
लखन बोला - तो पक्का है ना कि कुछ करना है?
जीतू - पर भाई क्या और कैसे?
बाबू रॉय - अब पहेलियां मत बुझाओ। आखिर बताओ भी क्या करना है?
जीतू बोला - कहीं तुम शराब की दुकान पर चोरी करने के लिए तो नहीं कह रहे?
बाबू रॉय - रात में निकलना तो होता नहीं चोरी वो भी शराब की दुकान पर, कैसे संभव है?
लखन अब भी मुस्कुरा रहा था, उसके दिमाग में कुछ शरारत चल रही थी।
जीतू - छोड़ यार बाबू रहने दे इस लखन के पास कोई तरीका है नहीं, बस हमारी खींच रहा है।
लखन बोला - अरे भाई! तुम लोग अपनी ही खिचड़ी पकाने लगे तो मैं क्या बताऊं?
बाबू रॉय - भई, क्या करे, अब कोई रास्ता नहीं दिखता तो क्या कर संभव है जो कर दिखाए।
लखन - अरे यार, तुम भी सीधे - सादे, जोरू के गुलाम मर्दों की भांति बोलने लगे। हम अपनी मर्जी के मालिक है, हम किसी के गुलाम नहीं। हमारी अपनी सत्ता है।अपना रुतबा है। जिसे चाहे उसे पाने की ताकत रखते है।
जीतू - तो फिर बताओ किसे उठाना है?
लखन - उठाना ही है परन्तु अपने दिमाग का उपयोग करके।
बाबू रॉय - अरे तुम कब से दिमाग लगाने लग गए?
लखन - अरे तुम समझे नहीं भाई हमें योजना बनानी होगी।
जीतू - कैसी योजना?
लखन - अच्छा, सुनो मै बताता हूं।
तीनों मित्रों ने योजना बना ली।
लखन ने अंत में कहा - लेकिन यह काम हम तीनों को एक समय एक साथ ही करना होगा। मै तुम दोनों को मिसकॉल करूंगा तब तैयार रहना।
तीनों मित्र अपने घरों को चल दिए।
तीनों मित्र रात होने का इंतजार करने लगे। वह अपनी योजना को रात को ही अंजाम देने वाले थे। जैसा कि, लखन ने कहा था चोरी भी करनी है, उठाना भी है और इस सामाजिक दूरी एवं तालाबंदी को भी तोड़ना है। देखते है कौन रोकता है हमें?
रात के करीब पौने दो बज चुके थे। लखन ने अन्य दोनों मित्रों को मिसकॉल किया, तीनों मित्र अपने काम में जुट गए योजना को अंजाम देने।
तीनों मित्रों ने अपने पड़ोसियों को जगाना शुरू कर दिया, पड़ोसियों ने अन्य लोगो को।
" चोर आए हैं जागो " आस - पड़ोस के लोग उठ गए। दूसरों को भी उठाने लगे। तीनों मित्रों ने मिलकर अपनी अपनी सोसायटी में ये हंगामा किया, देखते ही देखते पर मोहल्ला बाहर आ गया। गली के मर्द अपने अपने साधन डंडा आदि लेकर बाहर आने लगे।
एक गली से दूसरी गली में हमने जाते हुए चोरों को देखा है लगभग ३० - ४० चोर थे। उन्हें मिलकर ढूंढ़ना होगा। आदि - आदि बातें सोसायटी में होती रही।
सभी लोग एक - दूसरे से ऐसे मिल गए थे, कि रात को लगने वाला कर्फ्यू टूट गया था। सामाजिक दूरी की धाजिया उड़ रही थी। लोग एक - दूसरे के साथ खड़े बाते करते रहे। और पूरी रात जागते रहे। पुलिस को भी खबर की गई।
पूरे शहर में मानो चोरों के आने की खबर आग की तरह फ़ैल गई। सुबह चार बजे तक पूरा शहर बाहर आ चुका था। चोरो का कोई अता - पता नहीं था। किसी को चोर कहीं नहीं मिले। हर कोई यह कहता रहा कि, "चोर डरकर भाग गए"
हालाकि चोर तो कहीं थे ही नहीं। पर यह तो उन तीनों आवारा दोस्तों की साज़िश थी जो स्वयं को बादशाह समझ रहे थे। जिन्होंने कुछ घंटो के लिए सब नियमों को तोड़ दिया था ।
कोरोना के खौफ के साथ अब लोग चोरों का खौफ भी खाने लगे। दो - तीन दिन तक लोग मिलकर पेट्रोलिंग करते रहे।
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