वैश्विक महामारी और हिंदी काव्य की भूमिका
इस बार नए वर्ष के जश्न के साथ ही पूरा विश्व निराशा और अनिश्चितता से सशंकित हो उठा । कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया। चारों ओर हाहाकार मच गया । लोग भूखे प्यासे कड़ी धूप में पैदल चलकर गाँवों की ओर लौटते दिखने लगे। ऐसे नाकारात्मक वातावरण में यदि कोई हमारे अंदर सकारात्मक उर्जा का संचार कर सकता है तो वह है हमारा साहित्य । वस्तुतः वर्तमान समय साहित्य और समाज के अंतर्द्वंद का समय है । आज जबकि मानवमन तमाम प्रकार की अनिश्चितताओं से भयभीत है ! साहित्य उनमें आशा की ज्योति जला सकता है । ’हिन्दी काव्य’ साहित्य का वह अंग है; जिसकी सार्थकता को समय सीमा में नहीं बाँधा जा सकता । हिन्दी काव्य की भूमिका आज की तत्कालीन परिस्थिति में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
ऊँ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योऽर्माऽमृतं गमय।
ऊँ शान्ति शान्ति शान्तिः। -बृहदारण्यकोपनिषद्
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो । मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो । मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो ।
काव्य इन सभी उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक है । काव्य का उद्देश्य जीवन जगत का हित है; जो लोकजीवन से अनुप्राणित होता है । इसका सामर्थ्य और प्रभाव बहुत व्यापक है । आदिकवि वाल्मीकि; कालिदास; भूषण; सूरदास; तुलसीदास; पंत; महादेवी; निराला; बच्चन; माखनलाल चतुर्वेदी; दिनकर आदि ने अपने काव्य के द्वारा पथ प्रदर्शक का काम किया । इसके सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं । स्वतंत्रता संग्राम में देशभक्तिपूर्ण रचनाएँ पढ़कर लोग जोश से भर उठते थे और तत्परता से देश सेवा में संलग्न हो जाते थे । तुलसीदास ने ’कीरति भनिति भूति भलि सोई;सुरसरि सम सबकर हित होई ।’ कहकर साहित्य और काव्य की महत्ता को स्पष्ट कर दिया है । काव्य की महता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण तुलसीदास कृत ’रामचरित मानस’ है । इस ग्रंथ ने मध्यकाल के निराशा भरे वातावरण में आशा की ज्योति जलाई थी । सही मायने में आज भी वैश्विक महामारी के अंधकार में यह प्रकाश पुंज के रुप में हमारे लिए हितकर है ।
कामायनी महाकाव्य के ’श्रद्धा सर्ग’ में जब श्रद्धा मनु को निराशा के गर्त से बाहर निकालने का प्रयत्न करती है तो यह केवल मनु के लिए ही नहीं बल्कि पूरी सृष्टि का तादात्म्य उससे स्थापित हो जाता है। श्रद्धा मनु को प्रेरित करती हुई कहती हैः.
कर रही लीलामय आनंद
महाचिति सजग हुई सी व्यक्त
विश्व का उन्मीलन अभिराम
इसी में सब होते अनुरक्त।।
अर्थात् यह प्रलय तो उस महाचिति की एक लीला है । वही इस संसार का निर्माण करती है और वही इसे विनष्ट कर देती है । इसलिए कभी निराश नहीं होना चाहिए । यह संसार उस महाचिति का स्वरुप होने से सत्य और सुंदर है ।
श्रद्धा पुनः दुःख और सुख की घड़ी में सामंजस्य स्थापित करती है और दुःख को परमात्मा का दिया गया वरदान मानती हैः.
दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात ।
एक परदा यह झीना नील
छिपाये हैं जिसमें सुख गात ।।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप
जगत की ज्वालाओं का मूल
ईश का यह रहस्य वरदान
कभी मत इसको जाओ भूल ।।
अर्थात दुःख रुपी रात्रि की अंतिम घड़ियाँ बीतने के बाद सुख का नया सवेरा जीवन में आता है । वस्तुतः सुख ने दुःख का महीन और नीला वस्त्र पहन रखा है; जैसे ही यह वस्त्र हटता है; वैसे ही सुख की उपलब्धि होती है । इसलिए जिस दुःख को तुम जीवन का अभिषाप समझ रहे हो और संसार के सभी कष्टों का मूल कारण मानते हो; वह वास्तव में परमात्मा के द्वारा दिया गया एक रहस्यपूर्ण वरदान है।
वर्तमान वैश्विक महामारी कोरोना की भयावहता में भी हिन्दी काव्य की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है हिन्दी काव्य की महत्ता इसी में है कि वह इस वैश्विक महामारी में समाज को अपना नेतृत्व प्रदान करे । उसके नैराश्य के अंधकार से बाहर निकालकर उसमें आषा का संचार करे। काव्य मानव समुदाय के बीच सकारात्मक वातावरण बनाने में अपनी सार्थक पहल कर सकता है ।
अरस्तू ने भी अपने विरेचन सिद्धांत के द्वारा इस बात की पुष्टि की है कि यदि करुणा और भय हमारे मन में एकत्र होते हैं तो वे हानिकारक होते हैं । जब हम करुण रस से पूर्ण रचनाएँ पढ़ते हैं तो कृत्रिम रुप से हमारी करुणा और भय की भावनाओं को निकास मिल जाता है । काव्य के द्वारा हमारी आत्मा का विस्तार तथा शेष सृष्टि के साथ एकात्मक संबंध स्थापित होता है । ऐसा अवस्था में मानव सुलभ सहानुभूति के कारण काव्य का अनुशीलन हमारे अंदर आनंद का भाव उत्पन्न करते हैं ।
प्रेमचंद की निम्न पंक्तियाँ साहित्य की सार्थकता को चरितार्थ करती हैः. ’हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा; जिसमें उच्च चिंतन हो; स्वाधीनता का भाव हो; सौन्दर्य का सार हो; सृजन की आत्मा हो; जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो; जो हममें गति और बेचैनी पैदा करें; सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’1
ऐसा नहीं है कि यह वैश्विक महामारी पहली बार विश्व के समक्ष महासंकट लेकर उपस्थित हुई है। इससे पहले भी प्लेग; चेचक; हैजा; स्पेनिश फ्लू जैसी तमाम महामारियों ने सामान्य जन.जीवन को भय और निराशा की खाई में धकेला है। हजारों घर बर्बाद किये हैं । करोड़ों लोग इनकी चपेट में आकर अपनी जान गवां चुके हैं । इस नैराश्य के वातावरण में काव्य का अनुशीलन हमारे लिए अमंगल का विनाश और आत्मशांति का विधान करता है । युग; समाज तथा व्यक्तिगत अमंगल को दूर करने के लिए भी काव्य रचनाएँ की जाती रही हैं । वर्तमान परिपेक्ष्य में पलायनवादी भावनाओं का खंडन करना युगीन आवश्यकता है । ऐसी रचनाओं की आवश्यकता है; जिसमें पलायनवाद और निराशावाद का विरोध हो । रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार- ’कविता का अंतिम लक्ष्य जगत में मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उसके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है ।’ आज जब कि प्रदूषण; भौतिकवाद और शहरों की तरफ पलायन के कारण मानव को अपनी भूल की अनुभूति हो रही है; वे पुनः अपनी जड़ों को पहचाने रहे हैं और गाँव की तरफ लौट रहे हैं । काव्य रचनाएँ उन्हें पुनः जीवन की सत्यता का आभास करा सकती है; उन्हें फिर से नई शुरूआत के लिए प्रेरित कर सकती है । युद्ध से अमंगल के विनाश के लिए रामधारी सिंह ’दिनकर’ने ’कुरुक्षेत्र’ जैसी रचना लिखी थी जिसके आरंभ में ही उन्होंने लिखा थाः.
’युद्ध निन्दित और क्रूर कर्म है; किन्तु उसका दायित्व किस पर होना चाहिए- उस पर; जो अनीतियों का जाल बिछाकर प्रतिकार को आमंत्रण देता है या उस पर; जो जाल को छिन्न-भिन्न कर देने के लिए आतुर रहता है ’पाण्डवों को निर्वासित करके एक प्रकार की शांति की रचना तो दुर्योधन ने भी की थी; तो क्या युधिष्ठिर महाराज को इस शांति को भंग नहीं करना चाहिए था’ ।2 उन्होंने स्वीकार किया था कि युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्याओं की जड़ है । जब हम इस रचना का अनुशीलन करते हैं तो निःसंदेह कवि के भावों का तादात्म्य हमारे भावों से होता है और युद्ध शांति के प्रयासों की ओर हमारा मन अनायास ही आगे बढ़ने लगता है।
वर्तमान समय में जब कि इतनी मौतें हो रही है; वैक्सीन की खोज में लगातार हमारे वैज्ञानिक और चिकित्सक लगे हुए हैं; लेकिन विकसित अग्रणी देशों को भी अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है । ऐसे में लोगों का मन आतंकित है कि पता नहीं कब उन्हें भी काल के गाल में समाना पड़े । ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था की बात तो दूर; मानसिक प्रदूषण की भयावहता पूरे विश्व की जड़ों को खोखला कर सकता है । ऐसे में आशावादी रचनाएँ जन-मानस के लिए संजीवनी बूटी की तरह जीवनदायिनी प्रमाणित हो सकती है । सोहनलाल द्विवेदी की ये पंक्तियाँ निराशा के अंधकार में सूर्य किरणों की भाँति उर्जा का संचार करती हैः.
असफलता एक चुनौती है; स्वीकार करो !
कहाँ कमी रह गई देखो और सुधार करो ।
जब तक सफल न हो नींद चैन को त्यागो तुम;
संघर्षो का मैदान छोड मत भागो तुम ।
किए कुछ बिना जय जयकार नहीं होती !
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।
आज जब कि मानव जीवन कठिनतम समय से गुजर रहा है; काव्य की सार्थकता तभी समझी जाएगी; जबकि वह मानव समाज का हित साधन कर सके । ’सत्यं-शिवम-सुन्दरम’ के समन्वित रुप को साकार कर सके । तुलसीदास ने ’परहित सरिस धर्म नहीं भाई; पर पीड़ा सम नहीं अधमाई’ कहकर धर्म को परोपकार से जोड़कर उसे व्यापक अर्थ प्रदान किया था । आज के तत्कालीन परिवेश में कवियों को अधिक सजगता के साथ काव्य रचना में संलग्न होना होगा । आज के कृत्रिम युग में मनुष्य की चेतना और संवेदना में भी उत्तरोत्तर ह्रास हो रहा है; ऐसे में ऐसी काव्य रचनाओं की आवश्यकता है जो नैराश्य के अंधकार में आशा का आलोक प्रसारित करे । मानव जीवन अपने गुण-दोषों का अवलोकन कर भविष्य के प्रति जागरुक बन सकें । अभी इस दुःख की घड़ी में दूसरों के प्रति सहृदय बन सकें । दूसरों के प्रति कल्याण की भावना हो । यही कारण है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल काव्य के लक्ष्य की ओर से संकेत करते हुए कहते हैं. ’काव्य का लक्ष्य है जगत और जीवन के मार्मिक पक्ष को गोचर रुप में लाकर सामने रखना ।’
निष्कर्षतः- वैश्विक महामारी कोरोना के संदर्भ में काव्य की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है । प्राचीनकाल से लेकर आधुनिककाल तक के श्रेष्ठ काव्यों का अनुशीलन जब हम तत्कालीन समय के परिपेक्ष्य में करते हैं तब हमें इसकी महत्ता का सहज ही ज्ञान होता है। यदि कवि और साहित्यकार पूर्णतः सजग होकर तत्परता के साथ इस महामारी के परिपेक्ष्य में अपने कर्तव्यों का भली-भाँति निर्वहन करें तो निःसंदेह ज्ञान का दीपक प्रज्जवलित हो सकेगा और आशा रुपी प्रकाश का आलोक मिल सकेगा।
संदर्भ ग्रंथ सूचि
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डॉ0 पूजा झा, माध्यमिक शिक्षिका, इण्टरस्तरीय श्याम सुंदर विद्या निकेतन; भागलपुर ।