कविताएँ और गज़लें | वशिष्ठ अनूप
तूफ़ान के हालात हैं, ना किसी सफर में रहो
पंछियों से है गुज़ारिश, अपने शजर में रहो
ईद के चाँद हो, अपने ही घरवालों के लिए
ये उनकी खुशकिस्मती है, उनकी नज़र में रहो
माना बंजारों की तरह घूमे हो डगर-डगर
वक़्त का तक़ाज़ा है, अपने ही शहर में रहो
तुमने खाक़ छानी है, हर गली चौबारे की
थोड़े दिन की तो बात है, अपने घर में रहो
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कल एक नर्स की मासूम बच्ची और एक पुलिस के मासूम बच्चे को माता-पिता के लिए तड़पते देखकर मन बहुत भावुक हो गया।महामारी से लड़ रहे ऐसे सभी डाक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्यकर्मियों, पुलिस,प्रशासन
और सफाईकर्मियों के लिए उसी मन:स्थिति में लिखा गया एक गीत-
तुम्हारी कोशिशों से ज़िन्दगी की जंग जारी है,
तुम्हारे दम से ही ख़ुशहाल यह दुनिया हमारी है ।
लगा दी तुमने अपनी ज़िन्दगी इस देश की ख़ातिर,
है घर-परिवार सब छोड़ा, सुखद परिवेश की ख़ातिर,
कहीं रोता हुआ बेटा, कहीं बेटी दुलारी है।
तुम्हीं हो अस्पतालों में, तुम्हीं बाज़ार-सड़कों पर,
डटे हो देवदूतों- से, खरे सब की उमीदों पर,
तुम्हारे त्याग, सेवा-धर्म की दुनिया पुजारी है।
तुम अपने घर से बाहर हो,तो हम घर में सुरक्षित हैं,
तुम्हारे धैर्य, निष्ठा, शौर्य से हम लोग रक्षित हैं,
तुम्हीं पर अब टिकी इस देश की उम्मीद सारी है।
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इधर देश के कई महानगरों में विभिन्न प्रांतों के भूखे-प्यासे मजदूरों की दुर्दशा और कुछ जगहों पर उनको पिटते देखकर एक ग़ज़ल कही है-
हर ओर खट रहे हैं, यूपी-बिहार हैं हम,
हर रोज़ पिट रहे हैं, सबके शिकार हैं हम।
घर में जो मिलती रोज़ी,क्योंकर भटकते दर-दर,
ललकार की है क्षमता, फिर भी गुहार हैं हम।
हम सबके ख़ूँ-पसीने से जगमगाती दुनिया,
हम गाड़ियों के पहिए, कहते गँवार हैं हम।
यूँ भूख ने है तोड़ा, घर-गाँव से शहर तक,
हर हाँ में हाँ मिलाते, पिछले कहार हैं हम।
कुछ साज़िशों के चलते, बिखरा है ताना-बाना,
वरना सृजन भरा है, ताक़त अपार हैं हम।
अवसर अगर मिले तो ,कुछ भी नहीं असंभव,
सीमा पे हम डटे हैं, दुश्मन पे वार हैं हम।
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उम्र तो है गुड़िया से खेलें,नज़र टिकी गुब्बारों पर,
नंगे पाँव चले हैं बच्चे, दहक रहे अंगारों पर।
सर पर भारी बोझ लिये बैदेही पैदल भटक रही,
टूटी चप्पल, दूर है मंज़िल, चलना है तलवारों पर।
स्वाभिमान से जो जीते थे, आज भिखारी जैसे हैं,
संकट में भी क्रूर सियासत, थू ढोंगी हत्यारों पर।
कई दिनों से भूखी-प्यासी माँ की छाती सूख गई,
नाज़ुक बच्चा हुआ अधमरा, लानत है मक्कारों पर।
खाना नहीं मिला पर लाठी अक्सर ही खा लेते हैं,
साँसें टँगी हुई हैं इनकी ,मंज़िल की मीनारों पर।
सब कुछ खोकर सड़क किनारे भी रुकने को जगह नहीं,
नेताओं की हँसती फोटो चिपकी है दीवारों पर।
रिक्शा ठेला साइकिल पैदल, गिरते-पड़ते निकल पड़े,
अकथ दर्द की कविता कैसे लिख दूँ इन बंजारों पर।
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भारतीय साहित्य परिषद वोट्सएप ग्रुप से साभार