जनता सड़क पर | सतीश चतुर्वेदी"शाकुन्तल"
तन-लोहा मन गलता है,
सड़कों पर मजदूर पलता है।
मीलों का सफर हैं नंगे पाँव,
लौट चलें आ अपने गाँव
बहुत हो गया धूप-छांव
लौट चलें आ अपने गाँव!
छोड़ अरे यह तेरा-तेरी
शहरों की यह हेरा-फेरी
सड़क किनारे मेरी रेहड़ी
घुल गया जीवन रगड़ा-रगड़ी
उछल गई मजदूर की पगड़ी
शहर छूट गया, डगमगाते पाॅव
लौट चलें आ अपने गाँव!
जीवन भर की नेक कमाई
पटरी-सड़कों पर आज गवाई
घर-आंगन की अंतिम दौड़
मीलों का सफर, नहीं कोई ठौर
जीवन भर की मजदूरी संग
कदम मिलाते दोनों पाॅव
बहुत हो गया धूप-छाँव
लौट चलें आ अपने गाँव!!
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भारतीय साहित्य परिषद वोट्सएप ग्रुप से साभार