खामोशी| डॉ. सी. कामेश्वरी
आज, ये गलियाँ इतनी खामोश क्यों हैं,
चिड़ियों की चहचाहट, कोयल की कूक, गौरेये की चीं-चीं, भौरों की गूँजन,
जो कभी विरले ही थीं सुनाई देती,
आज, इतनी स्पष्ट क्यों हैं सुनाई दे रही,
नभ में भी हैं तारे कितने सुन्दर दिख रहे ।
मनुष्य, प्रकृति का सर्व शक्तिमान जीव,
आज, क्यों थक-हार कर चुप-चाप है ये बैठ गया,
क्या घुटने टेक दिए हैं उसने, या तूफ़ान के पूर्व की खामोशी है यह ।
प्रकृति पंच महाभूतों से है बनी,
है यह तथ्य, हैं बड़े ही प्रभावशाली,
समय-समय पर अपना रंग दिखा ही हैं देते ।
लाचार, मज़बूर, विवश, बेबस मनुष्य सब है सह रहा ।
सुनामी ने दस्तक दे, था उथल-पुथल मचा दिया,
हुद-हुद ने भी था जान, मान, माल की हानि दिखाई,
आग ने तेल-कुँए जलाकर हैं खाक किये,
भूकम्प के झटके, यत्र-तत्र लगते ही हैं सदा,
अब यह कोरोना कैसा, महामारी है या विषाणु या फिर प्राकृतिक आपदा ?
कहते हैं, संकट के समय अपने ही हैं काम आते,
यह कैसा संकट जब कोई अपने घर ही न आ सके ?
सभी कार्य अनिवार्य, समय सीमा पर करना ही था होता,
अब यह कैसा विराम लग गया, सर्वत्र ।
कोई समय सीमा नहीं, कार्य की अनिवार्यता नहीं,
सब कुछ ठप्प पड़ा है जग में ।
आज कोई अंकुश नहीं, किसी की हुकुमत नहीं, तानाशाही बिल्कुल नहीं,
पल, क्षण, निमिष, दिवस, दिन, सप्ताह, वार, महीने,
पहले भी थे बीतते, अब भी हैं बीत रहे,
साँसें भी पूर्ववत् चलती थीं,
आज वे नहीं हैं बंधी, उन्मुक्त हैं, स्वतंत्र हैं, स्वच्छंद हैं,
निर्बाध रूप से चल रही ।
एक सुकून सी है जिंदगी,
जीवन के आपे-धापे में जिन पलों को जीना थे हम भूल गए,
उनको आज, मोद में हैं जी रहे ।
अप्रतिम खुशी, जिसका इंतज़ार करते रह गए,
आज वह, अनचाहे ही मिल गई ।
अर्थ, आज जिन्दगी को मिल गई ।
आडम्बर से शून्य मानव है जी रहा,
खाना-पीना, सोना-जागना, साफ-सफाई,
सिमट कर रह गया है जीवन,
कहीं जाने की चिंता नहीं,
किसी की फिक्र नहीं,
हारने का गम नहीं,
जीतने की चाह नहीं,
आज अमीर-गरीब सब हो गए हैं एक समान,
कोई बड़ा-छोटा नहीं,
कोई उत्तम-अधम नहीं,
टिकट लेकर आगे बढ़ जाने का हौड़ नहीं,
जहाँ-तहाँ, नज़र दौड़ाओ विरानापन ही विरानापन है,
प्रकृति के फल-फूल, पत्ते, रंग-बिरंगे, चटकीले, गहरे हरे हैं लगने लगे ।
कितने माँ-बाप ने दम तोड़े, कितने बच्चे हुए अनाथ,
किसने किस का दामन छोड़ा, किसने उनको अपनाया ।
डॉक्टर, नर्स, पुलिस, सफाई कर्मचारी, संकट की इस घड़ी में,
कर्त्तव्य को है गले लगाया,
अपना न किया फिक्र,
मानवता का थाम लिया हाथ,
दिन को दिन न समझा,
रात में भी मिला कहाँ चैन,
सतत मेहनत करके भी न,
इसका अंत खोज पा रहे,
अपना उत्साह बना-बढ़ा कर,
कामयाब होने को हैं तत्पर ।
प्रकृति से क्या कोई है लड़ पाया ?
प्रकृति के विरुद्ध कोई है चल पाया ?
प्रकृति आज है समय ले रही,
पुन: स्वच्छ, हवा, पानी हमें देने,
चलो, आओ, धरती माँ की गोद में,
थोड़ी-सी हवा चार दीवारों की खा लें,
कल फिर नई योजनाएँ, नई राह, नई मंजिल की ओर है चलना,
ये खामोशी फिर न होगी, ये आराम फिर न होगा ...