कविताएँ | डॉ. चंद्रकांत तिवारी
लॉकडाउन और नारी की भूमिका
दूध लाना था !
मैंने कहा ATM से
पैसे निकाल कर
लाता हूँ।
इतना सुनते ही
एक आवाज आई!
रुक जाओ।
500 का नोट देते हुए बोली....
ये मेरे हैं, बस इतने ही हैं
इसे ले जाओ।
पर ATM मत जाओ बहुतों ने उसकी बटन दबाई होगी
तुम बचो....
दूसरे दिन फिर कुछ जरूरत आन पड़ी
फिर 2000 का नोट देते हुए बोली....
ये मेरे हैं बस इतने ही हैं
ATM मत जाना....
लॉक डाउन के शुरुआत से
यह क्रम रोज चल रहा
रोज नई पोटली खुल रही
ATM जाने से रोक रही है
सामान बाहर ही धरवा रही
बाहर ही नहलवा रही है
जाने कौन से खजाने से पैसे निकाले जा रही है
पैसे मेरे हैं, इतने ही हैं कहकर
मुझे देते जा रही है
भारत की बेटी
भारत के संस्कार
आज समझ आया
घर खर्च में से पैसे को बचा कर जिस तिजोरी में धरती रही
वो तिजोरी
आज काम आ रही है..
जो हर घर में लापरवाहों को
भीड़ मे…
ऑनलाइन कक्षा.....
पहले कमरे में था
फिर बाहर आया
गेट खोला,
गली में आया
सड़क तक पहुँचने में जोखिम उठाया
फिर भी मोबाइल में
एक डंडा भी..
नेटवर्क का नहीं आया
फिर अचानक बुद्धि सकपकाई
पहाड़ों पर नेटवर्क की याद आई
सरपट-दौड़ा आंगन की दीवार को फांदकर..
चढ़ती-सीढ़ियों को दो-चार कर
रैलिंग-पकड़, कूद-फांदकर कर
पहुँच गया...
समतल छत की चारदीवार पर
कमरे से सड़क
और सड़क से छत तक
बिना मझधार की
नौका-विहार है
क्वारंटाईन की दुनिया में
नेटवर्क की समस्या के बीच
शिक्षक ही पतवार है
यही ऑनलाइन कक्षा का आधार है ।
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कौरोना संकट काल पर एक सवैया.....
छीनि लियौ कहूँ आवन-जावन,'दूर रहौ'कहै योग धरा कौ।
चीन के पाप, मलीन भए सब, भूलि गए भय भोग धरा कौ।
काल के गाल समाइ रहे जन,देखौ न जाइ वियोग धरा कौ ।
औषधि बेगि बताइ हमें अब राम! हरौ यह रोग धरा कौ।।
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मज़दूर जवाब माँगेंगे ...:
शहर की रौशनी में छूटा हुआ, टूटा हुआ
सड़क के रास्ते से गाँव जा रहा है गाँव...
बिन छठ, ईद, दिवाली या ब्याह-कारज के
बिलखते बच्चों को वापस बुला रहा है गाँव...
रात के तीन बज रहे हैं और दीवाना मैं
अपने सुख के कवच में मौन की शर-शय्या पर
अनसुनी सिसकियों के बोझ तले, रोता हुआ
जाने क्यूँ जागता हूँ, जबकि दुनिया सोती है...
मुझको आवाज़ सी आती है कि मुझ से कुछ दूर
जिसके दुर्योधन हैं सत्ता में, वो भारत माता
रेल की पटरियों पे बिखरी हुई ख़ून सनी
रोटियों से लिपट के ज़ार-ज़ार रोती हैं
वो जिनके महके पसीने को गिरवी रखकर ही
तुम्हारे सोच की पगडंडी राजमार्ग बनी
लोक सड़कों पे था और लोकशाह बंगले में!
कभी तो लौट कर वो ये हिसाब माँगेंगे...
ये रोती माँएँ, बिलखते हुए बच्चे, बूढ़े
बड़ी हवेलियो, ख़ुशहाल मोहल्ले वालो
कटे अंगूठों की नीवों पे खड़े हस्तिनापुर !
ये लोग एक दिन तुझसे जवाब माँगेंगे....।।
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गाँव की ओर (रिवर्स माईग्रेशन)
सर पर गठरी तेज धुपहरी
रक्त निकलता, फूटा छाला
मन घबराये कदम बढ़ाये
कहां मिलेगी छांव
कैसे रखें कदम धरा पर
जलते मेरे पाॅव...
हाय!जलते मेरे पाॅव !
मैं भारत की सच्ची तस्वीर
फूट गई मेरी तकदीर
ए. सी. में रहने वालों
बड़ी बातें करने वालों
सुबह-शाम करके मजदूरी
तब खायेंगे रोटी पूरी
भूखे बच्चों को भेद रही जैसे, भीषण-गर्मी-तीर
मैं भारत का मजदूर-अधीर !
मन-संकल्प कहे यह पीर
चलो बढ़ चलो वीर-कबीर
राजमार्ग पर युगपथ-धीर
हे भारत की जननि के क्षीर
मत बहने दो अक्षु से नीर
मीलों के सफर को, क्षण-भर में चीर
भूल अरे पैरों के घाव
खून-सनी रोटी और पाॅव
तुझे बुलाता तेरा गाँव !
जीवन में क्या खोया-पाया
क्या सपना लेकर आया था
सड़क किनारे ही मरना था
मैं गाँव छोड़कर आया था
जीवन-विपदा से मैं मजबूर
मैं भारत का बेघर-मजदूर
पथरिली पटरी पर चलकर
बिन …
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कौरोना संकट काल पर एक सवैया...
एकहु बार जु छींक भई सब औषधि लैन बजार कूँ धावत।
मित्र पड़ौसिहु दीखत है मग,दूरिहि ते चलें आँख चुरावत।
मौत के आँक सुने इतने इन आँखिन हू अब आँसु न आवत।
ऐसौ करौ बजमार कुरौना नें कोइ न काऊ कें आवत-जावत।।
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भारतीय साहित्य परिषद वोट्सएप ग्रुप से साभार