हिन्दी कहानी : महामारी में संकटों की शिनाख्त
समय समय पर विश्व को अपनी चपेट शिकंजे गिरफ्त में लेने वाली महामारियों नें मानव सभ्यता की जड़ों पर चोट कर इसके मूल स्वरूप को हिलाने और परिवर्तित करने का प्रयास किया है। वैश्विक महामारियाँ वर्तमान के साथ साथ भविष्य को प्रभावित करती हैं। राजनीति और अर्थव्यवस्था के साथ समाज और साहित्य भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहता है।विश्व मानवता पर जब भी कोई बड़ा संकट आता है तो सांस्कृतिक और साहित्यिक अभिव्यक्तियों में भी उनका असर स्पष्ट दिखाई देता है। हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों जैसे साहित्य, संगीत, ललित कला, स्थापत्य कला, सिनेमा आदि में महामारियों की भयावहताओं को चित्रित करने के अलावा अपने समय की विद्रूपताओं, विसंगतियों, और सामाजिक द्वंद्वों को भी रेखांकित किया है। महामारियों के कथानक पर केंद्रित अतीत की साहित्यिक रचनाएँ वर्तमान समय के संकटों की भी शिनाख्त करती हैं। ये हमें मनुष्य जिजीविषा की याद दिलाने के साथ साथ मानवीय मूल्यों के ह्रास से भी आगाह करती हैं। महामारी, युद्ध आदि विपरित समय में साहित्य दुख, हताशा, निराशा, मानवीय जिजीविषा, सामाजिक सरोकारों को साझा करने वाले एक मानवीय दस्तावेज के रूप में हमारे समक्ष आन खड़ा होता है ।
विश्व में समय समय पर फैली प्लेग, चेचक, इन्फ्लुएंजा, हैजा जैसी महामारियों ने रिश्ते-नाते और घर-परिवार को उजाड़ दिया तथा गाँव के गाँव और शहर के शहरों को कब्रिस्तान में बदल दिया। इन महामारियों ने आने वाली पीढ़ियों को अनजाने भय और आर्थिक अनिश्चितता के दौर में धकेल दिया, जिससे उबरने में वर्षों लगे। अभी पिछले वर्ष दिसंबर में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक महामारी को दुनिया से बेदखल करने का जश्न मनाया था, लेकिन यह खुशी अधिक समय तक कायम न रह सकी और सन् 2020 की शुरुआत में ही कोविड 19 महामारी का आगाज़ हुआ जिसने देखते ही देखते करोड़ो लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लिया और लाखों लोगों को अकाल मृत्यु के आगोश में भेज दिया। हम बचपन से पढ़ते आए हैं कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, आज उसी सामाजिक प्राणी को सामाजिक दूरी यानी सोशल डिस्टेन्सिग का पाठ पढ़ाया जा रहा है।
हमारे देश को भी समय समय पर महामारियों से दो चार होना पड़ा है जिसका मार्मिक और संवेदन शील चित्रण हिन्दी साहित्य में देखने को मिलता है। राजिंदर सिंह बेदी की कहानी 'क्वारंटीन', लाला भगवानदास की कहानी 'प्लेग की चुड़ैल', पांडेय बेचन शर्मा की कहानी 'वीभत्स', फणीश्वरनाथ रेणु की 'पहलवान की ढोलक' महामारी के परिप्रेक्ष्य में लिखी गई रचनाएँ है। इसके अलावा जयशंकर प्रसाद के उपन्यास 'कंकाल', केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास 'कोहबर की शर्त', राही मासूम रज़ा के उपन्यास 'आधा गाँव', नरेश मेहता के उपन्यास 'उत्तर कथा', निराला के आत्मकथात्मक उपन्यास 'कुल्ली भाट' में महामारियों और उससे उत्पन्न त्रासदियों का ह्रदयविदारक चित्रण है।
हिन्दी व उर्दू के मशहूर कथाकार राजिंदर सिंह बेदी की कहानी 'क्वारंटीन' वर्तमान कोरोनाकाल के परिदृश्य को साक्षात कराने वाली कालजयी कृति है। कहानी में केवल बीमारी का नाम अलग है, बाकि वही स्थितियाँ, वही भय, वही संशय, वही पीड़ा, वही खौफ सर्वत्र व्याप्त है, जो वर्तमान में है। कहानी में कथावाचक डॉक्टर बताता है 'कि जितनी मौतें शहर में क्वारंटीन से हुईं, इतनी प्लेग से न हुईं, हालाँकि क्वारंटीन कोई बीमारी नहीं है।'[1] कहानी ‘क्वारंटीन' में महामारी से ज्यादा उसके बचाव के लिए किए गए उपायों और पृथक किए गए लोगों के खौफ का वर्णन है। कहानी में यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति ही है कि महामारी से ज्यादा मौतें क्वारंटीन के खौफनाक माहौल में होने लगती हैं। क्वारंटीन सेंटर के खौफनाक मंजर का वर्णन करते हुए लेखक बताता है, 'मृत शरीर का आख़िरी क्रिया-कर्म भी क्वारंटीन के नियम क़ानून के हिसाब से ही होता था, यानी सड़कों पर पड़ी लाशों को मुर्दा कुत्तों की लाशों की तरह घसीट कर एक बड़े ढेर की सूरत में जमा किया जाता और बग़ैर किसी के धार्मिक नियम और रस्म पूरा किए, पेट्रोल डाल कर सबको आग के हवाले कर दिया जाता और शाम के वक़्त जब डूबते हुए सूरज की लालिमा के साथ जलती लाशों की लाल लाल लपटें उठती तो दूसरे मरीज़ यही समझते कि तमाम दुनिया को आग लग रही है।'[2] ऐसे खौफनाक माहौल वाले सेंटर्स में आने वाला व्यक्ति बीमारी से न मरकर, वहाँ जिंदा लोगों को लाशों में तबदील होते देखकर, उन लाशों के अंबार को बिना रस्मो-रिवाज के पेट्रोल की आग से राख में बदलते देखकर ही मर जाता है।
कहानी में डॉक्टर के दिलों दिमाग पर बीमारी का खौफ हावी है। वह कई कई देर तक कार्बोलिक साबुन से हाथ धोता है, तेज़ गर्म कॉफी गले में उड़ेलता है, बार-बार दवा से गरारे करता है, ''गले में ज़रा भी ख़राश महसूस होती तो मैं समझता कि प्लेग के लक्षण दिखने शुरू हो गए हैं,... उफ़! मैं भी इस जानलेवा बीमारी का शिकार हो जाऊँगा... प्लेग! और फिर... क्वारंटीन!''[3] हाँ, सचमुच ऐसा ही तो है। डॉक्टर की मनोदशा वर्तमान काल में जी रहे लगभग हर व्यक्ति की मानसिक स्थिति का सटीक विश्लेषण है। ''मुझे ख़ुद शक होने लगा कि प्लेग के कीड़े ने मुझ पर आख़िरकार अपना असर कर ही दिया है और बहुत जल्द ही गिलटियाँ मेरे गले या जाँघों पर दिखने लगेगी। मैं बहुत घबरा गया।''[4] डॉक्टर का यह डर,यह भय हर इंसान के दिल ओ दिमाग पर छाया हुआ है। महामारी के दौर मे मानव की मनोदशा का सशक्त मनोवैज्ञानिक चित्रण कहानी को कालजयी बनाता है।
कहानी का पात्र भागू अपने समय का 'प्लेग वॉरियर' है जो रोज रात को तीन बजे उठकर गलियों और नालियों में चूना छिड़कने और बाजार में पड़ी लाशों को इकट्ठा करने का काम करता है। उसे बीमारी का खौफ नहीं है। वह डॉक्टर से कहता है, '' मगर जब मेरी बारी आएगी तो आपका भी दवा-दारू कुछ असर नहीं करेगा... हाँ बाबूजी... आप बुरा न मानें।''[5] भागू संशय और संवेदनहीनता के समय में सकारात्मकता की रोशनी है, जिसके माध्यम से लेखक आने वाले समय को लेकर आशान्वित है। महामारी दुनिया का अंत नहीं है, भागू के रहते दुनिया से मानवीय संवेदना समाप्त नहीं हो सकती, 'एक भागू ही था जो सबका रिश्तेदार था। सब के लिए उसके दिल में दर्द था। वो सबकी ख़ातिर रोता और कुढ़ता था...'[6]
महामारी पर आधारित मास्टर भगवानदास की कहानी 'प्लेग की चुड़ैल' सन् 1902 में प्रकाशित हुई थी। कहानी में महामारी सें प्रभावित होते मानवीय संबंधों तथा तार-तार होती मानवीय संवेदना का मार्मिक चित्रण है। कहानी के आरम्भ में ही लेखक प्लेग महामारी के खौफ का वर्णन करते हुए लिखते हैं , 'गत वर्ष जब प्रयाग में प्लेग घुसा और प्रतिदिन सैकड़ों गरीब और अनेक महाजन, जमींदार,वकील, मुख्तार के घरों में प्राणी मरने लगे तो लोग घर छोड़कर भागने लगे।'[7] ठाकुर विभव सिंह की बीमार पत्नी को लोग प्लेग से मरा समझ जिंदा ही गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। पत्नी में प्लेग के लक्षण देख सज्जन और सहृदय माने जाने वाले ठाकुर साहब निष्ठुर हो जाते हैं और भागने का मन बना लेते हैं । 'यदि यहाँ मेरे ठहरने से बहूजी को कुछ लाभ हो तो मैं अपनी जान खतरे में डालूँ। परन्तु इस बीमारी में दवा तो कुछ काम नहीं करती, फिर मैं यहाँ ठहरकर अपने प्राण क्यों खोऊँ। [8] प्लेग के भय से पति, पड़ोसी, पुरोहित, नौकर, डॉक्टर सभी लोग अपने अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं। यह विडम्बना ही है कि पशु से इंसान बनने के लिए मानव ने लाखों वर्षों की यात्रा तय करी और एक महामारी चंद लम्हों में मानव को पशु में तबदील कर देती है। प्लेग की चुड़ैल कहानी के जरिए कहानीकार समाज की हृदयहीनता को भी समझाना चाहते है। वे बताना चाहते हैं कि जान बचाने की प्राथमिकता लोगों को किस हद तक असहिष्णु बन सकती है।
पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' की कहानी 'वीभत्स' महामारी के वीभत्स रूप को वर्णित करती है। 'सन् 17 की बात है। देश के अधिकांश भागों में युद्ध-ज्वर या इंफ्ल्युएंजा का नाशकारी आतंक छाया हुआ था। एक एक शहर से रोज शत शत प्राणी मर रहे थे। एक-एक गाँव में अनेक-अनेक। अनूपशहर और उसके आसपास के हाट-बाजारों में कुहराम सा छाया था। खास सुमेरा के गाँव के सभी प्राणी त्रस्त थे। मारे डर के कोई बाजार नहीं जाता था, क्योंकि लोगों ने सुन रखा था कि वह रोग छूत से भी फैलता है।'[9] इंफ्ल्युएंजा से मरे लोगों का अंतिम संस्कार तो दूर की बात है, कोई उनकी लाश को गंगाजी में फैकने को तैयार नहीं है। मृत लोगों के परिजन भी संबंधो को भूल जान बचाने को भाग खड़े हुए हैं, 'हाट के चार-पाँच प्राणी दो दिनों से मरे पड़े है। उन्हें कोई फैकने वाला नहीं है।'[10] इसका कारण बताते हुए दूसरा व्यक्ति कहता है, 'मुर्दों को उठाकर घाट तक ले जाने में मरने का पूरा खतरा है। पिछले हफ्ते दस आदमी इसी तरह मर गए। जिसने भी इस ऱोग के मुर्दे को कंधा दिया वह बचा नहीं। मसान से लौटते ही सबकी देह में दर्द भयानक, बुखार आफत का!' कहानी का प्रमुख पात्र सुमेरा ज्यादा मजदूरी के लालच में आकर लाशें गंगा जी में फैक देता है। तीन दिन बाद सुमेरा के घर के चारों और लाश की नारकीय दुर्गंध फैल गई है। पड़ोसी अंदर जाकर देखते हैं तो उसका पेट फूलकर विदीर्ण हो गया है, अँतड़ियाँ बाहर झाँक रही हैं वह खुद महामारी की चपेट में आकर मर गया है। कहानी में रिश्तों पर हावी होती महामारी और रीतते बुझते संबंधों की अभिव्यक्ति की गई है ।
इसी तरह निराला के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘कुल्लीभाट' में 1918 के दिल दहला देने वाले स्पेनिश फ्लू से हुई मौतों का जिक्र है. जिसमें उनकी पत्नी, एक साल की बेटी और परिवार के कई सदस्यों और रिश्तेदारों की जानें चली गयी थीं. 'संदेश आया, पत्नी बीमार है, आखिरी बार देख लो। कलकत्ता से ससुराल पहुंचे, पत्नी मर चुकी थीं। दादाजाद भाई उन्हें देखकर घर लौटे हैं। गाँव में घुसते ही उनकी अर्थी आती दिखी। घर गए, भाभी ने पूछा, तुम्हारे भैया कितनी दूर गए होंगे, और देह छोड़ दी। चाचा की सांस अटकी थी। पूछा, तू यहाँ क्यों आया। ‘आप ठीक हो जाएँ तो सबको लिवाकर बंगाल चलूँ।’ उधर पत्नी के पीछे दो बेटे और एक बेटी गई, इधर गाँव में दो भतीजों को छोड़ पूरा परिवार साफ हो गया।'[11] फ्लू में निजी और पैतृक परिवार खोकर निराला ठूंठ हो जाते हैं। वे लिखते हैं कि दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ जाती थीं और जहाँ तक नजर जाती थी गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं. उस बीमारी ने हिमालय के पहाड़ों से लेकर बंगाल के मैदानों तक सबको अपनी चपेट में ले लिया था. महाममारी के चलते बाईस वर्ष की उम्र में निराला अपना सर्वस्व गवा बैठे। लेकिन इसके बाद उनका जीवन के प्रति नजरिया बदल गया। एक गहन संवेदनशीलता, मानव मात्र के लिए पीड़ा लेखक के अन्तर्मन में समा गई, जिसने लेखक को साहित्य सृजन के लिए उर्वर भूमि प्रदान की।
भारतीय ज्ञानपीठ के युवा पुरस्कार से सम्मानित युवा लेखिका तलनीम खान की कहानी 'भूख-मारी की नगरी में दीवाली' कोविड काल के परिप्रेक्ष्य में लिखी एक संवेदनशील कहानी है। महामारी के दौर में झुग्गी-झोपड़ी वालों को यकीन है कि वायरस का असर गरीबों पर नहीं होगा, यह बीमारी तो अमीरों की है, 'सुना था इस शहर में वायरस का फैलाव हो रहा है। जानें ले रहा है, लेकिन बस्ती के लोगों को पक्का यकीन था कि वायरस का असर उन पर नहीं हो सकता। वायरस से वे लोग नहीं मरेंगे। ऐसा वायरस जो विदेश से आया हो, वो इन झुग्गियों का रूख क्यों करेगा भला? सवाल उनका सही ही था। जिन झुग्गियों का रूख सिर्फ चुनावों के वक्त कोई—कोई करता है, वहां इस वक्त वो लोग तो क्या कोई वायरस भी नहीं आ सकता।'[12] कहानी में लोगों की पाखण्ड प्रवृति, दिखावटी संवेदना और ह्रदयहीनता को अभिव्यक्त किया गया है।
कहानी के आरम्भ में भूख से बिलखते बालक मनु के हाथ में रोटी की बजाय कोई दीया थमा गया है, ''इस टैम थोड़ी आती दीवाली। फिर दीया क्यूं कर बांटा, खाना क्यूं नहीं लाते ये लोग?'[13] मासूम बालक मनु को महामारी के काल में खाना बाँटने वाली गाड़ी का इंतजार है। गाड़ी आती तो है मगर खाने की बजाय दीये बाँटकर चली जाती है। मांई की समझ में भी कुछ नहीं आ रहा है। गाड़ी तो खाना बाँटने वाली आती है जो भरपेट न सहीं जिंदा रहने लायक खाना दे जाती है, ''मैं भी कहां समझी रे मनु। पर वो लोग खाना नहीं दीया ही लाए, कह गए। दीया जलाकर रखना, हम खाना लाएंगे। ना, ना। रोना नहीं मनु, अभी आती होगी गाड़ी। वो बोलकर गए, जो दीया जलाएगा, उसे वो खाने को बांटेगे।’[14] मांई वायरस के कारण एक हफ्ते से मनु को भरपेट खाना नहीं दे पाई थी और आज सुबह से तो उसने कुछ नहीं खाया था। मनु भूख से कुलबुलाता माँ से कहता है, ''मांई, बायरस यहां नहीं आता तो बाबू लौट आते ना और हम भूखा न रहते।''[15] कहानी में गरीब बस्ती के लोगों को खाद्य सामग्री पूरी न दिए जाने, खाने की व्यवस्था के लिए बाहर निकलने पर पुलिस द्वारा डंडें मारने, महामारी के काल में धनाढ्य वर्ग की उत्सवधर्मिता पर तीक्ष्ण कटाक्ष किया गया है।
यह तमाम कहानियाँ महामारी की भयावहता और मानव समाज की पीड़ा, दर्द ,संबंधों पर पड़ते दबाव को रेखांकित करती हैं। किन्तु इनका एक सकारात्मक पहलू भी है, कहानी के पात्र डॉक्टर, भागू, नौकर सत्यसिंह चहुओर निराशा के घेरे में आशा की महीन किरण के रूप में मौजूद हैं। जो कह रहे है कि कोई भी महामारी , कोई भी वायरस सभ्यता का अंत नहीं है । यह मानव सभ्यता और मानवीय संवेदनाओं की परीक्षा है । लाखों लोग मर रहे हैं, तो लाखों बच भी रहे हैं । जो बच रहे हैं वे भविष्य की उम्मीद हैं और वो बता रहे है कि कोरोना महामारी सभ्यता का अंत नहीं है। ये एक जंग है मानव और सूक्ष्म वायरस के बीच। साहित्य और इतिहास हमें बता रहा है कि ऐसी और इससे विकट परिस्थितियाँ पहले भी मानव के सामने आती रही हैं और मानव विज्ञान और विश्वास के बूते फतह हासिल की है। उसकी यही जिजीविषा है जो चौतरफा नाकामी के दौर में भी उम्मीद की लौ जलाए हुए है। इसी दौर में ऐसी रचनाएँ भी अवश्य आएंगी जो आगामी दौर के लिए संघर्ष, यातना और संशय से भरे जटिलताओं वाले समय में मानव संवेदना का दस्तावेज कहलाने योग्य होंगी और आने वाली पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करेंगी।
संदर्भ ग्रंथ –
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डॉ मीनाक्षी चौधरी, सहायक प्रोफेसर ( हिंदी ) राजकीय डूँगर महाविद्यालय, बीकानेर, राजस्थान (334001) ई मेल cmeenakshi042@gmail.com