वैश्विक महामारी कोरोना के संदर्भ में साहित्य की भूमिका
आज पूरा विश्व कोरोना, कोविड-19 की महामारी से ग्रस्त है। सभी जगह एक ही चर्चा चल रही है कि इस महामारी से कैसे मुक्त हो? कारण भी है कि यह बिमारी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के छूने से फैलती हैं। अत: मनुष्य जगत के लिए ये प्राण घातक है। इसी का परिणाम है कि सारा विश्व इससे डरा हुआ, सहमा हुआ है। हर कोई इसके इलाज के पीछे रिसर्च कर रहा है पर अभी तक कोई भी इसकी दवाई ढूँढ नहीं पाया। आज विश्व में ओर कोई बात या प्रश्न पर चर्चा नहीं हो रही सिवाय कोरोना महामारी के। जगत जमादार अमरिका की स्थिति भी अत्यंत खराब है। विश्व के वो देश जिनका मेडिकल सर्वश्रेष्ठ है, वहीं पर सबसे ज्यादा कोरोना के मरीज़ है और उनका मृत्यु अंक भी हज़ारो की तादात में हैं। भारत में भी कोरोना को लेकर काफी मात्रा में मरीज़ो की संख्या बढ़ती जा रही है। देश के लिए यह एक संकट की घड़ी है। मृत्यु के आंकड़े भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
विकट परिस्थिति में साहित्य भी अपनी एक सकारात्मक भूमिका निभाने के प्रयत्न में लगा है। आज सोशल डिस्टनसिंग के माहौल में सब अपने अपने घर पर रहकर कुछ न कुछ प्रवृत्ति कर रहे हैं। इसीका परिणाम है वेबिनार। अभी तक सेमिनार होते रहे, अब वेबिनार शुरु हुए हैं। जिससे घर बैठे साहित्य रसिक इससे जुड़कर अपने ज्ञान वर्धन में इज़ाफा कर रहे हैं। एसे विकट समय में साहित्य की एक जिम्मेदाराना भूमिका हो जाती है, क्योंकि चारों तरफ जब भय का साम्राज्य फैला हुआ हो ऐसे में साहित्य ही एक महत्व का भाग है कि जो व्यक्ति को सकारात्मक्ता दे सकता है।
भारत पाकिस्तान के बँटवारे के समय मायग्रण्ट हुआ था। तब साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया। हम देखते हैं कि बँटवारे को लेकर हिन्दी साहित्य ही नहीं बल्कि अन्य भाषा के साहित्य में भी बहुत सारे उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ लिखी गयी है। आज एक बार फिर मायग्रण्ट हो रहा है, पर यह स्थानान्तरण एक राज्य से दूसरे राज्य के बीच का है। स्थानान्तरण की प्रक्रिया श्रमिको की हो रही है। एसे विकट माहौल में श्रमिक की विपदा-आपदा पर चिंता होना वाजिब है। एक बात ऊठकर आ रही है और वह यह कि श्रमिक का कौन? आज सबसे ज्यादा अगर कोई परेशान हो रहा है तो वह श्रमिक ही है। इनकी विपदा को लेकर कई रचनाकारो ने कविताएँ लिखी हैं तो कईयों ने कहानियाँ भी गढ़ दी है। एक नया विषय साहित्य में आया है, जिस पर लोग लिखने लगे हैं। इस महामारी ने कई दिशाओं में साहित्यकारो को सोचने के लिए बाध्य कर दिया है। एक कविता 'आओ लौट चलें' शीर्षक में श्रमिक की वेदना को उद्घाटित होते देखा जा रहा है। यहाँ पर साहित्य की भूमिका सर्वहारा वर्ग के प्रति की रही है। इसके रचनाकार डॉ. राजेन्द्र परमार है –
"दाने की खोज में निकले थे
परिंदे
वतन से सुदूर
सोचा था कहां आपदाएं आयेगी
कोंक्रीट के कानन में।
प्राणप्रिय मातृभूमि को छोडकर
चले आये थे जहां
वहां पल-पल शर्मसार होती मानवता
यंत्र बंद पड़े,तंत्र हो रहा विफल
विकास ने विकास को लिया है चपेट में
आसार नज़र नहीं आ रहा महामारी का।
आओ लौट चलें
कुदरत की गोद में
जहां मिलेगा सुकून।
खेत,खलिहान को नदी,नालें,पोखर को
जिसे कभी भौतिक सुविधाओं को जुटाने में
देखा तक नहीं देखेंगे जी भरकर।
होगी नहीं भौतिक-सुविधाएं
मगर,
होगा सच्चा प्यार,सच्ची ममता,स्नेह असीम
'अपना हाथ जगन्नाथ' का शंखनाद करके
धरती को हरा-भरा बनायेंगे
जिससे जग ले सके चैन की सांस।"
जो शहर को बनानेवाला था आज उसकी स्थिति दयनीय हो गई है कि संवेदना को व्यक्त करती है यह कविता। श्रमिक के लिए शहर मात्र जरिया रहा है आर्थिक संपदा को प्राप्त करने का। जिसकी वजह से गाँव के शुध्द हवा,पानी तथा प्रकृति को छोड़कर वह शहर की गंदी गलियों में बसने चला आता है। पापी पेट के लिए रिश्तो को भी छोड़ने के लिए मजबूर होकर शहर में अपने सपनों को पूरा करने आता है पर बदले में क्या मिला? कोरोना महामारी के चलते उसे इस शहर को छोड़ना पड़ा। आज हिन्दी साहित्य में एक उभरते हुए कोरोना महामारी के नये विषय पर लिखा जाने लगा है।
साहित्य समाज के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। हिन्दी साहित्य की एक विशेषता रही है कि वह सांप्रत समस्या पर तुरन्त अपने विचारों को रखता है। परिणाम स्वरूप हर दसक को लेकर वाद चले हैं। भविष्य में 'कोरोना संकट काल' नाम से कोई काल खण्ड़ भी आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी साहित्य में आज निर्मित हुई इस वैश्विक महामारी को लेकर बहुत कुछ लिखा जाने लगा है। मात्र हिन्दी साहित्य को लेकर चर्चा करना न्यायोचित नहीं माना जाएगा। अन्य भाषा के साहित्य में भी इस वैश्विक महामारी को लेकर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। जिससे ज्ञात होता है कि ये कोई मामूली महामारी की बात नहीं है पर एक भयंकर महामारी की बात हो रही है। गुजराती साहित्य में भी कई रचनाकार इस विषय पर रचनाएँ बनाने लगे हैं। गुजराती के प्रसिध्द कवि,गीतकार विनोद गांधी के इस गीत में कोरोना को लेकर ही बात की गई है। शीर्षक है – 'नहीं गावानुं गीत'
अमे आवा दिवसो नहोता जोया,
आंसु विनानी होय आँखो ने आम अमे ध्रूसके ने ध्रूसके नहोता रोया!!
अमे आवा दिवसो नहोता जोया!
माडीनो हूँफभर्यो हाथ नथी अडतो
दीकराना शिर पर ब्हीकथी,
आवी ते आभड़छेट होय मारा भै,
रहेवानुं दूर covid थी अमे संबंधो प्रेमना य खोया!
अमे आवा दिवसो नहोता जोया!
आंसु विनानी होय आँखो ने आम अमे ध्रूसके ने ध्रूसके नहोता रोया!!
ईश्वर पण दूर दूर रहे छे अमाराथी
शोधीए तो क्यांय नथी मणतो,
बे गजनुं बहानुं काढी अमारा मां
आजकल ए य नथी मणतो,
अमे एनाथी हाथ नाख्या धोया
अमे आवा दिवस नहोता जोया!
आंसु विनानी होय आँखो ने आम अमे ध्रूसके ने ध्रूसके नहोता रोया!!
कोरोना छूने से फैलता है कि बात के मर्म को लेकर इस गीत में कवि बात करता है। दयनीयता तो यह है कि माँ अपने बेटे के सिर पर हाथ भी पसार नहीं सकती। उसे भी एक अदृश्य भय सताता रहता है कि बेटे के सिर पर हाथ पसारने पर उसे या मुझे कोरोना रोग हो गया तो? कितनी बेबसी है। इस रोग ने लोगो की मानसिकता को बदल दिया है। इसी बात की गंभीरता पर व्यंग्य करते हुए कवि ने ईश्वर को भी अपने भक्त से दूर कर दिया है। शायद यह मार्मिक्ता रही है कि स्वयं ईश्वर ही डर के मारे भक्त से दूर हो गया है। जो भी हो पर कोरोना महामारी के चलते जो एक भयवाला माहौल बन गया है उससे पता चल जाता है कि अब तो अपने परिचित भी हमें शंका भरी नज़र से देखने लगे हैं। तात्पर्य यह है कि पूरा मानवीय समाज शंकालु बन गया है। भारतीय समाज की बात करें तो हमारे यहाँ तो आए दिन त्यौहार आते रहते हैं और हर त्यौहार में लोगो की भीड़ रहती है। लोग त्यौहारो में धार्मिक स्थान पर बड़ी भारी भीड़ में इक्कठे होते रहते हैं। क्या तब भी परम पिता परमात्मा दो गज की दूरी बनाकर रहेगा? ऐसे में आगे क्या स्थिति होगी कहना फिलहाल नामुमकिन है।
साहित्य की भूमिकी हमेशा पक्ष प्रतिपक्ष को उजागर करनेवाली होनी चाहिए। देश की स्थिति आर्थिक रूप में बिगडी हुई है। सरकार भरसक प्रयास कर रही है कि इस आपदा से कैसे निपटा जाएँ और इसके लिए ज़रुरी कदम ऊठा भी रही है। पर इन सबसे दूर श्रमिक को इससे कोई सरोकार नहीं। उसे तो मात्र अपने गाँव जाने की चिंता लगी है। जिन फैक्ट्रियों ने उनको बेसहारा छोड़ दिया उसके प्रति वो आग बबूला है। इसी बात को मैंने पंक्तियों में उतारा है। यथा
बस,
वो चलते रहे हैं
चलते रहे हैं
अपने घर जाने के लिए
पर,
शापित हुई दिशाएँ
उन्हें रोक रही है,
शासन रोक रहा है,
प्रशासन देख रहा है।
कोई भी तो नहीं उनकी सुननेवाला
लाचार है – शोषित है – मज़दूर है न।
याद रखो इन्हीं के बलबूते पर,
तुमने सेकी है रोटियाँ।
आज इन्हें ही रोटियों के
लिए मोहताज कर रहे हो।
जब भी भूखे का जठाराग्नि जाग उठेगा,
तब तुम
कुछ नहीं कर पाओगे।
भूलो मत –
वापिस शुरु करने हैं न यंत्र
अगर,
इसने विद्रोह कर दिया तो
तुम्हें ही पड़ेंगे लाले – रोटियों के।
सब जानते हैं कि मज़दूरो के बिना फैक्ट्रियाँ चलाना संभव ही नहीं है फिर भी विपदा की घडी में कोई भी इन्हें सँभालने के लिए तैयार नहीं। शोषण की प्रक्रिया ऐसे माहौल में भी चल रही है। बस छोड़ दिया है उन्हें अपने हाल पर। एक ओर कविता में श्रमिक के विद्रोह की बात रखी गई है। -
वो चुप है,
पर,
उनकी आँखो में धधक्ता लावा है,
जो काफी है सत्ता को ऊखाड़ फेंक देने को।
जो हुजुम जा रहा है
वो पस्त है, त्रस्त है – तुम्हारे कारण।
इन्हें ओर परेशान मत करो।
जब भी इनका क्रोध
रौद्र रूप धारण कर लेगा
तब तुम अपनी सत्ता बचा नहीं पाओगे।
इन्हें मात्र मज़दूर मत समझो
ये तो हैं
देश के संवाहक।
इनकी खामोशी का मतलब नहीं समझोगे
तो,
एक दिन सत्ता को ही खामोश कर देगी इनकी चुप्पी।
सावधान,
वो चुप है
पर मूर्ख नहीं।
इस प्रकार साहित्य हर क्षण सांप्रत समस्याओं पर अपनी कलम चलाकर समाज के प्रति अपने दायित्व को निभाने की कोशिश करता आ रहा है। साहित्य समाज सापेक्ष रहता है। समाज के सत असत पक्ष पर वह अपनी बात रखता है। साहित्यकार के लिए विषय के साथ साथ संवेदनाएँ महत्व की होती है। वह तो जो देखता है उसीके प्रति अपनी बात रखता है। अगर शासक पक्ष अपनी जिम्मेदारियों को ठीक तरह से नहीं निभाता तो वह उनकी आँखें खोलने का प्रयास करता है। अगर शासक पक्ष प्रशंसनीय काम करता है तो वह उनकी प्रशंसा भी करता है। कहने का तात्पर्य यही है कि साहित्यकार तटस्थ रहकर अपनी बात को रखता है और इसके माध्यम से साहित्य की भूमिका तय होती है। इस महामारी के दौरान ही महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास एक ट्रेन हादसा हो गया, जिसमें करीबन सोलह मज़दूर रेल पटरी के नीचे आकर मर गए। कारण था कि लॉकडाउन में अपने गाँव जाने के लिए पैदल चलते-चलते थक जाने से आराम करने के लिए रेल की पटरी पर ही सो गए और गहरी नींद में ही वे ट्रेन के चलते पटरी पर ही मर गए। इस घटना को लेकर डॉ.गौरवप्रसाद 'मस्ताना' ने एक कविता लिखि है। जो 'साहित्य कुंज' नामक अंतरजाल पत्रिका में प्रकाशित भी हुई है। कविता का शीर्षक ही है –'पटरियों पे दफ़न हुई आश ' कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य है -
"पटरियों पे दफ़न हुई आश
क्षत विक्षत बिखर गयी लाश
खाये पीये, अघाये लोग
मज़दूरों का दुख बूझते काश!
घर से मिलने का स्वप्न, प्राण में अटक गया
जीवन ही अनजानी राह में भटक गया
आँख को न हो रहा विश्वास
इंतज़ार नयनों में मुरझा के रह गया
गाँव से मिलने का सपन मौत बन के बह गया
राह में ही टूट गयी साँस"1
इसी पत्रिका में कुछ व्यंग्य, लघु कथाएँ तथा कहानियाँ भी प्रकाशित हुई है, जो कोरोना महामारी को लेकर लिखि गयी है। जैसे – 'नासमझ मज़दूर'- संजीव शुक्ल, 'डोमेस्टिक चकित्सक के घर कोरोना' – डॉ.अशोक गौतम (व्यंग्य), 'लॉकडाउन' -डॉ.मंजु शर्मा (लघु कथा), 'लॉकडाउन में माँ की सीख' – प्रेरणा सिंह (कहानी)।2
आज की वैश्विक महामारी के संदर्भ में कई रचनाकार पारिवारिक संबंधो को लेकर भी अपनी बात रखते हैं। जैसे प्रेरणा सिंह की कहानी 'लॉकडाउन में माँ की सीख' कहानी आज की आधुनिक पीढि के बेटो पर एक मार्मिक चोंट करती कहानी है। तो 'नासमझ मज़दूर' (संजीव शुक्ल) व्यंग्य में लेखक ने सरकार की नीतियों पर करारा व्यंग्य किया है तो 'लॉकडउन' (डॉ.मंजु शर्मा) लधु कथा श्रमिक के लिए लॉकडाउन क्या क्या मुसीबतें लेकर आया है कि बात करती है। हम तो समझते है कि लॉकडाउन में किसीको कोई मुसीबत नहीं होगी। पर यह बिलकुल गलत है। जो गरीब परिवार है, जो रोज कमाकर खानेवाला परिवार है उसके लिए तो कमाने के सारे रास्ते बंद हो गए हैं। उनके बारे में कौन सोचता है? वो एक एक दिन कैसे गुज़ारते है? इसी समस्या पर मंजु शर्मा की लघुकथा 'लॉकडाउन' हमारा ध्यान खींचती है। तो इधर डॉ. अरुण कुमार निषाद का 'कोरोना विजय'3 नामक काव्य संग्रह प्रकाशित हो गया है। इस काव्य संग्रह में संपूर्ण भारत के इक्कतीस कवि – कवयित्रियों ने कोरोना महामारी, लॉकडाउन, दूरी बनाकर रहने की बात, सरकार के निर्देषो का पालन करने की बात, किसीने घर में रहने की सलाह तो किसीने मजबूर लोगो पर कविता, गीत,गज़ल लिखे हैं।
संक्षेप में कहे तो आज के कोरोना महामारी के दूषित वातावरण में साहित्य अपनी असरकारक भूमिका निभाता नज़र आ रहा है। इस महामारी के चलते समाज के विभिन्न वर्ग पर इसकी अलग अलग असर होगी। नयी समस्याएँ मुँह बाँये खड़ी होगी। देश की अलग समस्या तो लोगों की अलग समस्या। इन्हीं समस्याओं को लेकर आनेवाला साहित्य एक नये कलेवर के साथ उभरकर आएगा। हम सब इसके प्रत्यक्ष प्रमाण होंगे।
संदर्भ संकेत:
*****
डॉ. मनीष गोहिल, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्रीमती आर.डी.शाह आर्टस् एण्ड़ श्रीमती वी.डी.शाह कोमर्स कॉलेज, धोलका – 382225