वैदिकयज्ञ द्वारा महामारी कोरोना की चिकित्सा
वैदिकसंस्कृति के आधारभूत तत्त्वो में से यज्ञ एक है | यह कहना भी उचित होगा कि यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्राण है | मनुष्य जब माता के गर्भ में होता है, तभी यज्ञ द्वारा संस्कृत होना प्रारम्भ हो जाता है | यज्ञ द्वारा हि पालित पोषित होता है, यज्ञ में हि समग्र जीवन व्यतीत करता है, अन्त में यज्ञद्वारा ही इसलोक का लीला को समाप्त करता है | मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है, जैसे छान्दोग्य उपनिषद में कहा है– पुरुषो वाव यज्ञ: | मनुष्य का प्रथम २४,वर्ष हैं प्रातःसवन, अगले २४,वर्ष माध्यन्दिनसवन हैं और अगले ४८, वर्ष तृतीयसवन हैं | इस प्रकर यह ११६ वर्ष चलनेवाला यज्ञ हैं |
यज्ञ दो दृष्टियों से अपनी महत्ता रखता है– एक भावना के दृष्टिसे, दूसरे बाह्यलाभों की दृष्टि से | भावना के दृष्टिसे– मनुष्य के अन्दर त्याग, समर्पण,परोपकार,ऊर्ध्वगामिता,आन्तरिक शत्रुओं का दमन, तेजस्विता, देव पूजा,शान्ति,संगठन आदि भावनाओं को उद्धृत करता है | बाह्यलाभों की दृष्टिसे यह वायुमण्डल को शुद्ध करता है ओर रोगों तथा कोरोनारुपी महामारीयों को भी दूर करता है |
हमारे प्राचीन ऋषिमुनियों ने यज्ञ जैसा वैज्ञानिकसूक्ष्म अध्ययन किया था कि वे प्राकृतिक रूप से वर्षा के लिये वृष्टियज्ञ, सन्तान प्राप्ति के लिये पुत्रेष्टियज्ञ आदि करते थे | खेती में कृमि जीवजन्तु नाश के लिये यज्ञ के भस्म तथा धूयें का उपयोग करते थे | ये सब यज्ञ के बाह्य लाभ प्रक्रिया से किया जाता था | वेदों में यज्ञ द्वारा चिकित्सा कि वर्णन है |
रोगोत्पादक कृमियों का निवारण
अथर्ववेद में अनेक प्रकार के रोगोत्पदक कृमियों का वर्णन आता है | यहां इन्हे यातुधान,क्रव्याद,पिशाच,रक्ष, आदि नामों से स्मरण किया गया है | जो श्वासवायु, भोजन, जल आदि द्वारा मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर या मनुष्य को काटकर शरीर में रोग उत्पन्न करके पीडा पहुंचाते हैं उसे यातुधान कहते हें | जो शरीर के मांस को खाजानेवाले को क्रव्याद या पिशाच कहे हैं | इनसे मनुष्य को स्वरक्षा करना होता है जिससे ये रक्ष: या राक्षस केहलाते हैं | यज्ञद्वारा अग्नि में कृमिनाशक ओषधियों की आहुति देकर इन कृमियों की विनष्ट कर रोगों से बचाजा सकता है| जैसे कि अथर्ववेदमें कहा है–
अक्षौ निविध्य हृदयं निविध्य जिह्वां नितृम्धि प्र दतो मृणिहि |
पिशाचो अस्य यतमो जघास अग्ने यविष्ठःप्रति तं शृणीहि ||
अर्थात् कच्चे, पक्के, अधेपक्के या तले हुये भोजन में प्रविष्ट होकर इन मांस भक्षक् रोग कृमियों ने इन मनुष्य को हानी पहुंचाई है, वे सब रोगकृमि यज्ञ के अग्नि द्वारा संतति सहित नष्ट हो जायें, जिससे हमारा शरीर निरोग हो |
इन मन्त्रों से ज्ञात होता है कि जिस प्रकर गुप्त स्थानों में छिपे हुये रोग उत्पन्न करनेवाले कृमि यज्ञद्वारा विनष्ट हो सकते हैं | उसी प्रकार दूध, पानी,अन्न,वायु आदि के माध्यम से शरीर के अन्दर पहुंचे हुए रोग-कृमि भी नष्ट हो सकते हैं ओर शरीर स्वस्थ हो सकता है |
यज्ञद्वारा महामारीकोरोना रोग निवारण की प्रक्रिया
अब हम यह देखेंगे कि यज्ञद्वारा कोरोना जैसे रोग की निवारण कैसे होते हैं | जब हम यज्ञाग्नि में घृत,अन्न ओषधियों आदि की आहुति देते हैं तब् उनकी रोग निवराक गन्ध वायुमण्डल में फ़ैल जाती है | उस वायु को श्वास द्वारा हम अपने फेफडों में भरते हैं | वहां उस वायु का रक्त से सीधा संपर्क होता है |
वह वायु अपने में विद्यमान रोगनिवारक परमाणुओं को रक्त में पहुंचा देती है | उससे रक्त में जो रोगकृमि होते हैं,वे मरजाते हैं | रक्त के अनेक दोष वायु में आजाते हैं ओर जब हम वायु को बाहार निकालते हैं, तब उसके साथ दोष भी हमारे शरीर से निकल जाते हैं | इस प्रकार यज्ञद्वारा परिष्कृत वायु में बार बार श्वास लेने से धीरे धीरे रोगी स्वस्थ हो जाता है | इसी प्रक्रिया को अथर्ववेद में बताया है–
द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः |
दक्षन्ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद् रपः ||
अर्थात् निःश्वासरूपी दो वायुएं चलती हैं,एक बाहर के वायुमण्डल से फेफडों के रक्त समुद्र तक ओर दूसरी फेफडों से बाहार के वायुमण्डल तक | इनमें से पहले, हे रोगी ! तुझे रोगनिवराक बल प्राप्त हों, दूसरी रक्तमें जो दोष हैं उसे अपने साथ बाहार लें जायें | हे वायु ! तू अपने साथ ओषध को ला, हे वायु ! रक्त में जो मल है उसे बाहार निकाल | तू सब रोगों की दवा है, तू देवों का दूत होकर विचरता है| इसीलिये रोगीको स्वस्थ कर | इसप्रकार अथर्ववेदमें रोगनिवारण हेतु प्रार्थना किया गया है | जिससे महामारी कोरोना जैसे रोग की चिकित्सा किया जा सकता है |
अथर्ववेद में गूगल,कुष्ठ,पिप्पली,पृश्निपर्णि,सहदेवी,लाक्षा,अजश्रुंगी आदि ओषधियों का महत्त्व मिलता है, हवन सामग्री में प्रायः गूगल का प्रयोग किया जाता है | जो अथर्ववेदमें वर्णित है-
नतं यक्ष्मा अरुन्धते नैतं शपथो अश्नुते |
यं भेषजस्य गुल्गुलो सुरभिर्गन्धो अश्नुते ||
अर्थात् जिस मनुष्य को गूगल ओषध की उत्तम गन्ध प्राप्त होती है | उसे रोग पीडित नहीं करते ओर उसे आक्रोश भी नहीं घेरता |
प्राचीनकाल में रोग फैलने के समयों में बडे बडे यज्ञ किये जाते थे ओर लोग उनसे आरोग्य लाभ प्राप्त करते थे |
इन्हे भैषज्य यज्ञ कहते थे जो अथर्ववेद के गोपथब्राह्मण में वर्णित है –
भैषज्य यज्ञ वा एते यच्चार्तुमास्यानि |
तस्माद् ऋतु सन्धिषु प्रयुज्यते |
ऋतु सन्धिषु वै व्याधिर्जायते ||
अर्थात् जो चातुर्मास्य यज्ञ हैं, वे भैषज्य यज्ञ कहलाते हैं | क्योंकि रोगों को दूर करने के लिये यज्ञ ऋतुसंधियों में किए जाते हैं, क्योंकि ऋतुसंधियों में ही रोग फैलते हैं | वर्तमान समय में भी वर्षा,शरद् ओर वसन्त ऋतु के आरम्भ में बडे व्यापक रूप से रोग ओर कोरोना जैसे महामारीयां फैलती हैं, जिनके निवारण के लिये यज्ञ एक उपाय है जिससे अल्प व्यय में महान लाभ प्राप्त किया जा सकता है |
अथर्ववेद में कहा है की ऋतु अनुकूल हवन सामग्री के द्वारा यज्ञ करना चाहीए-
देवानां पाथ ऋतुथा हवींषि ||
ऋतु-अनुकूल प्रतिदिन यज्ञ क्रिया जाये तो वायुमण्डल उन रोगों के प्रतिकूल हो जाये ओर कहीं भी रोग न फैले | अतः कोरोनारूपी महामारी रोग को दूर करने के लिये हमे वैदिकयज्ञ करना चाहिये, जिससे समस्त जगत रोग मुक्त होकर शीघ्र स्वस्थता को प्राप्त करें | ऐसा इस वैदिकयज्ञरुपी शोधपत्र से ज्ञात होता है | अथर्ववेदकी अनुसंधानके अनुसार विशेषरूप से वैदिकयज्ञद्वारा महामारीकोरोना की चिकित्सा साध्य है, ऐसा प्रतीत होता है |
संदर्भग्रन्थसूची:
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डॉ । कपिलदेव हरेकृष्ण शास्त्री, परंपरागत संस्कृत विभाग, ध महाराजा सायजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, गुजरात