कोरोना संकट : भविष्य की संभावनाएं, आज के प्रश्न
शोध सारांश
कोविद-19 ने सम्पूर्ण विश्व को एक अनिश्चित भविष्य में डाल दिया है । इसमें कोई संशय नही कि ‘ वैश्वीकरण ‘ इसके प्रसार का एक महत्ता कारक रहा है । किंतु ‘ अर्थव्यवस्था ‘ का दबाव इतना है कि वैश्विक सरकारें अपने को बचाने के लिए ‘ राष्ट्रीयता ‘और ‘ निजी अस्मिता ‘ को प्रोत्साहन दे रही है । ऐसा करते हुए उसे ‘ कॉरपोरेट महत्वाकांक्षाओं ‘ के सम्मुख चाहे - अनचाहे झुकना भी पड़ रहा है । इससे महामारी का बाज़ारीकरण बढ़ा है तो व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान का संकट बढ़ गया है । साथ ही सामाजिक वैषम्य एक नितांत नई परिभाषिकी की ओर अग्रसर है । समस्या इसलिए और गंभीर है क्योंकि इससे निपटने की कोई दृष्टि किसी अनुशासन में नही है । ऐसे में यहां एक वैकल्पिक साझा अनुशासन की संकल्पना की गई है । ऐसा करते हुए भवितव्य से भी मुखातिब हुआ गया है । विषय अत्यधिक गंभीर है । अतः यहां फॉकऑल्ट की ‘ discursive formation ‘ प्रक्रिया को एक ‘ प्रयुक्ति ‘ के रूप में अपनाया गया है । विभिन्न प्राघटनाओं को एक पट्टी पर लेते हुए आवश्यक विमर्श हेतु भूमिका बनाने का प्रयास है ।
बीज शब्द ( की वर्ड ) : आपघात, कोरोना, अस्मिता, कृत्रिम बुद्धि, मैकेनिज़्म, सोशल मीडिया, शिक्षा नीति, ग्लोकल, अकादमिक, भाषा, अनुशासन, अर्थव्यवस्था, समाजशास्त्र, अस्तित्व ।
एक फिल्म आई थी “पीपली लाइव” । किसानों की खस्ताहाल जिंदगी और आत्महत्या के मसले को ' स्टायर ' के माध्यम से उम्दा फिल्माया गया था । किसानों का आपघात और उस पर की राजनीति हमारे यहां का पुराना रोजनामचा है । मीडिया और प्रबुद्धजन इसे इससे ज्यादा अहमियत नहीं देते । दरअसल प्रेमचंद का ' कफ़न ' हमेशा से देश का इस्टिग्मा बना हुआ है । जिसे धोने – ढापने के असफल प्रयासों के बाद अब सामान्य प्रघटना मान संतोष कर लिया गया है ।
भारत या हिंदुस्तान में ही यह संभव हुआ । अन्यथा इंडिया में आपघात एक सनसनी या ब्रेकिंग न्यूज है । जिस पर चहुंओर शोर, कमेंट्स, वीडियो, डिबेट और ट्वीट उग आते हैं । पुराने राज जुगाली करते हैं । नयी उबटन मथी जाती है । हर ओर व्योमकेश बक्शी के अक्स नजर आते हैं । सलाह – मशवरा अपनी उच्चतम वैज्ञानिक परिणति पर होता है । और यह सब बेसबब भी नही है । जो गया वह अपूरणीय क्षति होता है । आखिर 'स्लैब्स' सार्वजनिक अपने होते हैं । उनके जाने से जो वैक्यूम बनता है उतना तो भारत के सैकड़ों किसानों के सामूहिक आपघात से भी नहीं बन सकता ।
अंग्रेजियत में मलहम की भांति परोसा गया ये द्वैतवाद समय बीतते बीतते इतना शाइनिंग और फर्निश्ड हो चुका है कि इंडिया में भारत चाय में घुली शक्कर हो गया । ख़ैर । इधर अभी पूरे उफ़ान पर आए ही थे । उधर साम्राज्यवादी ड्रैगन के जबड़े खुल गए । बीसियों जाबाज़ शहादतें बैचेन कर गई । ब्रेकिंग न्यूज तो यह भी बनी । लेकिन सनसनी नहीं बनी । कुछ ' रेड बुक ' वाले राष्ट्रभक्त ज़रूर भिनभिनाएं । पर वाल पोस्ट और ट्वीट पर जूं भर ही रेंगी । ऐसा लाज़मी भी है क्योंकि युवा इंडिया अभी सदमे में है । सीमाएं हैं तब मुठभेड़ भी होगी । नया क्या है ? टेक – सेवी युवा अब इमोशन – सेवी भी हो गया है । प्रतिक्रिया कब, कहां और कैसे देनी है जानता है । ज़रा याद कीजिए । दिसंबर का ' कोरोना – दैत्य ' तक हतप्रभ है कि इतना असाध्य जानलेवा बन कर भी वह छ महीने में ही पुरानी याद बन रह गया है । उसे क्या पता हमारी भूमि बनी ही दैत्य संहार के लिए । ऐसे ही सनातन नहीं कहलाते हम । वरना देखिए पश्चिम को इस दैत्य से पस्त हुए कि काले – गोरे रंग पर बवाल कर गए । दरअसल हज़ारी प्रसाद जी ने ' शिरीष के फूल ' का ' ठूट ' रूप तो भांप लिया था किन्तु उसके जड़ अंदाज़ की आहट न ले पाए । शायद खुद से पल्लवित होने को छोड़ गए होंगे । दूसरे, तीसरे ….. या अनंत पाठों के लिए ।
कुछ चीजें खास होती हैं । जैसे ' अस्मिता ' । या ऐसे विमर्श जो किसी सैद्धांतिकी तक पहुंचे ही नहीं और ब्रांड बना के चस्पा दिए गए । अधूरेपन की कोटिश पगडंडियां हैं । रास्ते खुरदरे और लम्बे होते हैं पगडंडियां वो बाय- पास हैं जो सफ़र को आरामदायक एवम छोटा बनाने का आभास दिलाते हैं । पर इस फेरे में बहुत कुछ पीछे छूट जाता है । जो अन्यथा या कुछ परम विद्वतजनों के लिए 'हैशटैग' बन जाते हैं । हर पसारे धूप- छाव होती ही है । यहां भी कुछ ऐसा ही है । पर जल्द आस्मा चूमने की चाह में त्रिशंकु की कहानी को बारबार अनदेखा कर दिया जाता है । नतीजतन । खेमें बनाए और तलाशे जाते हैं । लोकतंत्र की यही खूबी उसे सर्वप्रिय बनाती है । ' लघुमानव ' का जनक एक ओर रह जाता है और ' नए प्रतिमान ' स्थापित हो जाते हैं । अभी जो ' नेपोटिज्म ' की बीन जोरों पर है । उसकी धुन तो समूचे इतिहास में मौजूद रही है । नया क्या है ? क्या दबाव केवल उच्चाई पे ही जोरों पर होता है ? कभी जमी में गहरे उतर कर तो देखिए । वहां के आपघात भी पारिस्थितिकी जन्य इसलिए शहादत ही होते हैं । और क्यों न हो । इस ' लॉक डाउन ' के दरम्यान जमी कितनी बार लाल हुई और हो रही है । उसका क्या ? केवल सहानुभूति उसका हल नही । क्या उनकी कोई अस्मिता नहीं । इस पर विमर्श कौन करेगा ? आज तो परिवार भी ' टी आर पी ' पर उलझते और सुलझते हैं ।
ईमाइल दुर्खीम ने ' ले सुसाइड ' में आपघात को सामाजिक तथ्य बताया है । जर्मनी में 90 के दशक में जॉर्ज बटगेरियट ने ' द डेथ किंग ' नाम की प्रयोगधर्मी फिल्म बनाई थी । सात किश्तों में ये फिल्म आपघात की सात खामोशियां बयां करती है । हर पल ' ट्रोल ' को बेताब नज़रिए को एक बार इस खामोशी से गुजर कर देखना चाहिए । अपने वजूद को जिलाए रखने का गोरखधंधा ही है । जिसने धर्म और जादू को परोसा । और जिसका सहारा लेकर समाज की बुनियाद रखी गई । लेकिन क्या समाज अपना प्रकार्य पूर्ण कर पाया ? प्रसिद्ध इज़रायली इतिहासकार युवान नोहा हरारी की पुस्तक ' होमो डियस : ए ब्रीफ हिस्टरी ऑफ टूमारो ' को यहां मथना चाहिए । हालांकि बड़े मठों में ' कापी – पेस्ट ' का समुद्र – मंथन अपने आगाज़ पर ही होगा । ख़ैर । हमारे कल, आज और कल का एक एल्गोरिथम वे बुन पाएं हैं वह एक प्राकल्पना हो कर भी सच से ज्यादा दूर नहीं है । मज़ा देखिए । आयातित नजरियों पर जिंदा हमारे स्वनामधन्य बुद्धिजीवी यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वैश्वीकरण की खिसकती धुरी हमें उस नई दुनिया की ओर धकेल रही है । जिसमें हम सब का वजूद नियति के हाथों से निकल कर ' साइबॉर्ग ' के समीकरणों पर निर्भर करेगा । ' कृत्रिम बुद्धिमत्ता ' का लगातार बढ़ता वर्चस्व बेजा नहीं है और कोविद 19 ने दुनिया को जो सन्न कर दिया है वह पहली दस्तक है । जेनेटिक वैश्वीकरण की । जिस माफिक यह वायरस म्यूटेशन कर रहा है वह इशारा है - कंप्यूटर वैज्ञानिक लेसली वालिएंट ने जिस ' इकोरिथम ' की बात उठाई है । उसका और हमारे भविष्य का भी ।
दरअसल हम सब एक ही पसारे बैठते हैं । मतलब पूरी दुनिया । याद कीजिए । भगवती चरण वर्मा का उपन्यास ' चित्रलेखा ' । जहां पाप – पुण्य पर प्रश्न – चिन्ह उठाया गया था । तब का तो नहीं पता । किन्तु आज उसका जवाब सामने है । हरारी को साथ लें तो कह सकते हैं कि अच्छा – बुरा सब कुछ हम पे निर्भर है । यहां तर्क का महत्त्व बढ़ जाता है । यक़ीन मानिए ' केमिकल लोचा ' एक तथ्य है और अब हमें इस तथ्य को भी स्वीकारना होगा कि हमारा पंचभूत शरीर महज़ एक मशीन है । वस्तुत: ब्रह्माण्ड खुद एक अबूझ मैकेनिज्म है । जितनी परतों को हम उघाड पाएं हैं उससे भी मौजू हैं ‘डार्क मैटर ' जिस का होना भर ही, सभी प्रश्नचिन्हों को एक वलय में थिर कर देता है । हरारी ने जिस ' इम्मोर्तालिटी ' को भवित्व्य स्वीकारा है । पहले भी इसके स्वप्निल भग्नावेश मानव संस्कृतियों में देखें गए हैं । मानवशास्त्रीय अध्ययनों से भी साफ है कि अपने प्रारम्भिक जीवन में हम और प्रकृति अद्वैत ही थे । नवीनतम खोजों से यह तथ्य सामने है कि ' गट ' – सामान्य भाषा में कहें तो ' आंत ' हमारा ‘ सेकंड ब्रेन ' है । जो न केवल हमारे मस्तिष्क को बल्कि हमारी भावनाओं को भी प्रभावित करता है । यहां यकायक ' सत – रज – तम ' की परिकल्पना कौंधती है । यकीनन आने वाली अर्थव्यवस्था अत्यधिक तनावपूर्ण होगी । कारण होगा उसका बौद्धिक संकेद्रण । हरारी यही मानते हैं। मार्क्स और देरिदा को खारिज या फैशन समझने वालों को तब यह फिर उलीचना ही होगा । तभी सात्र की बांसुरी की बीन में डूबे चूहों का घाटी में गिरने को भी एक प्रघटना के रूप में देखना होगा । ‘ सिक्स सेंस या ' गट फीलिंग ' इसीलिए अधिक व्यवहारिक अधिक ठोस मानी जा सकती है क्योंकि वह कहीं न कहीं हमारे यथार्थ परिवेश से सीधे जुड़ी होती है ।
याद कीजिए । हमारे साहित्य का वह दौर । जहां बहुत से वाद, धाराएं और उलझनें थी । दरअसल उस झंझावत को दरकिनार कर नामचीनों ने नकार दिया था । आलोचना को अपनी सुविधा चाहिए थी और प्रकाशन को अपने मठ । यहां तक भी ठीक था । गड़बड़ तब हुई जब प्रगतिवाद को जनवाद का नया चोला पहना के साहित्य को एक खूंटे से बांध दिया गया । इस एनाटॉमी ने हमें विश्व साहित्य में बहुत पिछड़ा बना दिया । तुर्रा यह कि इस बासी उबाल को बाद में फेमिनिज्म, मॉड्रेनिज्म, कोलोनियन, सबाल्टर्न और भी न जाने कितने आयातित नजरियों पर ले कर अब मार्जिनलाइज्ड पर ला उफाना है । कितना दुखद है । प्रेमचन्द- शुक्ल – प्रसाद – निराला की भारतीयता का अवसान यूं इंडिया में हुआ कि चेतन भगत – अरुधंति राय – विक्रम सेठ – अमिताभ घोष नई पहचान बन बैठे । बात भाषा की नहीं है । यदि ऐसा होता तो राजकमल चौधरी या भुवनेश्वर की अहमियत आंग्ल भाषा में चर्चित नहीं होती । ये विडम्बना नहीं है ? हिंदी के साहित्यकार को अपनी पहचान अंग्रेजियत में खोजनी पड़ रही है । । बड़ा सवाल है । इसलिए भी क्योंकि आज के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार भी अनुवादक ढूंढ़ते हैं । फिर दौर चलता है सोशल एडवरटाइज़िंग का । यहां जो अस्मिता का प्रश्न बनता है उसका रहनुमा कहां है ?
पाश को स्मृति में लाइए । निराला का पागलपन याद कीजिए । परसाई जी की पीड़ा उठाइए । और मुक्तिबोध का दर्द पीजिए । अनगिनत नाम हैं । अनगिनत मसले हैं । अनगिनत विसंगतियां हैं । सच – झूठ के अनगिनत पर्दें हैं । पर क्या ये कोई अंत हो सकता है ? मशीन बिगड़ सकती है पर भंगार नहीं हो सकती । कोई ना कोई उपयोग निकल ही आता है । वैसे भी जुगाड़ुपन हमारी खासियत है । जरा गहराई में जाइए । ' पलायन ' को अमूमन नकारात्मक ही लिया जाता है । कारण, ' ऑप्टिमिस्टिज़्म ' को मानवीय जिजीविषा से कस के बांध दिया गया है । किन्तु क्या यही वास्तव है ? नहीं । वजह है । पलायन की वृत्ति । प्रसाद की ' मेरे नाविक ' हो या निराला की ' बादल राग ' दोनों एक ही पसारे बैठती है । दरअसल पलायन अनिच्छित के प्रति होता है । अभी हाल ही में निराला काव्य से पुनः दो- चार होने का मौका मिला । शायद वे ऐसे एकमात्र रचनाकार हैं जिनको समझने में हमारे नामचीन आलोचक भी फीके पड़ गए। । बात यह नहीं है कि वे कितने बड़े रचनाकार थे । मुद्दा ये है कि हम कितने समझदार हैं । “ मरा हूं हजार मरण “ कह कर निराला ने सब कुछ कह दिया था लेकिन दुनिया अब भी इसका मर्म नहीं समझ पाई है । खैर । अभी ताजातरीन ट्वीट आया है स्वनामधन्य चेतन भगत जी का । सुशांत सिंह की फिल्म ' दिल बेचारा ' पर । दूसरों की चिता पर अपनी रोटियां कैसे सेंकी जाए इसका उम्दा प्रदर्शन है यह पोस्ट । लगभग ' मी टू ' जैसा माहौल है । अरे भैय्या ! अब तक क्या मजबूरी थी के चुप्पी साध रखी थी । अगर गलत हुआ तो तब भी,अब भी और आगे भी गलत ही रहेगा । फिर? काहे मौनी बाबा बने हुए थे ? दरअसल विज्ञापन के इस दौर में औचित्य सिद्धांत एक नई प्रयुक्ति बन उभरता है । जरा सोचिए कि जिस देश में आपघात एक सामान्य प्राघटना है वहां इतना प्रोपेगेंडा ? बात सुशांत की नही है बात हम सब की है । टी आर पी की अंधी दौड़ ने हमें भी पैरलाइज्ड कर दिया है । यहां यह भी समझना होगा कि सिल्वर स्क्रीन सब की है और यहां सब पैसे का गणित है । एक बात जो यहां मायने रखती है । बहुत से नामचीन हैं जिन्होंने इसी बॉलीवुड में अपना नया मुकाम बनाया है । बावजूद नेप्टोइज्म के । खैर, मुझे यहां महाप्राण निराला और बाबा साहेब याद आ रहें हैं । शर्तिया आज के ग्लैमराइज्ड आपघात को उनका 1 फीसदी भी संघर्ष या विरोध नहीं झेलना पड़ा होगा । यहीं मीडिया और सोशल नेटवर्किंग की भूमिका संदिग्ध नजर आती है।
अभी- अभी सरकार ने नई शिक्षा नीति पेश की है । बेहद उम्दा है । । युवा को और युवा बनाने का बहुत बड़ा बहुत गंभीर प्रयास है ये । अब मुझे मैकाले याद आ रहा है । । यही तो मुश्किल है । दरअसल हम एक दिग्भ्रमित हैं । काश हम भी फिल्मी होते । सब आसानी से हो जाता । मुझे याद आ रहा है कि एक फिल्म थी । गब्बर इज बेक । वास्तव में हमें एक दिशा चाहिए और यह बिना किसी बोध के संभव नहीं । ' ग्लोबल ' से ' ग्लोएक्ल ' की ओर बढ़ना ' कोरोनाग्रस्त ' बाय- प्रॉडक्ट है । वैसे जापानियों के खेतों से उपजा ' डोचाकुका ' शब्द यूं वाया अकिओ मोरिता ( सोनी कार्पोरेशन के संस्थापक ) म्यूटेशन पा जाएगा । किसे पता था ? पर तकनीकी विकास के निरंतर बढ़ते अतिक्रमण के मध्यनजर इसे मानवीय जिजीविषा की प्रतिरोधी रक्षा प्रणाली ही माना जाना चाहिए । मशीन और मानव अस्तित्व का संघर्ष बहुत सी हॉलीवुड फिल्मों में दर्शाया गया है । उन विज्ञान कथाओं का कयास प्रकारांतर से सच की तलाश के काफी करीब ही है । ' न्यूरालिंक ' तकनीक इसका शुरुआती चरण है । ' डार्क मैटर ' कॉस्मोलॉजी में पढ़ा ही है अब ' बायोलॉजिकल डार्क मैटर ' या कहे ' अबूझ जीनोम ' भी सामने है । यहां फिर से विज्ञान दर्शन को साझा करता दृष्टिगत होता है । क्या यहां ' अद्वैतवादी गूंज ' नहीं सुनाई देती । इस ' ग्लोकल ' सोच की ओर जाना बामुश्किल तो है लेकिन नामाकूल नहीं ।
जड़ों से कट कर ' बोनसाई ' तो बना जा सकता है तथापि रह जायेंगे नुमाइशी । जैसा माहौल अभी विश्व को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा है वह संयत रह कर धनावेश नहीं सर्जित कर सकता ।यह हमारे उन बुद्धिजीवियों को भी समझना चाहिए कि ' कलगी बाजरे की ' को पुनः संरचित करने की जरूरत है अन्यथा, बासी कढ़ी का उबाल कब तक और कितना पचेगा । दरअसल । मामला अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना का है और महत्वपूर्ण इसलिए कि भाषिक अर्थछवियों की रूढ़ परम्परा बौद्धिक उत्तेजन को ' डेम इट ' बना देती है । हमारी शैक्षिक व्यवस्था का ये बड़ा लूप है । और ये महत्ती वजह है । तदर्थ, ना तो यहां बावजूद तमाम कोशिशों के शोध और अनुसंधान की गत सुधरी । ना ही यहां कॉपी- पेस्ट और भारी व बोझिल संदर्भ ग्रंथ सूंचियां बदली । नए प्रयोग, नई खोज या नई दृष्टि और विचार भूल ही जाइए । जे एन यू या केन्द्रीय विश्वविद्यालयों या अन्य तथाकथित नामचीन विश्वविद्यालयों ने क्या नया दे दिया है अब तक । बात चुभ सकती है किन्तु सच है । एक छोटा सा दृष्टांत । निजी जीवन से । बात वर्धा की है । महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दिए गए साक्षात्कार की । 2005 चल रहा था । लंबे इंतजार के बाद साक्षात्कार कक्ष में पहुंचा । सामने विशाल लंबवत मेज के दोनों तरफ और सामने को मिलाकर एक दर्जन से ज्यादा अनुभवी बौद्धिकता आराम फरमाते मिली । दो ही मिनट बीते होंगे । कुल तीन सवाल । मैं बिन कारतूस खलास । शोध शीर्षक में जुड़ा ' अर्थात ' मेज पर कैक्टस बन गया और ' कविता का अर्थात् ' आंखों में किरकरी । ऐसा है अकादमिक यथार्थ । वैसे इस विश्ववि्यालय का अवदान बहुत सुर्खियां बटोर चुका है सो जो हुआ वह समझदार को इशारा भर है ।
कहना यह है कि नई शिक्षा नीति अगरचे ' कौशल विकास ' और ' शिक्षण में भाषिक क्षेत्रीयता ' को जमीनी हकीकत बना पाती है तो अभिव्यक्ति व अभिव्यंजना के जो नए और अधिक समीचीन प्रारूप बनेंगे । भाषिक संलयन के जरिए वह बौद्धिकता के नवीन उर्वरक सिद्ध होंगे । अंग्रेजी इसीलिए अंतरराष्ट्रीय संपर्क भाषा बन सकी है और यह तब हुआ जब उसने ऑक्सफोर्ड – कैम्ब्रिज जैसे मठों को अनसुना कर लातिनी रुख अपनाया । यह कोई नई प्रक्रिया नहीं । अपभ्रंश की टूटन में यह संभावना स्व मेत ही विद्यमान रही थी पर राजनीतिक अव्यवस्था एवम बाद की लंबी गुलामी की स्वाभाविक थकन से जमी मानसिक काई पर जैसे ही अंग्रेजियत का ग्लैमराइज्ड साया पड़ा । बात तभी से बरगला गयी । दरअसल आधुनिकता हमें प्रकृत रूप में नहीं मिली । अनचाहे ही अंग्रेजियत को सामाजिक संपृक्ति देनी पड़ी । ब्रिटिश शासन की मजबूरी रही । उन्हें लोकल संसाधनों के दोहन से जुड़ना पड़ा । ये जुड़ाव चूंकि आरोपित था अतः ठीक ' ग्लोकल ' तो नहीं था पर इसके निहित खतरों की ऐतिहासिक चेतावनी निश्चय ही बनता है । इस दिशा में आगे बढ़ने की संभावना बनी हुई है ।
बात एक सार्वभौमिक भाषा की हो रही थी ।। जैसा कि कहा है अपभ्रंश (अवहट्ट) में यह संभावना थी और आगे चल कर जिस ' दक्खिनी हिंदी ' ने खुद को सरजा । यदि भाषा वैज्ञानिकों ने उसे ' कोरी सैद्धांतिक ' से परे तथाकथित आर्य व द्राविड़ भाषाओं के मध्य के पुल के रूप में बढ़ाने का प्रयास किया होता तो हिंदी को संवैधानिक सहारे की आवश्यकता नहीं होती । किया ये गया कि व्याकरण के अनुशासन का डंडा अंग्रेजों की दुनाली बन बैठा । और उर्दू टेस्ट ट्यूब बेबी के रूप में जन्मी । नतीजतन यहां राष्ट्रवाद उस भांति नहीं पनपा जैसा अन्य परतंत्र राष्ट्रों में उभरा । इसका दूरगामी प्रभाव यह पड़ा कि रजवाड़ी राष्ट्रवाद आज भी क्षेत्रीय राष्ट्रवाद के रूप में सामने है । जितने क्षेत्रीय दल यहां हैं । किसी देश में नहीं हैं । आश्चर्य है। किसी इतिहासवेत्ता या राजनीतिविज्ञ ने इस पर ध्यान केंद्रित नहीं किया ।
वस्तुत: आजकल त्वरित प्रतिक्रिया अधिक बौद्धिक और लोकप्रिय है । 6 जी के समय में यह आवश्यकता भी बन जाता है । एफएम में रीता ब्लुटूथ अपनी आखिरी सांसें ही समर्पित कर सकता है । ' ओ टी टी ' इसीलिए ई- लिटरेचर का नया प्लेटफॉर्म बन गया है और ' सोशल मीडिया ' बहस – मुशायरों – गोष्ठियों का नया अड्डा । नोटिफिकेशन और फ्लैश खबरों का नया रोजनामचा । दरअसल हम सब डाटा प्रॉसेसिंग यूनिट में बदल रहे हैं और इसका मतलब है ' सिस्टम क्रैश ' की प्रायिक्ता का बढ़ते जाना । कृत्रिम न्यूरॉन्स विकसित किए जा चुके हैं और मुद्दे की बात यह है कि हम न्यूरॉन्स के बीच की कड़ी – परिभाषिक शब्दावली में ' जंक्शन ', को भी ' चिप ' रूप में डिजाइन कर चुके हैं । माने बहुत जल्द हम कृत्रिम ब्रेन बनाने में कामयाब रहेंगे । वह भी कई गुना ज्यादा सक्षम । तब सवाल बनता है । इस दौर में ' ह्यूमन सॉफ्टवेयर ' का क्या हाल है । 32 और 64 बिट प्रोसेसर का संदर्भ लीजिए । हमारा ब्रेन भी एक प्रोसेसर है । नई खोजों से यह तथ्य सामने आया है कि एड्रिनिल नहीं हमारा स्कल्टन स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं के लिए जवाबदेह है । ऐसे में ' ह्यूमन हार्डवेयर ' की दर्शित बढ़ती समझ और दख़ल निस्संकोच ' ह्यूमन सॉफ्टवेयर ' को भी नियंत्रित करने को तैयार है । मैक्रोबायोमी विज्ञान जगत का हाल का सबसे चर्चित शब्द है । सीधे हमारे व्यवहार और व्यक्तित्व का आरेख बनाता है । हमें सीधे पारिस्थितिक – तंत्र से जोड़ता है । आज हम जिस “ कोरोना त्रासदी “ से जूझ रहे हैं । अपनी तमाम “ कुटिलता “ के बरअक्स भी वह इससे जुड़ता है और यदि यहां इस तथ्य को भी ध्यान में रखें । कि कैसे इथोपियाई रेगिस्तान की 35 मील लंबी दरांच तस्दीक है इसकी । कि अफ्रीकी महाद्वीप दो हिस्सों में टूट रहा है। तब कोरोना महज़ संयोग या षड़यंत्र भर नहीं रह जाता । क्या उसके लगातार म्यूटेशन इस बिना पर नहीं परखे जाने चाहिए।
कहा सुना जा रहा है कि कोरोना काल के बाद दुनिया पूरी तरह से बदल जाएगी । सच है । दुनिया तो कई मर्तबा बदली है । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाया तनाव और अविश्वास सिर्फ टीजर है । बौद्धिक बरगलाहट और वेब का बढ़ता वर्चस्व सामाजिक ताने बाने को अब दुगनी तेज़ी से वर्चुअल बनाता जा रहा है। मार्क्स ने कभी सोचा नहीं होगा कि श्रम और उत्पादन का द्वंद्व यूं अपनी धुरी से ही फिसल जाएगा । भविष्य की अर्थव्यवस्थाएं मैकेनिज्म पावर और डाटा प्रॉसेसिंग एबिलिटी के द्वंद्व पर आधारित होगी । मनुष्य सिर्फ एक जैविक इकाई बन कर रह जाएगा । शोध और अनुसंधान का निरीह केंद्र । जीवन स्वयं को नए रूप में गढ़ेगा । बिलकुल “ तर्डिग्रेदस ( वॉटर बीयर ) की तरह । तब भविष्य का जीवन स्टार वार्स भी देखेगा। अस्तु
अचरज इस बात का है । हमारा बुद्धिजीवी वर्ग ठीक वही गलती दोहरा रहा है जो भक्ति आंदोलन के पुरोधाओं व अनुयायियों ने की थी । प्रतिरोध तो किया लेकिन विकल्प नहीं दे पाएं । शासन पर तीखी निगहबानी जनतांत्रिक है । किन्तु विरोध के लिए विरोध हो । वह मजमा बन जाता है । नई शिक्षा नीति पर एक अंग्रेजी दैनिक में एक के बाद एक दो त्वरित प्रतिक्रिया आई । लाए कौन । दो ' इंडियन इंटेलेक्चुअल ' । पहले ने विकसित देशों का एग्जाम्पल सेट करते हुए शिक्षा के पूरी तरह से प्राइवेटाइजेशन की वकालत की । उन्होंने एक टर्म उद्धृत की - ' घोस्ट स्कूल ' । सर धुन लिया । शायद वे नहीं जानते कि यह बोलने की आजादी भी उन्हें प्रजातंत्र ने दी है। वही प्रजातंत्र, जो हर प्रकार से ' जनकल्याणकारी ' भूमिका में सन्निहित है । भाई जी । पहले इसके आजू – बाजू और पीछे झांक तो आते । अब दूसरे की भी मथिए । उन्हें ' राष्ट्रवाद ' कोरा और असहाय नजर आता है । यह अलहदा है कि इसी राष्ट्र ने उन्हें बनाया है । तुर्रा ये कि जिस भारत को जिया ही नहीं । उसी के लिए इतने फिक्रजदा हैं । यह तो नमूना भर है । बौद्धिक दिवालियेपन का । चिंताजनक स्थिति है । इसलिए भी क्योंकि नई दुनिया में हम कहां स्टैंड करेंगे । इसका फैसला हमारी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी से होगा । ऐसे में नई शिक्षा नीति एक ठीक ठाक स्टार्ट- अप प्रतीत होती है । अपनी जड़ों की ओर बढ़ते कदम शायद भविष्य का वह भारत घड़ पाए । जहां ' इंडिया ' केवल एक बुरा सपना बन बिसूर जाए ।
मसला गंभीर है । इसलिए भी । क्योंकि इस ' कंजेक्चर ' के दरम्यान नई शिक्षा नीति का आगाज़ । कुछ नए प्रश्नचिन्ह सामने रखता है । अभी हाल ही में कॉविड 19 पर दो समाजशास्त्रीय शोध – पत्र प्रकाशित हुए हैं । एक अनुशासन के रूप में ' समाजशास्त्र ' पहले से ही अकादमिक जड़ता और वैचारिक अराजकता का शिकार रहा है । जिसकी पुनः पुष्टि प्रकारांतर से आर. कॉनेल के शोध – लेख में मिलती है । उनकी चिंता जायज है और उनका यह कहना भी सही है कि इस महामारी के जवाबदेह भी हम ही हैं । खैर, उनका शोध लेख जिन दो सवालों को उठाता है। बड़ी अहमियत रखते हैं । पहला यह कि कोविड 19 जन्य हालिया ' कंजेक्चर ' को मौजूदा समाजशास्त्र से समझ पाना संभव नहीं है। दूसरा, इसके प्रभाव से उपजी बेशुमार बेरोजगारी और खस्ताहाल संचित निधियों ने ' कॉरपोरेट प्रबंधकों ' को असीमित शक्ति दे दी है । और चिंताजनक यह है कि फौरी दबाव में विश्व भर के शिक्षण संस्थान ' रोजगार उत्पादक इकाई ' के रूप में बदले जा रहे हैं । दूसरा शोध सैमुएल एल पेरी,वाइटहेड व ग्रबस का है । जिसमें सोशल सर्वे पद्धति के आधार पर यह प्रमाणित किया गया है कि अमेरिका में जो तबाही कोरोना ने मचाई । उसके लिए ' क्रिश्चियन नेशनलिज्म ' जिम्मेदार है । जिसे शासन की शय ने फिर ' रेसिज्म ' और उस सरीखे अन्य बाय – प्रॉडेक्ट ' तक ला पहुंचाया । सांकेतिक रूप में इसे पहले शोध लेख में भी – वैश्विक परिदृश्य पर, रेखांकित किया गया है । स्थितियां जितनी बद से बदतर हो रही है । उसके सापेक्ष वैचारिकी उतनी ही लाचार है ।
सारे अनुशासन हतप्रभ हैं । जिस तेजी और आक्रामकता के साथ इस वायरस ने दुनिया को लपेटा है और लाईलाज बना हुआ है । उसमें ऐसा स्वाभाविक भी है । किन्तु ' अस्तित्व का यह संकट ' सामूहिक प्रयास की मांग रखता है । दूसरे शब्दों में कहें तो ' मल्टी डिसिप्लिनरी अप्रोच ' से ही यहां जिंदा रहा जा सकता है । शब्द नया नहीं है पर प्रकार्यात्मक दृष्टि से – विशेषकर आज की परिस्थितियों में; इसे नवीन रूप देना होगा । ऐसा करते हुए हमें समाजशास्त्र, साहित्य और विज्ञान – इन तीनों को; अपने अकादमीय खोल से परे जाकर साझा समझ विकसित करने की जरूरत है । ' SoFizime ' इस दिशा में एक शुरुआती सराहनीय प्रयास है । पर अभी उस ' रिजाएम ' की सख्त और तुरंत आवश्यकता है । शेष अनुशासन इस ‘ ट्राइएंगल ' की प्रोसेसिंग व एबिलिटी की गति बनेंगे । यह निश्चित है। कोरी कल्पना नहीं । यहां सिर्फ एक सामान्य सा उदाहरण । ' आपघात ' पर चर्चा की गई है । उसी पर से । एक ' स्लैब्स ' का आपघात निरंतर चर्चा में है ( - अब तो ऐसा लगता है । हम कोरोना से ज्यादा उसे ले फिक्रमंद हैं ) । यह एक छोटी सी घटना ही पूर्वोक्त ' रिजाएम ' की अनिवार्यता दर्शाती है । यहां यह भी समझना होगा कि घटना ' लॉकडाउन ' के दरम्यान हुई थी । प्राथमिक और बाद में पी एम रिपोर्ट से भी निष्कर्ष वही निकला । पर कारण को समझने की बजाय कयासों को रंग दिया गया । परिजनों का दर्द जायज और स्वाभाविक है। लेकिन सोशल नेटवर्किंग और मीडिया ने इसे हमदर्दी के नाम पर ज्यों बरगलाया । मुझे रघुवीर सहाय की ' कैमरे में बंद अपाहिज ' कविता याद दिला गई । आत्महत्या से तथाकथित हत्या तक के पूरे सफ़र में, ( ये सफर किस परिणति पर पहुंचेगा । पता नहीं । ) जो अब तक पाया । वह है । संबंधों का अस्तित्व संकट, व्यक्तित्व का अवमूल्यन, वैज्ञानिक दृष्टिबोध का अकाल, नैतिकता का अपसरण, सामाजीकरण की विफलता, बाजारवाद का बढ़ता वर्चस्व, मशीनीकरण से उपजा हीनता बोध, मीडिया का विचलन, लोकतंत्र पर हावी होता प्रभु वर्ग, संवेदनाओं की मार्केटिंग, कॉरपोरेट कल्चर में खोता युवा जोश, बाज़ार से प्रभावित जीवन शैली, अस्मिता से दिग्भ्रमित अस्तित्व बोध और भी बहुत कुछ । अब सवाल यह है कि मौजूदा परिप्रेक्ष्यों के आधार पर समाजशास्त्र इतनी बड़ी जिम्मेदारी नहीं वहन कर सकता । उसे अनिवार्यत: विज्ञान के उस वृहद क्षेत्र को भी साझा करना होगा । जिसकी भूमिका पर अब तेजी से विचार किया जा रहा है । भवितव्य की दर्शित बानगियां भले ही पूरा सच न भी हो तब भी भविष्य का मानव केवल “ सामाजिक संबंधों के जाल “ रूप में नहीं समझा जा सकता । कोरोना काल ने जिस तेजी से मशीनीकरण को रफ़्तार दी है । वह इसका एक संकेत है । अब बात है साहित्य की । अगर हमें अपने जैविक अस्तित्व को बचाए रखना है – जैसा इस विषय पर बनी बहुत सी फिल्मों का समापन भी है; तब यह जरूरी हो जाता है कि हम कम से कम उस संवेदनात्मक धरातल को अपने में जिंदा रखे । जिसे विज्ञान “ सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट “ और हज़ारी प्रसाद जी “ जिजीविषा की अथक परम्परा “ मानते हैं । यहीं से शुरू होती है साहित्य की प्रस्तावित भूमिका । दरअसल समाज और विज्ञान को हमनें बांटा । अपनी सुविधा के लिए । जैसे कोरोना के सच को बांट के देख रहे हैं । आदत है हमारी । लेकिन मशीन श्रेणी या वर्गीकरण नहीं देखती । ऐसी एकात्म दृष्टि हमें बनानी है । इसके लिए “ जन- विज्ञान “ एक बेहतर विकल्प बनता है । यद्यपि ‘ लोक- विज्ञान ‘ माने ‘ इथनोसाइंस ‘ एक अनुशासन के रूप में अवस्थित है । उसमें संभावनाएं थी । लेकिन उसे भी सायास ‘ एंथ्रोपोलॉजी ‘ के इर्द – गिर्द की अकादमिकता में कस दिया गया । दरअसल चूंकि ‘ ऐथनो ‘ शब्द अपनी ऐतिहासिकता में ‘ कल्चर ‘ से संसक्ति रखता है । एतद यहां विज्ञान का परिसीमन ‘ नेटिव साइंस ‘ के रूप में कर दिया गया । इस ‘ अकादमीय पूर्वाग्रह ‘ का पहले संकेत कर आए हैं । और इस पर पूर्व में भी सवाल उठाए गए हैं । वस्तुतः ‘ जन – विज्ञान ‘ को हम उस बिंदु से विकसित कर सकते हैं । जहां पर ‘इथनोसाइंस ‘ बरबस रोक दिया गया । यदि मिशेल फॉकऑल्ट के शब्द लें तो इसे ‘ चिंतन की प्रणाली ‘ कह सकते हैं ।
संदर्भ:
*****
अभिजीत मोहन, सहायक प्राध्यापक – हिन्दी, राजकीय कला महाविद्यालय, उमरगोट जि . सूरत