दस द्वारे का पींजरा’ समकालीन महिला कथाकार एवं सशक्त स्त्री विमर्शकार अनामिका का प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास एक साथ कई विषय और समस्याएँ लेकर सामने आता है। ‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास पर नामवसिंह का एक सार्थक बयान देख सकते हैं- “अनामिका के नए उपन्यास ‘दस द्वारे का पींजरा’ में जो चीज सबसे पहले प्रभावित करती है, वह है इसका ढांचा। उपन्यास तो अच्छे लिखे जाते हैं, मगर बहुत कम लोग इसके साचे और ढांचे को बदल पाते हैं। अनामिका ने बदला है। यह सीधे-सीधे धारावाहिक आख्यान कहता हुआ उपन्यास नहीं है, बल्कि एक कथा कोलाज है। इसमें कई लोगों के मुख से कहानी कहलाई गई है। इसके दो हिस्से हैं और दोनों को आपस में जोडने का सूत्र है स्त्री-मुक्ति।“[1]
‘दस द्वारे का पीजरा’ उपन्यास का मुख्य विषय स्त्री मुक्ति है। यह उपन्यास स्त्री मुक्ति से लेकर देश मुक्ति तक का सफर तय करता है। भारतीय समाज में प्रायः लिंग, जाति, विशेष व्यवसाय के कारण जो लोग उपेक्षित रहे हैं, उनके कार्य और योगदान को इस उपन्यास में प्रकाशित किया गया है। यह उपन्यास भारतीय समाज के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक चरित्रो को उजागर करता है, जो प्राय अपने महत्वपूर्ण, अमूल्य योगदान के बाद भी लोक से प्रायः उपेक्षित और विस्मृत रहे हैं। अनामिका ऐसे ही महत्वपूर्ण पात्रों को इतिहास के अँधेरे गर्भ से निकाल कर प्रकाश में लाती हैं। ऐसे पात्रों में सबसे महत्वपूर्ण पंडिता रमाबाई का चरित्र है जिसके जीवन के आस-पास ही पूरा उपन्यास बुना गया है। इस उपन्यास का दूसरा महत्वपूर्ण चरित्र ढेलाबाई का है जिसकी समाज में छवि एक उपेक्षित स्त्री के रूप में रही है, कारण की वह वेश्यावृत्ति के माध्यम से अपना जीवन यापन करती थी, साथ मे सामाजिक कार्य भी करती थी, किन्तुं उसके कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं किया जासका जिसके कारण ढेलाबाई का चरित्र महत्वपूर्ण होते हुए भी लोक के नजरों में धुँधला हो जाता है जिसकी लेखिका पुनःस्थापना करती हैं। ये दोनों स्त्री चरित्र उपन्यास के सशक्त एवं संघर्षरत चरित हैं। इन दोनों का चरित्र बडा जुझारू है जो सारे रूढिवादी, ब्राह्मणवादी बंधन तोड कर स्त्री के लिए समाज में एक जगह बनाती हैं। वे स्त्री शिक्षा, स्त्री अधिकार स्त्री अस्मिता आदि मुद्दों को उठा कर स्त्री को मुख्य धारा मे लाने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।
‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास दो हिस्सों मे बंटा है जिसके पहले हिस्से में पंडित रमाबाई के माध्यम से स्त्री संघर्ष का चित्रन है। रमाबाई एक महत्वपूर्ण समाज सेविका रही हैं जिस पर पहले ही हिन्दी अंग्रेजी आदि भाषाओं में काफी कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन वह काफी बिखरा हुआ है। अनामिका पहली बार इस उपन्यास में पंडिता रमाबाई के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को बहुत सर्जनात्मक ढंग से कथा में विरोया है। अनामिका हिन्दी भाषी प्रदेश बिहार पूर्वांचल क्षेत्र से संबंध रखती हैं जहाँ ढेलाबाई एक अपरिचित चरित्र है। इस चरित्र को उठाकर अनामिका ने एक बहुत वडी बात उपन्यास के माध्यम से कहने कि कोशिश की है। हिन्दी क्षेत्र खासकर पूर्वांचल, बिहार में हमें कोई इस तरह का जुझारु चरित्र कही देखने को नहीं मिलता प्राय. ढेलाबाई के योगदान,कार्य से पूर्वांचल के लोग भी अपरिचित थे,किन्तु इस उपन्यास के माध्यम से अनामिका ढेलाबाई के चरित्र को लोक के समक्ष प्रस्तुत करके एक महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।
‘दस द्वारे का पींजरा’ में प्रमुख स्त्री चरित्रों के दो सहयोगी पुरुष चरित्र भी हमारे सामने आते हैं जो प्रायः ऐतिहासिक ही हैं जिनका समाज और राष्ट्रहित में महत्वपूर्ण योगदान रहा है ये पुरुषवादी मानसिकता से दो-दो हाथ करते नजर आते हैं और पुराने पुरुष छवि को बदल कर एक नये पुरुष के रूप में सामने आते हैं इन दोनो चरित्र निर्माण में अनामिका ने काफी सजगता और सावधानी बरती हैं। इनमें पहले महत्वपूर्ण पुरुष चरित्र हैं- महेन्द्र मिश्र जो भोजपुरी भाषी, बिहार और पूर्वांचल, उत्तर-प्रदेश के क्षेत्रें में लोकगायक के रूप में प्रसिद्ध है। प्रायः इनको सब महेंदर मिसिर के नाम से जानते हैं। इनके चरित्र के कुछ ऐसे महत्वपूर्ण पहलू उपन्यास में उभर कर समाने आते हैं, ‘जिनसे प्राय’: लोक अपरिचित था। उनका यह रूप लोक के सामने आने से रह गया था और साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन में जो सक्रीय भूमिका निभाते हैं वह भी पक्ष रह गया था जिसे उपन्यास में दर्शाया गया है। इस उपन्यास में एक और भी पुरुष चरित्र हैं जिसके माध्यम से लेखिका महेन्द्र मिश्र की कथा कहलाई जाती है और वे भी बिहार के ऐतिहासिक चरित्र हैजिन्हें लोहासिंह के नाम से जाना जाता है जिन पर एक समय बिहार के आकाशवाणी पटना केन्द्र से कार्यक्रम प्रसारित होता था और लोगों के द्वारा पसंद भी किया जाता था। महेद्र मिश्र की सारी कथा बाबा लोहासिंह के मुँख से ही लेखिका कहलवाती हैं जिनके केन्द्र में बिहार के कुछ मुख्य स्थान चंपारन, छपरा और मुजफ्फरपुर है। इन स्थानों से सारी कथा जोड दी गई है। इन क्षेत्रों की प्रमुख समस्याओं की चर्चा करती है, जिनमें सबसे बडी समस्यां स्त्री मुक्ति का है।
‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास की शुरूआत लेखिका के साथ पढने वाली मुस्लिम लडकी मासूमा‘नाज’ एक ऐसे समाज से संबंध रखती है जो प्रायः हमारे सभ्य समाज द्वारा उपेक्षित रहता है। जिसे हेय की दृष्टि से देखा जाता है। मासूमा‘नाज’ तमाम समस्याओं, उपेक्षाओं, फब्तियों के बाद भी पढने आती है पर वह किसी से बात नही करती, खामोश रहती है। उसकी तकलीफ उसे अंदर ही अंदर सालता रहता है। वह भक् से ! किसी के सामने खुलती नहीं। इस लिए उसके बारे में तरह-तरह की बातेहोती हैं। लेकिन लेखिका उसकी खामोशी को सामान्य अर्थ में नहीं लेते हुए उसकी ओर आकर्षित होती है, किंतु बिज्जत के डर से उससे बात करने की हिम्मत नहीं होती और वह अंततः बात नहीं कर पाती। पर उसकी खामोशी का राज जिस दिन लेखिका के सामने आता है लेखिका सिहरसी जाती हैं। लेखिका एक दिन घूमते-घामते ‘मासूमा’के मुहल्ले में पहुँच जाती हैं और ‘मासूमा’का रहस्य खुल कर उनके सामने आजाता है। “कभी इधर कभी उधर हम सिर घुमा रहे थे पर एक जगह आकर आँखे ऐसी थमी कि मुँह खुला का खुला रहा गया। मेरे सामने इतने जगर-मगर कपडों में घुटनों तक घुंघरू बाँधे, पान खाएँ कौन खडा था भला ? मासूमा ?सच-मुच वह मासूमा ही तों थी और वही, उस क्षण उसकी भी आँखे मेरी आँखों से आ टकराई। आज इतने बरस बाद भी उन आँखों की दहशत मुझे ऊपर से नीचे तक दहला जाती हैं- पूरी रक्तार में नाचते पंखे से टकराकर गौरैया जैसे कट गिरती है, कुछ उसकी आँखों में कडकडाया और एकदम से कट गिरा।“ [2]
इस हादसे के बाद मासूमा स्कूल आना छोड देती है और लेखिका इसी पश्चाताप को मासूमा के माध्यम से मासूमा जैसी कई स्त्री चरित्रों की समस्याओं को उजाकर करती हैं। खास कर जो वेश्याएं है उनके जीवन की विडंबना को केन्द्र में रखकर उनकी मुक्ति के उपाय भी खोजती नजर आती हैं।
इस उपन्यास में लेखिका की संवेदना प्रायः सेर्क्स वर्कस लेकर को काफी समुन्नत है जिसकी पुष्टि इस कथन से हो जाती हैं--- “भारती रेल के डिब्बों सी है ये सेक्स वर्कर्स-तरह-तरह की भाषिक अस्मिताएं इनमें घुली हैं। सादा कपडों में (पुलिस की वर्दी उतारकर) उनसे और तकलीफों से रु-ब-रु होना एक ऐसा अनुभव है जो जिन्दगी में कभी आदमी को चैन से नहीं सोने दे। बिहार-बंगाल और नेपाल में दारिद्रय और लावण्य दोनों ज्यादा हैं इस लिए वहां की लडकियाँ की तो भरमार है।“[3]
उपर्युक्त वाक्यों में सेक्स वर्कर्स स्त्रियों के जीवन की त्रासदी, उनके तकलीफ, समस्या आदि को बडी बारीकी से दर्शाया गया है यह कथन दिल्ली. जी. बी. रोड के सेक्स वर्कर्स की करूण कथा को प्रकाशित करता है। समाज में फैली इन बुराईयों के प्रति और इनमें पडी स्त्रियों के प्रति लेखिका बडी संजीदा है। वे ऐसी स्त्रियों के प्रति उपेक्षा नहीं बल्कि एक सम्मान जनक दृष्टि पैदा करने कि कोशिश करती हैं और यह सवाल भी खडा करती है कि “क्या मेरी मासूमा भी उनमे एक होगी “[4]
हमारे समाज में घृणा, उपेक्षा और अशिक्षा के कारण न चाहते हुए भी न जाने कितनी मासूमा सेक्स वर्कर्स की जिंदगी घुट-घुट कर जीति है। ऐसी ही मासूमाओं के संघर्ष को सामने लाते हुए लेखिका उनकी मुक्ति की कामना करती हैं और साथ में वह सार्थक उपाय भी सुझाती है कि “शिक्षा ही इस दलदल से निकलने का एक मात्र उपाय है- अस्मिता के विकास की एक मात्र गारंटी !”[5]
‘दस द्वारे का पीजरा’ उपन्यास की कथा ‘मासूमा नाज’ के स्मृति से शूरू होकर आगे चल कर कई महत्वपूर्ण चरित्रो को अपने में समाहित कर लेती है और ‘मासूमानाज’ की लडाई खुद-ब-खुद व्यापक रूप धारण कर लेती है जिसमें समस्त पीडित स्त्री समुदाय समाहित हो जाता है। इन्ही महत्वपूर्ण चरित्र में पंडित रमाबाई और ढेलाबाई आती हैं जो स्त्री मुक्ति को व्यापक आयाम देती हैं। यहीं दो चरित पूरे उपन्यास का प्रतिनिधित्व करते हुए लेखिका के संवेदनात्मक लक्ष्य तक पहुँचाने में मदद करते हैं। यह दोनों चरित्र लीक से हट कर नया कुछ करने कि मुहिम में लगे रहते हैं। अनामिका ने जिस तरह से पंडिता रमाबाई का चरित्र गढा है वह काफी संघर्षी, कर्मठी जुझारू और विद्रोही के रूप मे सामने आता है। भारतीय समाज में स्त्रियों के प्रति तमाम प्रकार की वर्जनाओं का प्रतिकार करती हुई नई सोच विकसित करने कि कोशिश भी करती हैं। पंडिता रमाबाई का चरित स्त्रियों संबंधित तमाम ओछी सोचों से लडता हुआ अपना अलग जगह बनाता है। उस समय भारत में कोई स्त्री पुरुष के प्रतिपक्ष खडी नहीं हो सकती थी। ऐसे समय में रमाबाई के पिता अनंतशास्त्री न केवल उन्हें शिक्षा देते हैं बल्कि उन्हें समाज के समाने प्रस्तुत भी करते हैं। इसके परिणाम स्वरूप उन्हें पंडाओं द्वारा गांव से निष्कासित कर दिया जाता है। “आंध्र का गंगामूल आश्रम जिसे बडी मुश्किलों से रमाबाई के पिता ने पौराणिक अध्ययन केन्द्र के रूप मे विकसित किया है। इन्हे महाराष्ट्र के अपने ब्राह्मण-समाज के जाति-बहिष्कृत किया गया। अपराध ? यही कि वे पत्नी और पुत्रियों को भी शास्त्र पढाते-सुबह-शाम उससे तरह-तरह के गूढ विषय पर विचार-विमर्श करते देखे गए ! चौका- चूल्हा भूलकर स्त्रियां ज्ञान-विज्ञान में रस लेने लगी तो सारी दिन चर्चा बिगड जायेगी।“[6]
प्रस्तुत उपन्यास में एक विशेष स्थान है जहाँ से सारी लडाई लडी जाती है। वह है- जोगिनिया कोठी। सारी कथा इसी स्थान को केन्द्र में रखकर बुनी गयी है। जोगिनिया कोठी को लेखिका एक नई पहचान देती हुई उसे मुक्ति आश्रम के रूप में प्रस्तुत करती हैं। यह पूरा उपन्यास स्त्री संघर्ष, साहस, समस्यां को लेकर सामने आता है और साथ ही समाधान भी प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास का मुख्य उद्देश्य भी स्त्री संघर्ष और स्त्री अधिकार की प्राप्ति है।
लेखिका उपन्यास में एक मिथक के माध्यम से स्त्री के प्रति पुरुषों की शंकाभरी नजरिए और उससे होने वाली अव्यवस्था को भी दर्शाती हैं जिसमें स्त्री हाशिए पर रखी जाती है और स्त्री कितनी भी समर्पित हो जाए किन्तु उसे पुरुष प्रधान मानसिकता के लोक संदेह की नजर से ही देखते हैं स्त्री जीवन की यह भी एक बहुत बडी त्रासदी है। स्त्री पर आएंगएं दिन तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप अनावश्यक गढ दिएँ जाते हैं औऱ उसे घर, समाज, राष्ट्र, जीवन से बहिष्कृत कर देते हैं। “मुझको तो पहले से ही शक था तुम्हारे चाल-चलन पर, मुझ जैसे अग्निवर्ण, गोरे, दप-दप व्यक्ति को शनिदेव-जैसा साँवला बेटा हुआ कहाँ से ! अब शायद तुम अपने किसी सांवले- सवोने प्रिय के पास जाती हो तो जाओं तुम्हे रोकता कौन है।“[7]
सामान्यतः देखा जाता है कि हमारे यहां स्त्री पर इस तरह से आरोप-प्रत्यारोपगढ कर पुरुष तुरंत उसे घर सेनिकल जाने कि धमकी दे डालता है। हमेशा से स्त्री पर शक करना, उसे गाली देना, मारना पीटना, घर से निकाल देना पुरुषों की प्रवृत्ति बन गई है, जिस पर लेखिका तीखा व्यंग्य करती हैं। अनामिका जी पुरुषों की मानसिकता को बडी बारीकी से पकडती हैं और करारा कटाक्ष भी करती हैं। कि- “सद् पुरुषों की समस्याँ यही है कि हर सद्पुरुष अपनी स्त्री का भगवान ही बननाचाहता है- निरपेक्ष भाग्य विधाता ! और औरत का भी मुख्य दोष ये ही है ! खुद अपना दीपक होने के बदले वे चाँद हो जाना चाहती हैं ! आयातित प्रकाश में उष्मा कहाँ ?”[8] अनामिका पुरुषों की भगवान वाली छवि ढहाती हुई स्त्रियों की पराश्रित मनोवृत्ति को भी खरी-खोटी सुनाने से नहीं चुकती हैं।
अनामिका ‘दस द्वारे का पींजरा’ उपन्यास के माध्यम से स्त्री संबंधित ज्वलन्त प्रश्नों को उठाती हैंऔर स्त्री के लिए एक सार्थक और महत्वपूर्ण जमीन बनाती हैं।
उपन्यास की भाषा खिचडी भाषा है जिसमे संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, भोजपुरी, बंग्ला और उर्दू के भी शब्द देखने को मिलता है जो उपन्यास के सम्प्रेषणीयता में कहीं सहायक तो कहीं वाधक भी सिद्ध होता है। इसके साथ अनामिका की कथन शैली बडी ही नाटकीय और प्रभावशाली है यह उपन्यास पाठक को बहुत हदतक बांधता भी है। इस परनामवर सिंह की एक टिप्पणी उल्लेखनीय है- "कहां जा सकता है कि इस उपन्यास में स्त्री मुक्ति के कई नएं आयाम खुलते हैं। निस्संदेह यह चालू स्त्री विमर्श पर लिखे जाने वाले उपन्यासों और कहानियों से अलग पहचान बनाने वाला उपन्यास है। मेरी नजर में इधर के दो-तीन महत्वपूर्ण उपन्यासो में इसका नाम लिखा जा सकता है|” [9]
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