समकालीनता ‘समकालीन’ शब्द से उभरा है, जिसका सीधा अर्थ समय से संबंधित या समय के साथ रहना है। समकालीन समय का अर्थ तत्कालीन काल से लिया जा सकता है। इसको पाश्चात्य समीक्षकों ने कंटेम्पोरेरी शब्द से संबोधित किया है। इनके अनुसार समकालीनता का अर्थ समान समय, समान युग या समान अवधी से है। यह कभी न खंडित होने वाली प्रक्रिया है, यह हर काल में निरंतर चलती रहती है। ये अपने अंदर नई-नई अवधारणाओं, सिद्धांतों, विमर्शों को ग्रहण करने की क्षमता रखती है। समकालीनता एक काल प्रवाह की तरह है जो अपने समय का वहन करती है। इसे किसी अवधारणा या सिद्धांत के साथ जोड़ना व्यर्थ है। यह वर्तमान को अतीत और भविष्य के साथ जोड़कर गतिशीलता के साथ समय को समग्रता से देखती है।
समकालीनता को निश्चित रूप से परिभाषित करना एक कठिन कार्य है। फिर भी समीक्षक और विद्वानों ने अपने-अपने विचारों, मान्यताओं और मतों के बल पर इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। समकालीनता को कुछ आलोचकों ने काल सापेक्ष माना है। इस संदर्भ में सुरेशचन्द्र कहते हैं, “स्वरूपता: समकालीनता काल सापेक्ष है। इसीलिए समकालीनता को काल की सीमाओं में रहते हुए परिभाषित किया जा सकता है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से मानव मूल्य और सामाजिक मान्यताओं में परिवर्तन ला देने वाली घटनाओं से विलगित कालावधी विशेष के अंतर्गत या प्रत्ययों को उस अवधी की सीमा में आने वाले अन्य प्रत्ययों को समकालीन कहा जाता है।”[1] उसी प्रकार डॉ. नरेंद्र मोहन इसके संदर्भ में लिखते हैं, “समकालीनता का अर्थ किसी कालखंड या दौर में व्याप्त स्थितियों या समस्याओं का चित्रण भर नहीं है, बल्कि उन्हें ऐतिहासिक अर्थ में समझना, उनके मूल स्रोत तक पहुँचना और निर्णय ले सकने का विवेक अर्जित करना है, समकालीनता तात्कालिकता नहीं है।”[2] अजय तिवारी ने समकालीनता को यथार्थ के साथ जोड़ने का प्रयास किया है। वे कहते हैं, “समकालीनता का अर्थ है जिस दौर में सृजन हो रहा है, इस दौर की मुख्य समस्या से सरोकार। सौंदर्य और भाव संबंधी वृत्तियाँ, बहुत-से शाश्वत लगने वाले प्रश्न उसी समस्या से संदर्भित होते हैं। इसलिए हर युग ‘पुनर्विचार’ करता है। एक ही प्रश्न पर हर युग का उत्तर नया होता है। वह ‘नया’ बनता है, हर दौर की अपनी समस्या की छाप लेकर, उससे संदर्भित होकर; इसलिए समकालीनता की पहचान यथार्थवाद से होती है।”[3] इस प्रकार विभिन्न आलोचकों और विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं और मान्यताओं से स्पष्ट है कि समकालीनता प्रवाह के साथ जुड़ता तत्व है, जो समय, समाज, परिस्थितियों और मनुष्य की समस्याओं के साथ अभिव्यक्त होता रहता है।
साहित्य का प्रमुख उद्देश्य मनुष्य जीवन की सामाजिक समस्याओं को दूर कर उसके जीवन को रम्य और सुखमय बनाना है। इसलिए समकालीन समय, समाज और विभिन्न परिस्थितियों में जो साहित्यकार समाज और मनुष्य जीवन के शोषक तत्वों के विरुद्ध खड़ा होकर साहित्य सृजन करता है, वही समकालीन साहित्यकार कहा जाता है। डॉ. आनंदप्रकाश दीक्षित कहते हैं “वर्त्तमान के संदर्भ में ही अपनी उपयोगिता पुनः प्रमाणित करनी होती है। वर्त्तमान ही है, जो उसे अपने आसंग में नवीन अर्थवत्ता प्रदान करता है। समकालीनता ऐसी स्थिति में केवल तत्कालीन प्रक्रिया के रूप में ग्रहीत होकर नहीं रहती, बल्कि रचना में वह एक दृष्टि की सृष्टि करती है, जिसके फलस्वरूप रचना कालजीत और कालजयी बनकर जीती रहती है क्योंकि उसमें स्वयं अतीत बन जाने पर भी परंपरा का बल समाहित हो जाता है और उसे भविष्य की संभावना से स्पंदित करता रहता है।”[4] इनके कथन से स्पष्ट है कि समकालीन साहित्य वह है जो समय के साथ चलता है।
समकालीन नाटककारों में मोहन राकेश का स्थान सर्वप्रथम आता है। जिन्होंने ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ आदि नाटकों द्वारा समकालीन समय को नया मोड़ दिया। अपने नाटक ‘आधे-अधूरे’ में उन्होंने स्त्री के पारिवारिक और सामाजिक रिश्तो से नए मानवीय प्रश्नों को सामने रखा। इस नाटक के संदर्भ में डॉ. शिवकुमार शर्मा लिखते हैं “आधे-अधूरे हिंदी नाट्य साहित्य में एक अद्भुत सफल प्रयोग है। कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से इसकी कलात्मकता प्रशस्य है। संवादों में अद्भुत संयम है। इसकी भाषा यथार्थानुप्राणित एवं जनजीवन के अतीव निकट है। नाटक के कलेवर में सिनेमा पद्धति पर अंतराल की विद्यमानता, एक ही पात्र का विभिन्न भूमिकाओं को निभाना, रंगोंचित परिप्रेक्ष्य, आद्यान्त तनावपूर्णता, आधुनिक बोध की विशिष्टता तथा रंगमंचीय अर्हता इस नाटक की अनुपम विशेषताएँ हैं।”[5] इस कथन से ज्ञात होता है कि मोहन राकेश का यह नाटक सामाजिकता और रंगमंच पर खड़ा उतरता है। जो समसामयिक संदर्भों से जुड़ता है। “मोहन राकेश, बी. एम. शाह, ज्ञानदेव अग्निहोत्री, सुरेन्द्र वर्मा और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटकों में समसामयिक जीवन और समाज का यथार्थ का चित्रण है। इनमें रूपबंध है और आधुनिकता को रूपायित किया गया है”[6] मोहन राकेश के बाद डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने अपने नाटकों में स्त्री-पुरुष संबंधों को गहराई से प्रस्तुत करने की कोशिश की है ‘रातरानी’, ‘नाटक तोता मैना’, ‘सूर्यमुख’, ‘कर्फ्यू’ और ‘व्यक्तिगत’ इनके इसी विषय को लेकर चलने वाले नाटक है।
समकालीन समय में मूल्य विघटन और टूटते संबंधों को एक विशेषता के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जिस कारण समकालीन नाटककारों ने अपने नाटकों की विषय वस्तु को व्यक्त करने के लिए जीवन तथा स्त्री-पुरुष संबंधों को अपने नाटकों के विषय वस्तु के रूप में रखा। मोहन राकेश के ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’, डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल के ‘व्यक्तिगत’, ‘दर्पण’, ‘शगुन पंछी’, ‘कर्फ्यू’, ‘सूर्यमुख’, ‘अब्दुल्ला दीवाना’, रमेश बक्षी के ‘देवयानी का कहना है’, ‘वामाचार’, इंद्रजीत भाटिया का ‘अपनी-अपनी मुखिया’ सुशील कुमार सिंह का ‘चार यारों की यार’ आदि नाटकों में नाटककारों ने समकालीन समय के स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम विवाह और उनके परिवर्तित संबंधों को दर्शाया है। इसी समय में सुरेन्द्र वर्मा ने स्त्री-पुरुष को नाटक के विषय बनाकर ‘द्रोपदी’, ‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’, ‘सेतुबंध’ आदि नाटकों में स्त्री-पुरुष के संबंधों पर कलम चलाई। उन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों को मनोविश्लेषणवादी रूप में प्रस्तुत किया है। सुरेन्द्र वर्मा के संदर्भ में गोविंद चातक कहते हैं कि “मोहन राकेश के बाद एक नया नाम जो तेजी से उभर कर आया वह सुरेन्द्र वर्मा का है। वस्तुतः सुरेन्द्र वर्मा अपने कथ्य, शिल्प, भाषिक प्रयोग और संवादनीय संरचना में कई स्तरों पर राकेश की वापसी की याद दिलाते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि उन्हीं की मुख्य प्रवृत्तियों को लेकर वे हिंदी नाटक को एक भिन्न स्तर पर अग्रसर करने में सहायक होते हैं।”[7] इस विषय के परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भीष्म साहनी ने ‘माधवी’, नंदकिशोर आचार्य ने ‘देहांतर’, शंकर शेष ने ‘गांधार’, नरेंद्र कोहली ने ‘प्रतिद्वंदी’ आदि नाटक प्रमुख रूप में लिखे।
समकालीन समय में स्त्री-पुरुष संबंध, बदलते मूल्य, टूटते रिश्तों के साथ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था में शोषित और पीड़ित सामान्य जन का चित्रण किया गया है। जिसमें प्रमुख रूप से ‘कलंकी’, ‘रक्त कमल’, ‘नरसिंह’, ‘पंच पुरुष’, ‘यक्ष प्रश्न’, ‘राम की लड़ाई’, ‘उत्तर युद्ध’ आदि समाविष्ट हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए समकालीन समय में जगदीश चंद्र माथुर का ‘पहला राजा’, ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ‘शुतुरमुर्ग’, शंकर शेष का ‘फंदी’, ‘पोस्टर’, ‘एक और द्रोणाचार्य’ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’, ‘लड़ाई’, सुनील कुमार सिंह का ‘सिहासन खाली है’, ‘नागपाश’ गोविंद चातक का ‘काला मुँह’, दयाप्रकाश सिन्हा का ‘कथा एक कंस की’, बृजमोहन शाह का ‘त्रिशंकु’, ‘शह ये मात’ भीष्म साहनी का ‘हानुश’, ‘कबीरा खड़ा बाजार में’, मणि मधुकर का ‘रस गंधर्व’ ‘एक तारे की आँख’, शरद जोशी का ‘एक था गधा’, ‘अंधों का हाथी’, हमीदुल्ला का ‘दरिंदे’, ‘उलझी आकृतियाँ’, मुद्राराक्षस का ‘योर्स फेथफुली’, नरेंद्र मोहन का ‘कहे कबीर सुनो भाई साधो’, मन्नू भंडारी का ‘महाभोज’, डॉ. विनय का ‘पहला विद्रोही’, ‘एक प्रश्न मृत्यु’, कुसुम कुमार ‘दिल्ली ऊंचा सुनती है’, ‘रावणलीला’, नरेंद्र कोहली का ‘शंबूक की हत्या’, सुदर्शन मजीठिया का ‘चौराहा’, इंद्रजीत भाटिया का ‘अग्निखंड’, गिरिराज किशोर का ‘प्रजा ही रहने दो’, ‘घास और घोड़ा’, ‘नरमेध’, सुदर्शन चोपड़ा का ‘काला पहाड़’, असगर वजाहत का ‘वीरगति’ आदि प्रमुख है। ये सभी नाटक समाज, राजनीति एवं उनके जुड़े लगभग सभी क्षेत्रों में फैले अमानवीय क्रूर तथा भ्रष्ट चेहरों को प्रस्तुत करते हैं।
नाटक विधा बहुआयामी व्यक्तित्व को दर्शाती है। नाटककार अपने युग में अपनी कृति द्वारा बहुत कुछ कह देता है, यह पंक्ति समकालीन नाटककारों के संबंध में उचित सिद्ध होता है। प्रसादोत्तर युग के बाद हिंदी नाटक क्षेत्र में जीवन की वैयक्तिक समस्याओं के साथ सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा स्त्री-पुरुष को एक संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए नाटकों का आयोजन हुआ। समकालीन हिंदी नाटककार अपने युग में नए विषयों के साथ समाज के सामने बहुत कुछ रखते हैं। समकालीन नाटकों को नए स्वरूप और परिवर्तन के रूप में देखा गया है जिसके संदर्भ में जयदेव तनेजा का यह कथन सटीक बैठता है, वे कहते हैं “वास्तव में मानव संबंधों को गहराई से विश्लेषित करने वाले तथा जीवन के गंभीर एवं बुनियादी प्रश्नों से सीधा साक्षात्कार कराने वाले नए हिंदी नाटक की व्यापक रचना और प्रतिष्ठा सन् 1960 के आसपास ही शुरू होती है।”[8] नाटक हमेशा मनुष्य के निकट रहता है। वह घटनाओं के माध्यम से सूक्ष्म संवेदनाओं को मनुष्य के आंतरिक मन से बाहर निकालकर उसकी मानसिकता को यथार्थ के साथ प्रस्तुत करता है। समकालीन नाटकों में परिवर्तन के चरण बदलती सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों के कारण दिखाई देते हैं। इन परिस्थितियों में समकालीन समय में आए बदलाव से समाज के गढ़े गए रूढ़ मूल्यों को तोड़ने का प्रयास किया गया है और मनुष्य को नए रूपों में, नए विचारों के साथ प्रस्तुत किया गया है।
समाज की उपज साहित्य है। साहित्य की सबसे बड़ी प्रासंगिकता सामाजिक होने में और समाज को अपने में जोड़ने में है। तभी साहित्य व्यापक फलक पर कारगर हो सकेगा। और यह कार्य साहित्यकार करते हैं। समाज में जो प्रतिबद्ध लेखक होते हैं वह टूटते हुए परिवेश, पराजित होते हुए उत्पीड़ित एवं असहाय जन को अपने पैरों पर खड़े होने के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। “रचनाकार की प्रतिबद्धता दुहरी होती है। एक स्तर पर वह अपने प्रति प्रतिबद्ध होता है, अर्थात अपने अनुभव, अपने विवेक और अपनी रचना के प्रति। दूसरे स्तर पर वह उस समय, परिवेश या जीवन के प्रति प्रतिबद्ध होता है जिसके बीच सांस ले रहा होता है।”[9] आधुनिक बोध हमारे भाव, विचार, अभिव्यक्ति, साहित्यिक सोच और जीवन में नयेपन का बोध लिए हुए है। यह नयापन साहित्य के सभी विधाओं के विषय रूप में दिखाई दे रहा है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में साहित्य के क्षेत्र में विशेषकर नाटक के क्षेत्र में जो परिवर्तन हुआ है और जिन जीवन मूल्य एवं जीवन आदर्शों की प्रतिष्ठा हुई वह अपने आप में नया है। समकालीनता उसी के प्रतिबिंब रूप में दिखाई देती है। समकालीन नाटककार के नाटकों की विषय वस्तु अपने आप में समकालीन समय, समाज और उनकी समस्याओं को दर्शा रही है। पारंपरिक साहित्य की तुलना में समकालीन साहित्य भाव, विचार एवं संवेदना के स्तर पर एकदम भिन्न है। श्रव्य-दृश्य क्षमता के कारण नाटक व्यापकता को लिए हुए है। यह समाज की वास्तविकताओं से अधिक नजदीक है। इसी कारण नाटक का असर समाज पर अधिक होता है। समकालीन समय के नाटकों का कथ्य, शिल्प और विषय सभी नए हैं, जैसे ‘अंधायुग’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘आधे-अधूरे’, ‘मादा कैक्टस’ आदि। इस समय के नाटककारों ने ऐतिहासिक, पौराणिक और सामाजिक कथा को आधार बनाते हुए आधुनिक समय की समस्याओं को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। उन्होंने बड़ी चतुराई से ऐतिहासिक घटनाओं को आधुनिक घटनाओं से जोड़ते हुए सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक आडंबरों पर प्रहार किया है। कोई भी नाटककार चाहे वह मोहन राकेश हो या असगर वजाहत, मुद्राराक्षस या फिर सुरेन्द्र वर्मा सभी ने आधुनिक समस्याओं को बताने के लिए विभिन्न कथाओं को आधार बनाया है। ऐतिहासिक एवं पौराणिक कथाओं का आधार लेकर स्त्री-पुरुष के संबंध, स्त्री की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, लेखकों की स्थिति आदि को बड़े ही यथार्थ रूप में और सूक्ष्मता से अपने नाटकों में परिलक्षित किया है। जीवन की बदलती हुई स्थिति हमारे परंपरा मान्यताओं एवं मूल्यों को अस्वीकृत कर जीवन जीने के लिए नई जमीन की तलाश कर रही है। इस प्रक्रिया में जो मानवीय मूल्य बन और बिगड़ रहे हैं उसको सामाज और व्यक्ति के सामने लाने का कार्य हमारे समकालीन नाटककार अपने नाटकों के माध्यम से कर रहे हैं।
समकालीन नाटककार अलग-अलग विषयों को लेकर अपने लेखन को आगे बढ़ा रहे हैं। इस काल की कोई एक धारा नहीं है जिस पर सारे नाटक चले, इस कारण नयेपन का इस्तेमाल यहाँ अधिक हुआ है। यह समय जीवन में भटकाव, व्यक्तित्व का विघटन एवं उन्मुक्त यौनाचार की प्रवृत्ति, सामाजिक मूल्यों का ह्रास कर रहा है। जिसे समकालीन नाटकों में जीवन के स्पंदन, जीवन की विविधता, विषमता एवं जीवन मूल्यों की शैली आदि को सूक्ष्मता से कथावस्तु के रूप में रखा गया है। समकालीन नाटक में पहली बार स्त्री-पुरुष संबंध, टूटता दांपत्य संबंध, स्त्रियों के मनोविश्लेषणात्मक विचार, नेताओं की कर्तव्यहीनता, स्वार्थपरता, युवाओं की बेरोजगारी, व्यक्ति का अकेलापन, टूटता परिवार, मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी, पीड़ा एवं घुटन, लक्ष्यहीन जीवन की विवशता, समय की माँग की चपेट में युवा आदि विभिन्न विषयों को उजागर किया गया है। बदलती हुई प्रस्तुति एवं उपरोक्त विषयों के साथ-साथ समकालीन समय में मनोवैज्ञानिक जीवन दर्शन एवं जीवन मूल्यों को कथावस्तु में समाविष्ट कर लिया गया है। जिससे समकालीन हिंदी नाटकों के कथ्य चेतना में नई जागृति दिखाई देती है। समकालीन समय के नाटककार अलग-अलग क्षेत्रों की समस्याओं को उठा कर समाज में फैली कुंठा, तनाव, द्वंद, संघर्ष एवं नैतिक पतन को खत्म करने के पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। सुरेन्द्र वर्मा सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं, स्त्री की मनोदशा, स्त्री-पुरुष संबंध, आज के युवाओं के एकाकीपन को दर्शा रहे हैं और वह उस परिवेश को प्रकाशित करना चाहते हैं जहाँ व्यक्ति तैयार होता है। जहाँ उसके शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों का विकास होता है। वही अन्य नाटककार जैसे असगर वजाहत, मुद्राराक्षस आदि राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं को प्रमुखता से स्थान दे रहे हैं। आधुनिक समय अपने साथ कई सारे नए विचारों को लेकर आया, वहीं कई सारी समस्याओं को भी उजागर करता गया। जिसको समकालीन नाटककारों ने बड़ी की चतुराई और सजग रूप से पाठक एवं समाज के सामने रखा। वे समस्या का समाधान और उससे निकलने के तरीके को नाटक के माध्यम से प्रदर्शित कर रहे हैं।
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