टीप टीप टीप गिर रहे ग्लूकोज के साथ दवाई भी मेरे शरीर में धीरे धीरे उतर रही थी। मेरी आँखें अस्पताल के हर कोने को छोटी-छोटी नजरों से देख रही थी। कानों में बाहर से आने वाली "गणपति बप्पा मोरिया" की आवाज सुनाई दे रही थी! मेरा ध्यान कैलेंडर की ओर गया। आज गणेशचतुर्थी थी। मैं भी अपने मन में गणपति का स्मरण करने लगा। जोर से बोल पाने की हिम्मत और ताकत अब मुझ में रही न थी। करीब, अंतिम पंद्रह दिनों से दुर्बलता और बुखार का सामना करते करते अंत में खून की जाँच में 'हिपेटाइस-बी' नामक बीमारी का पता चला। जिसने मेरी शक्ति और पित्ताशय को लगभग खतम ही कर दिया था। अंतिम पांच-छ दिनों से अक्षय अस्पताल का पूरा स्टाफ मुझे जीवनदान देने के लिए प्रयत्न कर रहा था। कुछ समय पहले ही डॉक्टर सतीश जैन मूंह पर हरा दुपट्टा बांधकर मेरी जांच करने के बाद नर्स और कंपाउंडर को विविध निर्देश देने चले गए। एक दवा की 'बोतल चढ़ रही थी जो पूरी होने की तैयारी में ही थी। वहीं दूसरी बोतल और दवाइयां लेकर कंपाउंडर सलमान 'गणपति बप्पा मोरिया' गुनगुनाता हुआ मेरे पास आया। उसने घुटनों से थोड़ा ऊँचा पायजामा, सफेद कुर्ता और माथे पर मुस्लिम टोपी पहनी हुई थी। उसके गोरे चेहरे पर बढ़ी हुई काली दाढ़ी और आँखों में लगाई हुई काजल उसे और भी सुंदर बना रही थी। उसने धीरे से दवाई की बोतल बदली। मुझे बिलकुल पता नहीं चला। फिर मेरे पास जगह करके बैठा और बोला "इस समय यह बीमारी एकदम सामान्य हो गई है, आप बहुत जल्द ठीक हो जाओगे, साहब अच्छे डॉक्टर हैं, विश्वास रखना और हम तो है ही और बाकी तो खुदा..." वह बोलते बोलते खड़ा होकर चलने लगा। उसकी दी हुई हिम्मत और आश्वासन से मुझे ताकत मिली। मुझे वह खुदा के फरिश्ते जैसा लगा।
मैंने आँखें बंद करके सोने का प्रयत्न किया और यह सलमान के स्मरणों को याद करते-करते मन करीब दस साल पीछे सुलेमान तक पहुँच गया। यह सलमान, वह सुलेमान। आजादीकाल से कहो या बरसो पुरानी हिंदू मुस्लिम एकता को लगे हुए ग्रहण के भागरूप अयोध्या में प्राचीन इमारत के ढाँचे को तोड़ा गया था। पूरे देश और विश्व में हलचल मच गयी। उसमें भी गुजरात में तो हर एक गांव में उसकी आग और असर फैलने लगी। अहमदाबाद जैसे शहर में इस आग ने और भी जोर पकड़ लिया। इंसान इंसान के खून का प्यासा बन गया। छूरेबाजी, खंजरबाजी, आग, 'अगनशीशा' और मारामारी से निर्दोष व्यक्तियों की जान जाने लगी। धीरे-धीरे पूरे शहर में कर्फ्यू लगाया गया और पूरा शहर पुलिस के हवाले हो गया। ईश्वर ने सबसे ज्यादा श्रद्धा और विश्वास मनुष्य जात पर रखी थी किन्तु आज मनुष्य ने ही दूसरे मनुष्य पर से श्रद्धा और विश्वास गुमा दिया था। शहर में पशु पंछी बेफिकर होकर घूमते फिरते थे। मात्र मनुष्य ही थरथर काँप रहा था।
३, पीकॉक अपार्टमेंट, शाहपुर बहाई सेंटर अहमदाबाद यह पता आज मुझे अनजाना-सा लगने लगा। क्योंकि घर और पूरे अपार्टमेंट के लोग एक दूसरे से प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न करते थे। शाहपुर विस्तार लगभग अब मुसलमानों के हाथ मै आ गया था। जैसे तैसे करके भी वहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। अखबार भी पिछले पांच दिनों से आया नहीं था। दूरदर्शन समाचार के रूप में दो-पांच खंजर बाजी, आठ-दस छुरे बाजी और आठ-दस लोगों की मौत के समाचार दिखाने में ही संतोष ले रहा था। प्रथम माले पर ही हमारा फ्लैट था। बाबूजी मुख्य रोड पर पड़ने वाले फ्लैट की गैलरी में दर्जीकाम करते थे। नीचे ही सुलेमान का गराज था। वह खानपुर में रहता था। सुबह से शाम तक गराज में जी जान मेहनत करता था। हमारा उसके साथ एक परिवार जैसा ही रिश्ता था। उसका चाय-नाश्ता और खाना-पीना कभी कभार हमारे घर पर ही होता और बदले में वह भी वैसा ही व्यवहार हमारे साथ रखता था। मेरी बैठक उसी के गराज पर होती थी। छोटे बड़े साधन वह हमें मुक्त में ठीक करके देता था। मुझे तो क्या किसी को भी धोखा देने की वृत्ति उसमें दिखती ही नहीं थी। ऐसे खून के रिश्ते जैसा सुलेमान कुछ समय से थोड़ा बदला बदला सा दिख रहा था। कर्फ्यू में दी जाने वाली एक-दो घंटे की मुक्ति में वह मुसलमानों की टोली लेकर निकलता। उसका काला पायजामा, काला कुर्ता, काला वर्ण और काली दाढ़ी और पान-तम्बाकु खाने से पीले हुए उसके दांत और उसके भारी आवाज के कारण वह साक्षात यमदूत जैसा लगता था।
धीरे-धीरे कर्फ्यू में दी जाने वाली मुक्ति का समय बढ़ने लगा तो लोग अपने रोजबरोज की जरूरी चीजें खरीदने निकल पड़ते। मैं भी सब्जी, दूध आदि लेने निकला। सब लोग हथेली में जान लिए उधेडबुन करते हुए और घबराए हुए दिल से सामान खरीदते थे। अलग-अलग प्रकार की बातें सुनाई देती थी। कोई कहता 'आज की रात भारी है' तो कोई कहता 'आज रात वह लोग हमला करने वाले हैं', 'घर के खिड़की दरवाजे ठीक से बंद करके ताला लगाना और पीछे कोई भारी सामान रखना', 'थाली बजाके एक दूसरे को सावधान रखना' आदि। मैं सामान के साथ लोगों की दी हुई सलाह भी साथ ले आया। मैं घर के पास आया। सुलेमान गराज बंद करके मेरी तरफ घुमा, मैंने उसकी तरफ डरते डरते देखा और हसने का प्रयत्न किया पर वह मेरे सामने बड़ी-बड़ी आँखें निकाल कर तम्बाकु की पिचकारी मार के चला गया। आज का सुलेमान मुझे बाहर से और अंदर से बदला-बदला और डरावना लगा।
धीरे-धीरे मनुष्य के डरावने चेहरे में से मूंह फेरे सूरज ढल गया। चारों तरफ अंधकार का काला साया फैल गया। घर में रसोई बनी किंतु किसी को खाने की इच्छा न हुई। फिर भी पेट के संतोष के खातर जैसे तैसे सबने थोड़ा थोड़ा खाया और घर के दरवाजे और गैलरी की खिड़की-दरवाजे बंद कर दिए। ताला मारने के बाद अलमारी, सिलाई मशीन आदि जैसी भारी वस्तुएं दरवाजे के आगे रखकर 'अब जान में जान आई' ऐसा संतोष लेकर सब सोने का प्रयत्न करने लगे। कर्फ्यू फिर लगाया गया था। बीच-बीच में पुलिस की फ्लैगमार्च के कारण गाड़ियों के आवाज सुनाई देती थीं। मन को थोड़ी तसल्ली मिलती थी। मुझे जरा नींद का झोंका आया कि तुरंत ही बाहर से जोर-जोर से आने वाली आवाजने मुझे जगा दिया, 'मारो... मारो...' 'काट डालो... काट डालो... साले काफिर...' यह आवाज सुलेमान की थी। पीछे ऐसा ही शोर करते और दूसरी आवाजे भी जानी पहचानी सी लग रही थी। हम सब जग कर दोनों दरवाजों के बीच खड़े रहे। बाहर से थालियां बजाने की टन... टन... टन... आवाज आने लगी। हम भी तुरंत थालियां बजाने लगे, दिल की धड़कने धड़क धड़क धड़क होने लगी, सबकी सांसें ही अटक गई थी। तभी गैलरी में जोर से जलता हुआ एक अगनशीशा आ गिरा। हमने खिड़की से देखा तो जलता हुआ अगनशीशा हमें जिंदा जलाने के लिए तत्पर हो चूका था। सिलाई काम के बचे हुए कपड़े के टुकड़े का बोरा जलने लगा और फिर खिड़की दरवाजे तक आग फैलने लगी। नीचे से सुलेमान की हँसने की भनक सुनाई देने लगी। हम सब मुख्य दरवाजे से बाहर निकलने के लिए सिलाई मशीन, अलमारी हटाने लगे। वही तुरंत सीडीओ पर कोई धड़ धड़ धड़ चोर जैसे चढ रहे हो ऐसा लगने लगा। 'पहले इसको, फिर उसको, फिर सब को मार डालो' ऐसी सुलेमान की आवाज सुनाई देने लगी। हम सब घर के बीचोबीज ही फँस गए। एक तरफ आग और दूसरी तरफ कोमवाद की आग। जो हमें जीते जी और वह भी किसी गलती के बिना जलाने के लिए तैयार थी। किसी के भी पास हिम्मत या आश्वासन के शब्द नहीं थे। अंतिम बार सब एक दूसरे को देख रहे हो उस प्रकार एक दूसरे की तरफ देखने लगे। उसी समय पुलिस के गाड़ी का सायरन सुनाई दिया और फिर गोलियाँ चलने की आवाज सुनाई दी। हमारी जान में जान आई। थोड़ी हिम्मत मिली और पुनः आशा का संचार हुआ। पुलिस और लश्कर के जवानों ने सबको बिखेर दिया और कुछ लोगों को गाड़ी में बिठाकर अपने साथ ले गए। सुलेमान पकड़ा गया ऐसा समाचार मिलने के बाद हमें काफी राहत मिली। मौत जाने मुझे छू कर चली गई हो ऐसा एहसास हुआ और धीरे-धीरे सभी तूफान खतम हुए। ककर्फ्यू एकदम उठ गया पर पीकॉक फ्लैट धीरे-धीरे सुलेमान, रहीमखान, करीमखान आदि के हवाले हो गया था।
उस अगनशीशे की आग तो सिमट गई लेकिन मेरे मन में वह आग ज्यादा बढ़ती गई। विद्यालय, कॉलेज, बाग, बसों के रास्ते में उस समुदाय के लोगों को देखते ही वह डरावना दृश्य फिर ताजा हो जाता और धीरे-धीरे वह व्यक्ति सुलेमान जैसा लगने लगता था। समय बीतने लगा। जीवन की घटमाला मैं बीच-बीच में उनकी तरफ से अच्छे अनुभव भी बेशक होते रहते परंतु अंत में तो सुलेमान ही मेरे मन पर हावी हो जाता था और मुझे और ज्यादा कट्टर बना देता था।
धीरे-धीरे जब सलमानने सुई खींची तो मैं अचानक से जग गया। आंखें खोल कर देखा तो सलमान हँसते, मेरे माथे पर हाथ सहलाते सहलाते बोला, 'दर्द तो नहीं हुआ न? अब बोतल की जरूरत नहीं है, आप ठीक हो गए हैं, आज साहब आपको छुट्टी...' मेरे सामने सलमान और सुलेमान के चित्र खड़े होने लगे। एक तरफ मुझे जिंदा रखने के लिए प्रयत्न करता सलमान सूई की नोंक भी न लग जाए इस बात का ध्यान रख रहा था और दूसरी तरफ मुझे जीते जी बकरे की तरह हलाल करने के लिए हाथ में छुरा लेकर दौड़ता सुलेमान। दोनों का गोत्र एक ही फिर भी इतनी दूरी! मेरी दोनों आँखों मे से आँसू बहने लगे, जिसमें से एक सलमान के स्नेह के और दूसरे सुलेमान के भय के लिए थे। वे दोनों एक दूसरे से मिलते जुलते फिर भी एक दूसरे से खिलाफ थे।
डॉक्टर जैन का स्वास्थ्य प्रमाणपत्र लेकर अंत में मैं अपनी शिक्षक की नौकरी पर फिरसे उपस्थित हुआ। सभी छात्रों के चेहरे पर आनंद था। बीमारी के समय दौरान सहकर्मचारीओं से ज्यादा छात्रों की मेरी खबर पूछने की सूची लंबी थी। मैं वर्ग में छात्रों को पढाकर वर्ग से बाहर निकला। बाहर सिपाही हाजीमियां खड़ा था। वह मुझे कुछ कहना चाहता हो ऐसा लगने से मैं वहाँ खड़ा रहा। उसने आँखे नीचे की और फिर बोला 'सर! वैसे तो मैं मुसलमान, लेकिन कभी रोजा नहीं किया, कर भी नहीं सकता, लेकिन आपकी बीमारी के समाचार सुनकर इस बार रमजान में रोजा रखने की मन्नत आपके लिए मानी हैं, खुदा ने आप को...' हाजीमियां के इन शब्दों ने मुझे पूरा हिला दिया और उसके बाद मुझे पूरा पिघला दिया।
देखते ही देखते रमजान शुरू हुआ। मुझे सिपाही हाजीमियां याद आए। उसकी पढ़ाई भी अब तो पूरी हो चुकी थी। उसके मित्रों से उसका पता पूछकर मैं उसकी खबर पूछने उस पते पर पहुंचा। मुझे अपने मोहल्ले में देख कर वो खुशी से फूला नहीं समाया। मुझे अपने घर ले गया। मुझे खुरसी दी और अपने पूरे परिवार से परिचय भी कराया। 'यह मेरे चाचाजान, अम्मीजान, भाईजान...' मैं सब की तरफ देखकर उन्हें वंदन करता, वे सभी दोगुने उत्साह के साथ मुझे वंदन करते थे। मुझे तुरंत सलमान का स्मरण हुआ। सलमान की बुरी यादें मेरे मन में धुंधली होते होते दूर होने लगी। फिर मैं उसके परिवार और उसके आग्रह के कारन समग्र रमजान में उसके घर गया। उसका पूरा मोहल्ला और उसका पूरा परिवार मुझे अच्छा लगने लगा। उसके परिवार और मोहल्ले के साथ मुझे अपनापन सा लगने लगा। मंदिर-मस्जिद, ईश्वर-अल्लाह सब एक ही लगने लगे। अंतिम रोजा के दिन में फिर उसके घर पहुंचा, वहाँ जाकर देखा तो सिपाह हाजीमियां बहुत ज्यादा बीमार पड़ा हुआ था। घर में सभी चिंतित थे। रोजा तोड़ा नहीं जा सकता था। उसकी अम्मीजान के कहने के मुताबिक वह करीब पिछले सप्ताह से बीमार था। 'मुझे लगा कि मुझे जीवनदान दिलाने के लिए कही इसे कुछ...' 'नहीं नहीं, मेरा राम इसे कुछ भी...' मैंने उसका सर अपनी गोद में लिया। रमजान का आज अंतिम दिन और अंतिम घंटा बाकी था। वह दुर्बल होने के बावजूद भी मेरे सामने देख कर हँसता और मुझे जाने खुद ठीक है यह दिखाकर हिम्मत देने का प्रयत्न करता था। वही पास ही की मस्जिद में से आवाज सुनाई दी। 'इफ्तार करने का वक्त हो गया है' और हम सब खुश हो गए। उसकी अम्मीजान ने मुझे पीने के लिए कब का शरबत दिया हुआ था वो मेरे हाथ में ही था। वह गिलास मैंने सिपाही हाजीमियां को बिठाकर उसके होठों पर लगाया और पीते-पीते उसकी आँखों में से आँसू की धारा बहने लगी। साथ ही साथ उसके परिवार वालों की आँखों में से भी आँसुओं की धारा बहने लगी। मैंने कब से अथाकप्रयत्न से रोक कर रखे हुए मेरे आँसुओं के बंध अंत में टूट ही गए और फिर मेरे बाद बाकी सबके आँसूओं के बंधन भी टूट गए। मैं बार-बार उसकी आँखों में से आँसू पौछता था, किन्तु वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। तब मुझे लगा, सिपाही हाजीमियां के आँसू सालों पहले सुलेमान के जलाए हुए उस अगनशीशे की आग को हमेशा के लिए बुझा रहे थे।
('કાકડો' વાર્તાસંગ્રહ, મૂળ લેખક- ડૉ. ભરત સોલંકી, પ્રણવ પ્રકાશન અમદાવાદ, પ્રથમ આવૃત્તિ ૨૦૧૭, મૂલ્ય- ૧૦૦ રુપિયા)