जनजाति लोकसाहित्य परंपरागत लोकसंस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । जनजाति लोकसाहित्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी जनसमूह के बीच प्रकृति की गोद में जहाँ लोक-जीवन है, लोक-संस्कृति है, वहाँ सहज रूप में पनपता रहा है । जनजाति लोकसाहित्य जीवनचक्र, ऋतुचक्र एवं उत्सवचक्र से जड़ा हुआ आयना है जिनमें वे गाते-नाचते रहे हैं, रोते-हँसते रहे हैं और उनकी यह अभिव्यक्ति लोकभाषा के माध्यम से लोकसाहित्य में अभिव्यक्त होती रही है ।
गुजरात में करीब २६ जनजाति समुदाय आदिकाल से बसते आयें हैं । गुजरात के दक्षिण क्षेत्र की बात की जाएँ तो भरूच, नर्मदा, सुरत, तापी, नवसारी, बलसाड एवं डांग जिले को ‘दक्षिण गुजरात’ कहा जाता है । दक्षिण गुजरात में बसने वाले जनजाति समुदाय में चौधरी, गामीत, वसावा, धोडिया, कुंकणा, वारली इत्यादि बहूल समुदायों का समावेश होता है । जनगणना २०११ के मुताबिक इन समुदायों की कुल जनसंख्या २२ लाख से ज्यादा है । गुजरात के दक्षिण-पूर्वी भौगोलिक प्रदेश में पहाड, वन-जंगल, नदी-झरना, हिंसक-अहिंसक पशु-पक्षियों के सानिध्य में बसे भिन्न-भिन्न जनजाति समुदाय के लोग एक-दूसरे के साथ मिलझूलकर रहते हुएँ भी अपने-अपने समुदायिक लोकजीवन में भिन्नता दिखाई देती है । दक्षिण गुजरात की जनजाति समुदायों की अपनी-अपनी मातृभाषा है जो हर समुदाय के नामकरण-संज्ञा की विशिष्ट पहचान बनी हुई है । अपनी इसी नीजि मातृभाषा के तौर पर इन समुदायों का नामकरण हुआ होगा ऐसा कहा जा सकता है । दक्षिण गुजरात में बसने वाले हर जनजाति समुदाय का लोक-साहित्य एवं लोक-संस्कृति स्पष्टतः भिन्न है । फिर भी कहीं न कहीं एक जैसा दिखाई देता है क्योंकि इन समुदायों की लोक परंपराएँ प्रवाही है । जो नदी की तरह बहती रहती है और एक-दूसरें समुदाय में सहज स्वीकार कर लेना, उसमें मिल जाना, परिवर्तन होना और आगे के बहाव की ओर गतिमय रहना है । इस पाठांतर के प्रक्रियाँ में लोक-साहित्य ही नहीं परंतु लोक-संस्कृति का भी समावेश हो जाता है । यहाँ की जनजाति समुदायों की मातृभाषाओं का शब्दभांडार छोटा है फिर भी सटिक एवं जीवनयापन में परिपूर्ण है । उनमें एकरूप शब्दों की जरूरत न के बराबर है । सूर्य को सूर्य ही, चांद को चांद ही, आकाश को आकाश ही कहा जाता है । साथ ही इन मातृभाषाओं की अपनी-अपनी उच्चार, व्याकरण विशेषताएँ है । मूलतः ये जनजाति मातृभाषाएँ परंपरागत लोक-साहित्य की समृद्ध परंपराओं के साथ आगे बढ़ती रही है ।
जनजाति लोक-साहित्य लोगों के परंपरागत जीवन के साथ सीधा सम्बन्ध रखता है जो लोगों की रोजबरोज की दिनचर्या में सहज रूप से जुड़ा हुआ है । इस बात को उजागर करते हुएँ आदिवासी लोक-साहित्य संशोधक डॉ. विक्रम चौधरी लिखते हैं, “आदिकाल से जंगल और पर्वतों के बीच बसते मेरे सगेजनों के मुख से मौखिक परंपरा का ज्ञान, लोक परंपरा, लोकजीवन का अनुभव, लोककला की भव्यता, लोक मान्यताओं में कल्पना का सौंदर्य, वनऔषधि का मूल्य, प्रकृति के भव्यता का ज्ञान हमें जाना एवं अनुभूत किया है । प्राणी, पक्षी, जीवजंतु, जंगल, पहाड़, नदी, सूर्य-चंद्र, तारा इत्यादि के सानिध्य और सह अस्तित्व का आनंद हमनें लिया है । साथ ही पहाड़, वृक्ष, नदी, देव, कृषि, पशु-पक्षी, उत्सव, जन्म, प्रेम, शादी, मृत्यु के गीत, कथा, वार्ता, प्रसंगकथा, इतिहास गाथा, पहेलियाँ, कहावतें, मंत्रो, लोक संगीत आदिकाल से परंपरा के रूप में लोक मुख से हमनें सूनी है ।”१ जनजाति समुदायों में प्राचीन समय से लोककथा, लोकवार्ता, लोकगीत, लोकनाट्य, लोकोक्तियाँ, पहेलियाँ, मंत्रों इत्यादि प्रकारों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी पूर्खो से मिला हुआ लोक-साहित्य है । यहाँ हम 'लोकोक्ति' के बारें में जानेंगे ।
लोक में प्रचलित उक्ति या कथन यानि 'लोकोक्ति' । लोकोक्ति शब्द 'लोक' एवं 'उक्ति' शब्दों से मिलकर बना है । सामान्य अर्थ में लोकोक्ति को 'कहावतें' भी कहा जाता है । जन सामान्य में अधिकांश 'कहावतें' शब्द ही प्रचलित है । दक्षिण गुजरात में बसने वाले जनजाति समुदायों की मातृभाषा में लोकोक्ति को ‘केवात’ कहा जाता है ।
वृहद् हिंदी कोश में लोकोक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-
'विभिन्न प्रकार के अनुभवों, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं कथाओं, प्राकृतिक नियमों और लोक विश्वासों आदि पर आधारित चुटीली, सारगर्भित, संक्षिप्त, लोकप्रचलित ऐसी उक्तियों को लोकोक्ति कहते हैं, जिनका प्रयोग किसी बात की पुष्टि, विरोध, सीख तथा भविष्य-कथन आदि के लिए किया जाता है ।'
लोकोक्ति अपने में पूर्ण होने के साथ-साथ संक्षिप्त, सारगर्भित होती है । सजीवता लोकोक्ति का प्रधान गुण है । ये भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि करती है । लिंग, वचन, काल आदि का प्रभाव लोकोक्ति पर नहीं पड़ता । लोकोक्तियाँ जीवन के किसी-न-किसी अनुभवों पर आधारित सत्य को उद्घाटित करती है । सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों से जुड़े होने के कारण अधिकांश लोकोक्तियाँ लोकप्रिय होती है ।
स्थान, जाति, प्रकृति, कृषि, संस्कृत, पशु-पक्षी, रीति-नीति, लोक व्यवहार, खानपान, पहनवा, लोक मान्यता, विपत्ति, भाग्य-दुर्भाग्य, आलस्य, असमानता, न्याय-अन्याय, आडम्बर, निर्धनता, लालच, शरीर, चरित्र, व्यंग्य, शिक्षा, बोध, इत्यादि सम्बन्धी लोकोक्तियाँ जनजाति समुदायों में प्रचलित है । अब हम दक्षिण गुजरात में बसने वाले चौधरी, गामीत, वसावा, धोडिया, कुंकणा एवं वारली जनजाति समुदायों में प्रचलित कुछ लोकोक्तियाँ देखेंगे ।
चौधरी समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. ओजडा पासाल ओहाड ने आतो मरी गो ।
हिन्दी रूप : घर के पीछे औषधियाँ और पिताजी का मर जाना । कभी-कभी कुछ चीजें अपने आसपास हो किन्तु उसका ज्ञान न होने से हमें भारी नुकसानी उठानी पड़ती तब ऐसी कहावतें कही जाती है ।
२. खाटअ फाजअ ने वानाय डाल चदरा नोकाहाय हेदवाणो ताल ।
हिन्दी रूप : खट भाजी और सेम की दाल चौधरी लोगों का देखों ताल । चौधरी जनजातिय लोगों का खाना सादा, सरल है फिर भी अधिक पोषकतत्त्व एवं स्वादिष्ट होता है । जिससे उनकी सेहद अच्छी रहती है । फिर अच्छा खाना खाएँ तो संगीत - नृत्य में माहीर रहेंगे ही । चौधरी जनजातिय समुदाय परंपराओं के साथ सहजरूप से जीवनयापन करते आयें है उसका चित्रण भी इस लोकोक्ति में दिखाई देता है ।
३. डोवळा वगार मांडवो हुनो ।
हिन्दी रूप : डोवळा (लोकवाद्य) के बिना मंडप सूना । आवश्यक वस्तु के बिना कार्य पूरा न होना । ‘डोवळु’ चौधरी जनजाति का मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध लोकवाद्य है जिसके बिना आनंद-उल्लास प्रसंग अधूरा है ।
४. गडाहा वगार गाडलअ नी वले ।
हिन्दी रूप : बुजुर्गो के बिना गाड़ी नहीं घुमती । कुछ कार्य बुजुर्गो की सलाह-मसवरा या मोजूदगी के बिना पूरा नहीं होता । नयी पीढ़ी को बुजुर्गो की सलाह लेकर चलने से कोई भी कार्य असफल नहीं हो सकता । बुजुर्गो के पास अपने जीवन के अनुभवजन्य ज्ञान का अद्भूत खजाना होता है । नयी पीढी को उनसे, बहुत कुछ सिखते रहना चाहिए । इसी बात का चित्रण इस लोकोक्ति में दिखाई देता है ।
५. खावाणअ खाय्न फयणो/फयणी का गुं खाय्न ।
हिन्दी रूप : खाना खा कर पढ़ाई की या मल(गू) खा कर । पढ़े, लिखे को भी गुणवान सदाचारी एवं संस्कारी होना जरूरी है । इस बात को रेखांकित करती यह लोकोक्ति है ।
६. नकटाणे नाज नी ने बोळकाय खाज नी ।
हिन्दी रूप : बेशर्म को शर्म नहीं और गंजे को खुजली नहीं । जिसकी कोई इज्जत न हो वह भूरे कार्य करने में कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं करता ।
गामीत समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. ठगाल बा ठग मीळीयों, बाडांल बा बांड ।
हिन्दी रूप : जूठ को जूठ मिलना और चोर को चोर । जिसकी जैसी प्रकृति, उसकी ऐसे लोगों से ही मित्रता होती है ।
२. आळही थेअये बाअवामांय उकडो ।
हिन्दी रूप : आलसी स्त्री के आंगन में कुड़ा । कभी-कभी स्त्री घर को साफ़सुधरा न रखे तब ऐसी लोकोक्ति जनजातिय समुदाय में कही जाती है ।
३. आथे कअयने पागामांय कुराडी ठोकी ।
हिन्दी रूप : अपने ही हाथों से अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारना । अपनी हानी या नुकसानी होने की पूरी संभावना हो फिर भी कार्य करना ।
४. काम ताआंउ काकी ने पासे देय आकी ।
हिन्दी रूप : काम होगा तब तक काकी और फिर भगा देना । स्वार्थ पूरे होते ही सम्बन्ध न रखने वृति ।
५. गोद खायें गामतड़ें एन चाटे चोदरें ।
हिन्दी रूप : मार खाने वाले गामीत और लालची चौधरी(खाने के अर्थ में) । यह लोकोक्ति गामीत और चौधरी समुदाय के कुछ लोगों के स्वभाव को उजागर करती है । जो किसी तीसरें समुदाय के लोगों के द्वारा व्यंग्य में कही जाती है । एक वक्त था जब शादी के प्रसंग में अधिकांश देखने को मिलता था कि रात को नाचते हुए झगडें हो जाते थे तब गामीत लोगों की पिटाई हो जाती थी । तो दूसरी ओर शादी के प्रसंग चौधरी लोग खाना खाने में लालायित रहते थे । इसी बात को उजागर करने ऐसी कहावतें कही जाती है ।
६. आखे कानामांय एन जाय रानामांय ।
हिन्दी रूप : कहे कान में और जाएँ खेत में । कथनी औंर करनी में फर्क हो तब ऐसी कहावतें कही जाती है ।
वसावा समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. वागार केअनुंउ पेन गुंदायां नांय देवनुं ।
हिन्दी रुप : बघार करना किन्तु महक फैलने न देना । कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यो ऐसे होते हैं जिसकी भनक किसी औंर को न होने देने में ही अपनी भलाई है ।
२. जागो देय, तीयाल दगो देय ।
हिन्दी रूप : जगह दे, उसीको धोखा देना । स्वार्थी मनुष्य किसी के साथ नहीं होते, मतलब सिद्ध होते ही चल देते हैं । कृतघ्न के साथ नेकी व्यर्थ ।
३. रूप हारंअ पेन काम कालंअ ।
हिन्दी रूप : रूप अच्छा किन्तु काम भूरा । व्यक्ति का रूप अच्छा होने का मतलब यह नहीं कि उनके कार्य एवं चालचलान अच्छे ही हो । सद्गुणों के बिना सुन्दरता अभिशाप हैं । कोई युवती बहुत सुन्दर हो परंतु उनके चालचलान अच्छे न हो तब यह लोकोक्ति कही जाती है ।
४. नाचता नांय आळवे ने टोनगा वाक काडे ।
हिन्दी रूप : नाचना आएँ नहीं और ‘डोल’(लोकवाद्य) को कंसूर ठहराना । काम न आने पर वस्तु में कमी या गलत कारण बताना ।
५. आबो सोळे पेन पाप नांय सोडे ।
हिन्दी रूप : बाप छोडेगा किन्तु पाप नहीं छोडेगा । कर्म का फल मिले बिना नहीं रहता । भूरे कर्म करने पर अपने लोग तो माफ कर देंगे किन्तु कुदरत के न्याय में कोई बच नहीं पाता ।
६. याहकी नाचावे, तेहेकी पोयरी नाचे ।
हिन्दी रूप : माँ नचाएँ वैसे बेटी नाचे । अपने आसपास के समुदाय में देखा जाता है कि माँ जैसा कहे, बेटी वैसा करती है तब यह लोकोक्ति कही जाती है ।
धोडिया समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. वरहे मघा तो घरमां बहीन हगा ।
हिन्दी रूप : बरसेगा मघा(नक्षत्र) तो घरमें बैठकर मल त्यागना । कभी कभी कुदरती आपदाओं को सह लेने में ही अच्छा । क्योंकि कुदरत के आगे किसी का चला नहीं है ।
२. बल लेव्नो तो आंकीने, डोबी लेव्नी तो दोइने ।
हिन्दी रूप : बैल खरिदना हो तो चलाकर, भेंस खरिदनी हो तो दोहकर । कुछ वस्तु खरीदना हो तो उपयोग के तहत उसे तराश लेना या जांच कर लेना जरूरी ।
३. खांधे झुहरा ने खेतार फिरी वळ्नो ।
हिन्दी रूप : कंधे पै धुरा औंर पूरा खेत घूम लिया । वस्तु अपने पास होते हुए भी दूर-दूर ढूँढ़ने जाना ।
४. काम करे जगलो ने मार खाय भगलो
हिन्दी रूप : काम करे एक व्यक्ति(जगलो) औंर मार खायें दूसरा व्यक्ति (भगलो) । कार्य कोई औंर करे, भूगतना किसी औंर को हो तब ऐसी कहावतें कही जाती है ।
५. गांवाये मुंये गयळां बंधाय ?
हिन्दी रूप : गाँव के मुख(प्रवेशद्वार) में चलनी(छलनी) बाँध सकते हो ? हमारे बस की बात न हो वैसे कार्य नहीं करने में ही हमारी भलाई है, जिससे व्यर्थ समय गवाने की नौबत न आयें ।
६. राजा जोहा बाहर फिरे घरामां आल्लां कुस्ती करे ।
हिन्दी रूप : राजा जैसा बाहर घुमता है अपितु घर में तो बर्तन झगड़ते हैं । जब घर में खाने की कमी हो और बाहर राजा जैसा दिखावा करे, तब ऐसा कहा जाता है ।
कुंकणा समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. आइसने पोटमांहुन कुनी, सीकी नीहि ये ।
हिन्दी रूप : माँ की कोख़ से कोई सीखकर आता नहीं । व्यक्ति जन्म से सबकुछ सीखकर नहीं आता । कुछ अनुभव जन्य ज्ञान जीवन यापन के बाद ही प्राप्त होता है ।
२. इगला खाल त कोळसा वकील ।
हिन्दी रूप : कोयला खाओगे तो कोयलें ही कै करोगे । जैसा कर्म करोगे वैसा फल पाओगे ।
३. आनी मीळुला, हन बीसाडी दळुला ।
हिन्दी रूप: आयी मिलने और बैठा दिया चक्की पीसने। आये हुए महेमान से काम करने को कहा जाएँ तब यह लोकोक्तियाँ प्रयुक्त होती है। घर आये महेमान को अच्छी खातीरदारी करनी चाहिए, न कि काम करने को बिठाना।
४. जीसा अन्न तीसा ढेंकॉर ।
हिन्दी रूप : जैसा अन्न वैसा डकार । इन्सान की वृति जैसी होती है वैसे ही उनके विचार होते हैं । इस बात को रेखांकित करती यह लोकोक्ति है ।
५. कुडु चीभडा पन काम लागअ ।
हिन्दी रूप : कड़वे आरियें भी काम आते । कुछ चीजे हमें नाहक़ लगे किन्तु वह कब काम आजायें उसका पता ही न चलता ।
६. माना माला ज भारी त् ती काम कीसाक करुं ॽ
हिन्दी रूप : अपने काम से मुक्ति न मिले तो दूसरे काम कैसे किये जाय ॽ बहुत सारे काम करने में कभी-कभी एक कार्य भी ठीक से न हो तब यह लोकोक्ति कही जाती है ।
वारली समुदाय की लोकोक्तियाँ
१. चोर टाकुन मोर मारला ।
हिन्दी रूप : चोर छोडकर, मोर मोरना । गुनाह कोई औंर करे सजा किसी औंर को ।
२. जहळा गाजे, तळहा वरस नाहीं या गाजअ तोढा वरस नाही ।
हिन्दी रूप : जो गरजते हैं वे बरसते नहीं । बडी-बडी बातें करने वाले ज्यादातर कम ही काम करते हैं । या शोरमचाने वाले कुछ करते नहीं ।
३. दोबळअ सींग, दोबळअ वजन ।
हिन्दी रूप : भेंस का सींग भेंस को भारी । अपने कुकर्म से अपनी ही हानी होती है । इन्सान में रहा अभिमान या एब का फल उसे भूगतना ही पडता है ।
४. सेंबर दिन खादेल ते एक दिस नीगअ ।
हिन्दी रूप : सो दिन का खाया एक दिन निकलता है । हराम का खाया हुआ बहुत ज्यादा टीकता नहीं । यह लोकोक्ति इस बात को रेखांकित करती है ।
५. मानत त देव, नाहीं त दगळ ।
हिन्दी रूप : मानेंगे तो देव, नहीं तो पथ्थर । जीवन में आस्था एवं विश्वास फलदायक होता है ।
६. कुतरे ची सेमटी कइ पण नीत नाहीं होइ ।
हिन्दी रूप : कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती । मूल स्वभाव कभी बदलता नहीं है ।
७. जो खन् तो ज खड ।
हिन्दी रूप : खड्डा खोदे, वही गिरे । इन्सान भूरे कार्य करेगा तो एक दिन स्वयं उसमें फस जायेगा । गलत कर्म का फल एक दिन भूगतना ही पडता है ।
तत्वत: दक्षिण गुजरात में बसने वाले जनजातिय समुदायों की मातृभाषा में प्रचलित लोकोक्तियाँ मानवजाति के अनुभवों की सहज, सुंदर अभिव्यक्ति है । जो गागर में सागर जैसा ज्ञान-भण्डार लिए चलती फिरती पाठशाला है । दैनिक जीवन में हर समस्या पर विचार करने की जितनी बड़ी दलील कहावतें या लोकोक्तियाँ देती है, वैसी दूसरी कोई नहीं है । किसी भी भाषा को समृद्ध करने एवं प्राणवंत बनाने में लोकोक्ति का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । साथ ही सामाजिक शिक्षा की दृष्टि से लोकोक्ति की उपयोगिता सर्वविदित है ।
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