अगर देखा जाए तो प्रत्येक युग में लिखा गया साहित्य अपने युगीन परिवेश का ना केवल सजीव चित्र उकेरता है, अपितु एक सच्चा दस्तावेज भी होता है। इस दृष्टि से तुलसी, कबीर, भारतेंदु आदि द्वारा लिखा गया साहित्य भी इसी कोटि में आता है। परंतु आज समकालीन साहित्य की अवधारणाओं को एक साहित्यिक वाद के रूप में देखा जा रहा है।जिसकी चिंतन धारा का संबंध सातवें और आठवें दशक से संबंधित है। स्वतंत्रता के बाद साहित्य सृजन के कई नए आयाम विकसित हुए थे। समकालीन साहित्य उनमें से एक है। ‘समकालीन’ शब्द और अर्थ पर अगर विचार किया जाए तो ‘समकालीन’ शब्द ‘कालीन’ विशेषण में ‘सम’ उपसर्ग जोड़ने से बना है। जिसमें ‘कालीन’ का अर्थ है-‘ काल में’ या ‘समय में’। वहीं दूसरी ओर ‘सम’ उपसर्ग का प्रयोग प्रायः ‘एक ही’ या ‘एक साथ’ के अर्थ में किया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि ‘समकालीन’ शब्द एक ही समय में होने वाले या रहने वाले का बोध कराता है। अंग्रेजी भाषा ‘कंटेंपरेरी’ शब्द के पर्याय के रूप में ‘समकालीन’ को देखा जाता है। समकालीन शब्द के विषय में डॉक्टर हुक्मचंद राजपाल कहते हैं कि “मूलभूत चेतना अथवा समकालीन बोध और प्रारंभ तथा सीमा निर्धारण के संबंध में मतभेद है समकालीन का संबंध काल विशेष के व्यक्ति सामाजिक राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के वर्तमान से रहा है। इसे इसलिए ‘कंटेम्पररी’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त समझा जाता है।” इस प्रकार से देखा जाए तो अपने समय सापेक्ष की महत्वपूर्ण समस्याओं,सामाजिक संदर्भों, दबावों आदि के साथ उलझना ही समकालीनता कही जा सकती है।
समकालीन साहित्य में स्त्री की ओर ध्यान इंगित करने से पहले समकालीन पूर्व स्त्रियों की स्थिति पर प्रकाश डालना आवश्यक है। पुनर्जागरण काल की अगर बात की जाए तो भारतीय समाज के जिस पक्ष को उसने सबसे अधिक झकझोरा था वह था, स्त्री विषयक सोच, दृष्टिकोण तथा स्त्री के प्रति उसका व्यवहार। ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ पुनर्जागरण की चेतना से युक्त उपन्यास था। किंतु इस उपन्यास के स्त्री पात्रों की सोच का दायरा लगभग परिवार व सामाजिक बंधनों को घेरे हुआ था। जेठानी का चरित्र उस समय की भारतीय ग्रामीण स्त्री का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं दूसरी और देवरानी के द्वारा गौरीदत्त ने उस समय की स्त्रियों के समक्ष शिक्षा के महत्व को बतलाया इसी कड़ी में या यह कहा जाए इसी क्रम में ‘वामा शिक्षक’ उपन्यास प्रकाश में आया जो कि मुंशी ईश्वरी प्रसाद तथा मुंशी कल्याण राय की देन है। ‘वामा शिक्षक’ में स्त्री पात्रों की ओर ध्यान दिया जाए तो यही समझ में आएगा कि, किस प्रकार की शिक्षा के द्वारा स्त्री एक सफल गृहिणी बन पाएगी। इस संदर्भ में गोपाल राय जी का कहना है कि “कथा में स्त्रियों के स्वावलंबी बनने पर भी बहुत जोर दिया गया है। कथा की एक स्त्री पात्र विपत्ति पड़ने पर टोपियां बनाकर और कलाबत्तू का काम करके परिवार का खर्च चलाने में सफल होती है”। ‘वामा शिक्षक’ उपन्यास में स्त्री को आदर्श गृहिणी तथा स्वावलंबी बनाने के उद्देश्य को लेकर शिक्षा के आईने में उसे देखने का प्रयास किया गया है। इसके उपरांत सन् 1877 में श्रद्धा राम फिल्लौरी रचित ‘भाग्यवती’ उपन्यास पाठक वर्ग के समक्ष आया जिसमें भाग्यवती ने एक भारतीय आदर्श नारी की छवि को प्रस्तुत किया। कुल मिलाकर इस दौर के उपन्यासों में स्त्री पात्र अपने सामाजिक परिवेश की कुरीतियों जैसे कि अंधविश्वास, बाल विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा जैसी समस्याओं से दो-चार हो रहे थे। वहीं दूसरी ओर स्त्री को आदर्श नारी के लिबास से ढ़कने का प्रयास इस दौर के कथाकारों,रचनाकारों ने किया। इस युग में जहां आदर्श स्त्री बनने की ओर उन्मुख थी तो वहीं दूसरी ओर शिक्षा के अभाव के कारण उसे अपनी अस्मिता का बोध जैसी जागरूकता पैदा ही नहीं हुई थी।
उपन्यासिक दौर में आदर्श व नैतिकता को पीछे छोड़ प्रेमचंद ‘अबला’ तथा ‘सबला’ दोनों प्रकार की नारी के रूप दिखाई पड़ जाएंगे। उदाहरण के लिए ‘गबन’ उपन्यास की ‘जालपा’ जहां एक और अपने पति को परमेश्वर मानती है तो दूसरी ओर वह क्रांतिकारी भी है। प्रेमचंद युगीन समाज में स्त्री अभी तक पुरुष के अधीन ही रही लेकिन, स्वतंत्रता काल तक आते-आते स्त्री के रूप में परिवर्तन आया व उसके नए रूप दृष्टिगोचर होने लगे। अब उसे अपने अस्तित्व की पहचान होने लगी जिससे कि उसे उसकी अस्मिता की चिंता सताने लगी। इस युग में विधवा विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह,अनमेल विवाह आदि जैसी समस्याओं से स्त्री को छुटकारा मिलने लगा था। जोकि प्रेमचंद युग में स्त्री विषयक समस्याओं के निराकरण के सतत् प्रयास का नतीजा था। इस दौर में जहां स्त्री प्रगति के पथ पर अग्रसर होती है तो दूसरी और पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में भी आ जाती है। अब स्त्री-पुरुष संबंधों में नए दायरे तथा इन संबंधों की नई परिभाषाएं सामने आती है। जिसके मूल में स्वच्छंदता की प्रवृत्ति थी।
संयुक्त परिवार घटता जा रहा था। स्त्री शिक्षित बन चुकी थी। जिस कारण पुरुष पर से उसकी निर्भरता खत्म हो रही थी। जिस वजह से भी पुरुषों को देखने का नजरिया तथा उसके साथ संबंधों के प्रति बदलता दृष्टिकोण इस युग की स्त्री के रूप में देखा जा सकता था। इस युग के संदर्भ अथवा उपन्यास में स्त्री के संबंध के परिप्रेक्ष्य में जगदीश्वर चतुर्वेदी का कहना है कि “1950 के बाद जिन लेखकों ने मध्य वर्ग की स्त्री की अस्मिता का प्रश्न उठाया उनके लिए शोषण का केंद्र बिंदु अधिकतर वैवाहिक जीवन रहा। इसे तीन तरह से चित्रित किया गया [1]विवाहेतर प्रेम संबंधों का विचारशील और बेबाक चित्रण जिसका अंत अधिकतर त्रासद रहता है।.. [2]वैवाहिक जीवन की यंत्रणा और संत्रास का चित्र जिसमें फंसकर स्त्री की अस्मिता और प्रतिभा का नाश हो जाता है।..[3] स्त्री का विवाह से विमुख होना। ऐसा कर पाना विद्रोह का प्रतीक बन कर सामने आता है”। जगदीश्वर चतुर्वेदी का यह कथन स्त्री की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की दशा और दिशा को दर्शाता है। समकालीन परिवेश की अगर बात की जाए तो सातवें आठवें दशक के बाद स्त्री एक अलग ही सोच व दिशा का निर्माण करती दिखाई देती है। हालांकि सामाजिक सरोकारों तथा पितृसत्ता के वर्चस्व के कारण अपने व्यक्तित्व की परिणति में वह रुकावट भी महसूस करती है। आज स्त्री आर्थिक रूप से मजबूत है किंतु उसकी मजबूत स्थिति उसे परंपरागत स्त्री बनने से कहीं न कहीं रोकती है। जिस कारण पुरुष जो कि आज भी पितृसत्ता का राग अलापता है । ऐसे में स्त्री के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता। ऐसी स्थिति में अगर स्त्री समझौताहीन है, तो संबंधों में बिखराव लगभग तय है।
अनामिका के उपन्यास ‘तिनका तिनके पास’ की पात्र अवंतिका देवी कक्कड़ इसका सीधा उदाहरण है। अवंतिका उपन्यास की अन्य पात्र तारा से कहती है कि “ठीक-ठाक थी देखने में,बोल बाल भी ठीक लेती थी। धीरे-धीरे मेरी वकालत चल निकली तो इनका विषगमन और बड़ा- दांपत्य की दरार हर जगह दिखने लगी। फिर किसी के फटे में अपनी टांग अड़ा देने का अनुपम सुख लूटने लगे लोग। देखते-देखते मेरे कई हमदर्द बन गए। हर हमदर्द मेरे पति को जब मेरा प्रेमी ही दिखने लगा तो मेरे धीरज का बाद टूटना ही था”। प्रस्तुत कथन आज की स्त्री का वह यथार्थ है जो पारिवारिक संबंधों के पीछे की उन परतों को खोलता है, जिसे ज्यादातर स्त्री शुरुआती दौर में ही सहन कर जाती है या यह भी कह सकते हैं कि,अस्वावलम्बी या आर्थिक रूप से कमजोर स्त्री ऐसी प्रताड़नाओ को जीवन भर सहने के लिए विवश है। किंतु अवंतिका आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, इसलिए वह अपने पति को छोड़ने के उपरांत वापस नहीं जाती। उपन्यास की पात्र तारा अवंतिका देवी के परंपरागत स्वरूप को लेकर कहती है।
“शुरू में जब यह समर्पिता थी और एकनिष्ठ, उन्होंने बेवजह इन पर संदेह करके घर से निकाला, स्पंदन- समेत। बाद में जब यह प्रभावती हुई,कक्कड़ साहब को भाइयों ने बिजनेस में लूट कर सड़क पर खड़ा कर दिया और उन्हें दिल का दौरा पड़ा,ये अस्पताल से उठाकर इन्हें सीधा अपने सांसद बंगले पर ले आई”।
यहां अवंतिका मानवीयता के स्तर व भारतीय स्त्री की प्रशंसनीय भूमिका को निभाती हुई नजर आती है। एक स्त्री अपनी बौद्धिक क्षमताओं तथा आर्थिक रूप से मजबूत होने पर भी क्या क्या झेलती है, ‘तिनका तिनके पास’ उपन्यास की अवंतिका इसका एक सफल उदाहरण है ।ऐसा ही एक और उदाहरण पेश करता है। शरद सिंह का उपन्यास ‘कस्बाई सिमोन’ जिसकी नायिका है सुगंधा। सुगंधा एक ऐसी पात्र है जो उसके माता-पिता के कड़वे गृहस्थ जीवन के अनुभव के कारण जीवन में कभी भी विवाह न करने का फैसला करती है और इस फैसले में उसका साथ देता है। उसका प्रेमी रितिक। जिसके साथ लिव-इन में रहते हुए वह सामाजिक बंधनों के चलते कई घर बदलते हैं। परंतु पुरुष की जिस छवि का भय सुगंधाको हमेशा से रहता है,जिस कारण वह विवाह के बंधन में बंधने से सदा बचती रही थी,उस छवि को जब ऋतिक में देखती है तब वह अपने प्रेम और ऋतिक पर अपने विश्वास को खो देती है। उपन्यास में सुगंधा कहती है कि “हमने समाज की चिंता नहीं की थी आरंभ में, लेकिन अंत हुआ एकदम बासी और सामाजिक ढर्रे से ही। रितिक ने मुझे ‘रखैल’ कहा और उस पल सब कुछ भरभरा गया ध्वस्त हो गया यदि मैं विवाह किए बिना रितिक के साथ रह रही थी तो क्या उसने मुझे ‘रखा हुआ’ था। वह हमारी अंतिम बहस थी, अंतिम झगड़ा था”। यहाँ सुगंधा स्त्री के उस रूप का प्रतिनिधित्व करती है, जहां एक और समाज की बनी मर्यादाओं को सिरे से नकारती है। वहीं दूसरी ओर टूटती नहीं है, बल्कि जीवन की नई संभावनाओं की ओर रुख करती है । सुगंधा समकालीन स्त्री का वह रूप है जो आज वर्तमान में उपस्थित है।
सुगंधा विवाह नहीं करना चाहती जबकि विवाह नामक संस्था हमारे समाज का एक प्रमुख अंग है। इस संदर्भ में सीमा दीक्षित का कथन है-
“विवाह के बाद इस प्रकार की घटनाएं मित्र मंडली परिवार के किसी अन्य सदस्य के साथ हो जाती है तो आज की जागरूक महिला जो आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ है वह विवाह ही नहीं करना चाहती।”
सीमा दीक्षित के यह विचार न केवल सुगंधा के अनुभवों से मेल खाते हैं अपितु आर्थिक दृष्टि से पूर्ण स्त्री की दृढ़ता का परिचय कराते हैं जो कि समकालीन युग में स्त्री का बदलता रूप है। आज स्त्री बाजारवाद की चपेट में है, उसकी देह को मानो वह बाजारवाद की धरोहर मानकर चल रही है। ऐसी ही कल्याणी नाम की स्त्री पात्र हमें निर्मला भुराड़िया के उपन्यास ‘गुलाम मंडी’ में दिखाई पड़ती है। कल्याणी पेशे से अभिनेत्री व मॉडल है बहुत ही सुंदर काया की स्वामिनी कल्याणी अपने विवाह के बाद गर्भ धारण करने से केवल इसलिए मना कर देती है क्योंकि, मां बनने के उपरांत उसकी शारीरिक संरचना में बदलाव उसे स्वीकार्य नहीं होंगे। “गौतम बच्चा चाहता था, विशेष रूप से बेटी, मगर कल्याणी को डर था कि इससे उसके पेट पर सिलवटें आ जाएंगी।” इसके बाद कल्याणी एक बच्ची को गोद ले लेती है लेकिन स्वयं गर्भधारण नहीं करती। इस उपन्यास में स्त्री का बदलता रूप है, जो स्वयं को पितृसत्ता की चपेट से बचाती है। तस्लीमा नसरीन के उपन्यास ‘शोध’ की नायिका अपने पति के संबंध पर लांछन का बदला अपनी कोख़ पर अपने अधिकार को जता कर देती है। शादी के तुरंत बाद गर्भधारण करने की वजह से उसका पति उस पर शक की वजह से उसका गर्भ गिरा देता है। जबकि यह बच्चा उसके पति का ही होता है। दूसरी बार झुमुर जानबूझकर अपनी कोख में अपने पति हारून के बच्चे को नहीं आने देती बल्कि अपने कुछ दिन के प्रेमी अफज़ल के बच्चे को अपने गर्भ में धारण करती है। जिसके बारे में प्राय: हारून और अफज़ल दोनों ही अनभिज्ञ होते हैं और अंत में हारून, अफज़ल के बच्चे को अपना स्वयं का बच्चा समझ खुशी से पागल हो उठता है, जबकि झुमुर कहीं ना कहीं उससे अपने अपमान का बदला लेती है।उपन्यास में वह एक जगह सोचती है कि
“हारून पर क्या मुझे तरस खाना चाहिए ? मैं उसकी नींद-जगी, थकी थकी मगर खुश- खुश आंखों की तरफ देखते हुए सोचती रहती हूं। मुझे क्या पछतावा होना चाहिए? क्या मुझे उस से माफी मांगनी चाहिए -मुझे माफ कर दो, मुझसे गुनाह हो गया-? लेकिन,जिस गुनाह के लिए मैं माफी मांगने जाऊंगी उसकी सजा तो मुझे बहुत पहले ही मिल चुकी है। एक ही गुनाह के लिए मैं दो-दो बार सजा क्यों कबूल करूं?”
झुमुर जैसी स्त्री पात्र आज के इस युग में कई दशकों के बाद छलांग लगाते हैं। झुमुर ना केवल हारून के साथ अपने भविष्य को सुखी देखती है,इसलिए उसे इतने बड़े लांछन के बाद भी छोड़कर नहीं जाती, तथा दूसरी और हारून के सामाजिक व पारिवारिक दायरों से चुपचाप से बाहर निकल अपनी मानसिक तृष्णा तथा शारीरिक संतुष्टि के लिए अफजल को चुनती है। लेकिन अफजल के साथ नहीं जाती। झुमुर समकालीनता के इस दौर में स्त्री की एक नई छवि गड़ती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो देवरानी जेठानी की कहानी, वामा शिक्षक, भाग्यवती इन उपन्यासों में चित्रित स्त्री का समकालीन स्त्री तक का सफर बेहद संघर्षों से होकर यहां तक पहुंचा है। स्वयं को समाज के लिए तैयार करने वाली स्त्री तथा अपनी अस्मिता के साथ खड़ी स्थिति में फर्क करना कोई मुश्किल नहीं है। इस सामयिक युग की स्त्री सजग है, जागरूक है, स्वावलंबी है, सुधीर है तथा सबसे महत्वपूर्ण कि वह प्रश्न करती है। मौन नहीं है हालांकि वह भी आज भी पित्रसत्तात्मक व्यवस्था में जी रही है। किंतु आज उसे पितृसत्ता का बोध है,जो बरसों पहले नहीं था। इस पुरुष प्रधान संस्कृति से संघर्ष आज भी जारी है इस संदर्भ में प्रभा खेतान कहती है- “स्त्री ने स्वयं गुलाम रहना चाहती है और ना ही पुरुषों को गुलाम बनाना चाहती है, स्त्री चाहती है मानवीय अधिकार।” समकालीन परिवेश में समकालीन स्त्री का स्वरूप पहले की तुलना में बहुत बड़े बदलाव के रूप में हमारे सामने है।
संदर्भ